हिंदी ब्लॉगिंग पर 2 दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होने के लिए इलाहाबाद आया हूं। ब्लॉगिंग पर कुछ खट्टा-कुछ मीठा टाइप की चर्चा हुई। कुछ खुश हुए कुछ खुन्नसियाए। सबकी अपनी जायज वजह थी। लेकिन, हमको तो भई बड़ा मजा आया। अपने शहर में 2 दिन रहने का भी मौका मिला। और, शहर से कुछ संकेत भी मिले कि भई काफी कुछ बदल रहा है वैसे मेरे गांव की तरह कभी-कभी ठहराव का खतरा भी दिखता है।
इलाहाबाद दैनिक जागरण अखबार के पहले पेज पर खबर है- “वाह ताज नहीं अब बोलिए वाह संगम!”। वाह ताज तो दुनिया कह रही है खबर के जरिए समझने की कोशिश की वाह संगम क्यों। तो, पता चला कि घरेलू पर्यटकों की अगर बात करें तो, 2008 में दो करोड़ सैंतीस लाख से ज्यादा लोग संगम में एक डुबकी लगाने चले आए। बयासी हजा से ज्यादा विदेशी पर्यटकों को भी संगम का आकर्षण खींच लाया।
आगरा करीब साढ़े सात लाख विदेशी पर्यटकों के साथ विदेशियों का तो पसंदीदा अभी भी है लेकिन, देश से सिर्फ इकतीस लाख लोगों को ही ताज का आकर्षण खींच पाया। मथुरा 63 लाख से ज्यादा, अयोध्या 59 लाख से ज्यादा देसी पर्यटक पहुंचे। आगरा के साथ अगर इन स्थानों का टूरिस्ट मैप पर थोड़ा असर बढ़े तो, इस प्रदेश के लिए कुछ बेहतरी की उम्मीद हो सकती है।
जागरण में ही एक और खबर है कि “यहां से भी कटेगा टिकट टू बॉलीवुड”। खबर ये है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थिएटर का स्थाई सेंटर मंजूर हो गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इंदिरा गांधी सामाजिक विज्ञान संस्थान भवन में थिएटर एंड फिल्म इंस्टिट्यूट विभाग खुल रहा है। विश्वविद्यालय में अत्याधुनिक थिएटर सेंटर शुरू होगा और यहां से छात्रों को थिएटर में डिप्लोमा और डिग्री मिल सकेगी। विश्वविद्यालय के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे के निजी प्रयास से ये थिएटर यहां शुरू हो पा रहा है। गुलजार की इसमें अहम भूमिका होगी।
ये खबरें बदलाव का संकेत तो हैं ही मीडिया कितना आतुर होता है ऐसी खबरों के लिए ये भी दिखता है। दरअसल अगर अच्छी खबरें मिलती रहें और उन्हें पढ़ने सुनने का लोगों के पास समय हो तो, मीडिया अच्छी खबरें दिखाने से क्यों गुरेज करेगा। इस समय हिंदुस्तान अखबार उत्तर प्रदेश 10 साल बाद कैसे बेहतर हो सकता है। इसकी बहस चला रहा है। हिंदुस्तान समागम के नाम से हर दिन हिंदुस्तान अखबार के दफ्तरों में शहर के लोगों को बुलाकर उनसे इस पर चर्चा की जा रही है। ब्लॉगर सेमिनार के नाते इलाहाबाद में था इसी बहाने मुझे भी मित्रों ने इस परिचर्चा में बुला लिया। अच्छा पहलू ये था कि इस बहाने शहर के लोग बैठकर बेहतरी की चर्चा कर रहे थे। बुरा ये था कि चर्चा में राजनीति के भरोसे ही सारी समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे। खुद से निराश लोगों की जमात कितनी बड़ी हो गई है यहां इसका अंदाजा साफ लग रहा था। आगे के लिहाज से मेरे तैयार होने की बात से बूढ़े साहित्यकार टाइप के लोग इसलिए नाराज हो रहे थे। आगे की दुनिया कुछ लोगों की दुनिया है। नेट का नाम सुनकर वो बिदक रहे थे। वो 20 साल पुरानी चीजों को लेकर ही जी रहे थे।
कुल मिलाकर साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी होने की वजह से धीरे-धीरे ही बदलाव आ रहा है। और, हर चीज में थोड़ी बहुत मठाधीशी भी बचाए रखने की कोशिश जारी है। और, जो मठाधीश बन गए हैं वो, चाहते ही नहीं कि नई पीढ़ी उनसे आगे निकलकर कुछ सोच पाए। बुद्धिप्रधान समाज है ये अच्छाई है लेकिन, मुश्किल भी है किसी चीज पर इतने तर्क-कुतर्क शुरू हो जाते हैं कि बात ही आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन, नई पीढ़ी है तो, वो मान नहीं रही है। धकियाते, उल्टाते बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद से संकेत अच्छे लेकर लौट रहा हूं। हां, ये जरूर है कि एक जोर के धक्के की जरूरत है। और, जरा ये पुराने गुमानों को संग्रहालय में रख दें तो, बेहतरी पक्की है।
इलाहाबाद दैनिक जागरण अखबार के पहले पेज पर खबर है- “वाह ताज नहीं अब बोलिए वाह संगम!”। वाह ताज तो दुनिया कह रही है खबर के जरिए समझने की कोशिश की वाह संगम क्यों। तो, पता चला कि घरेलू पर्यटकों की अगर बात करें तो, 2008 में दो करोड़ सैंतीस लाख से ज्यादा लोग संगम में एक डुबकी लगाने चले आए। बयासी हजा से ज्यादा विदेशी पर्यटकों को भी संगम का आकर्षण खींच लाया।
आगरा करीब साढ़े सात लाख विदेशी पर्यटकों के साथ विदेशियों का तो पसंदीदा अभी भी है लेकिन, देश से सिर्फ इकतीस लाख लोगों को ही ताज का आकर्षण खींच पाया। मथुरा 63 लाख से ज्यादा, अयोध्या 59 लाख से ज्यादा देसी पर्यटक पहुंचे। आगरा के साथ अगर इन स्थानों का टूरिस्ट मैप पर थोड़ा असर बढ़े तो, इस प्रदेश के लिए कुछ बेहतरी की उम्मीद हो सकती है।
जागरण में ही एक और खबर है कि “यहां से भी कटेगा टिकट टू बॉलीवुड”। खबर ये है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थिएटर का स्थाई सेंटर मंजूर हो गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इंदिरा गांधी सामाजिक विज्ञान संस्थान भवन में थिएटर एंड फिल्म इंस्टिट्यूट विभाग खुल रहा है। विश्वविद्यालय में अत्याधुनिक थिएटर सेंटर शुरू होगा और यहां से छात्रों को थिएटर में डिप्लोमा और डिग्री मिल सकेगी। विश्वविद्यालय के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे के निजी प्रयास से ये थिएटर यहां शुरू हो पा रहा है। गुलजार की इसमें अहम भूमिका होगी।
ये खबरें बदलाव का संकेत तो हैं ही मीडिया कितना आतुर होता है ऐसी खबरों के लिए ये भी दिखता है। दरअसल अगर अच्छी खबरें मिलती रहें और उन्हें पढ़ने सुनने का लोगों के पास समय हो तो, मीडिया अच्छी खबरें दिखाने से क्यों गुरेज करेगा। इस समय हिंदुस्तान अखबार उत्तर प्रदेश 10 साल बाद कैसे बेहतर हो सकता है। इसकी बहस चला रहा है। हिंदुस्तान समागम के नाम से हर दिन हिंदुस्तान अखबार के दफ्तरों में शहर के लोगों को बुलाकर उनसे इस पर चर्चा की जा रही है। ब्लॉगर सेमिनार के नाते इलाहाबाद में था इसी बहाने मुझे भी मित्रों ने इस परिचर्चा में बुला लिया। अच्छा पहलू ये था कि इस बहाने शहर के लोग बैठकर बेहतरी की चर्चा कर रहे थे। बुरा ये था कि चर्चा में राजनीति के भरोसे ही सारी समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे। खुद से निराश लोगों की जमात कितनी बड़ी हो गई है यहां इसका अंदाजा साफ लग रहा था। आगे के लिहाज से मेरे तैयार होने की बात से बूढ़े साहित्यकार टाइप के लोग इसलिए नाराज हो रहे थे। आगे की दुनिया कुछ लोगों की दुनिया है। नेट का नाम सुनकर वो बिदक रहे थे। वो 20 साल पुरानी चीजों को लेकर ही जी रहे थे।
कुल मिलाकर साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी होने की वजह से धीरे-धीरे ही बदलाव आ रहा है। और, हर चीज में थोड़ी बहुत मठाधीशी भी बचाए रखने की कोशिश जारी है। और, जो मठाधीश बन गए हैं वो, चाहते ही नहीं कि नई पीढ़ी उनसे आगे निकलकर कुछ सोच पाए। बुद्धिप्रधान समाज है ये अच्छाई है लेकिन, मुश्किल भी है किसी चीज पर इतने तर्क-कुतर्क शुरू हो जाते हैं कि बात ही आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन, नई पीढ़ी है तो, वो मान नहीं रही है। धकियाते, उल्टाते बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद से संकेत अच्छे लेकर लौट रहा हूं। हां, ये जरूर है कि एक जोर के धक्के की जरूरत है। और, जरा ये पुराने गुमानों को संग्रहालय में रख दें तो, बेहतरी पक्की है।
हमें तो इंतजार है जब
ReplyDeleteबोला जाएगा
वाह ब्लॉग !
kyaa vaakii yahaan blogger jamaa they
ReplyDeletejo jamaa they unki pichhlae 5 saal me kitni post aayee haen
पूराने गुमानों को संग्रहालय में डाल देना बेहतरी की पहली शर्त है.
ReplyDeleteबेहतरी की बातें सुनकर अच्छा लगा । पुरानों के दिन तो वैसे भी लद चुके अब तो नयों को ही आगे आना चाहिये चाहे धकियाना ही क्यूं न पडे ।
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