Saturday, October 24, 2009

इलाहाबाद में हिंदी ब्लॉगिंग और पत्रकारिता पर चर्चा

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद की ओर से आयोजित राष्ट्रीय ब्लॉगर संगोष्ठी का पहला दिन कल बेहद शानदार रहा। देश भर के ब्लॉग लिक्खाड़ इस चर्चा में शामिल हुए। चर्चा के दौरान रवि रतलामी जी के सौजन्य से लगातार लाइव रिपोर्टिंग आप लोगों ने कल ज्यादा चित्रों के जरिए देखी। संजय तिवारी ने विस्फोट किया ब्लॉगरों के निशाने पर नामवर सिंह। उसके बाद विनीत ने विस्तार से एक रपट में पूरी चर्चा से आप लोगों को रूबरू कराया। उस चर्चा में मेरे विचार मैं विस्तार से यहां डाल रहा हूं। वैसे, जो वहां बोला वो तुरंत की स्थितियों के लिहाज से दिमाग में आई बात थी लेकिन, ज्यादातर इसी के इर्दगिर्द थी।

हिंदी पत्रकारिता विश्वसनीयता खोती जा रही है। कुछ इसके लिए टीवी की चमक दमक को दोष दिया जा रहा है। और, उसमें मिलने वाले पत्रकारों के पचाने लायक पैसे से ज्यादा पैसे मिलने को तो, कुछ TRP जैसा एक भयावह डर है जो, पत्रकारिता को अविश्वसनीय बना रहा है। लेकिन, सवाल ये है कि जब टीवी की चमक-दमक, पैसे या फिर TRP का दोष दिख रहा है तो, फिर अखबार-पत्रिका क्या कर रहे हैं।



इसका भी जवाब खोजने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। थोड़ा सा दिमाग दौड़ाइए तो, साफ दिखेगा कि दरअसल अखबार-पत्रिका टीवी को सुधारने की बात कहते-उस पर अंकुश लगाने की लंतरानी बतियाते कब टीवी टाइप खबरें पढ़ाने लगे पता ही नहीं चला। अब अखबार न अखबार जैसे रह गए और टीवी जैसे बनने की उनकी प्रकृति ही नहीं है। टीवी तो पहले ही हर सेकेंड ब्रेकिंग न्यूज के दबाव में काम कर रहा था।


निर्विवाद रूप से टीवी के सबसे बड़े पत्रकारों में से राजदीप सरदेसाई को भी लगने लगा है कि भारतीय पत्रकार- फिर चाहे वो उनके जैसे टीवी के संपादक हों या फिर अखबार के विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं' वहीं प्रिंट और टीवी दोनों माध्यमों में लगातार अपने हिसाब से पत्रकारिता गढ़ने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी को ये डर लगने लगा है कि पत्रकारिता कैसे की जाए। वैसे, वो खुद ही अपने ब्लॉग पर आगे ये कह देते हैं कि एक रहो, पत्रकार रहो। सब ठीक हो जाएगा। और, पुण्य प्रसून की ये सलाह उनके टीवी चैनल जी न्यूज के जरिए कैसे आई मैंने नहीं देखी लेकिन, उनके ब्लॉग पर उनका लिखा पत्रकार और राजनीतिक द्वंद पर बहस की सबसे बड़ी वजह बन गया।


यही ब्लॉग की ताकत है। ताकत ये कि इसका कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। न सरकार-न अखबार संपादक -न टीवी संपादक या फिर कोई मीडिया हाउस। पुण्य प्रसून बाजपेयी और राजदीप सरदेसाई इतने हल्के लोग नहीं हैं कि ये जहां काम करते हैं वहां उनके मालिक उन्हें इतना दबा दें कि वो, अपने मन की खबर-विश्लेषण दिखा-सुना नहीं सकते। राजदीप तो, अपने अंग्रेगी और हिंदी चैनलों के सह मालिक भी हैं। और, पुण्य प्रसून संपादक की हैसियत में हैं। लेकिन, मीडिया के टीवी माध्यम की मजबूरियां इन्हें अच्छे से पता है। और, ब्लॉग की पकड़ और पहुंच का भी इन्हें अच्छे से अंदाजा है कि ये वो, माध्यम है जिससे बात दुनिया के किसी भी कोने तक पहुंचाई जा सकती है।


अब अगर दुनिया में बैठे किसी व्यक्ति को भारतीय मीडिया के बारे में अंदाजा लगाना होगा तो, वो टीवी चैनल तक पहुंच तो बन नहीं सकता। वो, भरोसे होता है इंटरनेट के। और, इंटरनेट पर भी अगर विषय संबंधित खोज करनी है तो, किसकी सर्च इंजन की मदद लेता है। अब अगर आप किसी विषय पर गूगल अंकल या दूसरे सर्च इंजन परिवार की मदद लेते हैं तो, कमाल की बात ये सामने आती है कि अब किसी न्यूजपेपर-टीवी की वेबसाइट के साथ लगे हाथ ढेर सारे ब्लॉगों का वेब पता भी आपके सामने परोस दिया जाता है। अब आपकी इच्छा है जैसे चाहो चुन लो।


यानी कम से कम इंटरनेट पर तो, इंटरनेट की ही सबसे मजबूत पैदाइश ब्लॉग को तो, स्वीकार किया जा चुका है। और, इसी इंटरनेट के जरिए कुछ तो, टीवी-प्रिंट माध्यम के पत्रकार ही इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ एक नई जमात पैदा हो रही है। ये नई जमात है जो, टीवी चैनलों पर एक रुप में दिखती है- सिटिजन जर्नलिस्ट नाम से। टीवी चैनल के माध्यम की मजबूरी की ही तरह इसके सिटिजन जर्नलिस्टों की भी अपनी सीमा है लेकिन, ब्लॉग के अनंत आकाश में विचरने वाले सिटिजन जर्नलिस्ट इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि, कोई सीमा नहीं है।


पुण्य प्रसून बाजपेयी अपना खुद का ब्लॉग चलाते हैं और गंभीर मुद्दों पर वहां बहस की कोशिश करते हैं तो, राजदीप सरदेसाई अपने टीवी चैनल में काम करने वाले हर पत्रकार से चाहते हैं कि वो, जो खबर टीवी पर नहीं दिखा पा रहे हैं एयरटाइम की मजबूरी से या फिर किसी और वजह से उसे अपने ब्लॉग के जरिए चैनल की वेबसाइट पर पोस्ट करे। और, ये पोस्टिंग टेक्स्ट यानी सिर्फ लिखा हुआ या फिर उस लिखे को जीवंत बनाने वाली कुछ तस्वीरों और वीडियो के साथ का ब्लॉग।


मैंने खुद जब बतंगड़ नाम से अप्रैल 2007 में अपना ब्लॉग शुरू किया तो, उसके पीछे एक जो, सबसे बड़ी वजह ये थी कि बहुत सी बातें हैं जो, दिमाग में आती हैं लेकिन, स्वाभाविक तौर पर किसी चैनल-अखबार या पत्रिका में दिख छप नहीं सकती हैं। ययहां तक कि अगर उनका स्तर किसी भी छपे लेख या विश्लेषण से बेहतर भी है तो, इसलिए नहीं छप सकती कि फलाना अखबार या पत्रिका में छापने के अधिकार वाले संपादक से हमारी कोई जान-पहचान नहीं है।


अब इस ब्लॉग के असर को लेकर मुझे बेवजह का कोई गुमान तो नहीं है। लेकिन, गुमान करने लायक कुछ आंकड़े मेरे पास हो गए हैं। करीब हर महत्वपूर्ण खबर पर और दूसरे समसामयिक विषयों पर मेरे 300 लेख हो चुके हैं। 102 देशों में भले ही एक व्यक्ति ने ही सही बतंगड़ ब्लॉग को देखा है। देश के लगभग सारे हिंदी अखबारों में मेरे ब्लॉग का जिक्र हो चुका है। और, हिंदी के दो बड़े अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर मैं दिखा तो, ये ब्लॉग लेखन की बदौलत है। और, ये कमाल मेरा नहीं है मैं इसे अपने ब्लॉग के उदाहरण से सिर्फ समझाने की कोशिश कर रहा है। ये कमाल है मेरे जैसे ढेर सारे पत्रकार-गैर पत्रकार- नागरिक पत्रकार ब्लॉगरों का। यही कमाल है कि किसी भी हिंदी अखबार, वेबसाइट का काम बिना ब्लॉग चर्चा, ब्लॉग कोना, ब्लॉग मंच जैसे कॉलम के नहीं चल रहा है। यानी इसे माध्यम के तौर पर मान्यता मिलना तो शुरू हो चुकी है।



अब इस ब्लॉगरी के अगर अच्छे पहलुओं को देखें तो, इस पर TRP जैसे डर का दबाव नहीं है। इसमें ब्लॉग पत्रकारिता करने वालों को पूंजी बहुत कम लगानी पड़ती है। टीवी-अखबार की तरह एक खबर का एक ही पहलू एक तरीके से बार-बार देखने की मजबूरी नहीं है। अलग-अलग ब्लॉग पर आपको अलग-अलग तरीके से खबर का विश्लेषण मिलेगा। किसी के विचार पर कोई रोक नहीं है।

लेकिन, इसके बुरे पहलू भी हैं जो, ब्लॉग जगत में अकसर देखने को भी मिल रहे हैं। TRP का दबाव नहीं है तो, कोई भी कुछ भी लिख रहा है। पूंजी लगानी बहुत कम पड़ती है तो, पूंजी मिलने की गुंजाइश उससे भी कम है जिससे फुलटाइम ब्लॉग पत्रकारिता के लिए हिम्मत जुटाना मुश्किल काम हो जाता है। अलग ब्लॉग पर अलग तरह से विश्लेषण मिलता है तो, कभी अति जैसा विश्लेषण होता है जो, पूरी तरह से किसी एजेंडे, अफवाह फैलाने या कम जानकारी की वजह से सिर्फ भावनात्मक तौर पर पोस्ट कर दिया जाता है।



इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है कि ब्लॉग हिंदी पत्रकारिता के खालीपन को भर सकता है। और, पूरी मजबूती के साथ आम जनता के माध्यम तौर पर स्थापित हो सकता है। लेकिन, जब मैं इसे पत्रकारिता के विकल्प के तौर पर देख रहा हूं तो, ये भी स्पष्ट है कि मैं बेनामी ब्लॉगों को इसमें शामिल नहीं कर सकता। बेनामी इसकी विश्वसनीयता के लिए खतरा बनता दिखता है। और, जब विश्वसनीयता पर चोट होगी तो, अभी की पत्रकारिता के खालीपन को भरने की एक जरूरी शर्त ये खो बैठेगा। बेनामी ब्लॉग मीडिया के तौर बमुश्किल दस कदम जाकर लड़खड़ा जाएगा और ये बस स्व आनंद का माध्यम भर बनकर रह जाएगा। अब इसका मतलब ये नहीं है कि मैं एकदम से बेनामी का विरोध कर रहा हूं। राज्य सत्ता के खिलाफ किसी जरूरी मुहिम को, खबर को बिना किसी का नाम दिए भी चलाया जा सकता है। कई बार ये जरूरी भी हो जाता है। कई बार अपनी बात रखने के लिए पहचान छिपानी भी पड़ सकती है। लेकिन, बेनामी बनकर किसी के खिलाफ साजिश रचने, किसी को अपमानित करने की बात ब्लॉग के लिए कलंक जैसी ही है।


अब सवाल ये है कि इन अच्छे-बुरे पहलुओं के बीच ब्लॉगिंग पत्रकारिता के मानदंडों पर कैसे खरा उतर पाएगी। तो, मेरा साफ मानना है कि जिस वैकल्पिक पत्रकारिता की बात अकसर होती है। वो, वैकल्पिक पत्रकारिता इसी ब्लॉग पगडंडियों से गुजर कर जवान होगी। इसमें सहयात्री मेरे जैसे पत्रकार भी होंगे जो, खबरों को अपने से जोड़कर उससे कुछ अच्छा विश्लेषण करके समझाने की कोशिश करते हैं। ज्ञानजी जैसे सामाजिक पत्रकार भी होंगे जो, रोज सुबह गंगा नहाने जाते हैं और गंगा किनारे की वर्ण व्यवस्था, आस्था के अंधविश्वास, सिमटती नदी पर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं। सही मायनों में ब्लॉग पत्रकारिता – आज की पत्रकारिता के तेज भागते युग के अंधड़ में गायब हुई असल पत्रकारिता को वापस ला सकेगी। जमकर ब्लॉगिंग करिए, खुद पर अंकुश रखिए। बचा काम तो, अपने आप हो जाएगा।

11 comments:

  1. यहाँ टी आर पी नहीं है तो क्‍या, यहाँ टिप्णियों की चिन्‍ता है। पाठक कैसे पैदा करें यही चिन्‍ता है। आपकी पोस्‍ट पर विश्‍लेषण अच्‍छा है।

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  2. बढिया विश्लेषण लिखा है |

    मैं अपना उदाहरण देता हूँ .. पेशे से software engineer पत्रकारिता से कोई रिश्ता नाता नहीं | लेकिन आज के अखबार, टीवी उर चेनल और मगज़ीन के एकतरफा - पूर्वाग्रही विचारों को पढ़ कर आजिज हो गया ... और खबरों के साथ साथ अन्य विषयों पे सही और सटीक जानकारी के लिए इन्टरनेट और ब्लॉग का रुख किया |

    हाँ हिंदी ब्लॉग्गिंग मैं भी मनोहर कहानियाँ ही ज्यादा चल रही हैं, पर कुछ ब्लॉगर तो हैं जो धाँसू लिखते हैं | वैसे अच्छे लेखों या सार्थक लेखन को एक जगह लाने का प्रयास blogprahari.com के जरिये किया जा रहा है | कुल मिला कर ब्लॉग का भविष्या उज्वल दिखा रहा है ... और जिस गति से ये बढ़ रहा है ... कोई बड़ी बात नहीं की ये टीवी, अखबार का सुन्दर विकल्प बन जाए |

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  3. कुछ हद तक टी वी और अखबार का विकल्‍प बन चुका है पर उन्‍हें खतरा नहीं महसूस करना चाहिए। जब भी कोई नई तकनीक आती है तो पुरानी वाली को खतरा तो होता है पर इससे उसमें सुधार होता है तथा बेहतरी ही आती है। मतलब तरावट बढ़ जाती है। ब्‍लॉग के आने से दिमागों में तरावट बढ़ रही है। दिमाग खाली नहीं रह गए हैं और न खाली हो सकते हैं। नित नए विषय, नित नूतन टिप्‍पणियां - किसे नहीं भाते हैं - हम तो सोते जागते इसी को अपने दिमाग से खाते और इसे दिमाग में बसाते हैं। आंगन है यह, जो घरों से खो चुका है पर अब दिलों और दिमाग में अपनी पैठ बना चुका है।

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  4. अच्छी चर्चा हर्ष जी, सहमत सौ फीसदी...

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  5. अच्छा लगा आपसे सुन कर...

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  6. यही ब्लॉग की ताकत है। ताकत ये कि इसका कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। न सरकार-न अखबार संपादक -न टीवी संपादक या फिर कोई मीडिया हाउस।


    फिर भी, गुटबाज़ी के शोशे तो चल रहे हैं ब्लागजगत में, जो कि कोई अच्छा संकेत नहीं है!!

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  7. उफ़्फ़ शुक्र है कहीं तो सुनने पढने को मिला कि चर्चा हुई..हमें तो लगा कि आप सब एक साथ गंगा मईया के दर्शन को पहुंच गए थे..बस...हा हा हा वैसे अच्छा लगा

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  8. बढिया विश्लेषण.

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  9. बिल्कुल जी, लोग अपने आसपास का चार वर्ग किलोमीटर ही देख समझ कर लिखें बनिस्पत बरक ओबामा और वैश्वीकरण पर ठेलन के तो बहुत सार्थक ब्लॉगरी हो!

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  10. Aap ne likha hai gyanji roz ganga nahane jate hain. Mujhe lagata hai Gyan ji Ganaga kinare Ghoomne ya darshan karne jate hain ki ye Gangakabhi nirmal thi. Ab ro teej-tyohar ko chod kar vo Ganga nahane ki jurrat nahin kar sakte.

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