दरअसल धर्मपत्नी जी को घर छोड़ने जाना था। तो, शनिवार की शिफ्ट करके प्रयागराज से इलाहाबाद के लिए निकल लिए। इलाहाबाद का कार्यक्रम में लगे हाथ मास कम्युनिकेशन के बच्चों की क्लास लेने का आमंत्रण मिला। पहली बार गुरु जी बनने का अवसर था तो, मैं भी भला चूकता कैसे। आर्थिक पत्रकारिता की करीब डेढ़ घंटे की एक बेसिक बातचीत भी हो गई। लेकिन, पता नहीं क्यों- आर्थिक पत्रकारिता इतनी महत्व रखते हुए भी भावी पत्रकारों में रुचि पैदा नहीं कर पा रही है। फिर वो मुंबई, दिल्ली हो या इलाहाबाद- खास फर्क नहीं दिखता।
अब इलाहाबाद पहुंचे थे तो, राजनीति के बिना बात कहां बनती। उस पर पता चला कि अपने प्राणेश जी इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन का चुनाव लड़ रहे हैं। प्राणेश दत्त त्रिपाठी अनुभवी वकील हैं। और, पिछली बार भी बहुत कम वोटों से सचिव बनते-बनते रह गए थे। इस बार चुनाव लगभग पक्का दिख रहा था। अब चूंकि ज्यादातर विश्वविद्यालय के नेता जो, इलाहाबाद रह गए हैं और रोजगार का दूसरा जरिया नहीं ढूंढ़ सके हैं तो, काला कोट पहनकर हाईकोर्ट में उनको अपना सम्मान सबसे आसानी से बचता दिख रहा है तो, पूरा का पूरा चुनाव भी बार का होते हुए भी विश्वविद्यालय जैसा हो गया था। खांटी विश्वविद्यालय के नेताओं की भाषा में- धोवावा कुर्ता जैसे धोवावा काला कोट पहिर के- कॉफी हाउस से हाईकोर्ट चौराहे तक जमावड़ा था।
मेरे भीतर के भी विश्वविद्यालय के अंदर वाले राजनीतिक कीटाणु अइसे सक्रिय भए कि करीब 4 घंटे हम भी कॉफी हाउस, सिविल लाइंस से हाईकोर्ट चौराहा तक पेंडुलम की तरह टहलते रहे। 4 घंटे की टहलाई ने भूख भी बढ़ा दी थी। अब गरम चाय पेट को कितना सहारा दे पाती सो, लगे हाथ हाईकोर्ट के सामने एक के बाद एक सजी बाटी-चोखा की दुकानों पर बैठकी का भी मौका वक्त की जरूरत बन गया। वैसे, हम लोग के विश्वविद्यालय टाइम में एकै दुकान थी। अब तो, पूरा बाटी-चोखा स्पेशियलिटी मॉल रोड जैसा अहसास दे रहा था- इलाहाबाद बैंक के पीछे वाली सड़क पर। बढ़िया घी में सना दिव्य बाटी औ चोखा के साथ मूली, प्याज, मिर्च, चटनी परोसी गई। जिह्वा पेट पर भारी पड़ रही थी 2 में मान नहीं रही थी लेकिन, थोड़ा संयम का ध्यान किया तो, कुछ रोक लगी।
खैर, दो-तीन बार मतगणना रुकने और दो दिन के बाद मतगणना पूरी होने के बाद प्राणेश जी के जीतने की खबर आई। लगा बढ़िया भवा- काफी टाइम बाद कउनौ चुनाव लगे दुइयै-चार घंटा बिना सही- नतीजा पॉजिटिव आवा। ई पॉजिटिव बड़ी सही चीज है- कुछौ पॉजिटिव होत रहै तो, ऊर्जा मिल जाथै। भले सीधे कुछ फायदा होय न होय। का कहथैं ऊ सेंटिमेंट ठीक होए जाथै। वही जइसे मार्केट, देश के मंदी भागै के संकेत से सेंटिमेंट सुधर गवा है। ढाई महीना पहिले तक सावधान, खतरा क बोर्ड लगाए घूमै वाले एनलिस्ट अब मौका हाथ से जाने न दीजिए टाइप सलाह निवेशकों को देने लगे हैं।
खैर, ई एनलिस्ट के सलाह पे बमुश्किल 5-7% इंडिया चल रहा है। कंजरवेटिव भारत मस्त है। सिविल लाइस की महात्मा गांधी रोड अइसे जगमग थी दिवाली में कि मंदी टाइप बात कभो भ रही देश में यादे नै पड़त रहा। पिछली बार की ही तरह मेला भी लगा है औ खरीदारी भी जमकर भई। घर आए तो, पता चला
मामा के यहां गजेंद्र मोक्ष जाप हुआ है। शाम को निमंत्रण है। पूछा कि हम्हीं लोग हैं या लंबा कार्यक्रम है पता चला कि 100 लोग तो लगभग हो ही जाएंगे। हमारे मामा जी जैसे लोग कंजरवेटिव भारत के वही लोग जो, हर चौथे-छठएं सत्यनारायम पूजा सुनके पंजीरी बांट देते हैं तो, गजेंद्र मोक्ष जाप कराके 100 लोगों को भोजन पर बुल लेते हैं। अब जिस इंडिया में तब्दील होने के लिए भारत मशक्कत कर रहा है वहां तो, जिस शाम कोई एक आदमी भोजन पे आ जाए- मियां-बीवी में झगड़ा होने की संभावना बढ़ जाती है। औ बहुत बड़े लोगों के यहां भी सालाना जलसे में बमुश्किल 100 लोग बुलाए जाते हैं।
कॉलोनी में मामा जी का घर है। कॉलोनी की छत पर ही भोजन का इंतजाम था। बढ़िया कड़ाहा चढ़ा था। ज्यादा तामझाम नहीं टाट पट्टी पे मजे से बैठके गले तक चांप के भोजन हुआ वरना तो, ऊ खड़े होके खाने वाले में – का कहते हैं बुफे सिस्टम – तो, न खाना खाया जाता है औ जितना खाया वो पच भी नहीं पाता है। जमकर खाया। काम की नीरसता से दूर दो दिन का इतना एनर्जेटिक दौरा था कि मजा आ गया। लेकिन, ऑफिस भी लौटना था। रात की राजधानी पकड़ी और, दूसरे दिन ऑफिस पहुंच गए। दिवाली तक फुर्सत नहीं थी आज रविवार की छुट्टी मिली तो, लिख मारा।
कॉलोनी में मामा जी का घर है। कॉलोनी की छत पर ही भोजन का इंतजाम था। बढ़िया कड़ाहा चढ़ा था। ज्यादा तामझाम नहीं टाट पट्टी पे मजे से बैठके गले तक चांप के भोजन हुआ वरना तो, ऊ खड़े होके खाने वाले में – का कहते हैं बुफे सिस्टम – तो, न खाना खाया जाता है औ जितना खाया वो पच भी नहीं पाता है। जमकर खाया। काम की नीरसता से दूर दो दिन का इतना एनर्जेटिक दौरा था कि मजा आ गया। लेकिन, ऑफिस भी लौटना था। रात की राजधानी पकड़ी और, दूसरे दिन ऑफिस पहुंच गए। दिवाली तक फुर्सत नहीं थी आज रविवार की छुट्टी मिली तो, लिख मारा।
बफ़े या बुफ़े नही बफ़ेलो सिस्टम,सीधे सींग उठा कर भीड़ मे घुस कर खाना चुराना या खाना भी कोई खाना होता है भला,मज़ा तो पंगत मे बैठ कर ही आता है।चलिये दो दिनो की मौज के बाद फ़िर मोनोटोनस लाईफ़ शुरू हो गई होगी।दीवाली की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाऐं।
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका यह संस्मरण...
ReplyDeleteआपके संसमरण ने तो मुझे भी अपना बनारस याद दिला दिया.
ReplyDeleteपूरा इलाहाबाद धड-धड़ा के खड़ा है, इहवां...
ReplyDeleteaccअहा लगा आपका संस्मरण शुभकामनायें
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका यह संस्मरण...
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