Sunday, September 27, 2009

सिस्टम ही ऐसा है साहब बिना एग्रेसिव हुए बात ही नहीं बनती

हां जी नमस्कार।

हां नमस्कार सर हर्षवर्धन बोल रहा हूं।

आपके ऑफिस आया था। कितनी देर में आ जाएंगे।

मैं तो अभी क्षेत्र के दौरे पर हूं। वहां ऑफिस में बाबू होंगे-बड़े बाबू होंगे। उनसे बात कर लीजिए


सर बिजली के बिल का मामला है यहां ऑफिस में बाबूजी का कहना है कि आपके दस्तखत के बिना नहीं होगा। मुझे ऑफिस निकलना है। आप आ जाते तो, जल्दी हो जाता। मेरे बैंक में पैसा है इसके बावजूद चेक बाउंस हो गया है। जबकि, उसके बाद के महीने का चेक क्लियर है। उस पर पेनाल्टी भी लग गई है। अब पेनाल्टी मैं क्यों भरूं। आप उसे हटा देंगे तो, मैं बिल जमा कर दूं


देखिए पेनाल्टी तो जो लग गई है उसे हटाना संभव नहीं है।


अरे आप कैसी बात कर रहे हैं मेरे अकाउंट में पैसे हैं। मेरी कोई गलती नहीं मैं रेगुलर बिल जमा करता हूं। फिर मैं पेनाल्टी क्यों भरूं। मैं यहीं सीएनबीसी आवाज़ न्यूज चैनल में हूं। और, मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है पिछले एक घंटे से आपके दफ्तरों के ही चक्कर काट रहा हूं।

ठीक है मैं ऑफिस आता हूं आधे घंटे में तो, बात करता हूं।


अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि ये मेरा संवाद किसी राजपत्रित अधिकारी के साथ चल रहा था। दरअसल मेरे बिजली के बिल का चेक बाउस हो गया था। और, उसी चक्कर में अपने सब स्टेशन और बैंक खटखटाने के बाद मैं सेक्टर 18 के एक्जिक्यूटिव इंजीनियर के ऑफिस में था।


खैर एक्जिक्यूटिव इंजीनियर साहब करीब पौन घंटे बाद आए। इतनी देर से इंतजार करने के बाद मुझमें रुकने का धैर्य नहीं बचा था। मैं भी अंदर गया। नमस्कार किया। बिल दिखाया तो, पहले तो, इंजीनियर साहब ने तवज्जो देना ही जरूरी नहीं समझा। फिर सीट पर लगी अपनी तौलिया ठीक-वीक करने के बाद इक्ट्ठै झौआ भर एग्रेसिव हो गए। देखिए ऐसे कुछ हो नहीं सकता। और, ये बिजली विभाग की जिम्मेदारी थोड़ी न है कि सबको बताए कि किस-किसका चेक बाउंस हो गया है। और, सैकड़ो केस हमारे पास हर महीने ऐसे आ रहे हैं (सैकड़ो केस आ रहे हैं लेकिन, बिजली विभाग हर सब स्टेशन पर चेक के साथ एक कैश काउंटर बनाने की जमहत भला क्यों उठाए)। अब पेमेंट हमें नहीं मिला तो, पेनाल्टी तो लगेगी ही। उसे मैं क्या कोई भी माफ नहीं कर सकता।


पिछले डेढ़ घंटे से बेवजह परेशान होने की वजह से मैं गुस्से में तो आ ही चुका था। क्यों, दूं मैं पेनाल्टी चेक बाउंस हुआ, मेरे अकाउंट में पैसा है। उसके बाद के महीने का बिल उसी बैंक का पेमेंट हो जाता है। 2 महीने बाद मुझे पता चल रहा है कि चेक बाउंस हो गया है और बिना कोई मौका दिए 405 रुपए की पेनाल्टी भी लग गई है। और, मुझे भी नियम कानून पता हैं। आपके ऑफिस से ही मुझे पता चला कि आपके पास ये अधिकार है कि आप पेनाल्टी हटा सकते हैं। मैंने इसीलिए आपको अप्लीकेशन लिखकर भी दिया है।


देखिए आप बेवजह मीडिया की धौंस न दीजिए। आप फोन पर इतना एग्रेसिव बेवजह हो रहे थे। जरा विनम्रता से काम लिया कीजिए। और, मैं हमेशा VIP पोस्टिंग में ही रहा हूं। नोएडा आने से पहले लखनऊ में गोमतीनगर में था। मुझे बहुत अच्छे से VIP’S को HANDLE करना आता है।


अब मुझे समझ में नहीं आया कि इसमें VIP’S को HANDLE करना कहां से आ गया। मैंने कहा- आप VIP पोस्टिंग में रहे हो या न रहे हों इससे मुझे क्या मतलब हो सकता है। लेकिन, मैं पेनाल्टी तो नहीं भरूंगा। उसके बाद करीब 5 मिनट तक जो चिक-चिक हुई वो, बार-बार यही सब रिपीट हो रहा था। फिर लगे हाथ उनके ऑफिस में ही बैठ एक सज्जन जो हर थोड़ी देर में ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि साहब की सुनिए वो, सब कर देंगे। फिर से वही अनमोल सुझाव लेकर आए तो, मुझे चिढ़ सी हो गई।


अचानक ही इंजीनियर साहब ने मुझसे झटके से बिल मांगा। लाइए इधर दीजिए। अब देखिए -...... फिर से समझाने लगे कि पेनाल्टी तो, वापस हो ही नहीं सकती। जब मैं फिर गरमाया तब तक वो, बिल पर गोला बनाकर बताने लगे कि 405 में से 300 रुपए मैं डिडक्ट कर सकता हूं। औऱ, लगे हाथ उन्होंने मुझ पर एक और अहसान किया। वो, ये कि बिजली का बिल मैं फिर से चेक से जमा कर सकता हूं। वरना एक अंग्रेजी टाइप का कानून ये भी है कि एक बार चेक बाउंस हुआ तो, अगले 12 महीने तक डिमांड ड्राफ्ट बनवाकर ही आप बिल जमा कर सकते हैं।


 खैर, इतने सारे अहसान और झौवा भर ज्ञान पाने के बाद मैंने ATM से पैसे निकालकर जमा कराया। और, चैन से घर आ गया। आखिर इतनी मशक्कत के बाद बिल जमा कराने और 300 की पेनाल्टी से बचने का सुख जो था। उसके पहले बैंक में जाकर मैनेजर साहब से मेरे चेक बाउंस होने का रहस्य जानना चाहा तो, वो खुद ही अपना रोना रोने लगे। दो मोबाइल फोन अपनी दराज से निकाले औऱ कहा- देखिए अब हमारा खुद का ही चेक बाउंस हो गया है। अब मैं क्या करूं आप तो मीडिया वाले हैं आप तो, जाकर लड़ भी सकते हैं।


और, यही मीडिया वाला बताने पर एक्जिक्यूटिव इंजीनियर साब नाराज हो गए थे कि आप लोग बेवजह एग्रेसिव हो जाते हैं। अब मैं उनको क्या बताऊं कि इंजीनियर साहब तैलिए वाली गाड़ी और अपने ऑफिस में बैठे आपको एग्रेसिव होने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला। हमारी तो, मुश्किल ये है कि हम बताएं कि मीडिया से तो, धौंस बन जाएं न बताएं तो, ये कि कम से कम ये बता तो दिया होता कि मीडिया से। वो, भी जायज काम के लिए कोई फालतू की धौंस देने भी मैं नहीं गया था।


खैर, इतने सबके बाद भी अगले महीने के बिल में वो, 300 रुपए फिर लगकर आया था। मैंने इंजीनियर साहब को फोन किया तो, उन्होंने कहा ऑफिस पहुंचकर बड़े बाबू से मेरी बात करवा दीजिएगा मैं ठीक करा दूंगा। अब फिर से एक घंटे गंवाने का समय और साहस दोनों मेरे अंदर नहीं था। छोटे भाई को मैंने कहा- जाओ हो जाए तो, ठीक है नहीं तो, चुपचाप बिल जमा कर देना। 5 बार बिजली विभाग का चक्कर मारेंगे तो, 300 से ज्यादा का तेल फूंक देंगे। उस दिन इंजीनियर साहब के आते और कहते भर में लंच हो गया और एक और दिन जाने के बाद छोटा भाई बिल जमा कर पाया।


बिजली विभाग से मैं चिढ़ता-झल्लाता ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था कि एक मित्र का संदेश आया -- I’ll be little late today as I’ve to go and meet the excutive engineer of my area at 12.30 pm. बाद में पता चला कि ये बिजली विभाग का नहीं। GDA – गाजियाबाद विकास प्राधिकरण का मामला था। खैर, मीडिया का ही होने की वजह से उनका काम 2 दिनों में हो पाया।


खुद की उलझन के बावजूद मेरा इस पर पोस्ट बनाने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन, ऑफिस में मित्र के एसएमएस पर शुरू हुई चर्चा से पता चला कि ये किस्सा तो आम है। उसके बाद मेरे मन में कुछ सवाल आए कि हम मीडिया वालों को हर कोई बिना सोचे-समझे गाली देने का कोई मौका कोई चूकना नहीं चाहता। अब सवाल ये है कि अगर मेरे बिल का चेक बाउंस नहीं होता तो, मैं क्यों मैं मीडिया का हूं ये बताने जाता। मैंने कोई धौंस देने के लिए नहीं बताया। बताया इसलिए कि बिजली विभाग के बाबुओं-अफसरों के चक्कर न काटने पड़ें।


विभाग के अधिकारी, विभाग और बैंक की गलती से बाउंस हुए चेक पर पेनाल्टी लगाने के बजाए उसे सुधारने की सीधे कोई व्यवस्था करते तो, मुझे क्या जरूरत पड़ी थी मीडिया का हूं ये बताने की। कितने अफसर हैं जो, ये अच्छे से जानते हैं कि अपने विभाग से निकलने के बाद दूसरे सरकारी विभाग का चपरासी तक उनसे ठीक से बात नहीं करेगा। लेकिन, अपने चैंबर में खुद को असीमित शक्ति का स्वामी समझने लगते हैं। एक मीडिया वाले को ही क्यों किसी को भी एग्रेसिव होने की जरूरत क्यों होती है। दूसरे की गलती का पेनाल्टी क्यों भरना पड़ता है।


इस पोस्ट को न तो वो इंजीनियर साहब पढ़ने जा रहे हैं। और, पढ़ भी लेंगे तो, पता नहीं ... लेकिन, मुझे लगा कि इसे पोस्ट तो कर ही देना चाहिए। टीवी सीरियल ऑफिस-ऑफिस का अनुभव मैंने अच्छे से कर लिया। हम जैसे लोग जो 20 तारीख को बिल आते ही 22-24 तारीख तक बिल जमा कर देते हैं। वो, पेनाल्टी भी भरते हैं और इंजीनियर साहब, बाबू जैसों का ज्ञान भी सुनते हैं। लेकिन, जो बिल नहीं जमा करते यही बिजली विभाग बड़े-बड़े कैंप लगाकर, उनके पास जाकर आधा बिल माफ करके बिल लेता है। और, नोएडा में सेक्टरों के बीच में बसे बरोला, भंगेल टाइप के गांवों में तो ये बिजली काटने जाते हैं तो, लतियाए भी जाते हैं।


इसी सब पर लगता है कि समाज में थोड़ा बहुत अराजकता भी जरूरी रहती है। नहीं तो, कान में तेल डाले चलते सिस्टम के कान में किसी की आवाज साफ सुनाई ही नहीं देती। कभी-कभी मेरा भी मन अराजक होने का करता है ...

4 comments:

  1. अराजक होने का मन किसका नहीं करता, लेकिन यदि सभी अराजक हो गये तो क्या होगा? अराजक तो मैं भी होना चाहता हूं, जैसे कि उस बिजली ऑफ़िस के इंजीनियर को सरेआम दो चप्पल जड़ने का इच्छुक हूं, लेकिन यह सम्भव नहीं है, क्योंकि "संस्कार" और भलमनसाहत नाम के दो कीड़े बुरी तरह घुसे हुए हैं…

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  2. bilkul sahi kaha sanjay g ne, par sataya ye bhi hai ki kuch bhoot baton se nahi mante.

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  3. bahoot bahi sahab maza aa gaya. please visit my blog udbhavna.blogspot.com

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  4. हर्षवर्धन जी....आपने जो भी वाकया सुनाया ..उसे पढ कर ऐसा लगा कि...ये तो रोज़ की घटना है..कहीं देखी, सुनी, पढी...और आपका गुस्सा जायज़ भी है...मगर मुझे लगता है कि एक और रास्ता है ..हालांकि ये नहीं कहता कि आसान है मगर है कारगर...इन्हें और इन जैसों को कंज़्यूमर फ़ोरम तक एक बार घसीट दो..आगे से किसी दूसरे के साथ ऐसा करने से पहले दस बार सोचेंगे..वैसे देर सवेर मुझे लगता है लोग सुरेश भाई वाला रास्ता ही अख्तियार करेंगे...

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