Monday, September 14, 2009

ये क्या हिंदी-हिंदी लगा रखा है

हिंदी दिवस पर हिंदी का हल्ला- रुदन जमकर हो रहा है। हर कोई बस इस एक 14 सितंबर के दिन में हिंदी को दुनिया की सबसे महत्वपर्ण भाषा बना देने को उतावला हो रहा है। मैंने भी सोचा हिंदी की कमाई खा रहा हूं तो, थोड़ा मैं भी चिंतित हो लेता हूं। लेकिन, लगा कि ये क्या बेवकूफी है। हिंदी ने जिस तरह से बाजार में अपनी ताकत बनाई है क्या उसके बावजूद एक दिन हिंदी के लिए रोकर हम ठीक कर रहे हैं। दरअसल सारी मुश्किल ये है कि जिन्हें हिंदी ने सबसे ज्यादा दिया है वो, इसको ठीक से संभाल नहीं पा रहे हैं पहला मौका पाते ही अंग्रेज बन जाना चाहते हैं।


और, हिंदी को खास परेशानी नहीं है। आज भी देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले 10 अखबारों में अंग्रेजी के टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ कोई अखबार नहीं है। विज्ञापन जगत से लेकर फिल्म और मीडिया तक हिंदी ही हावी है। व्यवहार में भी-बाजार में भी। इसलिए हिंदी दिवस मनाना छोड़िए- बस इस बाजार व्यवहार को हिंदी के लिहाज से ढालने में मदद करिए। बाकी तो अपने आप ही हो जाएगा।


दो साल से ज्यादा समय हो गया एक पोस्ट मैंने लिखी थी। 16 जून 2007 को। और, आज दो साल बाद भी वो पोस्ट पूरी की पूरी मौजूं लग रही है। क्योंकि, फिर से नया लिखूंगा भी तो, वो काफी कुछ यही होगा।

फिर हम क्यों बोलें हिंदी ...

बॉलीवुड कलाकारों को (आर्टिस्ट पढ़िए) अब अंग्रेजी या फिर रोमन में ही स्क्रिप्ट देनी पड़ती है। क्योंकि, उन्हें हिंदी में लिखी स्क्रिप्ट समझ में नहीं आती। वैसे ये मुश्किल सिर्फ स्क्रिप्ट लिखने वालों की ही नहीं है। इन फिल्मी कलाकारों की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए जब पत्रकार (जर्नलिस्ट पढ़िए) साक्षात्कार (इंटरव्यू) लेने जाते हैं तो, उन्हें भी यही मुश्किल झेलनी पड़ती है। देश के हिंदी प्रदेशों में दीवानेपन की हद तक चाहे जाने वाले इन कलाकारों को इतनी भी हिंदी नहीं आती कि ये फिल्म के डायलॉग पढ़कर बोल सकें। फिर भी ये हिट हैं क्योंकि, ये बिकते हैं।


वैसे हिंदी की ये मुश्किल सिर्फ फिल्मी कलाकारों के मामले में नहीं है। बात यहीं से आगे बढ़ा रहा हूं जबकि, ये बात बहुत आगे बढ़कर ही यहां तक पहुंची है। देश में सभी चीजों को सुधारने का ठेका लेने वाला हिंदी मीडिया भी हिंदी से परेशान है। अब आप कहेंगे कि हिंदी चैनलों में हिंदी क्यों परेशान है। हिंदी का चैनल, देखने वाले हिंदी के लोग, बोलने-देखने-लिखने वाले हिंदी के लोग, फिर क्या मुश्किल है। दरअसल मुश्किल ये सीधे हिंदी बिक नहीं रही थी (अंग्रेजी में कहते हैं कि हेप नहीं दिख रही थी)। इसलिए हिंदी में अंग्रेजी का मसाला लगने लगा। शुरुआत में हिंदी में अंग्रेजी का मसाला लगना शुरू हुआ जब ज्यादा बिकने लगा तो, अंग्रेजी में हिंदी का मसाला भर बचा रह गया। हां, नाम हिंदी का ही था।


वैसे ये मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है कि फिल्मी कलाकार या कोई भी बड़ा होता आदमी या औरत (बिगीज) अब हिंदी बोलना नहीं चाहते। हिंदी वही बोल-पढ़ रहे हैं जो, और कुछ बोल-पढ़ नहीं सकते। लेकिन, दुखद तो ये है कि हिंदी वो भी बोल-पढ़ नहीं रहे हैं जो, हिंदी की ही खा रहे हैं। हिंदी खबरिया चैनलों का हाल तो ये है कि अगर बहुत अच्छी हिंदी आपको आती है तो, यहां नौकरी (जॉब) नहीं मिलने वाली। गलती से नौकरी मिल भी गई तो, कुछ ही दिन में ये बता-बताकर कि यहां खबर लिखो-साहित्य मत पेलो, कह-कहकर हिंदी का राम नाम सत्य करवा दिया जाएगा वो भी आपसे ही। जिस दिन पूरी तरह राम नाम सत्य हो गया और हिंदी के ही शब्दों-अक्षरों-वाक्यों पर आप गड़बड़ाने लगे तो, चार हिंदी में गड़बड़ हो चुके लोग मिलकर सही हिंदी तय करेंगे और ये तय हो जाएगा कि अब यही लिखा जाएगा भले ही गलत हो। और, जब मौका मिला थोड़ी बची-खुची सही हिंदी जानने वाले बड़े लोग आपको डांटने का मौका हाथ से जानने नहीं देंगे।


मैं फिर लौटता हूं कि हिंदी की मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है। हिंदी चैनलों में भर्ती (रिक्रूटमेंट) होती है तो, अगर उसने u know.... i hope ... so.. i think कहकर अपने को साबित (प्रूव) कर दिया तो, फिर नौकरी (जॉब) पक्की। समझाया ये जाएगा कि थोड़ी हिंदी कमजोर है लेकिन, लड़की या लड़के को समझ बहुत अच्छी है। हिंदी तो, पुराने लोग मिलकर ठीक कर देंगे। वैसे जिनके दम पर नई भर्ती को हिंदी सिखाने का दम भरा जा रहा होता है उनमें हिंदी का दम कितना बचा होता है ये समझ पाना भी मुश्किल है। वैसे हिंदी के इस दिशा में जाने के पीछे वजह जानने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जगह के रिसेप्शन को भी पार (क्रॉस) करने के लिए अंग्रेजी ही काम आती है।


सिर्फ हिंदी के भरोसे अगर आप घर से बाहर निकले हैं तो, मन में ही हिंदी को संजोए हुए चुपके से ही रिसेप्शन पार कर गए तब तो ठीक है नहीं तो, हिंदी के सवाल के जवाब में अंग्रेजी में may i help u आपको फिर से बाहर कर सकता है। मेरे जैसे हिंदी जानने-बोलने-पढ़ने-समझने-लिखने वालों की मंडली तो आपस में मजाक भी कर लेती है कि किसी मॉल या किसी बड़ी-छोटी जगह के रिसेप्शन पर या किसी सेल्स गर्ल से बात करने के लिए बीवी को आगे कर ही काम निकलता होगा। क्योंकि, बड़े मॉल्स, स्टोर्स में तो कुछ खऱीदने के लिए जेब में पैसे होने ही जितना जरूरी है कि आपमें अंग्रेजी में बात करने का साहस हो। शायद ये साहस लड़कियों में कुछ ज्यादा होता है।


खैर बॉलीवुड के कलाकार हिंदी की स्क्रिप्ट पढ़ने से मना कर रहे हैं। इस खबर को पढ़ने के बाद मुझे ये लिखने की सूझी। इसी खबर में गुलजार ने कहा था कि ये तो बहुत पहले से होता आ रहा है। लेकिन, मुझे जो लगता है कि ये पहले से होता आ रहा है या इसमें कलाकारों का कितना दोष है इस पर बहस से ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि क्या हम सचमुच ये मान चुके हैं कि हिंदी छोटे लोगों की, हल्का काम करने वालों की भाषा है। जो भी हिंदी बोले उसे छोटे दर्जे का मानना और फिर उस अपने से मान लिए छोटे दर्जे की जमात के लिए हिंदी समझना-बोलना कहां तक ठीक है। यहां तक कि अपने घर में पाले जानवरों से भी ये अंग्रेजीदां लोगों की जमात अंग्रेजी में ही बात करती है क्योंकि, इनके घर के बच्चे उन जानवरों से भी बात करते हैं उनके साथ खेलते हैं। इसलिए घर के पालतू कुत्ते से हिंदी में बातकर ये अंग्रेजीदां लोग अपने बच्चों को बिगाड़ना नहीं चाहते, डर ये कि कहीं बच्चा भी हिंदी न बोलने लगे।


हिंदी की मुश्किल शब्द का कई बार में इस्तेमाल कर चुका हूं। लेकिन, इसका कतई ये आशय नहीं है कि मैं हिंदी की सिर्फ दारुण कथा लेकर बैठ गया हूं। दरअसल मैं सिर्फ इस बात की तरफ इशारा करना चाह रहा हूं कि क्या हम अपनी भाषा को छोटे लोगों की भाषा समझकर अपनी खुद की इज्जत मिट्टी में नहीं मिला रहे हैं। अंग्रेजी आना और बहुत अच्छे से आना बहुत अच्छी बात है। लेकिन, हिंदी के शब्दों में अंग्रेजी मिलाकर रोमन में लिखी हिंदी बोलने वाले हिंदी का अहसास कहां से लाएंगे क्योंकि, उसमें तो अंग्रेजी की feel आने लगती है।

ये सही है कि अंग्रेजी के विद्वान बन जाने से दुनिया में हमें बहुत इज्जत भी मिली और दुनिया से हमने बहुत पैसा भी बटोर लिया। लेकिन, अब हम इतने मजबूत हो गए हैं कि दुनिया हमारी भाषा, हमारे देश का भी सम्मान करने के लिए मजबूर हो। और, ये तभी हो पाएगा जब हम खुद अपनी भाषा अपने देश का सम्मान करें। चूंकि, मीडिया का ही सबसे ज्यादा असर लोगों पर होता है और मीडिया में भी खबर देने वाले चैनल और फिल्मी कलाकार लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं। इसलिए इस सम्मान को समझने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी भी इन्हीं पर है। वैसे मुझे भी कभी-कभी लगता है कि जब अंग्रेजी से ही तरक्की मिल रही हो तो, हम क्यों बोलें हिंदी।

9 comments:

  1. मैं भी इस बात से सहमत हूं कि हिन्‍दी मजबूत है .. हिन्‍दी दिवस पर अधिक चिंता करने की कोई बात नहीं .. पर इसे अभी देख रेख की और जरूरत है .. वैसे पुरानी वाली पोस्‍ट भी आपकी सही है .. बाजार मे अंग्रेजी के बिना काम नहीं होता .. पर इस स्थिति को दूर करने में कुछ समय तो अवश्‍य लगेगा .. ब्‍लाग जगत में आज हिन्‍दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्‍छा लग रहा है .. हिन्‍दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!

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  2. मुश्किल ये है कि जिन्हें हिंदी ने सबसे ज्यादा दिया है वो, इसको ठीक से संभाल नहीं पा रहे हैं पहला मौका पाते ही अंग्रेज बन जाना चाहते हैं।
    Ab mai bhee Roman men likh rahee hoon par ye mera computer nahee hai to kshama prarthi hoon. Humare hath me itana hee hai ki hindi men likhen aur khoob likhen. to aap to apna kam bakhoobee kar rahe hain.

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  3. बढ़ते मध्यवर्ग के चलते हिंदी का क्या हो सकता है...बच्चे तो अंग्रेज़ी स्कूलों में जाते हैं

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  4. अच्छी बातें लगीं
    आपका , आभार इस जानकारी के लिए
    हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
    उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें
    इसी तरह लिखते रहें
    - लावण्या

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  5. बहुत अच्छा लिखा आपने। सवाल इसे व्यवहार में उतारने का है।

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  6. वास्तव में हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर सोच जगाता लेख !!

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  7. आपका विश्लेषण हमेशा की तरह जबरदस्त है | आपने साड़ी बात कह दी, अब टिपण्णी के लिए तो कुछ बच्चा नहीं | हाँ आजकल लड़कियां और महिलायें हिंदी मैं बिलकुल हो बोलना नहीं चाहती हैं, शायद उनके अन्दर अन्दर का अंग्रेजी वाइरस ज्यादा सक्रिय है |

    हिन्दी की दुर्दशा का कारण हमारी सरकार और बजारवाद के साथ साथ हम भी हैं | यहूदियों को देखें, पुरी दुनियाँ मैं ये लोग खुद या एक ग्रुप बनाकर अपने बच्चे को बचपन मैं ही हिब्रू सिखाते ही नहीं वरण इसके प्रती प्रेम की भावना भी जगा देते हैं | और हम भारतीय अपने बच्चे को हिंदी सिखाना ही नहीं चाहते |

    एक पते की बात बताता हूँ, जो लोग अपने बच्चों से मातृभाषा मैं नहीं बात करते वो बाद मैं जाकर रोते हैं ... जी हाँ रोते हैं .. ये मैंने अपनी आँखों से देखा है | बच्चों मैं संस्कार के लिए पहली सीढ़ी है मातृभाषा, जो लोग बच्चों को बिना मातृभाषा के संस्कारी बनाने का भूल कर रहे हैं वो रोएंगे .. ये मेरा दावा है ......

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