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उपन्यासकार नहीं मेरी नजर में सबसे बड़े समाजशास्त्री मुंशी प्रेमचंद्र होते तो, १२९ साल के होते। खैर, वो हैं नहीं लेकिन, उनका लिखा जिसने जितना पढ़ा उसके लिए वो जिंदा हैं-रहेंगे। हम तो कोई उपन्यासकार-साहित्यकार-हिंदी के बड़े मूर्धन्य तो हैं नहीं। लेकिन, ऐसे ही मैं जब प्रेमचंद्र को याद करने का कोई भी लेख देख रहा था तो, उसमें उन्हें दलित उत्थान, महिला उत्थान की नींव रखने वाला समाज को बदलने वाला बताया गया है। लेकिन, मैं जब प्रेमचंद्र को याद करता हूं तो, कुछ दूसरे तरह से प्रेमचंद्र मुझे याद आते हैं।
प्रेमचंद्र का असली नाम धनपत राय तो, जबरदस्ती ठोंकने-पीटने पर दिमाग याद करता है। हमें तो, सिर्फ प्रेमचंद्र याद आते हैं। मुझे प्रेमचंद्र याद आते हैं उनकी लिखाई से और अपनी पढ़ाई से। वो, कोई अलग से बड़ी मेहनत करके साहित्य की पढ़ाई नहीं थी। पाठ्यक्रम की हिस्सा रही बूढ़ी काकी, हामिद का चिमटा से। अब जो मेरे परिचित प्रेमचंद्र हैं वो, मुझे कभी दलित, महिला उत्थान की बात करते नहीं दिखे। अच्छा ही हुआ, कम से कम मुझे तो यही लगता है। प्रेमचंद्र तो समाज के निचले पायदान पर खड़े हर आदमी के उत्थान की बात करते थे।
प्रेमचंद्र की बूढ़ी काकी मुझे अपनी बड़कीअम्मा (पिताजी की स्वर्गीय माताजी) जैसी दिखती थी। और, उस कहानी में भी बूढ़ी काकी पर कोई दरअसल जोर-जुल्म नहीं हुआ था। काकी की उम्र के लिहाज से थोड़ी चंचल हो गई जिह्वा और काकी की चचेरी बहू की अपने घऱ में शादी की प्राथमिकता का द्वंद भर था। कितने सलीके से काकी के सामने उनकी बहू शर्मसार हो गई। कोई प्रवचन नहीं। सास-बहू का आंदोलन नहीं। काकी को मेहमानों की पत्तल से जूठन खाते देख काकी के बेटे की पत्नी शर्म से जमीन में गड़ गई। भाव यही कि जिसके आशीर्वाद से सबकुछ हुआ (पैसे मिल रहे हों) उसे ही खाने के लिए पत्तल की जूठन चाटनी पड़ रही है। अब प्रेमचंद्र ने जिस तरह से हमारा परिचय बूढ़ी काकी से कराया। मैं गलती से भी अपनी बड़की अम्मा की किसी भी इच्छा को दबा नहीं सकता था। हमारी अम्मा ने बड़कीअम्मा ने आखिरी दम तक अम्मा की पूरी सेवा की लेकिन, अगर जरा भी कोर कसर होती तो, शायद प्रेमचंद्र की बूढ़ी काकी का परिचय हमें इस बात के लिए तैयार कर चुका था कि अपनी अम्मा को हम कहते कि बड़कीअम्मा की हर इच्छा पूरी करिए।
हमारी प्रेमचंद्र से जो और पहचान है वो, हामिद के चिमटे के जरिए है। वही ईदगाह वाला हामिद जिसका चिमटा ईदगाह के मेले के हर खिलौने का बाजा बजा देता है। आजजब टीवी पर एक विज्ञापन देखता हूं तो, लगता है जैसे प्रेमचंद्र की कहानी के हामिद और उसकी अम्मी को विज्ञापन लिखने वाले ने पर्दे पर उतार दिया हो। छोटा सा बच्चा अपनी मां के हाथ जलने से बचाने के लिए सड़क पर पडे स्टील के सरिए को चिमटे जैसा बनाकर देता है। ये प्रेमचंद्र स्टाइल विज्ञापन अधनंगे लड़के-लड़कियों के किसी भी विज्ञापन को मात देता है। ये प्रेमचंद्र की समाज से जुड़ने की ताकत है आज भी, उनकी पैदाइश के 129 साल और दुनिया से जाने के 73 साल बाद भी।
आजकल हमारे नए मानव संसाधन मंत्री जी को भूत सवार है कि सारे घर के बदल डालना है। कहते हैं ना वो अंग्रेजी में कि change is life तो, सिब्बल साहब को भी यही लग रहा है। वो, कह रहे हैं कि देश भर में एक बोर्ड कर दो। देश भर में 10वीं की परीक्षा वैकल्पिक कर दो। मतलब बच्चे का मन हो पढ़े न पढ़े। परीक्षा दे न दे। सिब्बल साहब तो ज्ञानी आदमी हैं उनको हम क्या सलाह देंगे। लेकिन, अगर सिब्बल साहब एक चीज देश में एक जैसी कर देते तो, मजा आ जाता। हम उनके साथ खड़े हो जाते। सिब्बल साहब प्रेमचंद्र से पूरे देश का परिचय करा दीजिए। हर स्कूल के पाठ्यक्रम में प्रेमचंद्र की बूढ़ी काकी, हामिद के चिमटे को जगह दिलवा दीजिए। यकीन मानिए बच्चे ये प्रेमचंद्र से परिचित हो गए तो, दलित, महिला उत्थान के लिए ज्यादा लड़ने, सरकारी कार्यक्रम चलाने मंच पर खंखारकर गला साफ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
हमें तो प्रेमचंद्र का होरी भी हमारे घर-गांव-परिवार का धोती-और बनियान पहने आदमी लगता है। हमारा पंडितों का गांव है लेकिन, वेशभूषा, पहनावे-रहन सहन से होरी ज्यादा अलग नहीं लगता। उससे परिचित होने के बाद किसी भी कमजोर को किसी मजबूत के कर्मों से पिसते देखता हूं तो, गुस्सा आती है। कमजोर के साथ मजबूत से लड़ने का मन करता है। पाठ्यक्रम में बच्चों को प्रेमचंद्र से परिचित करा दीजिए। देखिए सच का सामना जैसे सीरियल टीवी पर दिखाए जाएं या नहीं इस चर्चा से संसद बच जाएगी। राखी का स्वयंवर और इस जंगल से मुझे बचाओ जैसे सीरियल टीआरपी चार्ट पर जाने कहां सरक जाएंगे। मां-बाप, परिवार, पड़ोसी के साथ गलत बर्ताव की खबरों का मीडिया में अकाल पड़ जाएगा। बस साहब प्रेमचंद्र का समाजशास्त्र बच्चों को समझा भर दीजिए, प्रेमचंद्र से परिचित करा दीजिए। और, इससे बड़ी श्रद्धांजलि प्रेमचंद्र को क्या दी जा सकती है।