संजय दत्त चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। फिल्म अभिनेता संजय दत्त समाजवादी पार्टी से लखनऊ से प्रत्याशी थे। सुप्रीमकोर्ट ने ये अहम फैसला सुनाते हुए कहाकि वो पीपुल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट के खिलाफ फैसला नहीं देंगे। पीपुल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि किसी भी ऐसे व्यक्ति को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती जिसे किसी भी अदालत से दो साल से ज्यादा की सजा दी गई हो। और, संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने मुंबई धमाकों के मामले में 6 साल की सजा सुनाई है।
ये फैसला इसलिए भी बेहद अहम है कि संजय दत्त को उस लखनऊ सीट से चुनाव मैदान में उतार रही थी। जहां से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लगातार कई बार से जीतकर संसद में पहुंच रहे थे। वाजपेयी के अस्वस्थ होने की वजह से बीजेपी ने लाजी टंडन को मैदान में उतार दिया है। लालजी टंडन को सिर्फ इसलिए टिकट दिया गया कि वो, वाजपेयी के बेहद नजदीकी थे और लखनऊ में वाजपेयी के प्रतिनिधि भी थे। संजय दत्त के खिलाफ बीएसपी के टिकट पर लड़ रहे अखिलेश दास की भी छवि कोई अच्छी नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता को बेटे अखिलेश दास पैसे के जोर से कभी इस दल से तो कभी उस दल से सत्ता का सुख लेते रहे हैं। कुल मिलाकर इस सीट से लड़ने वाले दूसरे प्रत्याशी कोई बहुत बेहतर नहीं हैं। कांग्रेस ने सुनील दत्त का बेटा होने की वजह से अब तक कोई प्रत्याशी नहीं उतारा था। अब कांग्रेस भी प्रत्याशी उतारने जा रही है। लेकिन, संजय दत्त के चुनाव लड़ने पर रोक इस लिहाज से बेहद अहम है कि संजय दत्त उस गांधीगीरी की विरासत संभालने का नाटकीय भ्रम फैला रहे थे जिसके सारे उसूलों को संजय दत्त के कर्मों ने चूर-चूर कर दिया था। वैसे अभी भी संजय दत्त संसद पहुंचने की कोशिश करेंगे- मुखौटा भले मान्यता का होगा।
संजय दत्त के ऊपर जो मामला है वो, राष्ट्रद्रोह जैसा है। हालांकि, मुंबई धमाकों के सिलसिले में उन्हें आर्म्स एक्ट के तहत दोषी पाया गया। कुख्यात माफिया-अपराधियों की तरह संजय दत्त के पास से एके 47 जैसी खतरनाक राइफल पकड़ी गई थी। दाउद से लेकर भारत के खिलाफ हर तरह के कुकर्म करने वाले जाने कितने अपराधियों से संजय के याराने के सबूत मुंबई पुलिस को मिले थे। लेकिन, सुनील दत्त का बेटा होना और सफल फिल्म अभिनेता होने के साथ कांग्रेस और दूसरी राजनीतिक पार्टियों में अच्छे रिश्ते ने ऐसा माहौल बनाया कि देश की जनता संजय दत्त को अपराधी की बजाए गुस्साने के बजाए एक अजब सी सहानुभूति दिखाने लगी। बची-खुची कसर मुन्नाभाई के नाम के उस चरित्र ने कर दी जो, सारी समस्याओं का इलाज गांधीगीरी से कर देता था।
कमाल की बेशर्मी वाली याचिका था संजय दत्त की। वो, सुप्रीमकोर्ट से ये कह रहे थे कि टाडा कोर्ट के उस फैसले पर स्टे दे दे। जिसमें उन्हें दोषी ठहराया गया। वो, स्टे इसलिए नहीं कि वो दोषी नहीं हैं सिर्फ इसलिए कि इस स्टे के आधार पर वो लखनऊ लोकसभा सीट से जीतकर संसद पहुंच जाएं। यानी उस जगह पर जहां से सारे कानून बनते हैं। जहां से तय होता है कि देश कैसे चलेगा। ऐसा नहीं है कि संजय दत्त अकेले के न पहुंचने से संसद स्वच्छ हो जाएगी। लेकिन, संजय दत्त के खिलाफ आया ये फैसला अपराधियों को संसद में पहुंचने से रोकने की एक अच्छी शुरुआत हो सकता है।
वैसे ये शुरुआत अदालतों के बूते पहले ही हो चुकी है। सीवान, बिहार के कुख्यात अपराधी पूर्व सांसद शहाबुद्दीन को अदालत ने चुनाव लड़ने की इजाजत देने से इनकार कर दिया है। बिहार में एक जिलाधिकारी की हत्या के दोषी आनंद मोहन, कुख्यात माफिया सूरजभान सिंह और पप्पू यादव को भी अदालतों ने चुनाव लड़ने की इजाजत देने से इनकार कर दिया है। उत्तर प्रदेश में बीएसपी विधायक राजू पाल की हत्या के आरोपी अतीक अहमद भी जेल में हैं और, अदालत ने उन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत तो दे दी है लेकिन, प्रतापगढ़ जाकर पर्चा भरने की इजाजत नहीं दी है। बनारस से बीएसपी टिकट पर चुनाव लड़ रहे मुख्तार अंसारी पर अभी कोई रोक नहीं लगी है।
ऐसा नहीं है कि इससे ये अपराधी पूरी तरह से राजनीति से बाहर हो गए हैं या हो रहे हैं। दरअसल इन सारे अपराधियों ने उसका भी रास्ता निकाल लिया है। शहाबुद्दीन, सूरजभान और पप्पू यादवव की पत्नियां, पति की चरण पादुका लेकर संसद में पहुंचेंगी। मुख्तार अंसारी की पत्नी ने सावधानी वश नामांकन दाखिल कर दिया है कि अगर उन पर कोई अदालती रोक लगे तो, पत्नी का मुखौटा लगाकर वो, संसद में पहुंच जाएं। खुद पर कोई आंच आने पर अतीक भी अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाने की योजना बनाकर तैयार हैं।
कुल मिलाकर ऐसा नहीं है कि इन अदालती फैसलों से ये अपराधी पूरी तरह से राजनीति से बाहर हो गए हैं या हो रहे हैं। दरअसल इन सारे अपराधियों ने उसका भी रास्ता निकाल लिया है। शहाबुद्दीन, सूरजभान और पप्पू यादवव की पत्नियां, पति की चरण पादुका लेकर संसद में पहुंचेंगी। ये अपराधी जैसे पहले जेल से बैठकर गैंग चलाते थे। वैसे ही वो, अब जेल में ही गैंग चलाने के साथ-साथ संसद भी चलाएंगे।
लेकिन, ये एक शुरुआत भर है और चुनाव सुधारों- पीपुल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट में एक नया क्लॉज जोड़ने की जरूरत भी बताता है कि सिर्फ दोषी अपराधी ही नहीं उनके उन निकट संबंधियों पर भी रोक कानून बने जिनसे सीधे तौर पर अपराधी जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र में ये मांग थोड़ी अजीब हो सकती है। लेकिन, भारतीय लोकतंत्र जिस हद तक बिगड़ गया है उसे सुधारने के लिए कई बड़े सुधारों की जरूरत है जिसमें से एक ये है। कुल मिलाकर शुरुआत अच्छी है और हम सबको इस शुरुआत को और मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए। वो, ये कि आरोपी अपराधी न सही तो, कम से कम दोषी अपराधियों की पत्नियों को भी संसद में नहीं पहुंचने देंगे।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Tuesday, March 31, 2009
Tuesday, March 10, 2009
भारतीय राजनीति का गिरगिटिया चरित्र
प्यार और जंग में सब जायज है लेकिन, राजनीति इन दोनों से ही बढ़कर है। जहां किसी से मोहब्बत या जंग के लिए कोई भी नाजायज बहाना तलाश लिया जाता है। और, बेशर्मी इतनी पीछे छूट गई होती है कि इसका एलान बाकायदा मीडिया के सामने किया जाता है। या यूं कहें कि राजनीति में बेशर्मी जैसी चीज होती ही नहीं है। वैसे तो, लोकसभा चुनाव के महासंग्राम के ठीक पहले चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम से हर दिन भारतीय राजनीति के गिरगिटिया चरित्र को पुख्ता करने वाले सबूत (अखबारों-टीवी चैनलों पर नेता उवाच से) मिलते रहते हैं। लेकिन, उड़ीसा की पावन धरती से उपजे एक महासंयोग ने गिरगिट को भी शरमाने पर मजबूर कर दिया है।
मीडिया के सामने देश के सबसे विनम्र और मृदुभाषी मुख्यमंत्री ब्रांड नवीन पटनायक पर आरोप लगाते समय चंदन मित्रा और रविशंकर प्रसाद का चेहरा तमतमा रहा था। दोनों एक सुर में बोल रहे थे कि बीजू जनता दल ने उन्हें धोखा दिया है। और, नवीन पटनायक मुस्कुराते हुए लेफ्ट नेता सीताराम येचुरी के साथ हाथ पकड़कर तीसरे मोरचे की संजीवनी बन रहे हैं। लेकिन, उन्होंने अब तक ये नहीं कहा है कि वो तीसरे मोरचे में शामिल हो रहे हैं। हां, राजनीतिक गिरगिटों को एक बात खूब ध्यान में रहती है कि – दुश्मनी जमकर करो मगर ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त बनें तो शर्मिंदा न हों—या यूं कहें कि बशीर बद्र का ये शेर राजनीति की जान बन गया है।
अमर सिंह, मुलायम सिंह, मायावती, शिवसेना, शरद पवार, बीजू जनता दल, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी ये क्षेत्रीय क्षत्रप अगर अपने ही साल भर के बयानों को एक साथ सुनें-पढ़ें तो, न चाहते हुए भी थोड़ी शर्म तो आ ही जाएगी। परमाणु करार के समय मायावती करात के साथ हाथ पकड़कर तीसरे मोरचे को तैयार कर रही थीं। लेकिन, इसे मायावती का करात मोह न समझ बैठिएगा। ये दरअसल मायावती की प्रधानमंत्री बनने की निजी महत्वाकांक्षा है जो, परमाणु करार के विरोध में बहनजी को कॉमरेड के पास तक ले गया। और, मायावती के बड़ा बनने का डर मुलायम-अमर की जोड़ी को 10 जनपथ तक पहुंचा आया। सरकार पर बन आई थी तो, अमर-मुलायम को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परमाणु समझौता समझाने उनके घर पहुंच गए। मनमोहन-सोनिया तो हॉटलाइन पर थे ही। और, अब जब उत्तर प्रदेश में तालमेल की बात आई तो, अमर-मुलायम को भाव ही नहीं मिल पा रहा।
परमाणु करार पर कॉमरेडों को किनारे करने के बाद अब अमर सिंह कांग्रेस से चोट खा रहे हैं तो, फिर कह रहे हैं कि जब मायावती तीसरे मोरचे में हैं तो, हम कैसे शामिल हो सकते हैं। इशारा साफ है कि अगर चुनाव बाद मायावती बाहर रहें और हमें लेफ्ट तवज्जो दे तो, हम फिर तीसरे मोरचे में शामिल हो सकते हैं।
लेफ्ट के साथ अच्छा ये है कि उसके नेता बीजेपी, कांग्रेस या फि दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की तरह प्रधानमंत्री पद की रेस में खुद को नहीं बताते रहते हैं। लेकिन, तीसरे मोरचे के अस्तित्व पर संकट आता है तो, लेफ्ट की सांस अंटक जाती है। लेकिन, एक पटनायक का सहारा पाकर तीसरा मोरचा अस्पताल के ICU से सीधे निकलकर चुनावी मंच पर दहाड़ लगा रहा है। मायावती जैसी ही प्रधानमंत्री बनने की इच्छा एनसीपी के शरद पवार भी रखते हैं इसलिए दबे छुपे मराठी प्रधानमंत्री के नाम पर शिवसेना से गलबहियां मिला लेते हैं। और, तीसरे मोरचे के नेताओं को भी साधे रहते हैं। कांग्रेस से भी बैर नहीं लेना चाहते क्योंकि, तीसरे मोरचे को चाहे जितना मांजकर चमका लें बिना कांग्रेस या बीजेपी के समर्थन के तीसरे मोरचे में मुरचा (जंग) ही लग जाएगा।
इसीलिए पवार शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे से भी मिल लेते हैं। और, मीडिया में हल्ला मचवाते हैं कि दोनों के बीच अंदर ही अंदर कुछ पक रहा है। जबकि, कोई नासमझ राजनीतिक जानकार भी ये बता सकता है कि फिलहाल किसी भी कीमत पर एनसीपी-शिवसेना महाराष्ट्र में एक साथ नहीं आ सकते। क्योंकि, दोनों की ही असली बुनियाद मराठी हितचिंतक के बहाने मजबूत होती है। राज ठाकरे जैसे नेता तो, कबाब में हड्डी भर ही हैं। वैसे शरद पवार मन ही मन ये गुणा गणित लगाए बैठे हैं कि वो, भी शायद मराठी अस्मिता के नाम प्रधानमंत्री पद के लिए शिवसेना का समर्थन वैसे ही पा जाएंगे जैसे प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति पद के लिए मिला था।
खैर, जो भी हो भारतीय राजनीति के गिरगिटिया चरित्र की ही वजह से तीसरे मोरचे को ताकत मिलती रहती है। एक चुनावी मौसम बदलता है तो, एनडीए-यूपीए के वटवृक्ष में शाखाएं घटती बढ़ती रहती हैं। और, एनडीए-यूपीए के वटवृक्ष से टूटती हर शाखा तीसरे मोरचे से सिर्फ इसलिए जा चिपकती है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए जब उन्हें चुना जाएगा तो, यूपीए-एनडीए में से किसी एक वटवृक्ष का सहारा मिल जाएगा। देखिए अभी तो चुनाव शुरू हुए हैं। चुनाव होने और उसके बाद देशवासियों को नई सरकार मिलने तक भारतीय राजनीति कितने रंग बदलती है।
मीडिया के सामने देश के सबसे विनम्र और मृदुभाषी मुख्यमंत्री ब्रांड नवीन पटनायक पर आरोप लगाते समय चंदन मित्रा और रविशंकर प्रसाद का चेहरा तमतमा रहा था। दोनों एक सुर में बोल रहे थे कि बीजू जनता दल ने उन्हें धोखा दिया है। और, नवीन पटनायक मुस्कुराते हुए लेफ्ट नेता सीताराम येचुरी के साथ हाथ पकड़कर तीसरे मोरचे की संजीवनी बन रहे हैं। लेकिन, उन्होंने अब तक ये नहीं कहा है कि वो तीसरे मोरचे में शामिल हो रहे हैं। हां, राजनीतिक गिरगिटों को एक बात खूब ध्यान में रहती है कि – दुश्मनी जमकर करो मगर ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त बनें तो शर्मिंदा न हों—या यूं कहें कि बशीर बद्र का ये शेर राजनीति की जान बन गया है।
अमर सिंह, मुलायम सिंह, मायावती, शिवसेना, शरद पवार, बीजू जनता दल, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी ये क्षेत्रीय क्षत्रप अगर अपने ही साल भर के बयानों को एक साथ सुनें-पढ़ें तो, न चाहते हुए भी थोड़ी शर्म तो आ ही जाएगी। परमाणु करार के समय मायावती करात के साथ हाथ पकड़कर तीसरे मोरचे को तैयार कर रही थीं। लेकिन, इसे मायावती का करात मोह न समझ बैठिएगा। ये दरअसल मायावती की प्रधानमंत्री बनने की निजी महत्वाकांक्षा है जो, परमाणु करार के विरोध में बहनजी को कॉमरेड के पास तक ले गया। और, मायावती के बड़ा बनने का डर मुलायम-अमर की जोड़ी को 10 जनपथ तक पहुंचा आया। सरकार पर बन आई थी तो, अमर-मुलायम को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परमाणु समझौता समझाने उनके घर पहुंच गए। मनमोहन-सोनिया तो हॉटलाइन पर थे ही। और, अब जब उत्तर प्रदेश में तालमेल की बात आई तो, अमर-मुलायम को भाव ही नहीं मिल पा रहा।
परमाणु करार पर कॉमरेडों को किनारे करने के बाद अब अमर सिंह कांग्रेस से चोट खा रहे हैं तो, फिर कह रहे हैं कि जब मायावती तीसरे मोरचे में हैं तो, हम कैसे शामिल हो सकते हैं। इशारा साफ है कि अगर चुनाव बाद मायावती बाहर रहें और हमें लेफ्ट तवज्जो दे तो, हम फिर तीसरे मोरचे में शामिल हो सकते हैं।
लेफ्ट के साथ अच्छा ये है कि उसके नेता बीजेपी, कांग्रेस या फि दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की तरह प्रधानमंत्री पद की रेस में खुद को नहीं बताते रहते हैं। लेकिन, तीसरे मोरचे के अस्तित्व पर संकट आता है तो, लेफ्ट की सांस अंटक जाती है। लेकिन, एक पटनायक का सहारा पाकर तीसरा मोरचा अस्पताल के ICU से सीधे निकलकर चुनावी मंच पर दहाड़ लगा रहा है। मायावती जैसी ही प्रधानमंत्री बनने की इच्छा एनसीपी के शरद पवार भी रखते हैं इसलिए दबे छुपे मराठी प्रधानमंत्री के नाम पर शिवसेना से गलबहियां मिला लेते हैं। और, तीसरे मोरचे के नेताओं को भी साधे रहते हैं। कांग्रेस से भी बैर नहीं लेना चाहते क्योंकि, तीसरे मोरचे को चाहे जितना मांजकर चमका लें बिना कांग्रेस या बीजेपी के समर्थन के तीसरे मोरचे में मुरचा (जंग) ही लग जाएगा।
इसीलिए पवार शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे से भी मिल लेते हैं। और, मीडिया में हल्ला मचवाते हैं कि दोनों के बीच अंदर ही अंदर कुछ पक रहा है। जबकि, कोई नासमझ राजनीतिक जानकार भी ये बता सकता है कि फिलहाल किसी भी कीमत पर एनसीपी-शिवसेना महाराष्ट्र में एक साथ नहीं आ सकते। क्योंकि, दोनों की ही असली बुनियाद मराठी हितचिंतक के बहाने मजबूत होती है। राज ठाकरे जैसे नेता तो, कबाब में हड्डी भर ही हैं। वैसे शरद पवार मन ही मन ये गुणा गणित लगाए बैठे हैं कि वो, भी शायद मराठी अस्मिता के नाम प्रधानमंत्री पद के लिए शिवसेना का समर्थन वैसे ही पा जाएंगे जैसे प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति पद के लिए मिला था।
खैर, जो भी हो भारतीय राजनीति के गिरगिटिया चरित्र की ही वजह से तीसरे मोरचे को ताकत मिलती रहती है। एक चुनावी मौसम बदलता है तो, एनडीए-यूपीए के वटवृक्ष में शाखाएं घटती बढ़ती रहती हैं। और, एनडीए-यूपीए के वटवृक्ष से टूटती हर शाखा तीसरे मोरचे से सिर्फ इसलिए जा चिपकती है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए जब उन्हें चुना जाएगा तो, यूपीए-एनडीए में से किसी एक वटवृक्ष का सहारा मिल जाएगा। देखिए अभी तो चुनाव शुरू हुए हैं। चुनाव होने और उसके बाद देशवासियों को नई सरकार मिलने तक भारतीय राजनीति कितने रंग बदलती है।
Saturday, March 07, 2009
उगती फसलों के बीच घुटती आवाजें
(अंतराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च)पर महिला किसानों के हाल को बेहतर बनाने के लिए प्रतापजी ने एक ऐसा सुझाव दिया है जो, सही मायनों में महिला सशक्तिकरण, महिलाओं के बराबरी के हक की बात करता है। में ये पूरा लेख ही छाप रहा हूं)
बिवाई फटे पैर
हम निकालती हैं खरपतवार
ताकि पौधों को रस मिल सके
फूले-फलें पौधे
खेतों में सोना बरसे
हमारे फटे आंचल से
रस्ते में गिर जाता है
मजूरी का अनाज
जनकवि गोरख पांडेय की इन पक्तियों से गुजरते हुए खेतों में काम करने वाली औरतें आपके जेहन में आ चुकी होगीं। ये देश के 70 प्रतिशत की देहात की आबादी की वे औरतें हैं जो 85 प्रतिशत से अधिक खेती के काम में अपना योगदान देती हैं। पहला विवरण नेशनल सैंपल सर्वे और दूसरा तथ्य इंटरनेशनल वीमेन रिसर्च इंस्टीट्यूट का है। हमारे अनुभव तो इसे 90 फीसदी से उपर का बताते हैं। पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में तो यह शत-प्रतिशत जा गिरता है। गोरख की कविता की इन औरतों को देहरी के भीतर और बाहर किस पहचान और अधिकार की दरकार है, उन महिला किसानों पर कुछ जरूरी बातें हो जाएं।
इंटरनेशनल फंड फार एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ने गुजरी फरवरी को रोम में एक सम्मेलन किया। 165 देशों के प्रतिनिधि थे, जर्मनी, नाइजीरिया, पाकिस्तान और भारत सहित। वहां के तीन प्रमुख विषयों में खाद्यान्न और मूल्य वृद्धि,मौसम के बदलाव का खेती पर असर के साथ दुनिया के महिला किसानों की चुनौतियों को खास तौर पर शामिल किया गया था। शामिल देशों के सभी प्रतिनिधियों के बीच आमराय थी कि विश्व भर में महिलाएं खेती के काम में सबसे अधिक योगदान करती हैं और उनका योगदान अदृश्य वाली स्थिति में रहता है। उनके श्रम को घरेलू सहयोग की श्रेणी में रखा जाता है। जहां औरतें खेत मजदूर के तौर पर काम करती हैं वहां पुरूषों की तुलना में उनकी मजदूरी का कम होना भी विसंगति का एक प्रकार है।
महिलाएं अन्न उत्पादन ही नहीं पर्यावरण संरक्षण और पशुपालन दोनों में आगे की भूमिका निभाती हैं। खेती में जुताई के अलावा अधिकतर काम महिलाओं की मुख्य भूमिका में ही संपादित होते हैं। इस परंपरा को हम अतीत से यूं भी समझ सकते हैं कि बुवाई, कटाई से लेकर कृषि के तमाम कार्यो से जुड़े लोकगीत महिलाओं की भूमिका को प्रामाणिक अभिव्यक्ति देते हैं। भारत में कर्नाटक फोरम फार लैंड राइट्स नाम की संस्था पिछले दो दशक से यह अभियान चला रही है कि भूमि खाते स्त्री और पुरूष के संयुक्त नाम से होने चाहिए। सरकार कृषक परिवार के तौर पर देखे न कि व्यक्तिगत खातेदार के तौर पर। देश के दूसरे हिस्सों से भी इस मांग को समर्थन मिलता रहा है। इसके पीछे के ठोस तर्क हैं कि इससे महिलाओं के परिवार में अधिकार को आधार मिलेगा। घरेलू हिंसा के नियंत्रण में भी यह कदम कारगर होगा।
इसके पक्ष में कहा जाता है कि शादी के बाद जब लडक़ी ससुराल आती है तो राशन कार्ड और दूसरे दस्तावेजों पर उसका नाम जोड़ा जाता है तो जमीन के कागजातों में जोडऩे की अनिवार्यता होनी चाहिए। राजस्व के रिकार्ड कर वसूली की सहूलियत के लिए परिवार के मुखिया के नाम से बनाए जाते रहे हैं। यह मांग इस राजस्व वसूली के दस्तावेज के सामाजिक निहितार्थ को स्पष्ट करती है। पिछले दिनों विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर दिल्ली में महिला किसानों की रैली में भी जमीन के दस्तावेजों में महिला को बराबर का महत्व देने की मुख्य मांग रखी गई थी। इंडियन साइंस कांग्रेस 2008 के दौरान विशाखापत्तनम में भी महिला किसानों से संबंधित 9 प्रमुख मांगों का एक प्रस्ताव पारित किया गया था।
सरकार, बजट, नीतियां, आयोग इन सारे शब्दों के आगे-पीछे झांकने पर तो इधर कुछ दिखता नहीं। सन 2005 में राष्ट्रपति को भेजे एक ज्ञापन में महिला किसानों के लिए एक डाक टिकट जारी करने की साधारण सी मांग की गई थी। मंशा थी कि देश महिलाओं के कृषि में योगदान को एक स्वीकृति दे। दुनिया में महिला किसानों का हाल इसी से समझा जा सकता है कि ज्ञापन के अनुसार भारत अगर डाक टिकट जारी करता है तो ऐसा करने वाला वह दुनिया का पहला देश होगा। वर्तमान के अनुत्तरित प्रश्नों में एक सबसे बड़ा यह है कि बंटाई पर खेती करने वाले किसान माने जा सकते हैं, लेकिन महिला नहीं। औरतों की आत्महत्या को किसान पत्नी के नाम से दर्ज किया जाता है। इस तरह नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1997 से 2007 तक 182, 936 किसानों की आत्महत्या का जो विवरण है, वो आधा-अधूरा है, क्योंकि इसमें किसान परिवार की औरतें शामिल नही हैं। यानि हम औरतों को परिदृश्य में रखकर यथार्थ से भी भागते हैं।
राष्ट्रीय किसान नीति-2007 में महिलाओं को सहायक सुविधाएं दिए जाने पर जोर देती है। मसलन, काम के स्थान पर बच्चों की देखभाल के लिए क्रेच, उनके लिए बीमा की विशेष सुविधा, स्वास्थ्य संबंधी सहूलियतें आदि। यहां मसला महिलाओं को मजदूर के अधिकार से उपर उठाकर देखने की है, जो उनकी वास्तविक भूमिका है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर वीमेन फारमर के नाम पर इधर जो कुछ सामने भी आ रहा है, उसके एक बड़े हिस्सें में कई तरह की बदनीयती भी नजर आती है, जिसे आप देखने वालों की अपनी नीयत भरी दृष्टि भी कह सकते हैं।
इधर के कई एनजीओ महिला किसानों के नाम पर स्वंय सहायता समूह बनाने, ट्रेनिंग देने और विशेष ऋण देने के नाम पर कार्यक्रम चला रहे हैं। दक्षिण एशिया केकई देशों (भारत और पाकिस्तान सहित) में एक अंतराष्ट्रीय संस्था हंगर फ्री वूमेन अभियान चला रहा है, उसमें भी महिला किसानों के अधिकारों और स्वावलंबन के एजन्डे को रखा गया है। अंतराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं से वित्त पोषित एनजीओ के अपने लक्ष्य और अपनी सीमाएं है। फंडिग एजेंसी के एजेन्डे के बंधन को तोड़ पाना उनके लिए संभव नहीं है। जरूरत एक बड़े बदलाव की है। एक खतरे से यहां बचना है कि इसे महिला बनाम पुरूष का मुद्दा बनाने की जगह महिलाओं की शक्ति को संगठित करने और उसके महत्व को अधिकार देने की बात की जानी चाहिए। राहत के कुछ उपाय और महिला सशक्तिकरण के नाम पर देशी-विदेशी वित्त पोषित अभियान थोड़ी दूर चलकर रूक जाते हैं।
गोरख पाण्डेय के उसी गीत में आखिर की दो लाइनें हैं-जिसमें खेत में काम करती औरतें अपनी इच्छा और अधिकार की अपेक्षा दोनों जाहिर करती हैं। औरतों के सवाल कुछ वैसे ही नतीजे की परिणिति चाहते हैं।
पक्तियां है-
उगाया करें हम मिट्टी में सोना । और हमें दूसरों के आगे आंचल न पसारना पड़े।
बिवाई फटे पैर
हम निकालती हैं खरपतवार
ताकि पौधों को रस मिल सके
फूले-फलें पौधे
खेतों में सोना बरसे
हमारे फटे आंचल से
रस्ते में गिर जाता है
मजूरी का अनाज
जनकवि गोरख पांडेय की इन पक्तियों से गुजरते हुए खेतों में काम करने वाली औरतें आपके जेहन में आ चुकी होगीं। ये देश के 70 प्रतिशत की देहात की आबादी की वे औरतें हैं जो 85 प्रतिशत से अधिक खेती के काम में अपना योगदान देती हैं। पहला विवरण नेशनल सैंपल सर्वे और दूसरा तथ्य इंटरनेशनल वीमेन रिसर्च इंस्टीट्यूट का है। हमारे अनुभव तो इसे 90 फीसदी से उपर का बताते हैं। पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में तो यह शत-प्रतिशत जा गिरता है। गोरख की कविता की इन औरतों को देहरी के भीतर और बाहर किस पहचान और अधिकार की दरकार है, उन महिला किसानों पर कुछ जरूरी बातें हो जाएं।
इंटरनेशनल फंड फार एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ने गुजरी फरवरी को रोम में एक सम्मेलन किया। 165 देशों के प्रतिनिधि थे, जर्मनी, नाइजीरिया, पाकिस्तान और भारत सहित। वहां के तीन प्रमुख विषयों में खाद्यान्न और मूल्य वृद्धि,मौसम के बदलाव का खेती पर असर के साथ दुनिया के महिला किसानों की चुनौतियों को खास तौर पर शामिल किया गया था। शामिल देशों के सभी प्रतिनिधियों के बीच आमराय थी कि विश्व भर में महिलाएं खेती के काम में सबसे अधिक योगदान करती हैं और उनका योगदान अदृश्य वाली स्थिति में रहता है। उनके श्रम को घरेलू सहयोग की श्रेणी में रखा जाता है। जहां औरतें खेत मजदूर के तौर पर काम करती हैं वहां पुरूषों की तुलना में उनकी मजदूरी का कम होना भी विसंगति का एक प्रकार है।
महिलाएं अन्न उत्पादन ही नहीं पर्यावरण संरक्षण और पशुपालन दोनों में आगे की भूमिका निभाती हैं। खेती में जुताई के अलावा अधिकतर काम महिलाओं की मुख्य भूमिका में ही संपादित होते हैं। इस परंपरा को हम अतीत से यूं भी समझ सकते हैं कि बुवाई, कटाई से लेकर कृषि के तमाम कार्यो से जुड़े लोकगीत महिलाओं की भूमिका को प्रामाणिक अभिव्यक्ति देते हैं। भारत में कर्नाटक फोरम फार लैंड राइट्स नाम की संस्था पिछले दो दशक से यह अभियान चला रही है कि भूमि खाते स्त्री और पुरूष के संयुक्त नाम से होने चाहिए। सरकार कृषक परिवार के तौर पर देखे न कि व्यक्तिगत खातेदार के तौर पर। देश के दूसरे हिस्सों से भी इस मांग को समर्थन मिलता रहा है। इसके पीछे के ठोस तर्क हैं कि इससे महिलाओं के परिवार में अधिकार को आधार मिलेगा। घरेलू हिंसा के नियंत्रण में भी यह कदम कारगर होगा।
इसके पक्ष में कहा जाता है कि शादी के बाद जब लडक़ी ससुराल आती है तो राशन कार्ड और दूसरे दस्तावेजों पर उसका नाम जोड़ा जाता है तो जमीन के कागजातों में जोडऩे की अनिवार्यता होनी चाहिए। राजस्व के रिकार्ड कर वसूली की सहूलियत के लिए परिवार के मुखिया के नाम से बनाए जाते रहे हैं। यह मांग इस राजस्व वसूली के दस्तावेज के सामाजिक निहितार्थ को स्पष्ट करती है। पिछले दिनों विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर दिल्ली में महिला किसानों की रैली में भी जमीन के दस्तावेजों में महिला को बराबर का महत्व देने की मुख्य मांग रखी गई थी। इंडियन साइंस कांग्रेस 2008 के दौरान विशाखापत्तनम में भी महिला किसानों से संबंधित 9 प्रमुख मांगों का एक प्रस्ताव पारित किया गया था।
सरकार, बजट, नीतियां, आयोग इन सारे शब्दों के आगे-पीछे झांकने पर तो इधर कुछ दिखता नहीं। सन 2005 में राष्ट्रपति को भेजे एक ज्ञापन में महिला किसानों के लिए एक डाक टिकट जारी करने की साधारण सी मांग की गई थी। मंशा थी कि देश महिलाओं के कृषि में योगदान को एक स्वीकृति दे। दुनिया में महिला किसानों का हाल इसी से समझा जा सकता है कि ज्ञापन के अनुसार भारत अगर डाक टिकट जारी करता है तो ऐसा करने वाला वह दुनिया का पहला देश होगा। वर्तमान के अनुत्तरित प्रश्नों में एक सबसे बड़ा यह है कि बंटाई पर खेती करने वाले किसान माने जा सकते हैं, लेकिन महिला नहीं। औरतों की आत्महत्या को किसान पत्नी के नाम से दर्ज किया जाता है। इस तरह नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1997 से 2007 तक 182, 936 किसानों की आत्महत्या का जो विवरण है, वो आधा-अधूरा है, क्योंकि इसमें किसान परिवार की औरतें शामिल नही हैं। यानि हम औरतों को परिदृश्य में रखकर यथार्थ से भी भागते हैं।
राष्ट्रीय किसान नीति-2007 में महिलाओं को सहायक सुविधाएं दिए जाने पर जोर देती है। मसलन, काम के स्थान पर बच्चों की देखभाल के लिए क्रेच, उनके लिए बीमा की विशेष सुविधा, स्वास्थ्य संबंधी सहूलियतें आदि। यहां मसला महिलाओं को मजदूर के अधिकार से उपर उठाकर देखने की है, जो उनकी वास्तविक भूमिका है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर वीमेन फारमर के नाम पर इधर जो कुछ सामने भी आ रहा है, उसके एक बड़े हिस्सें में कई तरह की बदनीयती भी नजर आती है, जिसे आप देखने वालों की अपनी नीयत भरी दृष्टि भी कह सकते हैं।
इधर के कई एनजीओ महिला किसानों के नाम पर स्वंय सहायता समूह बनाने, ट्रेनिंग देने और विशेष ऋण देने के नाम पर कार्यक्रम चला रहे हैं। दक्षिण एशिया केकई देशों (भारत और पाकिस्तान सहित) में एक अंतराष्ट्रीय संस्था हंगर फ्री वूमेन अभियान चला रहा है, उसमें भी महिला किसानों के अधिकारों और स्वावलंबन के एजन्डे को रखा गया है। अंतराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं से वित्त पोषित एनजीओ के अपने लक्ष्य और अपनी सीमाएं है। फंडिग एजेंसी के एजेन्डे के बंधन को तोड़ पाना उनके लिए संभव नहीं है। जरूरत एक बड़े बदलाव की है। एक खतरे से यहां बचना है कि इसे महिला बनाम पुरूष का मुद्दा बनाने की जगह महिलाओं की शक्ति को संगठित करने और उसके महत्व को अधिकार देने की बात की जानी चाहिए। राहत के कुछ उपाय और महिला सशक्तिकरण के नाम पर देशी-विदेशी वित्त पोषित अभियान थोड़ी दूर चलकर रूक जाते हैं।
गोरख पाण्डेय के उसी गीत में आखिर की दो लाइनें हैं-जिसमें खेत में काम करती औरतें अपनी इच्छा और अधिकार की अपेक्षा दोनों जाहिर करती हैं। औरतों के सवाल कुछ वैसे ही नतीजे की परिणिति चाहते हैं।
पक्तियां है-
उगाया करें हम मिट्टी में सोना । और हमें दूसरों के आगे आंचल न पसारना पड़े।
Tuesday, March 03, 2009
पिटते राष्ट्रीय मुद्दे और राष्ट्रीय पार्टियां
लोकसभा चुनाव का एलान हो गया है। देश भर से चुने गए सांसद अपनी पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के लिए एक दावेदार पेश करेंगे जो, देश चलाने का दावा करेगा। लेकिन, चुनावी महासमर से पहले इतना तो साफ हो गया है कि प्रधानमंत्री भले ही दोनों राष्ट्रीय पार्टियों (कांग्रेस या बीजेपी) में से किसी का किसी तरह से बन जाए। देश पर राज अब क्षेत्रीय पार्टियां ही करेंगी। क्षेत्रीय पार्टियों का दबाव होगा, स्थानीय मुद्दे हावी होंगे। राष्ट्रीय मुद्दों पर भाषण खूब होंगे लेकिन, वोट नहीं मिलेंगे।
मैं अगर कह रहा हूं कि सब कुछ क्षेत्रीय-स्थानीय हो गया है। राष्ट्रीय मुद्दा, राजनीति पीछे छूट रहे हैं तो, ऐसे ही नहीं कह रहा हूं। कल जब गोपालस्वामी चुनाव की तारीखों का एलान कर रहे थे तो, देश की दोनों बड़ी पार्टियां राज्यों में अपने सांसद बढ़ाने के लिए स्थनीय-क्षेत्रीय दलों को साष्टांग प्रणाम कर रहीं थीं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, लेफ्ट का गढ़ ढहाने के लिए ममता के सहारे थी तो, उत्तर प्रदेश में उसे मुलायम-अमर की जोड़ी का सहारा है जिन्होंने साम-दाम-दंड-भेद से यूपीए सरकार को परमाणु समझौते के मुद्दे पर बचा लिया था।
मामला सिर्फ इतना ही नहीं है कि कांग्रेस का हाथ इन क्षेत्रीय पार्टियों से मिलने के लिए बेकरार है, असल बात तो कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों का पिछलग्गू बनने से गुरेज नहीं है। बंगाल में कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन, राष्ट्रीय पार्टी के इस अंतराष्ट्रीय संकटमोचक के पास अपनी पार्टी की राष्ट्रीय उपस्थिति बनाए रखने का कोई नुस्खा नहीं है।
लेकिन, संकटमोचक महाराज पर ही सवाल क्यों खड़ा किया जाए? जब त्यागी सोनिया माता के साथ देश भर में कांग्रेस को खड़ा करने की अनोखी योजना तैयार करने का दावा करने वाले राहुल भइया और नौजवान आंधा-प्रियंका गांधी अपनी खानदानी विरासत वाले राज्य उत्तर प्रदेश में ही कोई ढंग की योजना नहीं दे पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय दिल्ली में गांधी परिवार के एक निकट व्यक्ति ने मुझसे कहाकि राहुल भइया की नजर लोकसभा चुनाव पर है। विधानसभा चुनाव तो सिर्फ रिहर्सल भर है।
योजना ये थी कि राहुल के विदेशों में पढ़ी नौजवानों की एक टीम लोकसभा चुनाव का खाका तैयार करेगी। विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए मजबूत सीटों को तलाशा जाएगा और पुराने-नए चेहरों को मिलाकर 15-20 सांसद उत्तर प्रदेश से भेजने को कोशिश होगी। अब वो कोशिश कहां तक पहुंची है ये तो मुझे नहीं पता। लेकिन, कांग्रेस का हाल ये है कि 80 सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में मुलायम उसे 17 से ज्यादा देने को तैयार नहीं हैं। वो, भी तब जब बहनजी के प्रकोप से मुलायम डरे-डरे से घूम रहे हैं। अब 17 सीटं लड़ने को ही मिलेंगी तो, 15-20 सांसद जीतेंगे कैसे ये गणित तो, किसी चमत्कार से ही सिद्ध हो पाएगा।
राष्ट्रीय पार्टियों का हाल कितना बुरा है। इसका सही-सही अंदाजा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के अभी हुए विधानसभा चुनावों से मिल जाता है। इन दोनों ही राज्यों में सत्ता में काबिज बसपा और लेफ्ट फ्रंट को अभी हुए विधानसभा चुनावों में करारी हार झेलनी पड़ी है। दोनों ने ही पूरा दम लगा रखा था। लेकिन, सब टांय-टांय फिस्स हो गया। काबिलेगौर बात ये कि इसका फायदा मिला दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को- उत्तर प्रदेश में सपा और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस। दोनों ही जगह कांग्रेस-बीजेपी बहुत पिछड़ी हुई दिखीं।
पश्चिम बंगाल की विश्णुपुर (पश्चिम) विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने सीपीएम प्रत्याशी को 30 हजार वोटों के भारी अंतर से हरा दिया। लेकिन, राजनीति की नब्ज बताने वाली हार थी उत्तर प्रदेश की भदोही विधानसभा सीट से बहनजी की बसपा की। भदोही सीट मई 2007 में बसपा ने 5000 वोटों से जीती थी। अब करी इतने ही वोटों से सपा ने ये सीट जीत ली है।
भदोही विधानसभा सीट जीतने के लिए मायावती ने पूरी ताकत झोंक दी थी। 80 हजार दलित, 55 हजार मुस्लिम और इतने ही ब्राह्मण मतदाताओं वाली सीट पर बहनजी के पक्ष में सारे समीकरण दिख रहे थे। लेकिन, सब उल्टा हो गया। बावजूद इसके लिए मायावती की रैली हुई। ब्राह्मण-दलित एकता फॉर्मूले को अग्रदूत सतीश चंद्र मिश्रा और उनके खास ब्राह्मण सिपहसालारों – नकुल दुबे, अनंत मिश्रा, राकेशधर त्रिपाठी (सारे मंत्री)- और मायावती सरकार के ताकतवर मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दिकी ने पूरी ताकत झोंक दी थी।
यहां जो वोट मिले हैं वो, राष्ट्रीय पार्टियों की हैसियत को देश के इस सबसे बड़े सूबे में आइना दिखाते हैं। भदोही उपचुनाव में सपा की मधुबाला पासी को 60,507 वोट मिले। दूसरे नंबर पर रहे बसपा के अमर सिंह सरोज को 55,487 वोट मिले। अब जरा दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का हाल देखिए। बीजेपी के दीनदयाल सोनकर बसपा, सपा से बहुत पीछे – हां, तीसरे नंबर पर ही- 14,693 वोट ही जुटा पाए। अब आपको लग रहा होगा कि चौथे नंबर पर तो कांग्रेस ही होगी। जी नहीं, कांग्रेस प्रत्याशी को यहां सिर्फ 2,275 वो मिले हैं। जो, क्षेत्रीय में क्षेत्रीय किसी प्रगतिशील मानव समाज पार्टी के प्रत्याशी के 4,258 वोटों से भी कम हैं।
यही वजह है कि लौह पुरुष आडवाणी को अजीत की राष्ट्रीय लोकदल को 7 सीटें देना फायदे का सौदा लग रहा है। लेकिन, ये भी काफी हद तक तय है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को गाजियाबाद सीट से लोकसभा में पहुंचने का फायदा भले इस गठजोड़ से हो जाए। ज्यादा फायदा अजीत सिंह को ही मिलना है।
ये हाल सिर्फ उत्तर प्रदेश बंगाल का नहीं है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और 7 लोकसभा सीटों वाली दिल्ली को छोड़ दें तो, पूरे देश में राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे कदमताल कर रही हैं। यही वजह है कि दिल्ली में बैठे नेताओं का पुराना दंभ – कि लोकसभा चुनाव में तो राष्ट्रीय मुद्दों पर बात होती है- टूट गया है। मुझे क्षेत्रीय पार्टियों के उत्थान से समस्या नहीं है। मुझे समस्या ये है कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे जैसे राष्ट्रीय पार्टियां चल रही हैं। वैसे ही हर राज्य में क्षेत्रीयता ही लोकसभा चुनाव पर हावी होती दिख रही है।
राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे रैली में झंडा-बेनर लगाने वाले कार्यकर्ता की तरह दरी पर किनारे बैठाए गए हैं। सजे मंच पर क्षेत्रीयता, जातिवाद, सांप्रदायिकता हावी है। इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार वैसे दोनों राष्ट्रीय पार्टियां ही हैं। आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, महंगाई, परमाणु करार पर अखबारों, टीवी चैनलों पर बहस तो चलेगी। कोई 4-6-10 हजार लोगों को लेकर मीडिया घरानों के सर्वे में इस पर 50-60 प्रतिशत लोग चिंता भी जताएंगे। लेकिन, देश की दिशा तय करने वाला एक और चुनाव पूरी तरह से क्षेत्रीय हो गया है। ये एक संप्रभु देश का चुनाव नहीं, अलग-अलग छोटे-छोटे देशों की सहमति से बने एक समूह का चुनाव हो रहा है। ये स्थिति थोड़ी बहुत बदल सकती है तो, हमारे-आपके वोट से। लेकिन, इसके लिए बहुत प्रयत्न करना होगा।
मैं अगर कह रहा हूं कि सब कुछ क्षेत्रीय-स्थानीय हो गया है। राष्ट्रीय मुद्दा, राजनीति पीछे छूट रहे हैं तो, ऐसे ही नहीं कह रहा हूं। कल जब गोपालस्वामी चुनाव की तारीखों का एलान कर रहे थे तो, देश की दोनों बड़ी पार्टियां राज्यों में अपने सांसद बढ़ाने के लिए स्थनीय-क्षेत्रीय दलों को साष्टांग प्रणाम कर रहीं थीं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, लेफ्ट का गढ़ ढहाने के लिए ममता के सहारे थी तो, उत्तर प्रदेश में उसे मुलायम-अमर की जोड़ी का सहारा है जिन्होंने साम-दाम-दंड-भेद से यूपीए सरकार को परमाणु समझौते के मुद्दे पर बचा लिया था।
मामला सिर्फ इतना ही नहीं है कि कांग्रेस का हाथ इन क्षेत्रीय पार्टियों से मिलने के लिए बेकरार है, असल बात तो कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों का पिछलग्गू बनने से गुरेज नहीं है। बंगाल में कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन, राष्ट्रीय पार्टी के इस अंतराष्ट्रीय संकटमोचक के पास अपनी पार्टी की राष्ट्रीय उपस्थिति बनाए रखने का कोई नुस्खा नहीं है।
लेकिन, संकटमोचक महाराज पर ही सवाल क्यों खड़ा किया जाए? जब त्यागी सोनिया माता के साथ देश भर में कांग्रेस को खड़ा करने की अनोखी योजना तैयार करने का दावा करने वाले राहुल भइया और नौजवान आंधा-प्रियंका गांधी अपनी खानदानी विरासत वाले राज्य उत्तर प्रदेश में ही कोई ढंग की योजना नहीं दे पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय दिल्ली में गांधी परिवार के एक निकट व्यक्ति ने मुझसे कहाकि राहुल भइया की नजर लोकसभा चुनाव पर है। विधानसभा चुनाव तो सिर्फ रिहर्सल भर है।
योजना ये थी कि राहुल के विदेशों में पढ़ी नौजवानों की एक टीम लोकसभा चुनाव का खाका तैयार करेगी। विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए मजबूत सीटों को तलाशा जाएगा और पुराने-नए चेहरों को मिलाकर 15-20 सांसद उत्तर प्रदेश से भेजने को कोशिश होगी। अब वो कोशिश कहां तक पहुंची है ये तो मुझे नहीं पता। लेकिन, कांग्रेस का हाल ये है कि 80 सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में मुलायम उसे 17 से ज्यादा देने को तैयार नहीं हैं। वो, भी तब जब बहनजी के प्रकोप से मुलायम डरे-डरे से घूम रहे हैं। अब 17 सीटं लड़ने को ही मिलेंगी तो, 15-20 सांसद जीतेंगे कैसे ये गणित तो, किसी चमत्कार से ही सिद्ध हो पाएगा।
राष्ट्रीय पार्टियों का हाल कितना बुरा है। इसका सही-सही अंदाजा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के अभी हुए विधानसभा चुनावों से मिल जाता है। इन दोनों ही राज्यों में सत्ता में काबिज बसपा और लेफ्ट फ्रंट को अभी हुए विधानसभा चुनावों में करारी हार झेलनी पड़ी है। दोनों ने ही पूरा दम लगा रखा था। लेकिन, सब टांय-टांय फिस्स हो गया। काबिलेगौर बात ये कि इसका फायदा मिला दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को- उत्तर प्रदेश में सपा और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस। दोनों ही जगह कांग्रेस-बीजेपी बहुत पिछड़ी हुई दिखीं।
पश्चिम बंगाल की विश्णुपुर (पश्चिम) विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने सीपीएम प्रत्याशी को 30 हजार वोटों के भारी अंतर से हरा दिया। लेकिन, राजनीति की नब्ज बताने वाली हार थी उत्तर प्रदेश की भदोही विधानसभा सीट से बहनजी की बसपा की। भदोही सीट मई 2007 में बसपा ने 5000 वोटों से जीती थी। अब करी इतने ही वोटों से सपा ने ये सीट जीत ली है।
भदोही विधानसभा सीट जीतने के लिए मायावती ने पूरी ताकत झोंक दी थी। 80 हजार दलित, 55 हजार मुस्लिम और इतने ही ब्राह्मण मतदाताओं वाली सीट पर बहनजी के पक्ष में सारे समीकरण दिख रहे थे। लेकिन, सब उल्टा हो गया। बावजूद इसके लिए मायावती की रैली हुई। ब्राह्मण-दलित एकता फॉर्मूले को अग्रदूत सतीश चंद्र मिश्रा और उनके खास ब्राह्मण सिपहसालारों – नकुल दुबे, अनंत मिश्रा, राकेशधर त्रिपाठी (सारे मंत्री)- और मायावती सरकार के ताकतवर मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दिकी ने पूरी ताकत झोंक दी थी।
यहां जो वोट मिले हैं वो, राष्ट्रीय पार्टियों की हैसियत को देश के इस सबसे बड़े सूबे में आइना दिखाते हैं। भदोही उपचुनाव में सपा की मधुबाला पासी को 60,507 वोट मिले। दूसरे नंबर पर रहे बसपा के अमर सिंह सरोज को 55,487 वोट मिले। अब जरा दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का हाल देखिए। बीजेपी के दीनदयाल सोनकर बसपा, सपा से बहुत पीछे – हां, तीसरे नंबर पर ही- 14,693 वोट ही जुटा पाए। अब आपको लग रहा होगा कि चौथे नंबर पर तो कांग्रेस ही होगी। जी नहीं, कांग्रेस प्रत्याशी को यहां सिर्फ 2,275 वो मिले हैं। जो, क्षेत्रीय में क्षेत्रीय किसी प्रगतिशील मानव समाज पार्टी के प्रत्याशी के 4,258 वोटों से भी कम हैं।
यही वजह है कि लौह पुरुष आडवाणी को अजीत की राष्ट्रीय लोकदल को 7 सीटें देना फायदे का सौदा लग रहा है। लेकिन, ये भी काफी हद तक तय है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को गाजियाबाद सीट से लोकसभा में पहुंचने का फायदा भले इस गठजोड़ से हो जाए। ज्यादा फायदा अजीत सिंह को ही मिलना है।
ये हाल सिर्फ उत्तर प्रदेश बंगाल का नहीं है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और 7 लोकसभा सीटों वाली दिल्ली को छोड़ दें तो, पूरे देश में राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे कदमताल कर रही हैं। यही वजह है कि दिल्ली में बैठे नेताओं का पुराना दंभ – कि लोकसभा चुनाव में तो राष्ट्रीय मुद्दों पर बात होती है- टूट गया है। मुझे क्षेत्रीय पार्टियों के उत्थान से समस्या नहीं है। मुझे समस्या ये है कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे जैसे राष्ट्रीय पार्टियां चल रही हैं। वैसे ही हर राज्य में क्षेत्रीयता ही लोकसभा चुनाव पर हावी होती दिख रही है।
राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे रैली में झंडा-बेनर लगाने वाले कार्यकर्ता की तरह दरी पर किनारे बैठाए गए हैं। सजे मंच पर क्षेत्रीयता, जातिवाद, सांप्रदायिकता हावी है। इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार वैसे दोनों राष्ट्रीय पार्टियां ही हैं। आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, महंगाई, परमाणु करार पर अखबारों, टीवी चैनलों पर बहस तो चलेगी। कोई 4-6-10 हजार लोगों को लेकर मीडिया घरानों के सर्वे में इस पर 50-60 प्रतिशत लोग चिंता भी जताएंगे। लेकिन, देश की दिशा तय करने वाला एक और चुनाव पूरी तरह से क्षेत्रीय हो गया है। ये एक संप्रभु देश का चुनाव नहीं, अलग-अलग छोटे-छोटे देशों की सहमति से बने एक समूह का चुनाव हो रहा है। ये स्थिति थोड़ी बहुत बदल सकती है तो, हमारे-आपके वोट से। लेकिन, इसके लिए बहुत प्रयत्न करना होगा।
(ये लेख अमर उजाला के संपादकीय पृष्ठ पर छपा है)
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