प्यार और जंग में सब जायज है लेकिन, राजनीति इन दोनों से ही बढ़कर है। जहां किसी से मोहब्बत या जंग के लिए कोई भी नाजायज बहाना तलाश लिया जाता है। और, बेशर्मी इतनी पीछे छूट गई होती है कि इसका एलान बाकायदा मीडिया के सामने किया जाता है। या यूं कहें कि राजनीति में बेशर्मी जैसी चीज होती ही नहीं है। वैसे तो, लोकसभा चुनाव के महासंग्राम के ठीक पहले चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम से हर दिन भारतीय राजनीति के गिरगिटिया चरित्र को पुख्ता करने वाले सबूत (अखबारों-टीवी चैनलों पर नेता उवाच से) मिलते रहते हैं। लेकिन, उड़ीसा की पावन धरती से उपजे एक महासंयोग ने गिरगिट को भी शरमाने पर मजबूर कर दिया है।
मीडिया के सामने देश के सबसे विनम्र और मृदुभाषी मुख्यमंत्री ब्रांड नवीन पटनायक पर आरोप लगाते समय चंदन मित्रा और रविशंकर प्रसाद का चेहरा तमतमा रहा था। दोनों एक सुर में बोल रहे थे कि बीजू जनता दल ने उन्हें धोखा दिया है। और, नवीन पटनायक मुस्कुराते हुए लेफ्ट नेता सीताराम येचुरी के साथ हाथ पकड़कर तीसरे मोरचे की संजीवनी बन रहे हैं। लेकिन, उन्होंने अब तक ये नहीं कहा है कि वो तीसरे मोरचे में शामिल हो रहे हैं। हां, राजनीतिक गिरगिटों को एक बात खूब ध्यान में रहती है कि – दुश्मनी जमकर करो मगर ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त बनें तो शर्मिंदा न हों—या यूं कहें कि बशीर बद्र का ये शेर राजनीति की जान बन गया है।
अमर सिंह, मुलायम सिंह, मायावती, शिवसेना, शरद पवार, बीजू जनता दल, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी ये क्षेत्रीय क्षत्रप अगर अपने ही साल भर के बयानों को एक साथ सुनें-पढ़ें तो, न चाहते हुए भी थोड़ी शर्म तो आ ही जाएगी। परमाणु करार के समय मायावती करात के साथ हाथ पकड़कर तीसरे मोरचे को तैयार कर रही थीं। लेकिन, इसे मायावती का करात मोह न समझ बैठिएगा। ये दरअसल मायावती की प्रधानमंत्री बनने की निजी महत्वाकांक्षा है जो, परमाणु करार के विरोध में बहनजी को कॉमरेड के पास तक ले गया। और, मायावती के बड़ा बनने का डर मुलायम-अमर की जोड़ी को 10 जनपथ तक पहुंचा आया। सरकार पर बन आई थी तो, अमर-मुलायम को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परमाणु समझौता समझाने उनके घर पहुंच गए। मनमोहन-सोनिया तो हॉटलाइन पर थे ही। और, अब जब उत्तर प्रदेश में तालमेल की बात आई तो, अमर-मुलायम को भाव ही नहीं मिल पा रहा।
परमाणु करार पर कॉमरेडों को किनारे करने के बाद अब अमर सिंह कांग्रेस से चोट खा रहे हैं तो, फिर कह रहे हैं कि जब मायावती तीसरे मोरचे में हैं तो, हम कैसे शामिल हो सकते हैं। इशारा साफ है कि अगर चुनाव बाद मायावती बाहर रहें और हमें लेफ्ट तवज्जो दे तो, हम फिर तीसरे मोरचे में शामिल हो सकते हैं।
लेफ्ट के साथ अच्छा ये है कि उसके नेता बीजेपी, कांग्रेस या फि दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की तरह प्रधानमंत्री पद की रेस में खुद को नहीं बताते रहते हैं। लेकिन, तीसरे मोरचे के अस्तित्व पर संकट आता है तो, लेफ्ट की सांस अंटक जाती है। लेकिन, एक पटनायक का सहारा पाकर तीसरा मोरचा अस्पताल के ICU से सीधे निकलकर चुनावी मंच पर दहाड़ लगा रहा है। मायावती जैसी ही प्रधानमंत्री बनने की इच्छा एनसीपी के शरद पवार भी रखते हैं इसलिए दबे छुपे मराठी प्रधानमंत्री के नाम पर शिवसेना से गलबहियां मिला लेते हैं। और, तीसरे मोरचे के नेताओं को भी साधे रहते हैं। कांग्रेस से भी बैर नहीं लेना चाहते क्योंकि, तीसरे मोरचे को चाहे जितना मांजकर चमका लें बिना कांग्रेस या बीजेपी के समर्थन के तीसरे मोरचे में मुरचा (जंग) ही लग जाएगा।
इसीलिए पवार शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे से भी मिल लेते हैं। और, मीडिया में हल्ला मचवाते हैं कि दोनों के बीच अंदर ही अंदर कुछ पक रहा है। जबकि, कोई नासमझ राजनीतिक जानकार भी ये बता सकता है कि फिलहाल किसी भी कीमत पर एनसीपी-शिवसेना महाराष्ट्र में एक साथ नहीं आ सकते। क्योंकि, दोनों की ही असली बुनियाद मराठी हितचिंतक के बहाने मजबूत होती है। राज ठाकरे जैसे नेता तो, कबाब में हड्डी भर ही हैं। वैसे शरद पवार मन ही मन ये गुणा गणित लगाए बैठे हैं कि वो, भी शायद मराठी अस्मिता के नाम प्रधानमंत्री पद के लिए शिवसेना का समर्थन वैसे ही पा जाएंगे जैसे प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति पद के लिए मिला था।
खैर, जो भी हो भारतीय राजनीति के गिरगिटिया चरित्र की ही वजह से तीसरे मोरचे को ताकत मिलती रहती है। एक चुनावी मौसम बदलता है तो, एनडीए-यूपीए के वटवृक्ष में शाखाएं घटती बढ़ती रहती हैं। और, एनडीए-यूपीए के वटवृक्ष से टूटती हर शाखा तीसरे मोरचे से सिर्फ इसलिए जा चिपकती है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए जब उन्हें चुना जाएगा तो, यूपीए-एनडीए में से किसी एक वटवृक्ष का सहारा मिल जाएगा। देखिए अभी तो चुनाव शुरू हुए हैं। चुनाव होने और उसके बाद देशवासियों को नई सरकार मिलने तक भारतीय राजनीति कितने रंग बदलती है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
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bilkul sahi kaha aapne holi mubarak ho
ReplyDeleteसही कहा!! राजनीति है भाई!!
ReplyDeleteहोली की बहुत बधाई एवं मुबारक़बाद !!!
हर्ष भाई होली की ढेरों शुभकामनाऎं...
ReplyDeleteअभी तो जस जस समय आयेगा चुनाव का, तस तस और करिखा नजर आयेगा!
ReplyDeleteजय हो गिरगिट समाज की।
ReplyDeleteअब होली मनाइए जी। शुभकामनाएं।
एक बड़ा सा गिदगिदान जो रोज लान में आता है
ReplyDeleteहमको ऐसा लगता जैसे बिस्तुईया का दादा है
....बच्चन जी की यह बाल कविता प्रासंगिक नहीं है. लेकिन याद आ गई. गिरगिटों का यही हाल है. यही रहेगा.
राजनीति है! अब और क्या होगा! आगे देखना है!
ReplyDeleteराजनीतिक गिरगिटोंके बदलते रंग खूब जमाये हैं आपने । सटीक लेख ।
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