Tuesday, May 30, 2017

भारत के लिए OBOR बेकार, EWHW पर ध्यान दो सरकार !

भारत सरकार के लिए ये फैसला लेना इतना आसान नहीं था। लेकिन, सरकार की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि भारत ने चीन की अतिमहत्वाकांक्षी OBOR योजना से खुद को पूरी तरह बाहर ही रखा है। कठिन फैसला इसलिए भी क्योंकि, भारत के 2 सम्वेदनशील पड़ोसी देशों पर OBOR के जरिए चीन का बढ़ता प्रभाव जल्दी ही दिखने लगेगा। नेपाल ने इस बात को स्वीकारा कि इतनी बड़ी आर्थिक गतिविधि से हम कैसे किनारे रह सकते हैं। और, पाकिस्तान तो OBOR के सबसे महत्वपूर्ण CPEC यानी चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का एक अहम पक्ष ही है। पाकिस्तान भारत के लिहाज से दुश्मन देश जैसा है और CPEC के पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान और दूसरे विवादित इलाकों से गुजरने की वजह से भारत को इस गलियारे पर कई कड़े एतराज हैं। लेकिन, चीन ने इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया है। वन बेल्ट वन रोड की इस अतिमहत्वाकांक्षी योजना के जरिए चीन भले ही दुनिया के 60 देशों को जोड़ने का दावा कर रहा हो। लेकिन, सच्चाई यही है कि इसके जरिए वो अपनी टूटती अर्थव्यवस्था को मजबूती से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। साथ ही चीन इसके जरिए कमजोर देशों को कर्ज देकर और सामरिक तौर पर निर्भर बनाकर उन्हें अपने उपनिवेश के तौर पर भी इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है। ये बात अब धीरे-धीरे ही सही लेकिन, खुलकर सामने आ रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल इस पर एकमत थे कि चीन की मंशा इस मामले में ठीक नहीं है। विदेश सचिव एस जयशंकर ने कहाकि ये बड़ा मुद्दा है कि देशों को जोड़ने वाला रास्ता बनाने का काम आम सहमति से होगा या फिर किसी एक पक्ष के तय फैसले के आधार पर। जयशंकर ने कहाकि चीन अपनी सम्प्रभुता का लेकर बेहद सम्वेदनशील है। हम उम्मीद करते हैं कि चीन को भी दूसरों की सम्वेदना का ख्याल होगा। CPEC ऐसे इलाके से गुजर रहा है, जो पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरता है। ये इलाका भारत का है, जिस पर पाकिस्तान ने अवैध तौर पर कब्जा कर रखा है। हालांकि, चीन ने भारत की आपत्तियों को सिरे से खारिज कर दिया और बीजिंग में OBOR की शुरुआत के मौके को भव्य बनाने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन सहित 29 देशों के मुखिया मौजूद थे। OBOR को हर देश कितने बड़े मौके के तौर पर देख रहा है, इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम के प्रतिनिधि भी इस मौके पर मौजूद थे। इसके बावजूद भारत का इस पूरे आयोजन का बहिष्कार करना बड़ी बात थी। इतना ही नहीं भारत में भी बड़े जानकार इस मसले पर भारत के अकेले पड़ने को लेकर चिन्तित हैं। विदेशी मामलों के जानकार कांति बाजपेई लिखते हैं चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव से बाहर रहकर भारत ने खुद को अकेला कर लिया है। OBOR के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से CPEC को लेकर भारत के एतराज पर कांति बाजपेई लिखते हैं कि चीन ने 1963 से भारत की जमीन पर कब्जा जमा रखा है। भारत ने चीन के साथ कारोबार बंद तो नहीं कर दिया।
तार्किक लिहाज से देखें, तो कांति बाजपेई की बात सही लगती है। लेकिन, मुझे लगता है कि भारत की सम्प्रभुता और सामरिक लिहाज के अलावा आर्थिक नजरिए या मौके के लिहाज से भी भारत का OBOR में शामिल नहीं होना बेहतर फैसला है। चीन की असली चिन्ता ही यही है कि तरक्की की रफ्तार के मामले में दुनिया में सबसे आगे रहे और अब जो दिख रहा है, उसमें भारत सबसे तेज तरक्की करने वाला देश बन रहा है। हालांकि, चीन भारत से 5 गुना बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन, अगर भारत सबसे तेज तरक्की करने वाला देश लगातार बन गया, तो दुनिया के निवेशक और रेटिंग एजेंसियां चीन को कमतर करके देखने लगेंगी। इसी आशंका को खारिज करने के लिए चीन OBOR लेकर आया है। विकसित देशों अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम की कम्पनियों को इसमें मौके दिख रहे हैं। जबकि, रूस इसका इस्तेमाल अमेरिका के खिलाफ चीन और पाकिस्तान का एक गठजोड़ बनाकर करना चाह रहा है। इस लिहाज से रणनीतिक, सामरिक या आर्थिक तीनों ही दृष्टिकोण से OBOR भारत के लिए बेकार है।
भारत को अपनी आर्थिक या सामरिक मजबूत के लिए देश से बाहर ऐसी किसी योजना में शामिल होने की जरूरत नहीं है। भारत सरकार को OBOR की बजाए EWHW पर ध्यान देना चाहिए। OBOR में सुरक्षा के लिहाज से खतरे की आशंका इतनी ज्यादा है कि चीन की 71% कम्पनियां शी जिनपिंग की इस अतिमहत्वाकांक्षी योजना में राजनीतिक खतरे देख रही हैं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, सीरिया और यमन से होकर गुजरने वाले इस रास्ते के बनने में ढेरों मुश्किलें हैं। बीजिंग के शोध संस्थान सेंटर फॉर चाइना एंड ग्लोबलाइजेशन के सर्वे में 300 कम्पनियां शामिल हुईं थीं। इसीलिए भारत और भारतीय कम्पनियों के लिए OBOR की बजाए EWHW ही काम का है। EWHW मतलब एवरीवेयर हाईवे। भारत में पहली बार अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने हाईवे के महत्व को समझा और स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के जरिए देश को जोड़ा। दिल्ली-कोलकाता, कोलकाता-चेन्नई, चेन्नई-मुंबई और मुंबई-दिल्ली को जोड़कर बने 5846 किलोमीटर के हाईवे से लगभग देश का हर बड़ा शहर जुड़ गया था। 6 जनवरी 1999 को इसकी आधारशिला रखी गई थी और जनवरी 2012 में ये परियोजना पूरी हो गई थी। यही वो सड़क परियोजना थी, जिसके बाद आम भारतीय सड़क के जरिए एक शहर से दूसरे शहर फर्राटा भरने लगा था। इसके पहले तक मौर्य शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में बनी और मुगल बादशाह शेरशाह सूरी की ठीक कराई 2 लेन और कहीं-कहीं तो सिंगल लेन वाली ग्रांड ट्रंक रोड (जीटी रोड) से ही भारत यात्रा धीरे-धीरे खिसकता रहा। स्वर्णिण चतुर्भुज ने हिन्दुस्तानियों को 4-6 लेन की सड़क पर झूमते हुए मस्ती से यात्रा का आनन्द लेना सिखाया। दुनिया की कार कम्पनियों के लिए सबसे पसन्दीदा ठिकाना भी भारत इन्हीं हाईवेज की वजह से बना। मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे से शुरू हुआ ये सफर अभी उत्तर प्रदेश में ग्रोटर नोएडा से आगरा को जोड़ने वाले यमुना एक्सप्रेस वे और आगरा से लखनऊ को जोड़ने वाले एक्सप्रेस वे तक पहुंच चुका है। लेकिन, इसके बाद EWHW की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की कुल सड़कों में हाईवे की हिस्सेदारी 2% से भी कम की है। जबकि, इन्हीं 2% सड़कों पर देश के 40% यातायात का दबाव है। संसद में सरकार की ओर से बताया गया है कि 2013-14 में 4,260 किलोमीटर, 2014-15 में 4,410 किलोमीटर और 2015-16 में 6,061 किलोमीटर का राष्ट्रीय राजमार्ग बनाया गया। इस लिहाज से सड़कों के बढ़ने का आंकड़ा देखा जाए, तो 1951 से लेकर 2015 तक सालाना 4.2% की रफ्तार से सड़कें बढ़ी हैं। लेकिन, एवरीवे हाईवे का मतलब सिर्फ और सिर्फ सड़कें बनाना नहीं है। इसका मतलब जहां, जिस रास्ते से कोई जाना चाहे, उसकी यात्रा सुगम, सुखद होनी चाहिए। फिर वो सड़क मार्ग हो, रेल मार्ग हो या फिर जल मार्ग।
अच्छी बात ये है कि सड़क परिवहन, हाईवे और पोत परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की गिनती मोदी सरकार के सबसे अच्छा काम करने वाले मंत्रियों में होती है। मोदी सरकार में प्रतिदिन 22 किलोमीटर हाईवे बन रहा है और गडकरी इसे 30 किलोमीटर प्रतिदिन तक ले जाना चाहते हैं। स्वर्णिम चतुर्भुज की ही तर्ज पर मोदी सरकार अब भारतमाला परियोजना शुरू कर रही है। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी इसके तहत 20000 किलोमीटर हाईवे बनाकर पूरे देश को एक माला में पिरोने की बात कर रहे हैं। इस परियोजना की अनुमानित लागत 10 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है। भारतमाला परियोजना की सबसे बड़ी बात ये है कि ये हाईवे देश के किनारे-किनारे बनेंगे और कई जगहों पर अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से सटे होंगे। नितिन गडकरी का कहना है कि हम सभी जिला मुख्यालयों को हाईवे से जोड़ेंगे। सड़क परिवहन मंत्रालय की एक और महत्वाकांक्षी परियोजना है चारधाम हाईवे विकास की। जिसकी बुनियाद प्रधानमंत्री रख चुके हैं। चारधाम महामार्ग विकास परियोजना के तहत 900 किलोमीटर हाईवे बनेगा। इसकी अनुमानित लागत 12000 करोड़ रुपये की है। इसमें से 3000 करोड़ रुपये की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है। इनलैंड वॉटर बिल 2016 को मंजूरी मिलने के बाद जल परिवहन में भी तेजी आने की उम्मीद की जा सकती है। इस नए कानून की मंजूरी के समय नितिन गडकरी ने बताया कि देश में 111 नदियां ऐसी हैं, जिनमें जल परिवहन की सम्भावना है। इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अगर सम्भावित नदियों में से दसवें हिस्से पर भी जल परिवहन शुरू किया जा सका, तो भारतीय परिवहन की तस्वीर कितनी तेजी से बदल सकती है।
रेलमंत्री सुरेश प्रभु भी मोदी सरकार के अच्छे मंत्रियों में गिने जा रहे हैं। तेज रफ्तार ट्रेनें चलाने के लिए पटरियों को बदलने के साथ रेलवे स्टेशनों के भी कायाकल्प की बड़ी योजना तैयार की गई है। रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने देश के 283 रेलवे स्टेशनों को रीडेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए चुना है। पहले चरण में 23 रेलवे स्टेशनों का काम शुरू हो चुका है। लोकमान्य तिलक मुम्बई, पुणे, ठाणे, विशाखापत्तनम, हावड़ा, कानपुर सेंट्रल, इलाहाबाद, कामाख्या, फरीदाबाद, जम्मू तवी, उदयपुर शहर, सिकन्दराबाद, विजयवाड़ा, रांची, चेन्नई सेंट्रल, कोझीकोड, यशवन्तपुर (बैंगलुरू), भोपाल, मुम्बई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस, बोरीवली और इन्दौर वो 23 स्टेशन हैं, जिनका कायाकल्प पहले चरण में होना है। दूसरे चरण में 100, तीसरे और आखिरी चरण में 250 रेलवे स्टेशनों के कायाकल्प का काम शुरू होगा। सभी स्टेशनों के कायाकल्प का काम इसी साल के अंत तक शुरू होना है। तेज रफ्तार वाली तेजस ट्रेन शुरू हो चुकी है। इसलिए सरकार को देश की आर्थिक तरक्की, रोजगार देने के लिहाज से सरकार को देश के लिहाज से बेकार OBOR छोड़कर EWHW पर ही मिशन मोड में लग जाना चाहिए।

Monday, May 29, 2017

चीन की इस योजना का पाकिस्तान में जमकर विरोध

OBOR का सिर्फ भारत ने विरोध किया। और ये भारत के लिए ठीक नहीं है। भारत सहित दुनिया भर की मीडिया में जानकारों को पढ़कर पहली नजर में ऐसा ही लगता है। लेकिन, चीन की इस अतिमहत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर उसमें शामिल हो रहे देशों की राय भी अच्छी नहीं है। पाकिस्तान के अलावा दूसरे देशों में इस योजना को लेकर काफी सन्देह है। दिल्ली में जर्मनी के राजदूत मार्टिन ने कहा- “OBOR पुराने सिल्क रूट से बहुत अलग है। ये मुक्त व्यापार का रास्ता नहीं है। ये कारोबार बढ़ाने के लिए चीन की रणनीति है। सिर्फ जर्मनी ही नहीं दुनिया के कई देश अब OBOR सन्देह जता रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस परियोजना के जरिए देशों पर लदने वाले कर्ज को लेर चिन्तित है। पाकिस्तान में भी एक बड़ा वर्ग है, जो इस बात को लेकर आशंकित है कि चीन पाकिस्तान को अपने आर्थिक उपनिवेश के तौर पर गुलाम बना रहा है और OBOR के तहत बना रहा CPEC चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर दरअसल पाकिस्तान की गुलामी की पक्की बुनियाद साबित होगा। सांसद और पाकिस्तानी संसद की प्लानिंग और डेवलपमेंट पर बनी संसदीय स्थाई समिति के चेयरमैन ताहिर मशादी कह रहे हैं कि दूसरी ईस्ट इंडिया कम्पनी तैयार हो रही है। राष्ट्रीय हितों को दरकिनार किया जा रहा है। हमें पाकिस्तान और चीन की दोस्ती पर फक्र है लेकिन, देश का हित सबसे पहले देखा जाना चाहिए।
चीन अपने संसाधनों और अपनी क्षमता का क्षमता से ज्यादा इस्तेमाल करके लम्बे समय तक 10% की तरक्की हासिल कर चुका है। अब लगातार चीन की तरक्की की रफ्तार नीचे जाती दिख रही है। चीन की सबसे बड़ी चिन्ता तेजी से उभरता भारत है और इसीलिए पाकिस्तान में अपना आर्थिक प्रभाव बढ़ाकर भारत को सन्तुलित रखने की कोशिश चीन के नजरिए से जरूरी दिखती है। दुनिया की ज्यादातर एजेंसियां अब ये मान रही हैं कि चीन भले ही भारत से 5 गुना बड़ी अर्थव्यवस्था है लेकिन, जिस तेजी से भारत तरक्की कर रहा है, उसमें चीन के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए बाजार खोजना कठिन हो जाएगा। इसलिए चीन अब अपनी सीमा से बाहर जाकर अपनी आर्थिक तरक्की बनाए रखने के रास्ते खोज रहा है। और इसमें सबसे अच्छा और रणनीतिक रास्ता CPEC है। CPEC उस OBOR का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें रूस सहित दुनिया के करीब 60 देशों के छोटे-बड़े हित जुड़े हुए हैं। इसीलिए जब भारत ने इसकी शुरुआत के मौके पर इसका विरोध किया, तो ये सवाल उठा कि क्या भारत एक बड़ा मौका खो रहा है। और क्या भारत इसका विरोध करके अकेला पड़ रहा है। चीन के $ 56 बिलियन के निवेश वाले इस अतिमहत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को दुनिया बीजिंग की उस योजना के तौर पर ही देख रही है, जिसमें चीन आर्थिक तौर पर कई देशों को कर्ज देकर उनसे मनचाही छूट हासिल करेगा। साथ ही ऐसे देश सामरिक तौर पर भी चीन के लिए दूसरे देशों की जासूसी का बड़ा अड्डा बन सकेंगे। चीन पाकिस्तान जैसे इन देशों के जरिए मीडिया मैनेजमेंट का भी काम करेगा।
CPEC के जरिए पाकिस्तान पर धीरे-धीरे काबिज होने की योजना लीक हो गई है। इसके मुताबिक, चीन कश्मीर से सटी सीमा पर कंट्रोल सिस्टम लगाएगा और इसके जरिए इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटरिंग करेगा। साथ ही सेफ सिटीज प्रोग्राम के तहत पाकिस्तान के बड़े शहरों की 24 घंटे लाइव मॉनिटरिंग की भी योजना है। इसकी शुरुआत पेशावर से होगी और बाद में इस्लामाबाद, लाहौर और कराची में भी इसे लागू किया जाएगा। साथ ही चीन को इस बात का भी अधिकार होगा कि वो सन्देह के आधार पर किसी इमारत में छापा मार सके और किसी गाड़ी को जब्त कर सके। चीन के टीवी मीडिया को पाकिस्तान में प्रसारण की इजाजत मिल जाएगी। पाकिस्तान में लोग इसे अपनी संस्कृति पर चीनी संस्कृति के दुष्प्रभाव के हावी होने के तौर पर देख रहे हैं। इस लीक डॉक्यूमेंट से पता चलता है कि चीन, पाकिस्तान की आर्थिक मदद अपनी राजनयिक रणनीति के तहत कर रहा है। इसका असर भी साफ दिखता है। पाकिस्तान ने लगातार भारत के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। सीमा पर होने वाली गोलीबारी और आतंकवादी घटनाओं को मदद देकर पाकिस्तान, चीन से आसानी से मदद पा रहा है। डॉन अखबार ने इस बारे में विस्तार से लिखा है।
हर पाकिस्तानी ये अच्छे से जानता है कि इस समय पाकिस्तान के आर्थिक हालात बहुत खराब हैं और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जितने बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत है, वो चीन ही कर सकता है। इसके बावजूद पाकिस्तान में CPEC को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल इस पूरे प्रोजेक्ट की पारदर्शिता को लेकर है। पाकिस्तान की नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी की समीना टिप्पू ‘CPEC Conspiracy Theories of Success and Failure’ में लिखती हैं कि क्या आज के समय में इतना बड़ा प्रोजेक्ट इतने अपारदर्शी तरीके से पूरा किया जा सकता है। जबरदस्त भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी और अंडर टेबल होने वाले भुगतान से पाकिस्तान की सम्प्रभुता बुरी तरह से खतरे में है।
बीजिंग में हुए वन बेल्ट बन रोड समिट में 28 देशों के प्रमुखों ने इसकी जमकर तारीफ की। एशियाई देशों में भारत को छोड़कर सब वहां कतार से खड़े दिखे। हर किसी को भारतीय निवेश की जबरदस्त दरकार है। इसीलिए वो देश किसी भी कीमत पर चीनी निवेश का स्वागत कर रहे हैं। लेकिन, ये बात सभी को पता है कि वन बेल्ट वन रोड को दुनिया के कई देशों को जोड़ने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय सड़क के तौर पर देखना बेवकूफी के सिवाय कुछ नहीं होगा। इसीलिए पाकिस्तान की ही तरह दूसरे देश भी रह रहकर अपनी आशंका जाहिर कर रहे हैं। जकार्ता पोस्ट अपने सम्पादकीय में लिखता है हमें बुनियादी क्षेत्रों में चीन के निवेश की जबरदस्त दरकार है। लेकिन, जरूरत इस बात की है कि चीन अपने इरादे और दृष्टिकोण को सही तरीके से समझाए, जिससे उसकी भूराजनैतिक महत्वाकांक्षा पर सन्देह न हो। कुछ ऐसा ही सन्देह सिंगापुर के स्ट्रेट्स टाइम्स में भी पढ़ने को मिला। स्ट्रेट्स टाइम्स लिखता है चीन ने हाल ही में अपनी आर्थिक ताकत के जरिए दक्षिण कोरिया पर दबाव बनाने की असफल कोशिश की है। चीन चाहता था कि दक्षिण कोरिया अमेरिकी एंटी मिसाइल तंत्र को तैनात न करे। इसके लिए चीन ने अपने नागरिकों को दक्षिण कोरिया जाने से रोका और कोरियाई म्यूजिक वीडियो की स्ट्रीमिंग भी रोक दी।
श्रीलंका, म्यांमार और कजाकिस्तान में भी OBOR को लेकर सन्देह बढ़ रहा है। CPEC को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए पाकिस्तान की हजारों हेक्टेयर खेती वाली जमीन चीन की कम्पनियों को लीज पर दी जाएगी। इन चीनी कम्पनियों को चीन के अलग-अलग मंत्रालयों और चीन विकास बैंक की तरफ से पूंजी और कर्ज दिया जाएगा। चीन पाकिस्तान को एक सस्ते कच्चे माल के बाजार के तौर पर विकसित करना चाहता है और इसका इस्तेमाल चीन के धीमे हो रहे कपड़ा उद्योग को तेज करने में करेगा। साथ ही चीन के शिनजियांग प्रान्त के मजदूरों को यहां रोजगार भी देगा। कमाल की बात ये भी है कि पाकिस्तान और चीन के बीच CPEC को लेकर हुए समझौते में चीन की कम्पनियों को जमीन, कर, सेवाओं में प्राथमिकता दी जाने की बात भी शामिल है। इसीलिए पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का आरोप ऐसे ही खारिज करना मुश्किल हो जाता है। जरदारी ने आरोप लगाया है कि शरीफ भाई ये सड़क सिर्फ इसलिए बनाना चाहते हैं जिससे उनको अच्छा कमीशन मिल जाए।” 
पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और दूसरी राजनीतिक पार्टियों के लोगों का विरोध चीन को पसन्द नहीं आ रहा है। और ये साफ होता है लीक हुई CPEC योजना से। उस योजना में CPEC के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर 5 प्रमुख बिन्दु हैं। पाकिस्तान की राजनीति (जिसमें दूसरी पार्टियां शामिल हैं), धर्म, आदिवासी, आतंकवाद और पश्चिम का प्रभाव, ये वो खतरे हैं जिन्हें चीन CPEC के लिए खतरा मानता है। इसलिए पाकिस्तान में चीन की कोशिश इन पांचों को खत्म करने की होगी। भारत के लिए इसमें अच्छी खबर ये हो सकती है कि चीन पाकिस्तान के धार्मिक उन्माद और आतंकवाद को भी खत्म करने की कोशिश करेगा। लेकिन, जिस तरह से CPEC के तहत पाकिस्तान में प्रस्तावित 9 स्पेशल इकोनॉमिक जोन में सिर्फ चीन की कम्पनियों को कारोबार का प्रस्ताव है, वो डराने वाला है। कुल मिलाकर भले ही बड़े जानकार इतनी बड़ी आर्थिक गतिविधि से भारत के बाहर रहने को गलत फैसले के तौर पर देख रहे हों, सच्चाई यही है कि खुद पाकिस्तान में भी CPEC के जरिए चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर बड़ी चिन्ता और विरोध है।
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

Saturday, May 20, 2017

रुपये की इतनी औकात बढ़ाने वाले की औकात जान लीजिए !

28 जुलाई 2014 को दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ कॉलेज में हरीश साल्वे मुख्य अतिथि के तौर पर थे। कानून की पढ़ाई कर रहे बच्चों से उन्होंने एक बात कही कि हमारी पीढ़ी के वकीलों ने इस पेशे की इज्जत मिट्टी में मिला दी है। वकीलों की इज्जत मिट्टी में मिलाने का अपनी पीढ़ी का अपराधबोध शायद हरीश साल्वे के दिल को गहरे साल रहा था। और आखिरकार मई 2017 में एक भारतीय के पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय अदालत में की गई बहस ने उस सारे अपराधबोध को खत्म कर दिया है। भारत की ओर से कुलभूषण के पक्ष में की गई जोरदार तार्किक बहस ने हरीश साल्वे को भारत ही नहीं, दुनिया भर में चर्चा की वजह बना दिया है। हर कोई उस भारतीय वकील हरीश साल्वे के बारे में जानना चाहता है जिसने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में पाकिस्तान के तर्कों की बखिया उधेड़कर रख दी है। भारत-पाकिस्तान तो सीधे पक्ष हैं लेकिन, दुनिया में भी इस बात की चर्चा हो रही है कि देश की प्रतिष्ठा के लिए केस लड़ने के लिए हरीश साल्वे ने सिर्फ 1 रुपये की फीस ली है। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की ओर से पैरवी कर रहे वकील ने करीब 5 करोड़ रुपये लिए हैं। हरीश साल्वे की पूरी पीढ़ी ने मिलकर वकालत के पेशे की जिस इज्जत को मिट्टी में मिलाया था, आज वही वकालत का पेशा सोने जैसा चमक रहा है। इंडिया टुडे ने 2009 में हरीश साल्वे को देश के सबसे ताकतवर लोगों की सूची में 18वें स्थान पर रखा था। 2017 में उसी सूची में हरीश साल्वे 43वें स्थान पर चले गए थे। लेकिन, आज कुलभूषण जाधव मामले की पैरवी करके हरीश साल्वे देश के प्रतिष्ठित लोगों की शीर्ष सूची में साफ नजर आ रहे हैं। ताकतवर शब्द इसे परिभाषित करने के लिए सही नहीं होगा।
हरीश साल्वे के बारे में अगर एक पंक्ति में कहना हो तो, देश में दो बड़े लोग या कम्पनियां कानूनी लड़ाई लड़ते हैं, तो किसी एक पक्ष के वकील हरीश साल्वे होते हैं इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि जब कृष्णा गोदावरी मामले पर अंबानी भाई आपस में भिड़े और अदालत के दरवाजे तक पहुंचे तो, मुकेश अंबानी की तरफ से वकील हरीश साल्वे थे। 2010 में जब नीरा राडिया के टेप की वजह से सिर्फ रतन टाटा नहीं, पूरे टाटा समूह की प्रतिष्ठा दांव पर लगी तो, फिर टाटा की इज्जत बचाने के लिए जो वकील अदालत में जिरह कर रहा था। वो हरीश साल्वे ही थे। वोडाफोन के पक्ष में हरीश साल्वे ही भारत सरकार के खिलाफ अदालत में खड़े हुए थे। यही वजह थी कि जब हरीश साल्वे को भारत सरकार ने कुलभूषण जाधव के मामले में पैरवी के लिए चुना तो, ट्विटर पर किसी ने लिखा कि सरकार ने इतना महंगा वकील चुना है, सरकार कम पैसे में दूसरा बेहतर वकील रख सकती थी। इसका जवाब देते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने 15 मई को ही ये बताया कि कुलभूषण जाधव के मामले की पैरवी के लिए हरीश साल्वे सिर्फ 1 रुपये फीस ले रहे हैं। इसके बाद हरीश साल्वे को देखने का देश का नजरिया बदल गया। हरीश साल्वे पक्ष में देशभक्ति की बयार बहने लगी। हरीश साल्वे देशभक्ति के नए पोस्टर ब्वॉय हो गए हैं। हालांकि, लगे हाथ ये दोनों तथ्य भी जान लेना जरूरी है पहला तथ्य ये है कि हरीश साल्वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में सॉलीसीटर जनरल थे। हालांकि, दूसरा कार्यकाल लेने से उन्होंने मना कर दिया था। और इस बार भी अटॉर्नी जनरल के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली पसंद हरीश साल्वे ही थे। लेकिन, उन्होंने पद लेने से मना कर दिया। अब इस मामले के बाद एक बार फिर से हरीश साल्वे का नाम अटॉर्नी जनरल के लिए चर्चा में आ गया है। संयोगवश जून महीने में मुकुल रोहतगी का तीन साल का कार्यकाल खत्म हो रहा है। दूसरा जरूरी तथ्य ये है कि हरीश साल्वे जाने माने कांग्रेसी नेता एनकेपी साल्वे के बेटे हैं। पिता की तरह हरीश ने भी सीए की डिग्री हासिल की है। नानी पालकीवाला से प्रभावित होकर हरीश ने वकालत की डिग्री ली। और देश के प्रख्यात वकील पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की टीम में शामिल हो गए।
हरीश साल्वे ने गुरू सोली सोराबजी, अपने पिता और अपने दादाजी से जो कुछ भी सीखा हो, उसे बेहतर किया। 28 जुलाई 2014 को दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ कॉलेज में छात्रों से बात करते हरीश साल्वे ने कहाकि एक जानकार प्रोफेशन में होने की वजह से आप सम्भ्रांत वर्ग में आते हैं। एक वकील की ताकत उसके दिमाग से, उसकी बुद्धिमत्ता से और उसकी निष्पक्षता से तय होती है। न्याय, सच और सही की यही ताकत है जिसकी वजह से वकील सम्भ्रांत कहे जाते हैं  लेकिन, हरीश साल्वे की क्लाइंट लिस्ट कानून की पढ़ाई करने वाले बच्चों के बीच कही उनकी इस बात को कई बार काटती भी दिखती है। हरीश साल्वे सर्वोच्च न्यायालय के मित्र (एमिकस क्यूरी) के तौर पर पर्यावरण से जुड़े कई मामलों में काम करते रहे। लेकिन, 2011 में अवैध खनन के मामले में उन्होंने ये कहते हुए एमिकस क्यूरी बनने से इनकार कर दिया कि पहले वो कुछेक कम्पनियों के पक्ष में पैरवी कर चुके हैं। हरीश साल्वे हिट एंड रन मामले में सलमान खान को बचा लेते हैं। इससे पहले वो काला धन रखने के मामले में अभिनेता दिलीप कुमार के भी तारनहार बन चुके हैं। गुजरात दंगों के मामले में हरीश साल्वे बिल्किस बानो मामले की भी पैरवी कर चुके हैं। और सरकार को जब आधार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने अपना पक्ष मजबूती से रखना होता है, तो भी हरीश साल्वे ही खड़े होते हैं। बाबा रामदेव के लिए भी हरीश साल्वे खड़े होते हैं। यहां तक कि जब मेरू और दूसरी कम्पनियों ने एप टैक्सी सेवाओं के खिलाफ मामला दायर किया, तो उबर की तरफ से हरीश साल्वे ही अदालत में खड़े हुए। 
नागपुर में वकीलों के परिवार में ही हरीश साल्वे का जन्म हुआ। अदालत में एक बार खड़े होने की हरीश साल्वे की फीस 6 लाख रुपये से 15 लाख रुपये के बीच जाकर बैठती है। कई मामलों में साल्वे एक दिन के लिए 30 लाख रुपये लेते हैं। लेकिन, कुलभूषण जाधव के मामले में हरीश साल्वे ने 1 रुपये की फीस लेकर अपनी पीढ़ी के वकीलों की इज्जत फिर से वापस ला दी है। 28 जुलाई 2014 को दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ कॉलेज में छात्रों से बात करते हरीश साल्वे ने कहा था कि एक सफल वकील के लिए किसी मामले की डिटेलिंग सबसे जरूरी है और इसी में वकील की सफलता का सूत्र छिपा होता हैहरीश साल्वे की दिल्ली विश्वविद्यालय के कानून के छात्रों को दी गई इस कीमती सलाह को पाकिस्तानी वकील ने शायद पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। इसीलिए उनके पास कुलभूषण मामले पर मिले 90 मिनट को इस्तेमाल करने भर की भी बहस तैयार नहीं हो सकी। इसी सूत्र और पूरे 90 मिनट का इस्तेमाल करके हरीश साल्वे ने ऐतिहासिक सफलता हासिल कर ली है। और अपनी इस सफलता पर हरीश साल्वे शायद अपने लंदन के घर में मुस्कुराते हुए पियानो बजा रहे होंगे। 
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

Friday, May 19, 2017

अनिल माधव दवे की अन्तिम इच्छा

अनिल माधव दवे जी से 2 बार मिलना हुआ। पहली बार भोपाल की मीडिया चौपाल में और दूसरी बार #IIMC में हुई मीडिया चौपाल में। उनसे मिलकर, बातचीत करके ही समझ में आ गया कि वो कितने सरल, सहज हैं, साथ ही पर्यावरण, पानी के लिए गजब के सम्वेदनशील। खुद प्रधानमंत्री ने भी उनकी आखिरी इच्छा वाली चिट्ठी साझा की है। मुझे लगता है कि ये चिट्ठी बार-बार, ज्यादातर बिना किसी प्रयोजन, सन्दर्भ के साझा की जानी चाहिए। संघ के प्रचारक से केंद्र सरकार के मंत्री तक उनके व्यहार में कोई बदलाव नहीं दिखा। बल्कि, आचार-विचार की मजबूती बनी ही रही। ये छोटा काम नहीं था। खासकर ऐसे समय में जब राजनीति करने की मूल शर्त ही यही है कि बिना पैसा कमाए काम नहीं चलेगा। दवे जी के नाम सिर्फ पर्यावरण, पानी की सफाई ही नहीं राजनीति की सफाई की भी चर्चा होनी चाहिए। समाज जीवन में हम जैसे जो लोग आज भी ये मानते हैं कि पैसा बहुत जरूरी हो सकता है लेकिन, समाज जब हमें जीवन में सम्मान देने लगे, तो समाज जीवन का सम्मान बना रहे, ये जिम्मेदारी हमारी बढ़ती जाती है। अनिल माधव दवे जी को पुन: श्रद्धांजलि। जब जिसे मौका लगे, दवे जी की आखिरी इच्छा वाली चिट्ठी ज्यादा से ज्यादा लोगों से साझा कीजिए।

Monday, May 15, 2017

नीतीश को नेता बनाकर विपक्ष की लड़ाई मजबूत बन सकती है

ताजा हाथापाई या कहें कि राजनीतिक रस्साकशी राष्ट्रपति चुनाव में होनी है। हालांकि, अभी तक सत्ता पक्ष या फिर विपक्ष का कोई पक्का प्रत्याशी नजर नहीं आ रहा है। सबकुछ कयास ही लगाया जा रहा है। लेकिन, ये माना जा रहा है कि विपक्षी एकता के साथ इस राष्ट्रपति चुनाव से ये भी तय होगा कि 2019 की लड़ाई के लिए विपक्ष साथ-साथ कितना आगे तक जा पाएगा। मोटे तौर पर अगर कोई चमत्कार जैसा नहीं हो गया, तो ये तय माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी जिसे चाहेंगे, उसे रायसीना हिल्स पर बैठाने में सक्षम हैं। उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे ने मोदी की अगुवाई वाले एनडीए की ताकत बहुत बढ़ा दी है। फिर भी विपक्ष इस कोशिश में लगा है कि एक मजबूत लड़ाई वो सत्तापक्ष के सामने वो राष्ट्रपति चुनाव में रख सके। राष्ट्रपति का पद ऐसा है कि अगर सम्भव हो तो पक्ष-विपक्ष किसी एक नाम पर सहमत हो जाएं, ये आदर्श स्थिति होती। लेकिन, भारतीय राजनीति में आदर्श स्थितियों को कांग्रेस ने अपनी सत्ता रहते बखूबी ध्वस्त किया था। भारतीय जनता पार्टी भी पहली बार राष्ट्रपति चुनाव के समय पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी रायसीना की पहाड़ी पर सम्विधान के लिहाज से सर्वोच्च सत्ता तय करने के मौके का पूरा इस्तेमाल करेगी। नरेंद्र मोदी के मन में क्या चल रहा है, किसे राष्ट्रपति की कुर्सी पर वो देखना चाहते हैं, ये कयास लगाना भी समझदारी तो नहीं ही कही जा सकती। इसलिए सत्ता पक्ष किसे राष्ट्रपति बनाएगा, इस पर बात करना छोड़ देते हैं। इससे भी शायद ही बहुत फर्क पड़े कि विपक्ष किसे राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाती है। लेकिन, राष्ट्रपति का चुनाव और इसमें विपक्ष के लड़ने का तरीका तय करेगा कि 2019 में नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष मजबूत लड़ाई पेश कर पाएगा या फिर ऐसे ही बिखरा हुआ दिखेगा।
सबसे पहले तो विपक्ष को राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के लिए तय करना होगा कि ये पूरी लड़ाई वो किसे नेता बनाकर लड़ने वाला है। नेता बनाकर राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने से मतलब राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी से कतई नहीं है। नेता बनाकर मतलब इस राष्ट्रपति चुनाव के दौरान पूरे विपक्ष की धुरी कौन होगा। किसके इर्द गिर्द विपक्षी एकता साथ-साथ आगे मजबूती से बढ़ती हुई दिखेगी। इस लिहाज से ये राष्ट्रपति का चुनाव बेहद अहम है। मुझे लगता है कि राष्ट्रपति पद का चुनाव विपक्ष के लिए अपना अगुवा तय करने का जरिया हो सकता है। और वो अगुवा कम से कम कांग्रेस पार्टी नहीं हो सकती। उसके पीछे 2 बड़ी वजहें हैं। पहली- कांग्रेस ने भले ही पंजाब में सरकार बना ली हो और दिल्ली नगर निगम के चुनाव में उसका मत प्रतिशत काफी बढ़ गया हो। लेकिन, कांग्रेस को लेकर पूरे देश में आशान्वित होने की स्थिति नहीं बन पा रही है। दूसरी वजह पहली से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। दूसरी- कांग्रेस के पास की भी नेता नहीं है, जिसके इर्द गिर्द दूसरी विपक्षी पार्टियां सहजभाव से बैट सकें। और इसीलिए बड़ा जरूरी है कि 2019 की बड़ी लड़ाई लड़ने से पहले विपक्ष एक ऐसा नेता खोज ले, जिसके पीछे खड़े होने में दूसरे विपक्षी नेताओं को अपमान का अहसास न हो। फिलहाल राहुल गांधी या फिर अरविन्द केजरीवाल के पीछे इसी भाव की वजह से विपक्ष एकजुट नहीं हो पा रहा है। ममता बनर्जी और नवीन पटनायक ताकतवर मुख्यमंत्री होने के बावजूद राष्ट्रीय नेता के तौर पर विपक्ष को आगे ले जा पाते नहीं दिख रहे हैं। इसकी वजह ये भी है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर इन नेताओं की प्रतिक्रिया देश में बहुत स्वीकार्य नहीं रही है। लेकिन, इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपवाद नजर आ रहे हैं। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, इसका आधार ताजा ईवीएम मशीन में गड़बड़ी की आशंका पर चुनाव आयोग के साथ हुई बैठक के बाद जेडीयू की प्रतिक्रिया है। जनता दल यूनाइटेड ने ईवीएम हटाकर बैलट पेपर की ओर लौटने पर विरोध जताते हुए कहा है कि बैलट पेपर के जरिए होने वाली मतपत्रों की लूट भला कौन भूल सकता है। वैसे तो पूरे देश में बैलट पेपर के जमाने में मतपत्रों की लूट से लेकर बूथ कब्जे तक की खबरें आती रही हैं। लेकिन, बिहार ने इस मामले में खास बदनामी अर्जित की है। इसलिए नीतीश कुमार की पार्टी का ईवीएम के साथ रहना बड़ा महत्वपूर्ण है। क्योंकि, बीएसपी, टीएमसी और पीएमके के अलावा नीतीश की सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल ने भी बैलट पेपर से चुनाव कराने की मांग की है। इसके पहले विमुद्रीकरण के मुद्दे पर भी नीतीश कुमार ने बहुत सधा हुआ रुख अपनाया था। वो विपक्षी नेता की तरह तर्क के साथ नोटबन्दी पर सवाल खड़ा कर रहे थे लेकिन, दूसरे विपक्षी नेताओं की तरह सिर्फ विरोध के लिए इसे खारिज नहीं कर रहे थे। नीतीश कुमार भले ही बिहार के मुख्यमंत्री हैं और लालू शहाबुद्दीन टेप या फिर दूसरे कानून व्यवस्था के मामलों पर बिहार सरकार की किरकिरी होती रही हो लेकिन, ये भी सच है कि नीतीश की कमाल की स्वीकार्यता पूरे देश में एक नेता के तौर पर है।
विपक्ष राष्ट्रपति चुनाव के इस मौके का इस्तेमाल नीतीश की इसी छवि को और मजबूत करने के लिए कर सकता है। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते हमेशा इस उम्मीद से रहेगी कि वही अगुवा पार्टी है। लेकिन, मोदी के सामने कांग्रेस इस बुरे हाल में है और नेता की कमी से उसका पक्ष बेहद कमजोर हो चला है। इसी मौके का फायदा उठाकर विपक्ष नीतीश को मोदी के खिलाफ लड़ाई में अपना नेता बना सकता है। ईवीएम पर सन्देह को राजनीतिक मुद्दा बनाकर अरविन्द केजरीवाल अपने खांटी कैडर को भले ही कुछ उत्साह दे पा रहे हों। लेकिन, सच यही है कि मोदी के मुकाबले वाले नेता के तौर पर केजरीवाल की छवि तेजी से कमजोर हुई है। इन सब वजहों अरविन्द केजरीवाल, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और खुद सोनिया गांधी नीतीश को 2019 की लड़ाई के लिहाज से अभी नेता मान सकती हैं। बस इसमें 2 बड़ी बाधाएं हैं। पहली- जनता दल यूनाइटेड का पार्टी के तौर पर बिहार से बाहर शून्य प्रभाव और दूसरा पार्टी के नेता शरद यादव की खुद रायसीना हिल्स पर काबिज होने की महत्वाकांक्षा। लेकिन, इस सबके बावजूद आज की स्थिति में राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्ष नीतीश के नेतृत्व क्षमता का सही आंकलन कर सकता है। 
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

Sunday, May 14, 2017

सबको ‘बेईमान’ बनाकर सत्ता हासिल करने वाला ‘ईमानदार’ नेता आज ‘बेईमान’ बन गया

मंत्री पद से हटाए जाने से ठीक पहले तक आम आदमी पार्टी का सबसे चमकता चेहरा रहे कपिल मिश्रा जब प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ही बेहोश से होकर गिरे, तो ये बात साबित सी हो गई कि कपिल मिश्रा अरविन्द केजरीवाल स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स से पूरी दीक्षा लेकर निकले हैं। हालांकि, बेहोश होकर गिरने से पहले तक कपिल मिश्रा अरविन्द केजरीवाल को साथ लेकर जितना नीचे तक गिर सकते थे, गिर चुके थे। कपिल मिश्रा ने अरविन्द केजरीवाल पर पार्टी के जरिए काले धन को सफेद में बदलने का बड़ा आरोप लगाया। कपिल ने कहाकि आम आदमी पार्टी फर्जी कम्पनियों से मिले चन्दे की रकम के बारे में जानकारी छिपाई है। उन्होंने आरोप को और मजबूत करते हुए बताया कि मोतीनगर से आम आदमी पार्टी के विधायक शिवचरन गोयल के नाम पर 16 फर्जी कम्पनियां बनाई गई हैं। और उन्हीं कम्पनियों ने अरविन्द केजरीवाल को रात 12 बजे 2 करोड़ रुपये दिए। कपिल ने आरोपों को धार देते हुए ये भी बताया कि इन कम्पनियों से मिला फन्ड एक्सिस बैंक की उन्हीं शाखाओं में जमा कराया गया, जहां नोटबन्दी के दौरान काला धन सफेद करने की शिकायतें मिली थीं। काला धन सफेद करने के मामले में कपिल मिश्रा ने सोमवार को सीबीआई में अरविन्द के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की भी बात कही है। कपिल के मुताबिक, एक्सिस बैंक की कृष्णानगर शाखा में आम आदमी पार्टी का खाता है और इसी शाखा से सारा लेनदेन हुआ है। लेकिन, कपिल मिश्रा सिर्फ आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर ही नहीं रुके। बेहोश होकर गिरने से पहले कपिल मिश्रा सड़क पर दो आवारा लड़कों की लड़ाई जैसी भाषा बोलने लगे। कपिल मिश्रा ने कहाकि अरविन्द केजरीवाल तुममें जरा भी शर्म बचा है, तो इस्तीफा दो। और अगर तुमने शाम तक इस्तीफा नहीं दिया तो तुम्हारे ऑफिस से कॉलर पकड़कर तिहाड़ जेल ले जाऊँगा। ये चुनौती देते कपिल मिश्रा बेहोश होने के नजदीक पहुंच गए थे। प्रेस कांफ्रेंस के बीच में बेहोश हुए कपिल मिश्रा को सीधे राममनोहर लोहिया अस्पताल ले जाया गया। जहां उनका इलाज चल रहा है।
कुल मिलाकर कपिल मिश्रा आम आदमी पार्टी को एक ऐसी पार्टी के तौर पर साबित कर देना चाह रहे हैं जो, राजनीतिक दल का इस्तेमाल सिर्फ काला धन को सफेद करने में ही कर रही है। इसलिए आम आदमी पार्टी के लिए इन आरोपों का जवाब देना जरूरी हो गया था। इतने कम समय में सत्ता हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी पर इतने गम्भीर आरोप इससे पहले शायद ही लगे हों। ऐसे में ये उम्मीद की जा रही थी कि अरविन्द केजरीवाल जरूर मीडिया के सामने, जनता के सामने अपना पक्ष रखने आएंगे। लेकिन, अरविन्द की जगह संजय सिंह, आशुतोष और राघव चड्ढा मीडिया के सामने आए। उन्होंने अपना पुराना आरोप फिर से दोहराकर ही अपनी बात शुरू की। संजय सिंह ने कहाकि कपिल मिश्रा पूरी तरह से बीजेपी के एजेंट हैं। और बीजेपी के इशारे पर आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। राघव चड्ढा ने कहाकि आम आदमी पार्टी में शामिल होने से पहले भी वो विदेश जाते रहे हैं। दरअसल कपिल मिश्रा, संजय सिंह और राघव चड्ढा सहित आम आदमी पार्टी के कई सदस्यों के विदेश जाने का ब्यौरा सार्वजनिक करने की मांग कर रहे हैं। अरविन्द तो अब सामने आने से बच रहे हैं लेकिन, अरविन्द के सिपहसालार जिस तरह से कपिल के आरोपों का सही जवाब देने के बजाय कपिल को बीजेपी का एजेंट साबित करने में जुटे हैं, उससे दाल काली नजर आती है। और सबसे बड़ी बात ये है कि आरोप लगाकर छवि खराब करने का ये मंत्र राजनीति में अरविन्द ने ही नए सिरे से इजाद किया।
29 जून 2012 की अरविन्द केजरीवाल की अहमदाबाद लोगों के ध्यान से उतर गई होगी। उस प्रेस कांफ्रेंस में अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे प्रणब मुखर्जी पर ढेरों भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। दरअसल 26 मई को अरविन्द केजरीवाल ने 15 लोगों की ऐसी सूची जारी की थी। जिन पर गम्भीर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। उस समय अरविन्द केजरीवाल टीम अन्ना के एक प्रमुख सदस्य के तौर पर जाने जाते थे। 25 जुलाई 2012 के पहले अरविन्द केजरीवाल ने प्रणब मुखर्जी के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूतों को देश के सामने रखने की बात कही थी। वो सबूत कभी देश की जनता के सामने नहीं आए। और प्रणब मुखर्जी देश के राष्ट्रपति भी बन गए। हालांकि, बाद में जन्तर-मन्तर पर धरनास्थल पर आरोप लगाते हुए जिन 15 लोगों के चेहरे पर कालिख पोत दी गई थी, उसमें से प्रणब मुखर्जी की तस्वीर हटा दी गई थी। अरविन्द केजरीवाल की यही शैली रही है। और कपिल मिश्रा उस समय नए राजनीतिक रंगरूट की तरह अरविन्द के पीछे-पीछे घूमते थे। यहां तक कि कपिल को अपनी मां की बात भी बुरी लगने लगी थी। जो बीजेपी नेता हैं। जिसकी परिणति कपिल मिश्रा के आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतने और मंत्री बनने से हुई। इसीलिए जब कपिल ये कहते हैं कि वो अरविन्द की हर हरकत को जानते हैं, तो उस पर भरोसा बनता है। कपिल ने आज की प्रेस कांफ्रेस करके ये साबित भी कर दिया है। राजनीति में पूरा खेल ही छवि का होता है। छवि के लिहाज से देश के सबसे ईमानदार राजनेता के तौर पर प्रतिष्ठित हुए अरविन्द केजरीवाल की छवि पर निजी तौर पर भ्रष्टाचार का दाग लग चुका है। पार्टी तो पहले ही पूरी तरह ईमानदार नहीं रह गई थी। प्रशान्त भूषण और योगेन्द्र यादव भी आम आदमी पार्टी के सिद्धान्तों से समझौते की बात कहकर ही बाहर निकले थे। और अब अन्ना हजारे भी कह रहे हैं कि मुझे लगा तो मैं अरविन्द के खिलाफ दिल्ली में अनशन करूंगा। कुल मिलाकर बिना किसी पुख्ता सबूत के आरोप हवा में उछालकर सबको बेईमान साबित करने की राजनीति के जरिए मुख्यमंत्री बन गए अरविन्द पर अब उन्हीं का एक पक्का वाला चेला भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहा है। जो राजनीति में अरविन्द ने बोया, उसकी फसल तैयार हो गई, उसी को वो काट रहे हैं। बस वो फसल उन्हीं के खिलाफ इतनी जल्दी खड़ी हो जाएगी। ये कल्पना नहीं थी। आरोपों में सच्चाई कितनी है, ये तो जांच के बाद ही सामने आएगा और ऐसे मामलों में ज्यादातर ये सामने आता भी नहीं है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने बीजेपी की सरकार से मांग की है कि अरविन्द केजरीवाल पर मनी लॉन्ड्रिंग के तहत मामला दर्ज किया जाए। लेकिन, ज्यादा गम्भीर आरोप अजय माकन ने ये लगाया है कि अरविन्द की पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए विदेशी फन्डिंग हुई है। और फन्डिंग उन ताकतों के जरिए हो रही है, जो देश को बांटना चाहते हैं। पंजाब चुनाव के दौरान खालिस्तान समर्थक लोगों के साथ आम आदमी पार्टी की बैठकों की खबरें भी आई थीं। 
कमाल की बात ये कि हर बात पर सड़क पर उतर आने वाले, जनता से राय लेने वाले और मीडिया के सामने कागज के पुलिंदे लेकर आने वाले अरविन्द केजरीवाल डरे से दिख रहे हैं। वो कपिल मिश्रा के आरोपों का जवाब देने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। अरविन्द केजरीवाल के पास न तो देशव्यापी कैडर है, न कोई विचारधारा, न समर्पित लोग और न ही लम्बे समय की राजनीति का अनुभव। अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी के पास सिर्फ और सिर्फ देश की राजनीति को बदलने का भ्रम देने वाली ईमानदार छवि थी। और इस बार उसी पर तगड़ी चोट लगती दिख रही है। अरविन्द के पास इस्तीफा देकर फिर से संघर्ष को आगे बढ़ाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन, मुश्किल ये है कि जो व्यक्ति अपनी निजी तानाशाही में प्रशान्त भूषण और योगेन्द्र यादव को लम्बे समय तक साथ नहीं रख सका। वो किस पर भरोसा करेगा। और अगर सत्ता दूसरे को देने का भरोसा अरविन्द नहीं कर सके तो, शायद ही देश की जनता का भरोसा अब उस तरह से अरविन्द पर बन सके। 
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

Monday, May 08, 2017

जिस डाल पर बैठे, उसी को काटते जा रहे हैं अरविन्द केजरीवाल

अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाने की घोषणा के साथ ही वो काम करना शुरू कर दिया था, जिसे पार्टी की बुनियाद को ही कमजोर करना कहा जा सकता है। जो भी अरविन्द के बराबर आधार वाले या आसपास के चेहरे दिखते थे, एक-एक करके अरविन्द ने किसी न किसी बहाने से उन्हें किनारे कर दिया। और अरविन्द केजरीवाल ने अपनी पार्टी और अपनी छवि पर सबसे तगड़ी चोट 21 अप्रैल 2015 को की थी। वो चोट आज कपिल मिश्रा के अपनी आंखों के सामने 2 करोड़ रुपये लेने के आरोप वाली चोट से भी बड़ी चोट थी। हालांकि, उस समय अरविन्द केजरीवाल और मीडिया विश्लेषकों को इस बात का उतना अहसास नहीं हुआ था। क्योंकि, उस समय अरविन्द का सूरज पूरब में ही था। योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, आनन्द कुमार और अजीत झा को पार्टी विरोधी गतिविधि में शामिल होने के आरोपों में आम आदमी पार्टी से निकाल दिया गया था। योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण ये वो चेहरे हैं, जिन्होंने सही मायने में आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल का आधार तैयार करने का काम किया था। अरविन्द के अगल-बगल खड़े रहकर योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण आम आदमी पार्टी से जुड़ रहे नए चेहरों के साथ पुराने आन्दोलनकारियों को भी भरोसा दिला रहे थे कि वैकल्पिक राजनीति का चेहरा खोजने वाले अरविन्द केजरीवाल पर भरोसा कर सकते हैं। भाजपा-कांग्रेस विरोधी राजनीति को फलते-फूलते देखने की इच्छा रखने वालों के लिए अरविन्द केजरीवाल उस नायक के तौर पर दिख रहे थे, जो भारतीय राजनीति में सभी परम्परागत परेशानियों पर विजय पाकर आगे बढ़ रहे थे। लेकिन, 21 अप्रैल 2015 को योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण को पार्टी से बाहर निकालकर अरविन्द ने उस वैकल्पिक राजनीति की बुनियाद पर ही बहुत तगड़ी चोट कर दी थी।
21 अप्रैल 2015 को लगी चोट इतनी तगड़ी थी कि जब 7 मई 2017 को कपिल मिश्रा ने अरविन्द पर अपनी आंखों के सामने ही सत्येंद्र जैन से 2 करोड़ रुपये नकद लेने का आरोप लगाया, तो अरविन्द का साहस तक नहीं बन सका कि वो मीडिया के सामने आकर इस आरोप पर अपने तीखे अन्दाज में जवाब दे पाते। अरविन्द ने जो चोट अपनी बुनियाद पर की थी, उसका असर आज उनके साहस पर साफ दिख रहा है। कुमार विश्वास भले ही अरविन्द पर लगाए आरोपों के पक्ष में कपिल मिश्रा से सबूत देने को कह रहे हैं। लेकिन, ये सब जानते हैं कि कुमार विश्वास की विश्वसनीयता कितनी है। कुमार के हर दूसरे दिन बीजेपी में चले जाने की खबरें आती रहती हैं। योगेद्र यादव और प्रशान्त भूषण ऐसे चेहरे थे, जो किसी भी हाल में बीजेपी की तरफ झुकते कभी नहीं दिखे। मनीष सिसोदिया की छवि अच्छी है। और इसीलिए आज भी मीडिया के सामने अरविन्द पर लगे आरोपों का जवाब देने के लिए मनीष सिसोदिया ही सामने आए। लेकिन, जिस तरह सिर नवाकर अरविन्द को महान बनाने का कोई मौका मनीष सिसोदिया अपने हाथ से जाने नहीं देते। उसमें मनीष सिसोदिया की छवि कभी भी एक आधार वाले नेता के तौर पर नहीं बन सकी। इसीलिए अब मनीष को लोग अरविन्द के एक दरबारी नेता के तौर पर ही स्वीकार कर पा रहे हैं। 
जिस संजय सिंह को अरविन्द केजरीवाल ने लगभग हर महत्वपूर्ण चुनाव का जिम्मा दे दिया। उस संजय सिंह पर 2014 के लोकसभा चुनावों से लेकर पंजाब चुनावों तक ढेर सारी वित्तीय अनियमितता का आरोप लगा। आशुतोष एक पत्रकार के तौर पर अपनी विशेषज्ञता के साथ अरविन्द केजरीवाल के साथ गए। लेकिन, राजनीतिक हलकों में आशुतोष की छवि आम आदमी पार्टी के एक ऐसे प्रवक्ता के तौर पर ज्यादा बन गई, जो तर्क-कुतर्क में फंसने पर खुद पत्रकार बन जाता है और पहला मौका मिलते ही पूरी पत्रकारिता को ही कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकता। आम आदमी पार्टी में अरविन्द के विश्वसनीय और दरबारी नेताओं में एक मजबूत नेता पंकज गुप्ता हैं। लेकिन, पंकज की पार्टी की कमरे के भीतर होने वाली बैठक में भी खास अहमियत नहीं है। कुल मिलाकर अरविन्द ने बड़े सलीके से जैसे अपने बराबर खड़े नेताओं को काटा, उन्हें पता ही नहीं चला कि इसी कटाई में उनकी अपनी छवि और आम आदमी पार्टी का आधार भी कटता चला गया। लेकिन, अरविन्द की पूर्ण बहुमत की सरकार है। नए दरबारी नेताओं की फौज खड़ी हो गई। ऐसे में पता ही नहीं चला कि बुनियाद दरक चुकी है। 
पंजाब में सरकार न बन पाने, फिर गोवा में साफ हो जाने से अरविन्द की छवि कमजोर हुई है और पार्टी का आधार खिसक गया है, ये जोरशोर से पता चल गया। रही सही कसर दिल्ली के नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस का आधार मत वापस आने से पूरी हो गई। बीएसपी की तरह ईवीएम पर ठीकरा फोड़कर अरविन्द अपनी छवि कमजोर होने और पार्टी की आधार दरकने को भ्रम बताने की नई साजिश रचने लगे। लेकिन, कामयाब नहीं हो सके। वो नौजवान जो अरविन्द को वैकल्पिक राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा मानकर झाड़ू उठाने चला आया था। वो दुखी हो रहा है। इसका सीधा सा असर सोशल मीडिया पर अरविन्द और आम आदमी पार्टी के पक्ष में चलने वाले अभियानों में आई कमजोरी से साफ समझा जा सकता है। कपिल मिश्रा ने 2 करोड़ रुपये नकद लेनदेन और 50 करोड़ रुपये के एक जमीन सौदे का आरोप लगाने के साथ एक और तगड़ी चोट कर दी है। वो तगड़ी चोट है, अरविन्द केजरीवाल के ईवीएम की वजह से चुनाव हारने की बात को ध्वस्त करना। 
कपिल मिश्रा ने सटीक निशाना मारते कहा है कि अभी तक ईवीएम की वजह से पार्टी की बुरी हार हुई, अब पानी की समस्या से हुई। कुल मिलाकर अरविन्द और आम आदमी पार्टी का आधार ही कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती का कुनबा जोड़ाथा। लेकिन, कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा वो था, जो विकल्प की राजनीति में अपनी भूमिका देख रहा था। ये सब लम्बे समय से कांग्रेस-भाजपा विरोधी राजनीति का आधार तैयार करने में जुटे थे। 2 साल में पूर्ण बहुमत की सरकार बना लेने वाले अरविन्द केजरीवाल और उनके सारे 2 साल वाले ही दरबारी नेता इस बात को समझ नहीं सके।हर बात पर मोदी से मुकाबला करने वाले अरविन्द को ये बात कौन समझाए कि भारतीय जनता पार्टी का बरसों का कैडर है। भले ही ये दिखता है कि मोदी-शाह के अलावा भाजपा में किसी की कोई औकात नहीं है। लेकिन, यही देखने वाले ये भी मानते हैं कि संघ कभी भी हस्तक्षेप कर सकता है। यूपी में योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री बनना ऐसे ही हस्तक्षेप बड़ा उदाहरण माना जाता है। इसके अलावा भी मोदी सरकार के सबसे बड़े मंत्रियों- गृहमंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी- का अपना प्रभाव और काम करने का तरीका है। ये बात अरविन्द केजरीवाल समझ सकें, तो ठीक। वरना सबसे कम समय में सत्ता के शीर्ष पर पहुंचकर खत्म होने वाली राजनीतिक पार्टी के तौर पर आम आदमी पार्टी को याद किया जाएगा।
(ये लेख QuintHindi पर छपा है।)

Friday, May 05, 2017

"ज्योति" को "निर्भया" बनाकर कहां पहुंचे हम

निर्भया के साथ हैवानियत की इंतेहा कर देने वाले कुकर्मियों को फांसी ही दी जाएगी। ये फैसला तो सितम्बर 2013 में ही सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर बनी फास्टट्रैक अदालत ने सुना दिया था। लेकिन, भारत गजब का लोकतांत्रिक देश है, इसलिए ऐसे हैवानों को भी न्याय का हर मौका दिया गया। मार्च 2014 में उच्चन्यायालय में हैवानों ने फिर से अर्जी डाली, वहां भी अदालत ने न्याय का माथा ऊंचा रखा और उसके बाद 2 जून 2014 को हैवानों को फांसी न देने की मांग करने वाली अर्जी सर्वोच्च न्यायालय के सामने आई। फैसला आज आया। कुकर्मियों की फांसी की सजा बरकरार है। लेकिन, एक बड़ा सवाल छोड़ गई है, हमारी न्याय व्यवस्था में होने वाली देरी पर। सोचिए देश के मन:स्थिति बदल देने वाले अपराध के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने फास्टट्रैक अदालत और उच्चन्यायालय के ही फैसले को बरकरार रखने में करीब 3 साल लगा दिया। खैर, उन कुकर्मियों को जल्द से जल्द फांसी दी जाए। हालांकि, इसमें भी नाबालिग कुकर्मी 3 साल की सजा काटकर बाहर निकल चुका है। लेकिन, मैं इन दोनों ही बातों को अभी छोड़ देता हूं, फिर भी मुझे इस फैसले के साथ एक बड़े फैसले का न आना निराश करता है। निराश इसलिए करता है कि क्या हमारा समाज सचमुच निर्भया के साथ है। अगर होता तो क्या इस देश को उस लड़की का असली नाम नहीं पता होता। अगर होता तो क्या उस लड़की की पूरी पहचान के साथ उसकी पूरी कहानी देश के लोगों को न पता चल रही होती। लेकिन, एक कानून है कि दुष्कर्म की पीड़ित लड़की की पहचान छिपाकर रखी जाए। इस कानून के पीछे अच्छी भावना यही रहती है कि दुष्कर्म की शिकार हुई लड़की को समाज में और ज्यादा पीड़ा न झेलनी पड़े। उसके परिवार के लोगों को उसकी वजह से अपमान न झेलना पड़े। ये अच्छी भावना है। लेकिन, निर्भया का मामला बिल्कुल अलग है। निर्भया के मां-बाप के साहस को सलाम करना चाहिए कि वो खुद आगे बढ़कर देश की मनोदशा बदलने की कोशिश में अपने ऊपर हुए सबसे बड़े अत्याचार को भूलकर लड़ाई लड़ रहे हैं। पूरी दुनिया जानती है कि ये कौन हैं। फिर क्या उस लड़की के नाम की जगह सिर्फ निर्भया लिख देने से लोग नहीं जानेंगे कि ये किसके मां-बाप हैं। और दुनिया को क्यों नहीं जानना चाहिए कि ये ज्योति के मां-बाप हैं। वो ज्योति जिसने भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में दुष्कर्म के खिलाफ लड़ने की एक बड़ी ताकत खड़ी कर दी है। उस ज्योति का नाम पूरी दुनिया को क्यों नहीं पता चलना चाहिए। निर्भया हम लोगों के बीच रही भी नहीं। इसलिए दुष्कर्म की शिकार लड़की की पहचान छिपाने के पीछे की अच्छी वाली भावना का भी यहां कोई मतलब नहीं रहा।
मेरे मन में सवाल ये उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारे समाज से लेकर हमारे कानून तक अभी भी दुष्कर्म के लिए उस लड़की को ही दोषी मान रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है तो उस प्रेरणा देने वाली ज्योति की कहानी हम किसी निर्भया, वेदना, दामिनी जैसे प्रतीकात्मक नामों से क्यों जान रहे हैं। एक छोटी जगह से दिल्ली महानगर में सपने देखने, पूरा करने के लिए आई वो लड़की इस देश में नारी सशक्तिकरण की सबसे बड़ी मिसाल है। उसकी कहानी तो उसके नाम से सबको जानना चाहिए। नाम छिपाने की जरूरत तो उन कुकर्मियों को होनी चाहिए। दबे-छिपे ही सही उस लड़की की कहानी बहुतेरे लोगों को पता चल गई। दरअसल ये एक ऐसी कहानी है जिसे हर कोई जानना चाहता है। सुनना चाहता है। उस दर्द से दोबारा कोई न गुजरे ऐसा इस देश में ही नहीं दुनिया चाहने वाले लगभग पूरे ही हैं। वो, लड़की एक ऐसी कहानी बन गई है जिसकी चर्चा, बातचीत हर कोई कर रहा है लेकिन, सच्चाई ये है कि बातचीत हम उसकी तो, कर रहे हैं। उसे जिंदा रखने की कसमें खा रहे हैं। उसके मरने से पूरे समाज के जिंदा होने की आशा भी जगा चुके हैं। फिर सवाल यही है कि जिसके नाम पर सारा देश जग गया है। उसको हम मारने पर तुले हुए हैं। हम पता नहीं किस वजह से उसकी पहचान खत्म करने पर तुले हुए हैं। सवाल यही है कि उस बहादुर लड़की का नाम छिपाकर हम क्या चाह रहे हैं कि देश एक ऐसी घटना के नाम पर जो, जागा है वो, फिर सो जाए। बल्कि मुझे तो लगता है कि सरकारी उदारवाद की नीति से घुटता वर्ग जो, यथास्थिति वादी हो चुका था। जो, जागा था लेकिन, आंख बंदकर सोए होने का नाटक कर रहा था सिर्फ इस बेवजह की उम्मीद में बुरी घटनाएं सिर्फ बगल से छूकर खबरों में आकर निकल जाएंगी। इस घटना ने उसे डराया है। और, इस डर ने उसे निर्भय होने का एक मंत्र दे दिया है लेकिन, ये निर्भय मंत्र आखिर कब तक काम आएगा। जिस लड़की की शहादत के बाद देश में ऐसा करने वालों के खिलाफ एक ऐसा माहौल बना है जो, सीधे और तुरंत कार्रवाई की स्थिति पैदा कर रहा है। उसी लड़की की पहचान हम क्यों मारने पर तुले हैं।
ये कहानियां अब लगभग सबको पता है कि उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक गांव से वो लड़की देश की राजधानी आई थी। उस लड़की के पिता के साक्षात्कार पहले बिना नाम बताए अखबारों में छपे और बाद में तो माता-पिता दोनों कैमरे के सामने भी आ गए। पिता ये बता चुका है कि उस लड़की की पढ़ाई के लिए उसने खेत बेच दिया। छोटे भाइयों को पढ़ाना उस लड़की का सबसे बड़ा सपना था। इस सबकी बात हो रही है लेकिन, जो असल वजह है इन सब बातों की यानी वो लड़की। उसकी पहचान या कहें उसे जिंदा रखने से हम डर रहे हैं। क्या अभी भी उसके सा हुआ दुष्कर्म उसके मां-बाप, भाई-बहन के माथे पर कलंक जैसा है। आखिर क्यों हम डर रहे हैं उसकी पहचान जाहिर करने से। आखिर क्यों उस लड़की का चेहरा इस देश की सारी लड़कियों के लिए संबल, ताकत नहीं बन सकता। क्यों उस लड़की का नाम इस देश में महिलाओं के खिलाफ किसी भी तरह के अपराध के खिलाफ एक हथियार नहीं बन सकता। होना तो ये चाहिए उसके नाम से दुष्कर्मियों या महिलाओं के खिलाफ अपराध पर ऐसी सजा का एलान करे कि वो, जिंदा रहे। मरने के बाद भी जिंदा रहे। क्यों नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में ये प्रस्ताव भारत सरकार की तरफ से जाए कि हम जाग गए हैं दुनिया को जगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ उसे अपना ब्रांड अबैसडर बनाए। दुष्कर्मियों के वहशीपन के बाद वो जिस हाल में थी उसमें वो, जिंदा भी रहती तो, शायद इसी मकसद से कि दुष्कर्म करने की दोबारा कोई सोच न सके। फिर उसे क्यों मारने पर तुले हैं हम- हमारी सरकार, हमारी मीडिया, हमारा समाज।

Tuesday, May 02, 2017

जनता के भरोसे का सवाल बड़ा होता जा रहा है मोदी जी

#BadlaLo is still trending on twitter @narendramodi @PMOIndia 
इसका सीधा सा मतलब हुआ कि सब जानने वाली जनता जानती है कि अभी कुछ भी ऐसा नहीं हुआ है। पूरे १ घंटे से ज़्यादा पाकिस्तानी अख़बार, टीवी चैनलों को देखने के बाद इतना तो पक्का है कि अभी कोई ऐसी कार्रवाई नहीं हो सकी है जिसे पाकिस्तान तिलमिलाए। वहाँ का मीडिया अभी तक यही खबर सबसे ऊपर रखे हुए है कि पाकिस्तान ने भारतीय जवानों के साथ बर्बरता को ख़ारिज किया है। हमारी भारतीय मीडिया अब उस खबर से आगे बढ़ गई है और बता रही है कि ३ पाकिस्तानी चौकियाँ ध्वस्त की गईं और ७ जवान मारे गए। हालाँकि, ये पाकिस्तानी मीडिया की रणनीति भी हो सकती है कि वो पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने की खबर दबा दें। जिससे भारत में लोगों का ग़ुस्सा सरकार के ख़िलाफ़ बना रहे। सच्चाई का पता लगाना भारत-पाकिस्तान जैसी स्थिति में टेढ़ी खीर है। लेकिन भारत सरकार से, ख़ासकर मोदी सरकार, भारतीय इतनी तो उम्मीद रखते ही हैं कि वो ऐसा करे जिससे समझ में आए कि मोदी-मनमोहन में कोई अन्तर है। सवाल पाकिस्तान के साथ युद्ध करने का नहीं है। हिन्दुस्तान में कोई भी युद्ध का पक्षधर नहीं है। लेकिन, सवाल है उस भारत की जनता के स्वाभिमान को बचाने का, जिसे मोदी जी विश्वशक्ति बनाने का सपना दिखाकर प्रचण्ड बहुमत में आए हैं। निगम पार्षद से सांसद तक सिर्फ मोदी का चेहरा देखकर जनता बना दे रही है। उस जनता के भरोसे का सवाल बड़ा होता जा रहा है मोदी जी।
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हिन्दुत्व के सहारे मुख्यमंत्री बने आदित्यनाथ को हिन्दू युवा वाहिनी की चुनौती

उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ ने 19 मार्च को शपथ ली। उग्र हिन्दुत्व की छवि के नेता होने की वजह से योगी आदित्यनाथ को लेकर ढेरों आशंका लोगों के मन में थी। उसमें सबसे बड़ी आशंका गोरखपुर के सांसद और गोरक्षपीठ के महंत आदित्यनाथ की सरपरस्ती में चल रहे संगठन हिन्दू युवा वाहिनी की गतिविधियों को लेकर थी। हिन्दू युवा वाहिनी के संरक्षक योगी आदित्यनाथ हैं। और ये वही हिन्दू युवा वाहिनी है, जिसके कार्यक्रमों में विवादित भाषणों की वजह से योगी आदित्यनाथ को उग्र हिन्दू नेता के तौर पर देखा जाता रहा है। अब योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। लेकिन, योगी आदित्यनाथ अभी भी हिन्दू युवा वाहिनी के संरक्षक हैं। अब अगर संगठन का संरक्षक प्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाए तो, कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ना स्वाभाविक है। इसी बढ़े मनोबल की वजह से हिन्दू युवा वाहिनी के कई कार्यकर्ताओं के गलत व्यवहार चर्चा में आ गए। आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनते ही प्रदेश में कई जगहों पर होर्डिंग में वही नारे लिखे गए जो, गोरखपुर सांसद के तौर पर आदित्यनाथ के लिए लगाए जाते थे। प्रदेश में कई जगहों पर - यूपी में रहना है तो योगी, योगी कहना है- लिखी हुई होर्डिंग लगाई गई। 12 अप्रैल को मेरठ से एक खबर आई कि हिन्दू युवा वाहिनी  के कार्यकर्ताओं ने एक घर में घुसकर एक दंपति के साथ बदसलूकी की। और उन्हें थाने ले जाकर पुलिस कार्रवाई का दबाव बनाया। बताया जा रहा है कि लड़का मुस्लिम और लड़की हिन्दू है। हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं का ये आरोप है कि लड़के ने अपनी धार्मिक पहचान छिपाकर लड़की को बरगलाया और धर्म परिवर्तन की कोशिश कर रहा था। लड़की के परिवारवालों ने उनसे बचाने की गुहार लगाई। इसी तरह नोएडा से एक खबर आई कि हिन्दू युवा वाहिनी के एक पदाधिकारी ने एसयूवी से बाइक सवार को टक्कर मार दी और उसके बाद बाइक पर एसयूवी चढ़ाते हुए भाग निकला। ऐसी छिटपुट घटनाएं कई हुईं, जिसमें हिन्दू युवा वाहिनी का पदाधिकारी, कार्यकर्ता बताकर गलत व्यवहार किया गया। कानून व्यवस्था के लिहाज से सबसे बड़ी मुश्किल खुद हिन्दू युवा वाहिनी ही खड़ी करती दिखी। 
हिन्दू युवा वाहिनी वही संगठन है, जिसके बैनर तले योगी आदित्यनाथ ने 2012 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में विधानसभा प्रत्याशी उतारे थे। ये प्रत्याशी भाजपा के खिलाफ लड़े। इस चुनाव में भी कुछ लोगों ने हिन्दू युवा वाहिनी के बैनर पर चुनाव लड़ा, जिसे आदित्यनाथ की टिकट बंटवारे में अपनी भूमिका मजबूत करने की रणनीति के तौर पर देखा गया था। हालांकि, अब  ये सब पुरानी बात हो चली है। अब योगी आदित्यनाथ भारतीय जनता पार्टी के नेता के तौर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। इसलिए इस सवाल का जबाव स्पष्ट होना जरूरी हो गया है कि प्रदेश में कानून का राज स्थापित करने में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का आदेश सबसे ऊपर होगा या फिर हिन्दू युवा वाहिनी के संरक्षक गोरक्षनाथ पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ, हिन्दू युवा वाहिनी के जरिए कानून व्यवस्था का राज कायम करेंगे। जब योगी विपक्ष में थे और उन्हें लगता था कि हिन्दू हितों को दरकिनार किया जा रहा है, तब हिन्दू युवा वाहिनी के जरिए हिन्दुओं के हित की बात उठाने की बात तो समझ में आती है। लेकिन, अब जब प्रदेश के मुखिया खुद योगी आदित्यनाथ हैं, तो ये बात पच नहीं रही है। क्या हिन्दू युवा वाहिनी के लोग कानून से ऊपर हैं। 
अच्छी बात है कि इस बात को योगी आदित्यनाथ शायद समझ चुके हैं। इसीलिए हिन्दू युवा वाहिनी ने नए सदस्यों की भर्ती पर रोक लगा दी है। हिन्दू युवा वाहिनी का सदस्य बनकर रौब गांठने का ऐसा असर है कि योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से हर रोज 5000 नए लोग हिन्दू युवा वाहिनी से जुड़ने के लिए अर्जियां दे रहे हैं। हिन्दू युवा वाहिनी की वेबसाइट पर अभी साफ-साफ लिखा हुआ है कि संगठन की सदस्यता अनिश्चितकालीन स्थगित है। वेबसाइट पर दिया गया सदस्यता फॉर्म सिर्फ आवेदन तक ही सीमित है। हिन्दू युवा वाहिनी ने मेरठ और नोएडा की घटनाओं पर भी स्पष्ट किया कि इन घटनाओं में शामिल लोग हिन्दू युवा वाहिनी के वर्तमान सदस्य नहीं हैं। हिन्दू युवा वाहिनी की राज्य इकाई बदल दी गई है। इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक, योगी आदित्यनाथ ने हिन्दू युवा वाहिनी के पदाधिकारियों के साथ बैठक की है। इस बैठक में योगी ने सख्त निर्देश दिए हैं कि हिन्दू युवा वाहिनी के सदस्य किसी के साथ दुर्व्यवहार न करें और किसी मामले में गलत होने की सूचना स्थानीय पुलिस-प्रशासन को दें। खुद कोई भी कार्रवाई न करें। देश के किसी भी राज्य में पहली बार है कि जब कोई संन्यासी मुख्यमंत्री बना है। इसलिए योगी पर इस बात का बहुत ज्यादा दबाव है कि वो खुद के साथ जुड़ी आशंकाओं को खत्म करें। योगी ने अपन कार्यकाल की शुरुआत में ही जिस तरह का एजेंडा पेश किया है, वो अच्छी सरकार की सम्भावनाएं बनाता है। लेकिन, हिन्दू युवा वाहिनी की एक भी गलत हरकत योगी के मुख्यमंत्री रहते सभी अच्छे कामों को धूमिल कर देगी, ये तय है। अच्छी बात ये है कि योगी खुद इस बात को समझ रहे हैं और हिन्दू युवा वाहिनी पर लगाम लगा रहे हैं। क्योंकि, लोकतंत्र में सम्वैधानिक तरीके से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे योगी आदित्यनाथ से बड़ा किसी हिन्दू युवा वाहिनी का संरक्षक नहीं हो सकता। 

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...