आखिरकार
काफी जद्दोजहद के बाद अरविन्द केजरीवाल ने ये मान लिया है कि उनसे गलतियां हुई
हैं। अब गलतियों को सुधारकर वो आगे बढ़ेंगे। लेकिन, सवाल जस का तस बना हुआ है कि क्या अरविन्द को सच
में अपनी गलतियों का अहसास हो गया है। क्या अरविन्द केजरीवाल अपनी सबसे बड़ी गलती
यानी अपने अहंकार को सुधारेंगे, उसे कम करेंगे। दरअसल अरविन्द को जाने-अनजाने इस बात का अहंकार हो गया
था कि उनकी निजी छवि इतनी बड़ी है कि उसमें उनकी या उनके आसपास के लोगों की सारी
गलतियां दब जाएंगी। अरविन्द का ये अहंकार होना स्वाभाविक ही था। भारतीय राजनीति के
इतिहास में एकाध मौके को छोड़कर कभी ऐसा नहीं हुआ कि मात्र 2 साल में कोई पार्टी
सत्ता के शिखर पर पहुंच जाए। 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए आन्दोलन में अरविन्द अकेले नायक
नहीं थे। शान्ति भूषण, उनके बेटे प्रशान्त भूषण, योगेन्द्र यादव, आनन्द कुमार, कुमार विश्वास, शाजिया इल्मी जैसे लोग अन्ना की अगुवाई में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी
आन्दोलन में अरविन्द के साथ दूसरी कतार में साथ खड़े दिखते थे। किरण बेदी तो कई
बार अरविन्द से थोड़ा ऊपर ही दिखती रहीं। लेकिन, अरविन्द को कतई ये पसन्द नहीं था कि भ्रष्टाचार
के खिलाफ खड़े हो रहे भारत के इस सबसे बड़े आन्दोलन की पहचान नेता के तौर पर उनके
अलावा किसी और की हो। ये भी तय था कि अरविन्द शुरू से ही राजनीतिक आन्दोलन की तरह
चलाना चाहते थे। इसीलिए जब अन्ना के इनकार करने के बाद भी अरविन्द नहीं माने, तो पार्टी बनने से
पहले ही आधी हो गई थी। अरविन्द दिल्ली में चुनाव लड़े और पहली बार में ही सत्ता के
एकदम नजदीक पहुंच गए और फिर कांग्रेस के समर्थन से सरकार भी बना ली। लेकिन, वो सरकार ज्यादा समय
तक चली नहीं। और अरविन्द केजरीवाल ने कहाकि पूर्ण बहुमत की सरकार के बिना दिल्ली
नहीं बदली जा सकती। दिल्ली की जनता नेे अरविन्द को वो जनादेश दे दिया जो, भारतीय इतिहास में
किसी को नहीं मिला। 70 में से 67 सीटें आम आदमी पार्टी की हो गईं। हालांकि, चुनावों के समय टिकट
बंटवारे को लेकर योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण ने कई दागी प्रत्याशियों पर
एतराज किया था। लेकिन, अरविन्द तो अहंकार के साथ ही आगे बढ़े थे। वो अहंकार जो किसी पर भी
आरोप लगाकर जनता का साथ हासिल करने से मिला था। फिर वो भला किसी की क्यों मानते।
फिर वही
हुआ, जिसका
एक अहंकारी नेतृत्व वाली पार्टी में होना तय होता है। किरण बेदी तो पहले ही बाहर
जा चुकी थीं। आमने-सामने की लड़ाई में किरण बेदी को बुरी तरह से हराने से बुलन्द
हौसले ने अरविन्द को और अहंकारी बना दिया। अरविन्द ने दूसरी पांत की लड़ाई में
अन्ना आन्दोलन के समय उनके साथ खड़े लोगों- शान्ति भूषण, उनके बेटे प्रशान्त भूषण, योगेन्द्र यादव, आनन्द कुमार- को निकाल बाहर किया। इस समय की आम आदमी पार्टी देखने से
साफ दिखता है कि अरविन्द ने उन लोगों को अब आम आदमी पार्टी का चेहरा बना दिया है, जिन चेहरों की
अरविन्द के सामने कोई औकात नहीं है। मनीष सिसोदिया, संजय सिंह,
आशुतोष, दिलीप पांडेय, कपिल मिश्रा- यही वो चेहरे हैं जो अब आम आदमी पार्टी हैं। ये अरविन्द
के अहंकार को पोषित करने वाले चेहरे हैं। मनीष सिसोदिया निश्चित तौर पर इनमें सबसे
भरोसेमन्द, काम
करने वाले चेहरे हैं। लेकिन, इन लोगों को बोलते सुनकर ये आसानी से समझा जा सकता है कि अरविन्द का
अहंकार बढ़ाने में इन लोगों का कितना बड़ा योगदान है। इसीलिए दिल्ली से लेकर पंजाब
तक जब संजय सिंह पर ढेर सारे आरोप लग रहे थे,
तो अरविन्द को संजय सिंह का अपने अच्छे दरबारी की
तरह खड़े रहना ज्यादा याद रहता था। पहले पंजाब और अब दिल्ली नगर निगम में जनता से
नकारे जाने के बाद लम्बे समय तक अरविन्द का अहंकार उन्हें ये मानने नहीं दे रहा था
कि आम आदमी पार्टी से जनता किनारे हो सकती हैै। क्योंकि, वो तो खुद को
नरेंद्र मोदी के सामने अकेले विकल्प के तौर पर देख रहे थे। और उनके दरबारियों ने
ये अहंकार हर दिन बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, जब लगा कि अब मशीन
पर अविश्वास इससे ज्यादा करना जनता की नजरों में और गिरा देगा, तो अपने दरबार की
लम्बी सलाह के बाद अरविन्द ने गलती मानी है। लेकिन, अभी भी शायद उन्हें असली गलती का अन्दाजा नहीं
है। असली गलती है, उनका
अहंकार। और अरविन्द ने गलती में अभी तक अपने अहंकार की बात नहीं की है। अब
जब तक इस असली गलती को अरविन्द नहीं सुधारते,
आम आदमी पार्टी पतन के रास्ते से शायद ही लौट
सके।
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