निर्भया के साथ हैवानियत की इंतेहा कर देने
वाले कुकर्मियों को फांसी ही दी जाएगी। ये फैसला तो सितम्बर 2013 में ही
सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर बनी फास्टट्रैक अदालत ने सुना दिया था। लेकिन, भारत
गजब का लोकतांत्रिक देश है, इसलिए ऐसे हैवानों को भी न्याय का हर मौका दिया गया।
मार्च 2014 में उच्चन्यायालय में हैवानों ने फिर से अर्जी डाली, वहां भी अदालत ने
न्याय का माथा ऊंचा रखा और उसके बाद 2 जून 2014 को हैवानों को फांसी न देने की
मांग करने वाली अर्जी सर्वोच्च न्यायालय के सामने आई। फैसला आज आया। कुकर्मियों की
फांसी की सजा बरकरार है। लेकिन, एक बड़ा सवाल छोड़ गई है, हमारी न्याय व्यवस्था
में होने वाली देरी पर। सोचिए देश के मन:स्थिति बदल देने वाले अपराध के
मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने फास्टट्रैक अदालत और उच्चन्यायालय के ही फैसले
को बरकरार रखने में करीब 3 साल लगा दिया। खैर, उन कुकर्मियों को जल्द से जल्द
फांसी दी जाए। हालांकि, इसमें भी नाबालिग कुकर्मी 3 साल की सजा काटकर बाहर निकल
चुका है। लेकिन, मैं इन दोनों ही बातों को अभी छोड़ देता हूं, फिर भी मुझे इस
फैसले के साथ एक बड़े फैसले का न आना निराश करता है। निराश इसलिए करता है कि क्या
हमारा समाज सचमुच निर्भया के साथ है। अगर होता तो क्या इस देश को उस लड़की का असली
नाम नहीं पता होता। अगर होता तो क्या उस लड़की की पूरी पहचान के साथ उसकी पूरी
कहानी देश के लोगों को न पता चल रही होती। लेकिन, एक कानून है कि दुष्कर्म की
पीड़ित लड़की की पहचान छिपाकर रखी जाए। इस कानून के पीछे अच्छी भावना यही रहती है
कि दुष्कर्म की शिकार हुई लड़की को समाज में और ज्यादा पीड़ा न झेलनी पड़े। उसके
परिवार के लोगों को उसकी वजह से अपमान न झेलना पड़े। ये अच्छी भावना है। लेकिन,
निर्भया का मामला बिल्कुल अलग है। निर्भया के मां-बाप के साहस को सलाम करना चाहिए
कि वो खुद आगे बढ़कर देश की मनोदशा बदलने की कोशिश में अपने ऊपर हुए सबसे बड़े
अत्याचार को भूलकर लड़ाई लड़ रहे हैं। पूरी दुनिया जानती है कि ये कौन हैं। फिर
क्या उस लड़की के नाम की जगह सिर्फ निर्भया लिख देने से लोग नहीं जानेंगे कि ये
किसके मां-बाप हैं। और दुनिया को क्यों नहीं जानना चाहिए कि ये “ज्योति” के मां-बाप हैं। वो “ज्योति” जिसने भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में दुष्कर्म के खिलाफ लड़ने की एक
बड़ी ताकत खड़ी कर दी है। उस “ज्योति”
का नाम पूरी दुनिया को क्यों नहीं पता चलना चाहिए। निर्भया हम लोगों के बीच रही भी
नहीं। इसलिए दुष्कर्म की शिकार लड़की की पहचान छिपाने के पीछे की अच्छी वाली भावना
का भी यहां कोई मतलब नहीं रहा।
मेरे मन में सवाल ये उठता है कि कहीं ऐसा तो
नहीं है कि हमारे समाज से लेकर हमारे कानून तक अभी भी दुष्कर्म के लिए उस लड़की को
ही दोषी मान रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है तो उस प्रेरणा देने वाली “ज्योति” की कहानी हम किसी निर्भया, वेदना, दामिनी जैसे प्रतीकात्मक नामों से
क्यों जान रहे हैं। एक छोटी जगह से दिल्ली महानगर में सपने देखने, पूरा करने के
लिए आई वो लड़की इस देश में नारी सशक्तिकरण की सबसे बड़ी मिसाल है। उसकी कहानी तो
उसके नाम से सबको जानना चाहिए। नाम छिपाने की जरूरत तो उन कुकर्मियों को होनी
चाहिए। दबे-छिपे ही सही उस लड़की की कहानी बहुतेरे लोगों को पता चल गई। दरअसल ये
एक ऐसी कहानी है जिसे हर कोई जानना चाहता है। सुनना चाहता है। उस दर्द से दोबारा
कोई न गुजरे ऐसा इस देश में ही नहीं दुनिया चाहने वाले लगभग पूरे ही हैं। वो,
लड़की एक ऐसी कहानी बन गई है जिसकी चर्चा, बातचीत
हर कोई कर रहा है लेकिन, सच्चाई ये है कि बातचीत हम उसकी तो,
कर रहे हैं। उसे जिंदा रखने की कसमें खा रहे हैं। उसके मरने से पूरे
समाज के जिंदा होने की आशा भी जगा चुके हैं। फिर सवाल यही है कि जिसके नाम पर सारा
देश जग गया है। उसको हम मारने पर तुले हुए हैं। हम पता नहीं किस वजह से उसकी पहचान
खत्म करने पर तुले हुए हैं। सवाल यही है कि उस बहादुर
लड़की का नाम छिपाकर हम क्या चाह रहे हैं कि देश एक ऐसी घटना के नाम पर जो, जागा है वो,
फिर सो जाए। बल्कि मुझे तो लगता है कि सरकारी उदारवाद की नीति से
घुटता वर्ग जो, यथास्थिति वादी हो चुका था। जो, जागा था लेकिन, आंख बंदकर सोए होने का नाटक कर रहा
था सिर्फ इस बेवजह की उम्मीद में बुरी घटनाएं सिर्फ बगल से छूकर खबरों में आकर
निकल जाएंगी। इस घटना ने उसे डराया है। और, इस डर ने उसे ‘निर्भय’ होने का
एक मंत्र दे दिया है लेकिन, ये निर्भय मंत्र आखिर कब तक काम
आएगा। जिस लड़की की ‘शहादत’ के बाद देश में ऐसा करने वालों के खिलाफ एक ऐसा माहौल बना है जो, सीधे और तुरंत कार्रवाई की स्थिति पैदा कर रहा है। उसी लड़की की पहचान हम
क्यों मारने पर तुले हैं।
ये कहानियां अब लगभग सबको पता है कि उत्तर
प्रदेश के बलिया जिले के एक गांव से वो लड़की देश की राजधानी आई थी। उस लड़की के
पिता के साक्षात्कार पहले बिना नाम बताए अखबारों में छपे और बाद में तो माता-पिता
दोनों कैमरे के सामने भी आ गए। पिता ये बता चुका है कि उस लड़की की पढ़ाई के लिए
उसने खेत बेच दिया। छोटे भाइयों को पढ़ाना उस लड़की का सबसे बड़ा सपना था। इस सबकी
बात हो रही है लेकिन, जो असल वजह है इन सब बातों की यानी वो लड़की। उसकी पहचान या कहें उसे
जिंदा रखने से हम डर रहे हैं। क्या अभी भी उसके सा हुआ दुष्कर्म उसके मां-बाप,
भाई-बहन के माथे पर कलंक जैसा है। आखिर क्यों हम डर रहे हैं उसकी पहचान
जाहिर करने से। आखिर क्यों उस लड़की का चेहरा इस देश की सारी लड़कियों के लिए संबल,
ताकत नहीं बन सकता। क्यों उस लड़की का नाम इस देश में महिलाओं के
खिलाफ किसी भी तरह के अपराध के खिलाफ एक हथियार नहीं बन सकता। होना तो ये चाहिए उसके
नाम से दुष्कर्मियों या महिलाओं के खिलाफ अपराध पर ऐसी सजा का एलान करे कि वो,
जिंदा रहे। मरने के बाद भी जिंदा रहे। क्यों नहीं संयुक्त राष्ट्र
संघ में ये प्रस्ताव भारत सरकार की तरफ से जाए कि हम जाग गए हैं दुनिया को जगाने
के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ उसे अपना ब्रांड अबैसडर बनाए। दुष्कर्मियों के वहशीपन
के बाद वो जिस हाल में थी उसमें वो, जिंदा भी रहती तो,
शायद इसी मकसद से कि दुष्कर्म करने की दोबारा कोई सोच न सके। फिर
उसे क्यों मारने पर तुले हैं हम- हमारी सरकार, हमारी मीडिया,
हमारा समाज।
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