Tuesday, April 29, 2014

संत चरित्र या कारोबारी चरित्र

साल 2013 के पहले महीने यानी जनवरी के आखिर में लंबी कसरत के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जब राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी नहीं होने दी तो, अलग-अलग कयास लगाए गए। कोई लालकृष्ण आडवाणी के अड़ जाने की खबर ला रहा था तो कोई संघ के खुद की छवि को धक्का न लगने की कोशिश को। कुछ पत्रकार ये भी खबर ला रहे थे कि दरअसल नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद जिस तरह से दिल्ली दरबार के डी4  को एकदम किनारे कर दिया था वो, बड़ी वजह बना। आज भी नितिन गडकरी पूरे ठसके से ये बात बोलते सुने जा सकते हैं कि पूर्ति के भ्रष्टाचार का मसला सिर्फ उन्हें हटाने के लिए लाया गया था। उसमें कोई सच्चाई नहीं है। हम जैसे सामान्य समझ और इस मामले में कम जानकारी रखने वाले लोगों को ये एक बार सही भी लगता है। क्योंकि, नितिन गडकरी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद कभी पूर्ति की चर्चा न मीडिया ने की, न कांग्रेस ने। तो क्या नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर गलती की। मेरी निजी राय में बिल्कुल नहीं। मेरी निजी राय यही है कि राजनीति से पहले अगर कोई और प्राथमिक काम किसी का है तो उसे कम से कम किसी पार्टी का राष्ट्रीय या प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बनना चाहिए। ऐसा नहीं है कि नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते कुछ बेहतर नहीं किया। नितिन गडकरी ने ढेर सारे बेहतर काम किए। नितिन गडकरी के पहले के 11 अशोक रोड और उसके बाद के 11 अशोक रोड में जाकर कोई भी गडकरी की दूसरी क्षमताओं से प्रभावित हो सकता है। लेकिन, राजनीतिक आंकलन में गडकरी से चूक हुई जो, 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में साफ दिखा। और इसीलिए मुझे हमेशा ये लगता है कि जो संघ विचारधारा से जुड़े चार्टर्ड अकाउंटेंट एस गुरुमूर्ति ने नितिन गडकरी पर पूर्ति विवाद के समय टिप्पणी की थी वो बड़ी महत्वपूर्ण है। गुरुमूर्ति ने ट्वीट किया था कि वो निजी तौर पर मानते हैं कि किसी भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को कारोबार में नहीं होना चाहिए। क्योंकि, इससे हमेशा मुश्किलें खड़ी होती रहती हैं। और, छवि पर भी बुरा असर होता है। इसी छवि का बड़ा महत्व है।

अब ताजा मामला है रामदेव का। जब कोई योग गुरु रामदेव कहता है तो मुझे एतराज नहीं होता। लेकिन, जब स्वामी या बाबा रामदेव कहता है तो थोड़ा पचाने में मुश्किल होती है। क्योंकि, भाई रामदेव संत नहीं हैं। इस पर कोई चाहे तो मुझसे बहस कर सकता है। स्वामी रामदव बिना डिग्री के आयुर्वेदिक डॉक्टर हो सकते हैं। अच्छे योग चेतना जगाने वाले प्रभावी पुरुष हो सकते हैं। लेकिन, ये बात रामदेव मानने, समझने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए वो फंस जाते हैं। रामदेव जैसे लोग दो चरित्र लेकर चलते हैं। एक चरित्र उनका योग गुरु और उनके लिहाज से स्वामी या बाबा रामदेव वाला है। दूसरा चरित्र कारोबारी रामदेव का है। एक गेरुआ कपड़े पहनता है, जिसमें से उनके बदन का काफी हिस्सा दिखता रहता है। दूसरे का हजारों करोड़ का कारोबार है। एक देश की बात करता रहता है और देश के खिलाफ दिखने वाली सरकार की हर हरकत का विरोध करता है। दूसरा अपने कारोबार के खिलाफ दिखने वाली सरकार की हर हरकत का विरोध करता है। रामदेव का एक चरित्र चुनाव में नरेंद्र मोदी का समर्थन इसलिए करता है कि उसे राष्ट्रवादी व्यक्ति को प्रधानमंत्र बनवाना है। उन्हीं रामदेव का दूसरा चरित्र नरेंद्र मोदी का समर्थन और सोनिया, राहुल गांधी का विरोध इसलिए करता है कि उनके पतंजलि योगपीठ के कारोबार पर प्रतिकूल असर न पड़े। दरअसल असल बात यही है कि जो एस गुरुमूर्ति ने कहा उसे में थोड़ा और आगे ले जाता हूं। मैं निजी तौर पर ये मानता हूं कि प्राथमिक कार्य के रूप में राजनीति, समाज कार्य में आने वाले लोग ही इसमें आगे रहें तो बेहतर। अब उसका उदाहरण ये है कि दुनिया भर में बड़े-बड़े कारोबारी ढेर सारे फाउंडेशन टाइप कुछ खोलकर लोगों की भलाई के लिए काम करते रहते हैं। वजह साफ है कि किसी भी कंपनी, कारोबार को बड़ा करने में ढेर सारे गलत काम करने पड़ते हैं और उन्हीं गलत कामों के अपराधबोध को कम करने के लिए कारोबारी, कंपनी के मालिक, चेयरमैन अपने, पत्नियों के नाम से कुछ पुण्य के काम करते रहते हैं। लेकिन, सोचिए कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन हो, नीता अंबानी वाली रिलायंस की फाउंडेशन हो, अजीम प्रेमजी वाली हो या दुनिया की कोई ऐसी कारोबारी संस्था की समाज कार्य करने वाली फाउंडेशन हो वो, अधिकतम कितनी रकम फाउंडेशन पर खर्च करेगी। दरअसल इसे समझने के लिए यही समझिए कि देश की ज्यादातर कंपनियां अपने मुनाफे का दो प्रतिशत भी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलटी  (CSR) पर खर्च नहीं कर पाती हैं। इसके लिए बाकायदा कानून बनाने की जरूरत पड़ी है। अब जरा मुझे बताइए न कि कौन सा खांटी नेता है जिसने धर्मशाला बनवाई हो। जिसने गरीब बच्चों को खिलाने-पहनाने का काम दिखाया, बताया हो। क्योंकि, प्राथमिक तौर पर राजनीति करने वाले तो ये काम यानी समाज की बेहतरी के काम खुद ही करते रहते हैं। लेकिन, जो समाज के किसी न किसी हिस्से का हक मारकर खुद को बड़ा बनाते हैं। वो, कारोबारी, कंपनी के मालिक किसी का हक मारने की बददुआ न लगे, इसके लिए ढेर सारे समाजसेवा के काम करने लगते हैं। बताइए न कितने नौकरी करने वालों को आप जानते हैं जो अपनी सैलरी में से समाजसेवा का काम करते दिखते हैं। मुश्किल से मिलेंगे। हां, अगर नौकरी में अनाप-शनाप कमाई हो रही है तो जरूर कुछ समाजसेवी टाइप के वो होते दिखेंगे। पूरा सिद्धांत ही यही है कि कारोबारी, कारोबारी रहेगा तो कारोबार में किए गलत कामों को सही करने के लिए धर्मशाला खुलवाएगा, कुछ समाजसेवा के काम करेगा लेकिन, अगर कोई साधु, नेता कारोबारी होगा तो अपने कारोबार की गलतियों को सही साबित करने के लिए राजनीति, साधु के चोले का इस्तेमाल करेगा।


वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की बाबा रामदेव के बारे में राय की कुछ लाइनें दिखीं। बड़े सलीके से वो सारी बात कह देती हैं। राम बहादुर राय कहते हैं कि ''बाबा रामदेव आर्य समाजी हैं, उन्होंने जो वस्त्र धारण किया है, वह् त्याग-तपस्या का वस्त्र है. बाबा भौतिक रुप से सन्यासी हैं और आध्यात्मिक रुप से कारोबारी. कोई व्यक्ति क्या है, इसका पता उसके आत्म तत्व से चलता है. एक कारोबारी में आत्म तत्व कम होता है . यह बात राम लीला मैदान में दिखाई भी पड़ी. रामदेव ने थोड़े समय के लिए ही सही सन्यास का वस्त्र छोड़ा. और उनका पुनर्जन्म हुआ. एक सन्यासी जब संन्यास का वस्त्र धारण करता है, तो उसका दूसरा जन्म होता है. और उसे उतार कर जब वह् महिला का वस्त्र पहनता है. तो उसका प्रेत जन्म होता है. वह् प्रेत अब किस-किस को नुकसान पहुँचाएगा और समाज का कितना भला करेगा, यह बड़ा प्रश्न है. बाबा ने अपना एक अवसर गन्वाया है और अब वे कोई भी प्रयास करेंगे, गन्वाया हुआ अवसर वापस नहीं आएगा.''
इसके आगे मैं अपनी राय जोड़ूं तो दरअसल बाबा रामदेव को वो गंवाया अवसर इसीलिए वापस नहीं मिलेगा क्योंकि, वो अपना आत्मबल कारोबार के मुनाफे में पूरी तरह से गंवा चुके हैं। उनका आत्मबल शायद अब इस बात से ज्यादा बढ़ता होगा कि उनके पतंजलि योगपीठ में कितने नए मरीज इलाज के लिए आ गए हैं। आत्मबल शायद इससे भी बढ़ता होगा कि हर दिन कितने हजार, लाख, करोड़ रुपये उन्हें पहले से ज्यादा मिल रहे हैं। आत्मबल शायद इससे भी बढ़ता होगा कि पतंजलि योगपीठ और कितना बड़ा ब्रांड बन चुका है। जाहिर है जब मामला ब्रांड या मुनाफे का होता है तो फिर आत्मबल या आत्मतत्व से ज्यादा जरूरत रणनीति की होती है। चमक-दमक की होती है। पैकेजिंग की होती है। और इसी ब्रांडिंग पैकेजिंग को बचाने के लिए वो मजबूत होते दिख रहे नरेंद्र मोदी के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। ये दूसरा वाला आत्मबल है। लेकिन, चूंकि असल वाला आत्मबल नहीं है तो वो महिलाओं के कपड़े पहनकर सरकार के सामने से भाग खड़े होते हैं। अरे उतना कमजोर आत्मबल वाला तो विश्वविद्यालय की राजनीति करने वाला छात्रनेता भी नहीं होता है। दरोगा, सिपाही की लाठी थाम लेता है। क्योंकि, उसकी कोई दुकान बंद होने का खतरा नहीं होता। रामदेव की तो बहुत बड़ी दुकान बंद होने का उसका मुनाफा घटने, कटने का डर है। और लोग भूल जाते हैं कि जब भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी जैसा मजबूत नेता नहीं था। पार्टी कमजोर होती जा रही थी। लोग कहने लगे थे कि अटल, आडवाणी के बाद बीजेपी खत्म ही समझो तो यही रामदेव थे जो अपनी पार्टी, सेना बनाकर भारत की सत्ता विजय का सपना देखने लगे थे। उस दौरान वो खुद को चाणक्य समझकर चंद्रगुप्त तैयार करने लगे थे। स्वामी रामदेव का यही दोहरा चरित्र है।

योग गुरु रामदेव आगे अपने राजनीतिक परिश्रम को न्यायसंगत बनाने के लिए गुरु वशिष्ठ, वाल्मीकि और उनके राम के साथ खड़े होने की घटना सुनाने लगे हैं। अब जरा ये भी बताते रामदेव जी की वशिष्ठ या वाल्मीकि महाराज को राज्य का भला करने के लिए कितने तरह के उत्पाद बनाने पड़े थे। कितनी योगपीठ बनानी पड़ी थी। कितने हेलीकॉप्टर लेने पड़े थे। कितनी जमीन खरीदनी पड़ी थी। कितने योग शिविर लगाने पड़े थे। रामदेव जी आप योग गुरु हैं। आपने देश में योग चेतना जगाने का अद्भुत काम किया है। उसी पर टिके रहिए। क्योंकि, उस योग चेतना जगाने के एवज में आपने अपना कारोबार खड़ा किया है। आपने जमकर मुनाफा कमाया है। आपने चमकती इमारतें खड़ी की हैं। इसलिए आप राजनीति के चक्कर में वैसे ही पड़िए जैसे कारोबारी पड़ते हैं। संत वाला चरित्र तो आप वैसे ही खो चुके हैं। एक कारोबारी की तरह किसी नेता का समर्थन, विरोध कीजिए और उसी लिहाज से मुनाफे, घाटे के लिए तैयार रहिए।

Friday, April 25, 2014

भारत के शहर, भारत के गांवों के खिलाफ साजिश हैं?

ये बड़ी बहस का विषय हो गया है कि आखिर इस देश का विकास मॉडल क्या होना चाहिए। शहरी विकास मॉडल या गांवों का विकास मॉडल। इस बात की बहस में आमतौर पर शहरों में रहने वाले या कुछ गांवों में कुछ करके शहरी सुविधाओं का भरपूर उपयोग, उपभोग करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी होते हैं जो कहते हैं कि शहरीकरण इस देश की सारी समस्याओं की जड़ है। वो तर्क देते-देते ऐसे तर्क साबित करने तक पहुंच जाते हैं जहां के बाद लगता है कि अगर भारत में सिर्फ गांव होते तो ये क्या देश होता। अगर भारत में शहर न होते तो कोई समस्या ही न होती। ढेर सारे बहस, तर्क हैं जिन पर बात की जा सकती है लेकिन, अभी उन सारी बातों पर इसी एक ब्लॉग में बहस करने, तर्क देने का मेरा इरादा है नहीं। आज बात करूंगा सिर्फ उस लड़के की जो मुझे ऑफिस के बाहर चाय पीते मिल गया। कंधे पर लटका पिट्ठू बैग। जिसमें लैपटॉप नहीं था लेकिन, उसे लैपटॉप बैग के ही नाम से जाना जाता है। हाथ में ढेर सारे परचे। उसने देखा कि हम दो-चार लोग चाय की चुस्की ले रहे हैं तो मतलब खाली हैं। उसने वो परचे पकड़ा दिए। परचे में प्लॉट ही प्लॉट था। उसकी तस्वीर चिपका रहा हूं। जानबूझकर प्लॉट बेचने वाले का नाम, पता काट दिया है। चूंकि उसका कोई महत्व नहीं था। उस लड़के ने बचाया इस काम के बदले उसे कंपनी दस हजार रुपये महीने देती है। हालांकि, इस दस हजार में वो दूसरे भी कई काम कराती है। जैसे, चेक लगाना, किसी से ले आना, देने जाना, पैसा ले आना, लेने जाना। इसके अलावा कंपनी के प्लॉट बेचने के लिए इस परचे को ज्यादा से ज्यादा लोगों को बांटना। मुझे लगा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार से आया कोई लड़का होगा। पता चला यहीं गाजियाबाद का ही है। मैंने पूछा तो उसने कहा प्लॉट कितने बिके इससे मुझे मतलब नहीं। और नौकरी की गारंटी कितनी है तो उसने कहा इतनी जमीनें हैं। बिक ही रही हैं तो नौकरी की कोई दिक्कत नहीं है। इसने निकाला तो दूसरा देगा। ये गाजियाबाद का लड़का नोएडा, गाजियाबाद की उन्हीं जमीनों की वजह से दस हजार रुपये महीने कमा रहा है जो शहरी अर्थव्यवस्था या भारत के गांवों को शहर बनाने की साजिश वाली अर्थव्यवस्था है। नोएडा की जमीनों पर अकसर रियल एस्टेट कारोबारियों (बिल्डर, डेवलपर) के औने-पौने दामों में कब्जे वाली खबरें भारत के गांवों को शहर बनाने की साजिश वाली अर्थव्यवस्था के सिद्धांत को और बल दे देती हैं। लेकिन, अगर इस शहरी अर्थव्यवस्था से यहां के गांवों के दस हजार रुपये महीने कमाने वाले लड़कों को थोड़ा अपनी सुख-सुविधा आसानी से जुटाने का जुगाड़ मिल रहा है तो ये साजिश तो बेहतर हुई। दरअसल जरूरत इस बात की है कि गांवों में भी शहरों जैसी सुविधा जुटे। इसका कतई मतलब नहीं कि वहां मॉल, मल्टीप्लेक्स खुल जाए। और अगर 25-50 गांवों के बीच में खुल जाए तो बुराई भी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि गांव के लोग शहरों के लोगों जैसा खाएं-पिएं-जिएं। और शहरों के लोग गांवों के लोगों जैसा अहसास पा सकें। जरूरत इस बात की है कि ऐसे नियामक हों, प्रशासन हो जो, तय करे कि बनते शहर या बने शहर में कोई लोगों का हक न छीन पाए। लेकिन, अक्सर बहस शहर ठीक से बनाने और उससे लोगों का जीवनस्तर कैसे बदले इसकी बहस के बजाए सीधे गांव चाहिए या शहर वाली बहस में बदल जाती है। इसमें होता क्या है। होता ये है कि गांव बचाने की पुरजोर बहस करने वाले शहरों में पूरी सुख, सुविधा का मजा लेते हैं। लेकिन, ये बुरा गांव का कर रहे होते हैं। क्योंकि, शहर, गांव के दुश्मन हो जाते हैं। शहर बनना भारत के खिलाफ साजिश नहीं है ये समझना होगा। हां, गांव बचाइए। गांवों को स्वपोषित करने की योजनाएं लाइए। गांवों में शहरों जैसे मौके दीजिए और शहरों में विकास के हर पैमाने को विकसित कीजिए। लेकिन, शहर-गांव को लड़ाकर शहर-गांव दोनों बर्बाद मत कीजिए।

Thursday, April 24, 2014

प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी मेरी पहली पसंद क्यों हैं?

हमारी भारतीय राजनीति अद्भुत है कि यहां नेताओं के बड़ा या छोटा होने की कल्पना कभी भी उसके काम के आधार पर नहीं की जाती। यहां सिर्फ भावनाओं के आधार पर नेता छोटा या बड़ा हो जाता है। उसने क्या किया, कितना किया। इसकी चर्चा बड़ी कम होती है। अकसर पार्टी बड़ा बना देती है। जाति बड़ा बना देती है। धर्म बड़ा बना देता है। लेकिन, कितने नेता हैं इस देश में जो अपने काम के बूते बड़े बने हों। ये परंपरा कितनी गड़बड़ रही है इसे मैं कुछ बड़े उदाहरणों से जो मैं खुद जानता हूं या मेरे अनुभव में हैं। उससे ही बताने की कोशिश करता हूं। भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी सबसे मजबूत प्रधानमंत्री रही हैं। और सब ये मानते रहे कि इंदिरा गांधी की नेतृत्व क्षमता का जवाब नहीं है। इंदिरा गांधी का चुनाव क्षेत्र रायबरेली रहा। रायबरेली विकास के मामले में देश के विकसित शहरों के सामने कहां ठहरता है इसके लिए किसी आंकड़े की जरूरत शायद ही हो। उसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व अभी की देश की सबसे ताकतवर महिला सोनिया गांधी कर रही है। सोनिया गांधी को कुछ भी करने के लिए किसी सहारे की जरूरत है। ये बात तो कोई भी मानने को तैयार नहीं होगा। बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बजट में भले यहां आती सुनाई देती हैं। लेकिन, उससे यहां के लोगों की जिंदगी कितनी सुधरती है ये रायबरेली में जाते ही समझ में आने लगता है। टूटी सड़कें, खराब बुनियादी सुविधाएं राज्य में सरकार लंबे समय से न होने का हवाला देकर सही ठहरा दी जाती हैं। फिर भी चुनावी चर्चाओं के जरिए वहां के लोगों की जो आवाज सुनाई दे रही है। वो यही है कि कुछ भी हो सोनिया गांधी का यहां से सांसद होना ही उन्हें वीआईपी दर्जा दे देता है। इसलिए वोट तो सोनिया गांधी के पक्ष में ही करेंगे। सोनिया गांधी के बेटे और अभी कांग्रेसी राजनीति के सबसे बड़े नेता, भविष्य के तौर पर प्रतिस्थापित किए जा रहे राहुल गांधी को दस साल हो गए हैं सांसद हुए। सीट वही है परिवार की पुरानी अमेठी सीट। अमेठी स्टेशन बढ़िया बना है। जगदीशपुर औद्योगिक क्षेत्र यहां गांधी परिवार की ही देन है। लेकिन, बेहद जरूरी बुनियादी सुविधाओं की खराबी को लेकर यहां भी राज्य सरकार में कांग्रेस के लंबे समय से न होने का ही हवाला दे दिया जाता है। ये भारतीय नेताओं की छवि का ही अद्भुत कमाल है कि आजादी के बाद से उन्होंने भावनाओं के आधार पर ही राजनीति की है। और काम बंट गया है कि सड़क, खड़ंजा, नाली राज्य सरकार बनवाए। सांसद केंद्रीय योजनाएं ही लाएगा। हांलाकि, देश के कितने बड़े नेता अपने संसदीय क्षेत्र में किस तरह की योजनाएं लाते रहे हैं ये भी शोध का विषय है।

मेरा पैतृक निवास प्रतापगढ़ संसदीय क्षेत्र में आता है। विदेश मंत्री रहे राजा दिनेश सिंह से लेकर अब उनकी बेटी रत्ना सिंह यहां से सांसद हैं। प्रतापगढ़ संसदीय क्षेत्र का हाल कोई भी देख ले और अंदाजा लगाने की जरूरत भी नहीं होगी कि इस क्षेत्र का कितना विकास हो पाया। बड़े-बड़े नेताओं की कर्मस्थली भले ही इलाहाबाद रही हो। लेकिन, एक हेमवती नंदन बहुगुणा के अलावा इलाहाबाद के लिए शायद ही कोई नेता बड़ा कुछ कर पाया हो। इलाहाबाद से बीजेपी के बड़े नेता डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी भी तीन बार चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। ये रिकॉर्ड था। निस्संदेह जोशीजी ने इलाहाबाद में कई बड़ी परियोजनाएं लाईं। अच्छा काम किया। लेकिन, वो सबके लिए सुलभ नहीं थे। और वो अकसर बोल देते थे कि नाली, खड़ंजा के लिए सभासद से मिलिए। और यही उन पर भारी पड़ गया। इसी तरह मुख्यमंत्री रहते वीर बहादुर सिंह ने काफी कुछ गोरखपुर के लिए किया। उनके अलावा किसने क्या किया। अपनी संसदीय क्षेत्र को अद्भुत बनाने का काम किया था कल्पनाथ राय ने। कल्पनाथ राय ने अपने मऊ संसदीय क्षेत्र को अद्भुत तरीके से संवार दिया और मऊ का तब का बना फ्लाईओवर दूसरे कई विकसित शहरों में भी नहीं बना दिखा था। लेकिन, उसी के बगल एक और बड़े नेता हुआ करते थे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। उनकी भावनात्मक बड़े नेता की छवि ऐसी थी कि देश में कुछ भी बलिया अलग चंद्रशेखर का अपना देश जैसा होता था। और, कमाल की बात तो ये है कि जिले में कोई विकास कार्य न कराने वाले चंद्रशेखर ठसके से कहते थे कि मैं देश का नेता हूं मेरा काम एक जिले या संसदीय क्षेत्र की चिंता नहीं है। लेकिन, ऐसा कहते-कहते उनको याद ही नहीं रहा कि उनके चुनाव क्षेत्र में विकास की स्थिति चिंताजनक हो गई। उन्हीं की भावना आगे बढ़ाते हुए उनके बेटे नीरज शेखर भी चुनाव जीत गए। इस बार भावना थोड़ी टूटी है ऐसा कहा जा रहा है। लेकिन, भावना कितनी टूटी है ये चुनाव बाद ही पता चलेगा। ये दरअसल मेरे आसपास के कुछ उदाहरण हैं। हो सकता है कुछ पूरी तरह सही हों, कुछ आधे। लेकिन, आम भावना यही है। देश के और दूसरे हिस्सों के ऐसे उदाहरण बताने के लिए मुझे तथ्यात्मक खोजबीन और करनी होगी। लेकिन, महत्व इस बात का नहीं है कि देश में ऐसे और कितने उदाहरण हैं। लेकिन, ये प्रचलन रहा है कि बड़ा नेता तो सिर्फ भावना पर ही चुनाव जीतता रहा है।

आज ये बात मैं जिस संदर्भ में कर रहा हूं, उस पर आता हूं। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी वाराणसी से नामांकन कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी की बड़ी आलोचना ये है कि वो बनारस सिर्फ मतों के ध्रुवीकरण के लिए आ रहे हैं और फिर चुपचाप वड़ोदरा लौट जाएंगे। हालांकि, मेरे पास जितनी समझ और संघ, बीजेपी से जुड़े लोगों से बातचीत के आधार पर जानकारी है, वो यही है कि मोदी वड़ोदरा छोड़ेंगे और बनारस में ही रहेंगे। खैर, ये सब तो हुई कयास की बातें। लेकिन, असल बात है नरेंद्र मोदी का नामांकन से ठीक पहले लिखा गया ब्लॉग। इस ब्लॉग में जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने नए बनारस की कल्पना की है वही मुझे नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक हिस्सा लगता है। ब्लॉग पूरा पढ़ेंगे तो आप लोग भी समझ जाएंगे। मैं सिर्फ कुछ मोटी बातों का जिक्र कर रहा हूं। बाबा विश्वनाथ के बिना तो ये शहर है ही नहीं। इस देवभूमि का हर निवासी अपने अंदर कहीं न कहीं देवत्व लिए हुए है। मोदी आगे लिखते हैं कि बनारस को विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का शहर बनाएंगे जो धार्मिक आस्था रखने वालों और सांस्कृतिक चेतना वालों को समाहित करेगा। आगे गंगा को मां की तरह पूजने, साबरमती की तरह पर्यटन से जोड़ने की भी बात है। ब्लॉग में बुनकरों की बात है, उन्हें विश्वस्तरीय कारोबारी सुविधाएं देने की बात है, बिस्मिल्लाह की बात है। मोदी ने उम्मीद जताई है कि बनारस और पूर्वांचल के विकास की। बतकही के बूते पहचान बनाने वाला उत्तर प्रदेश का ये हिस्सा बतकही करते कब विकास में एकदम पिछ़ड़ गया। इसका अंदाजा ही यहां के लोगों को नहीं लगा। उम्मीद करते हैं कि यही मोदी सांसद और प्रधानमंत्री के तौर पर भी बने रहेंगे। 2007 में नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद मैंने ब्लॉग लिखा था कि 2014 में प्रधानमंत्री की दावेदारी में नरेंद्र मोदी सबसे आगे रहेंगे।

Tuesday, April 22, 2014

मोदी पीएम बने तो सरकार कौन चलाएगा?


राजनीति में भावनाएं बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं। और इस चुनाव की भावना ये है कि देश भ्रष्टाचार से ऊबा है। इस चुनाव की भावना ये है कि देश में कारोबारी होने का मतलब गलत तरीके से कमाई करने वाला हो गया है। इस चुनाव की भावना ये भी है कि कारोबारियों से रिश्ते रखने वाले नेता भी गलत तरीके से कमाई करने में कारोबारियों की मदद करते हैं। और इसी भावना को नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी और केजरीवाल तक भुनाने में लगे हुए हैं। अब इस भावनाओं को भुनाने वाली लड़ाई में सबसे शानदार तरीके से एंट्री मारी है अपने अरविंद केजरीवाल जी ने। एकदम झम्म से आए और ऐसा आए लगा कि सब को ले बीतेंगे। मतलब राजनीति ऐसी साफ हो जाएगी कि लोग भ्रष्टाचार वगैरह सब भूल जाएंगे। अरविंद बाबू ने कहा कि सब चोर हैं। सारे नेता चोर, सारे कारोबारी चोर। पहले सारे चोर कारोबारियों की चोरी में साझेदार शीला के साथ कांग्रेस को बताया। फिर दिल्ली की विधानसभा से जब लोकसभा का सफर तय करने का वक्त आया तो नरेंद्र मोदी की शक्ल उन्हें ज्यादा बेहतर लगी। अरविंद ने चिल्लाना शुरू किया कि अरे भइया ये वही नरेंद्र मोदी हैं जिनके गुजरात में अंबानी-अडानी के अलावा कोई फलता-फूलता ही नहीं। ढेर सारे आरोप लगा दिए नरेंद्र मोदी और अंबानी-अडानी के रिश्तों को लेकर। दबाव ऐसा बन गया कि ये भावनाएं इसी चुनाव में गंभीर होने लगीं कि नरेंद्र मोदी ने अंबानी-अडानी को टॉफी की कीमत यानी एक रुपये में जमीनें दे दी हैं। और अरविंद केजरीवाल की ये भावना राहुल गांधी को भी ठीक लगीं। उन्होंने भी कह दिया कि अडानी को नरेंद्र मोदी ने ढेर सारे फायदे नियम-कानून को ताक पर रखकर पहुंचाए हैं। आखिरकार गौतम अडानी को मीडिया में आकर ये बताना पड़ा कि वो एक कारोबारी हैं और उनके सभी सरकारों के साथ संबंध हैं। भले ही
नरेंद्र मोदी की तरफ से इस पर कोई जवाब नहीं आया है।लेकिन, अडानी की कंपनी के शेयर जिस तरह से छलांग मार रहे हैं उससे इन आरोपों की बुनियाद कुछ पक्की नजर आने लगती है।

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी क्या उद्योगपतियों को निजी फायदा पहुंचाते हैं। क्या नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर दरअसल अंबानी,अडानी के हितों को पूरा करते रहे हैं। क्या अडानी ग्रुप के मालिक गौतम अडानी से नरेंद्र मोदी के निजी रिश्ते हैं। यही वो सवाल हैं जिसके जरिए पहले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और अब राहुल गांधी भी नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेने की कोशिश करते हैं। मोदी,अडानी के रिश्ते को पूंजीवाद के खतरनाक गठजोड़ के तौर पर भी स्थापित किया जा रहा है। सवाल यही है कि आखिर इसमें कितनी सच्चाई है। मोदी इस पर बोलते नहीं हैंलेकिन, अडानी ग्रुप के मालिक इसे खारिज करते हुए कहते हैं कि अगर सरकारों के साथ मिलकर काम करना खतरनाक पूंजीवादी गठजोड़ का संकेत हैं तो ये हो सकता है। गौतम अडानी का कहना है कि उनकी कांग्रेस की सरकारों के साथ भी उतनी ही बनती है। और हाल ही में रॉबर्ट वाड्रा के साथ आई उनकी तस्वीरें इसी सच को और पुख्ता करती दिखती हैं। लेकिन, नरेंद्र मोदी और गौतम अडानी के रिश्तों को कसने की एक और कसौटी है और वो है शेयरबाजार। शेयर बाजार में अगर अडानी ग्रुप के शेयरों की उछल कूद पर ध्यान दें तो साफ नजर आता है कि शेयर बाजार नरेंद्र मोदी
और गौतम अडानी के रिश्तों में काफी मजबूती से भरोसा करता है। उसका एक छोटा सा उदाहरण समझने के लिए 13 सितंबर की तारीख तय कर लेते हैं। दरअसल यही वो तारीख है जिस दिन भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया था। और होना तो ये चाहिए था कि इससे सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक बाजार में हैसियत बढ़ती। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक भाव तेजी से बढ़ा भी। लेकिन, लगे हाथ गौतम अडानी की अगुवाई वाले अडानी ग्रुप की कंपनियों के भाव शेयर बाजार में भी गजब तेजी से भागने लगे।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की दावेदारी का ही असर था कि13 सितंबर को अडानी एंटरप्राइजेज की कीमत थी 141 रुपये और आज की तारीख में अडानी एंटरप्रइजेज का एक शेयर खरीदने के लिए 471 रुपये देने होंगे। अडानी ग्रुप की दूसरी कंपनियां इस दौड़ में शामिल हैं। मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के दिन यानी13 सितंबर को अडानी पावर की कीमत थी 36 रुपये औऱ आज उस शेयर की कीमत हो गई है 53 रुपये से ज्यादा। कुछ ऐसी ही तरक्की हासिल की है अडानी पोर्ट्स एंड SEZ ने भी। 13 सितंबर को 136 रुपये पर बंद हुआ अडानी पोर्ट्स एंड SEZ। आज इसकी कीमत हो गई है 196 रुपये। अब नरेंद्र मोदी और गौतम अडानी के रिश्ते क्या हैं ये तो मोदी या अडानी ही बता सकते हैं। लेकिन, बाजार को इस बात का पक्का भरोसा है कि मोदी प्रधानमंत्री हुए तो अडानी ग्रुप की कंपनियों की तरक्की कोई नहीं रोक सकता। औऱ ये भरोसा है शेयर बाजार में निवेश करने वाले आम आदमी का। और आम आदमी के नाम पर ही पार्टी बनाने वाले और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच जाने वाले अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी और अडानी मिलकर आम आदमी के हितों को
चोट पहुंचा रहे हैं। अब सवाल यही है कि ये भावनाएं जो अरविंद केजरीवाल भड़का रहे हैं वो कितनी सही हैं।

नरेंद्र मोदी और गौतम अडानी के रिश्ते समझने के लिए इस मुद्दे पर हाल में हुए दो साक्षात्कारों की चर्चा यहां जरूरी हो जाती है। पहले साक्षात्कार में नरेंद्र मोदी से जब पूछा गया कि क्या उनकी सरकार आई तो कुछ कारोबारियों के दबाव में फैसले लेगी। नरेंद्र मोदी का जवाब था कि मोदी जाना ही इसलिए जाता है कि वो किसी के दबाव में नहीं आता। साथ ही मोदी ने ये भी कहा कि वो उन नेताओं में से नहीं हैं जो कारोबारियों के साथ परदे के पीछे गलत तरीके के रिश्ते रखें और खुले में उनसे परहेज करें। मोदी ने कहाकि वो कारोबारियों के साथ मंच पर दिखते हैं, खुले में दिखते हैं। उसकी सीधी सी वजह है कि वो कारोबारियों से गलत रिश्ते नहीं रखते, उनको मुनाफा देने के लिए किसी तरह की शर्तों में ढील नहीं देते। गौतम अडानी भी मीडिया से बोले हैं। अडानी कह रहे हैं कि अडानी ग्रुप 1993 से काम कर रहा है और देश की सभी सरकारों के साथ उसके रिश्ते हैं। अलग-अलग राज्यों में अडानी ग्रुप बुनियादी सुविधाओं को ठीक करने की ढेर सारी योजनाएं चला रहा है। बात ठीक है लेकिन, जिस तरह से शेयर बाजार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से अडानी ग्रुप के शेयरों में भरोसा करता जा रहा है वो किसी न किसी रिश्ते की तरफ इशारा तो करता है। हालांकि, नरेंद्र मोदी का इतिहास उनके दबाव में आने की बात को नकारता दिखता है। फिर वो पार्टी का दबाव हो, पत्नी का दबाव हो या परिवार का। तो फिर कारोबारी कहां से दबाव बना पाएंगे। लेकिन, समय चुनावों का है। भावनाएं बदलती तेजी से हैं इसलिए इस भावना का भी चुनाव के समय बड़ा महत्व है कि नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो उसे कौन चलाएगा।

Friday, April 11, 2014

तरक्की का दस्तावेज है भाजपा घोषणापत्र

भारत गांवों का देश है। और ये बात हम भारतीयों के दिमाग में ऐसे भर गई है कि अगर कोई गलती से भी शहर की बात करने लगे तो लगता है कि ये भारत बिगाड़ने की बात कर रहा है। लेकिन, उसी का दूसरा पहलू ये है कि शायद ही नई उम्र का और काफी हद तक पुरानी उम्र का कोई भारतीय हो जो पूरे मन से सिर्फ गांव में ही रहना चाहता हो। यहां तक कि गांव में रहकर अच्छा करने वाले ढेर सारे लोग भी अपने उस अच्छे काम के बूते और इसी अच्छे काम की तारीफ पाने के लिए शहर में ही आना-रहना चाहते हैं। लेकिन, फिर भी भारत मतलब गांवों का देश और खेती करने वालों का देश रखे रहना चाहते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री रहते एक बड़ा शानदार काम किया कि इस गांवों वाले भारत को शहरों की इच्छा रखने वाले इंडिया में बदलने की शुरुआत कर दी। और इसे बड़े सलीके से उन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने आगे बढ़ाया जिनकी मूल विचारधारा गांव, देश, भारत के गर्व से जुड़ी हुई थी। लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी ने न उदारीकरण चिल्लाया। न विदेशी पूंजी का हल्ला मचाया। चुपचाप काम किया। दो काम किया। एक देश के सड़क परिवहन को दुरुस्त किया और ऐसा दुरुस्त किया कि भारतीय स्वर्णिम चतुर्भुज योजना दुनिया के लिए एक मिसाल बन गई। और दूसरा काम ये किया कि देश के लोगों में ये भावना भर दी कि भारत अपने बूते कुछ भी कर सकता है। वो हुआ पोखरण परमाणु परीक्षण के समय। पहला जमीन पर किया गया तगड़ा काम था। दूसरा देश की इच्छाशक्ति को मजबूत करने वाला भावनात्मक काम था। और यही दोनों मिलकर ऐसा बन गया कि अटल बिहारी वाजपेयी की छे साल की सरकार सड़क बनाने से लेकर लगभग हर मामले में आजाद भारत की सारी सरकारों से बेहतर करार दी जाने लगी। और बिना हल्ला किए उस सरकार के सारे मंत्रियों ने शानदार काम किए। सड़क परिवहन मंत्री के तौर पर फौजी भुवन चंद्र खंडूरी, ऊर्जा मंत्री सुरेश प्रभु, पेट्रोलियम मंत्री राम नाइक, शहरी विकास मंत्री जगमोहन, मानव संसाधन मंत्री डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी या वित्त मंत्री के तौर पर यशवंत सिन्हा। ये उदाहरण मैंने दिया है। उस सरकार के किसी मंत्री के न भ्रष्टाचार की कहानियां छपीं। न उस सरकार के मंत्रियों की संवेदनहीनता की बात सामने आई। ये सब सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि, अटल बिहारी वाजपेयी को अच्छे से पता था कि उनकी सरकार को कांग्रेस का जवाब देने का मौका कम मिलेगा। पूरा पांच साल मिला भी तो दोबारा नहीं मिलेगा। इसलिए घोड़े की तरह सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने अपने देश की तरक्की के लक्ष्य को सामने रखा। और शानदार तरीके से उस लक्ष्य के नजदीक भी पहुंचे।

इसका जिक्र दरअसल इसलिए मैंने किया कि आज के जिस भारत की बार-बार बात होती है। वो भारत प्रधानमंत्री नरसिंहाराव-वित्त मंत्री मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी पूरी सरकार ने बनाया, बेहतर बनाया। हालांकि, जो बात मैंने शुरु में ही की कि भले ही पूरा देश शहरों
में, शहरी सुविधाओं के साथ जीने की इच्छा रखता हो लेकिन, वो बात गांवों की ही करेगा। भावनाओं, प्रतीकों का दोहन इस देश में बड़े सलीके से होता रहा है। इसीलिए 2004 में इंडिया शाइनिंग जब फेल हो गया तो बड़े सुनियोजित तरीके से अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी पूरी सरकार के शानदार कार्यकाल को ध्वस्त कर दिया गया। लेकिन, भला हो 2008 की आर्थिक मंदी का और उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रबर स्टैंप बनाकर सोनिया गांधी की ढुलमुल नीतियों पर चलाई गई सरकार का। जिससे ये तुलना होने लगी कि आखिर बेहतर कौन। और इसी बीच बेहतर तरीके से गुजरात सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा सामने आई। महत्वाकांक्षा रखने के साथ नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अपने हर अच्छे काम, योजना को लोगों तक पहुंचाया वो भी शानदार रहा। शुरू में अहमदाबाद में नगर निगम चुनावों से ठीक पहले अतिक्रमण करने वाले मस्जिदों के साथ मंदिरों को तोड़ने से मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों, खासकर विश्व हिंदू परिषद के गुस्से का शिकार बने थे। लेकिन, जब परिणाम आए तो संघ का ये स्वयंसेवक ही विचारधार का असल वाहक नजर आने लगा। और इसीलिए जब नरेंद्र मोदी ने सांस्कृतिक विरासत को बचाने वाले पन्ने को घोषणापत्र के सबसे आखिर में कर दिया तो संघ के किसी नेता को परेशानी नहीं हुई और न ही घोर हिंदुत्ववादी समर्थकों को भी। इसी पन्ने में राम मंदिर, गंगा, गाय का जिक्र है। यही नरेंद्र मोदी की ताकत है। घोषणापत्र में जिस तरह राष्ट्र, राष्ट्रीय और राष्ट्रीयता तो जगह दी गई है वो भी शानदार है। इकोनॉमिक नेशनलिज्म (आर्थिक राष्ट्रवाद), नेशनल लैंड यूज पॉलिसी (राष्ट्रीय भूमि प्रयोग नीति) भारतीय जनता पार्टी के पार्टी विद डिफरेंस वाली लाइन को मजबूती से आगे बढ़ाता है। इसी घोषणापत्र में ये भी कहा गया है कि राष्ट्रीय विकास की ऐसी रूपरेखा होगी जो राज्यों के जरिए आगे बढ़ेगी। मुसलमानों को भी मुख्य धारा में लाने की बात है। मदरसों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी पढ़ाना और वक्फ की संपत्तियों का सही इस्तेमाल उसी बात को साफ-साफ कह रहे हैं। नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी आलोचना ये भी है कि वो अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सर्व स्वीकार्य नहीं हैं और सबको साथ लेकर नहीं चलना चाहते हैं। घोषणापत्र के जरिए नरेंद्र मोदी ने उन आलोचकों को भी तगड़ा जवाब देने की कोशिश की है।

नरेंद्र मोदी ने घोषणापत्र में पांच टी- ट्रेडीशन (परंपरा), टैलेंट (प्रतिभा) टूरिज्म (पर्यटन), ट्रेड (कारोबार)  और टेक्नोलॉजी (तकनीक) को आगे ले जाने की बात की है। अटल बिहारी वाजपेयी की स्वर्णिम चतुर्भुज
योजना का मतलब आज समझ में आ रहा है। वरना तो शेरशाह सूरी की बनाई जीटी रोड ही भारत की पहचान थी। और अगर नरेंद्र मोदी उसी तर्ज पर बुलेट ट्रेन चलाने की बात कर रहे हैं। तो समझिए ये योजना अगर कामयाब होती है तो क्या चमत्कार हो जाएगा। नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी का घोषणापत्र 100 नए शहर बनाने की भी बात कर रहा है। समझें तो ये दोनों जुड़ी घोषणाएं हैं। अगर बुलेट ट्रेनें चलीं तो महानगरों – दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, बंगलूरू – पर दबाव कम होगा। नए शहर बनेंगे। पहले से बने शहरों में मौके बढ़ेंगे। नदियों को जोड़ने की योजना हो या फिर पोर्ट तक रेलवे स्टेशन पहुंचाने की बात। ये नए भारत की बात होती दिखती है। कांग्रेस की तरफ से कहा गया कि बीजेपी के घोषणापत्र में कई योजनाएं ऐसी हैं जो कांग्रेस पहले से ही चला रही है। सच्चाई ये है कि कांग्रेस दस प्रतिशत की तरक्की का सपना दिखाकर हम भारतीयों को साढ़े चार प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार पर ले जाकर छोड़ दिया। ऐसा नहीं है कि यूपीए की सरकार के पास योजनाएं कम थीं। योजनाएं थीं लेकिन, नीतियां हर पल बदल रही थीं। नरेंद्र मोदी के साथ कम से कम अभी तक तो ये भरोसा होता है कि वो चाहेंगे, करेंगे। ये उनके विरोधी तानाशाही रवैये के तौर पर जोर से कहते हैं लेकिन, विकास की चाह रखने वाले नए भारत को यही आश्वस्त करता है। पोर्ट के विकास के साथ भाजपा के घोषणापत्र में देश के सीमावर्ती इलाकों को बेहतर रेलवे, सड़क सुविधा से जोड़ने की भी योजना है। इन योजनाओं का एक हिस्सा भी सलीके से हुआ तो बिन कहे देश दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार हासिल कर लेगा। ठीक वैसे ही जैसे बिना कहे स्वर्णिम चतुर्भुज ने इस देश के सड़क परिवहन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाकर खड़ा कर दिया था।  

भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र बेहतर है या नहीं। इस पर बहस हो रही है। नरेंद्र मोदी के नजरिए से अच्छी बात ये है कि नरेंद्र मोदी वाली भारतीय जनता पार्टी के समर्थक ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वो अंध समर्थक हैं। लेकिन, बीजेपी घोषणापत्र की एक लाइन पर टिप्पणी का मुझे जो जवाब मिला उससे मैं आश्वस्त हुआ कि दरअसल नरेंद्र मोदी के अंध समर्थक भी पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के कार्यक्रमों के बारे में जानते हैं और उसे आगे बढ़ाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। भारतीय जनता के घोषणापत्र में कम पानी से ज्यादा खेती की बात की गई है। उसके आधार पर दूसरे खेती के अल्पज्ञानियों की तरह मैंने भी ये अंदाजा लगा लिया कि ये कैश क्रॉप या फिर उद्योगों को खेती में शामिल करने मतलब कॉर्पोरेट खेती बढ़ाने का बीजेपी का एजेंडा है। मैंने इस सवाल को जैसे ही सोशल नेटवर्किंग साइट पर डाला मुझे स्रोतों के साथ जवाब दे दिया गया। पता चला कि कम पानी से ज्यादा खेती ड्रॉप इरिगेशन है जिसे लंबे समय से गुजरात में प्रयोग किया जा रहा है। इस बात का जिक्र मैंने सिर्फ इस संदर्भ को समझाने के लिए किया कि नरेंद्र मोदी वाली भारतीय जनता पार्टी के समर्थक कितने जागरुक और नरेंद्र मोदी के विचारों को लागू करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। दरअसल भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल को देश भर में लागू करने का लिखित दस्तावेज है। और इसीलिए आर्थिक नजरिया पहले बेहतर हो इसकी तसल्ली के बाद ही आस्था बनी रहे इसका भी ख्याल रखा गया है। अच्छी बात ये है कि नरेंद्र मोदी के विजन का ये दस्तावेज भविष्य के बेहतर होने के संकेत दे रहा है।

Thursday, April 10, 2014

लानत है मुझ पर!

यही वो बूथ है जहां मैंन अपना, पत्नी का सारा जरूरी दस्तावेज जमा किया था
वैसे ही दो दिन से कष्ट में हूं। जब से साफ हुआ कि मेरे प्रयास के बाद भी मेरा और पत्नी का नाम नोएडा की मतदाता सूची में शामिल नहीं हो सका। चुनाव आय़ोग ने बड़ी मेहनत की है। पिछले कुछ चुनावों में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है तो उसमें बड़ी मेहनत चुनाव आयोग के जागरुकता अभियानों की है। चुनाव आयोग ने बड़े विज्ञापन देकर सबको मतदाता बनाने की शानदार कोशिश की है। इसीलिए मैंने भी इस बार नोएडा की मतदाता सूची में अपना और पत्नी का नाम जुड़वाने के लिए जरूरी दस्तावेज पर्थला खंजरपुर के इसी प्राथमिक विद्यालय में जाकर जमा कर दिया था। फॉर्म लेने वाले से ये भी पूछा कि आगे क्या करना है। उसने बताया कि आपके घर पर मतदाता पहचान पत्र पहुंच जाएगा। फिर होली आई और दूसरी वजहों से दोबारा पता नहीं कर पाया। फिर जब चुनाव आयोग की वेबसाइट पर दिए नंबर पर शिकायत की तो मेरे मोबाइल पर संदेश भी आ गया कि जल्द ही आपके घर पर वोटर आईकार्ड पहुंच जाएगा। लेकिन, जब दो दिन बाद फिर यानी 7 अप्रैल को उसी नंबर पर फोन करके तफ्तीश की तो पता चला कि मेरा तो फॉर्म ही नहीं पहुंचा है। बीएलओ यानी बूथ लेवल अधिकारी ने उस फॉर्म को आगे ही नहीं बढ़ाया। फिर ये पोस्ट पढ़ ली। शर्मिंदा हो रहा हूं कि क्यों और ज्यादा तफ्तीश नहीं की। लेकिन, सवाल ये है कि क्या संबंधित बूथ के अधिकारी और संबंधित लोगों पर लानत नहीं भेजी जानी चाहिए। उनके ऊपर दंडात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। ये मामला सिर्फ मेरा या मेरी पत्नी का नहीं है देश में जाने कितने लोग उत्साह में फॉर्म 6 भरकर मतदान केंद्र पर गए होंगे और उनका फॉर्म जाने किस वजह से मतदाता सूची में शामिल नहीं हुआ होगा। क्या इसकी चिंता चुनाव आयोग नहीं करेगा। क्या चुनाव के बाद ऐसे मामलों पर कार्रवाई होगी।

Monday, April 07, 2014

छोटे हित, छोटी चिंता, छोटे लालच, बड़े सुख

गजब था। मस्त एकदम। अपने में और साथी पंडे की पन्नी में। पन्नी- मतलब मोटी पॉलिथिन जिससे पंडाजी ने धूप, बारिश से बचने का इंतजाम कर रखा था। हवा अच्छी चल रही थी। तेज, तेज। मोटी पॉलिथिन बार-बार तेज-तेज उड़कर फिर बांस के खोंच में लग रही थी। खोंच- मतलब सलीके से बांस जो लगाने से रह गया और ऊपर निकला हुआ था। मुंह पान, गुटका टाइप की एकदम देसी दारागंजी सामग्री से भरा था। कुछ सामग्री तो कई दिनों तक मुंह में रह जाती थी। ऐसी अहसास पंडाजी का मुंह दे रहा था। वही पंडाजी बोले। बचाए लेओ नै तो पन्नी गै तुम्हार। वा देखो दर बनाइ लिहिस। अब ऊंही से फटी औ तुम्हार ग पैसा पानी। जिस पंडे की पन्नी थी उसने ऊपर हाथ लगाकर देखा और जहां दर (निशान) गया था। वहां फटा कपड़ा लपेटा दिया। मस्त पंडे के गुटके टाइप सामग्री से भरे मुंह से फिर आवाज निकली। देखो ई कपड़ा से न रुख पाई। उतार देओ एका। निकालके धै देओ। फिर काम आई। नै तो एत्ती हवा म ग समझो। केत्ते में लिहे रहेओ। जवाब आवा। 750 क रही। औ अब निकालब न। फाट जाए तो फाट जाए। एकै कई गुना दै गइन गंगा माई। माघ म। और का चाही। फाट जाई तो अगले माघ म फिर खरीदी जाई। अब पन्नी की समस्या खत्म। तो गुटके की सुगंध के साथ फिर से नई छोटी चिंता हाजिर थी। ई का किहे हो। हमरी सइकिलिया पे ई केकर केकर सइकिल लगवाए दियेओ। खाली पंडाजी ने सारी साइकिलें और एक हीरो पुक अलग करके सलीके से खड़ा किया। हम भी नहाकर लौटे थे। कपड़े भी बदल लिए। लौट आए।

(इलाहाबाद गए थे तो एक दिन संगम नहाने चले गए। वहीं दो पंडों की बातचीत थी ये। लगा कितनी छोटी चिता, लालच, हित हैं लेकिन, इनके सुख कितने बड़े हैं। पंडाजी लोगों की तस्वीर इसलिए नहीं ले पाया क्योंकि, गंगा नहाने मोबाइल लेकर नहीं गए। )

Friday, April 04, 2014

लाहौल विला कुव्वत, सेक्युलर वोट गायब हो रहा था!

ये जरूरी था। बताइए भारत जैसे देश से पूरी सेक्युलर कौम ही खत्म हो रही थी। क्या हिंदू, क्या मुसलमां। सब बौरा गए थे। सबने विकास की अफीम चाट ली है। सबको लगता है कि तरक्की मिले, जेब में रकम आए। अच्छा जी लें। अच्छे से रह लें। अरे इससे क्या होगा अगर भारत में हिंदू, मुसलमान की बात ही होना बंद हो जाए। बताइए हमारी यही तो ताकत है कि हम धर्मनिरपेक्ष देश हैं। और इसी आधार पर हमारे देश में एक धर्मनिरपेक्ष वोट बैंक तैयार हुआ। इतना मजबूत कि बरसों तो ढेर सारे सांप्रदायिक इस सेक्युलर वोटबैंक को टस से मस तक नहीं कर सके। सवा सौ साल पुरानी पार्टी का साथ भी था इन सेक्युलर वोटरों को। लेकिन, बुरा हो सांप्रदायिक ताकतों का। जिन्होंने लगके समझाना शुरू किया कि धर्मनिरपेक्ष होना ठीक नहीं है। धार्मिक बनाने लगे। बताओ भला हमें धर्म की चिंता सिवाय वोट के करने की जरूरत है क्या। ये हमारा भारत देश है। संविधान के आधार पर ही जब हम धर्मनिरपेक्ष देश हैं तो क्या बद्तमीजी है कि इसे वोट बटोरने के अलावा धार्मिक बनाने की। देश की अच्छी बात ये थी कि मुसलमानों ने हमेशा सांप्रदायिक ताकतों को हराने वाले का ही साथ दिया। पहले कांग्रेस थी, फिर सपा, बसपा और फिर जाने कौन-कौन मिले लेकिन, हमारे देश की संवैधानिक बुनियाद पर हमने कभी धर्मनिरपेक्षता को जरा सा भी कमजोर नहीं होने दिया। ढेर सारे हिंदू भी हमारे साथ थे। कुछ सांप्रदायिक हिंदुओं को छोड़कर। ये सेक्युलर हिंदू, मुसलमान मिलकर ऐसे मजबूती से धर्मनिरपेक्षता बचाते बढ़ते गए कि सांप्रदायिक ताकतों को हमने अछूत बना दिया। हमारा धर्मनिरपेक्ष संविधान किसी को ऐसे सांप्रदायिक होने की इजाजत नहीं देता। फिर भला ये संघी, भाजपाई ऐसी बदतमीजी क्यों करने पर तुले हुए हैं। और उस पर भी ये नरेंद्र मोदी।

बताइए भला ऐसे भी होता है क्या। जब भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जरिए ही अस्तित्व में है। और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमने पक्के तौर पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगा दिया था। तो ये कैसे संभव है कि बीजेपी किसी भी तरह से सांप्रदायिक होने से खुद को बचा पाए। बताइए ये कोई तरीका है कि एक नरेंद्र मोदी जो संघ का प्रचारक रहा, खांटी स्वयंसेवक है। वो मंदिर, मस्जिद तोड़कर सड़क चौड़ी करने की बात कर रहा है। अधर्म की बात कर रहा है। वो कह रहा है कि विकास सबके लिए जरूरी है। सांप्रदायिक लोगों के लिए विकास होगा जरूरी। धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए विकास से ज्यादा जरूरी है कि मंदिर, मस्जिद बीच सड़क बने। धर्म दिखे लोगों को। बताओ भला ये मोदी जिसी पार्टी ने इसे इतना कुछ दिया उसके मूल सिद्धांतों से ही समझौता कर ले रहा है। अरे बड़ी मुश्किल से तो हम धर्मनिरपेक्ष लोगों ने भारतीय जनता पार्टी को ऐसा सांप्रदायिक बनाया कि उसी के विरोध से हमारे सेक्युलर वोट मजबूत हो रहे थे। चाहे जो हो जाए। पांच साल चाहे जो बात कर लें। चुनाव के समय सांप्रदायिक ताकतों को हराना ही हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य रहा। हम उस लक्ष्य में पिछले छे दशकों से कामयाब भी थे। लेकिन, ये नरेंद्र मोदी क्या आया। 2002 के बाद ये हमारी उस सेक्युलर वोटबैंक की बुनियाद को मजबूत करने की वजह ही नहीं दे रहा। ये मोदी कहता है कि विकास करो। मजबूत सरकार बनाओ। अरे भइया ये सब तुम्हीं कर लोगे तो हम क्या करेंगे। हमें विकास ही करना होता तो छे दशक कम थोड़े ही होते हैं। और ये फालतू की बात है। इसमें बड़ी मेहनत लगती है। बिना ज्यादा मेहनत के सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने का फॉर्मूला जब हमने खोज लिया तो, भला हम कठिन विकास करके सांप्रदायिक ताकतों को हराने वाला फॉर्मूला क्यों आजमाने की सोचें। हम धर्मनिरपेक्ष लोगों को ज्यादा डर तबसे लगा जब हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम के मसले पर अदालत के फैसले पर भी सांप्रदायिक ताकतों ने उत्पात नहीं मचाया। उससे भी ज्यादा डर हमें तब लगने लगा जब दिखा कि ये तो सांप्रदायिक होने से ही मजबूती से मना करने लगे हैं। और हमारे सेक्युलर वोट भी उन सांप्रदायिक ताकतों के पाले में जाने लगे हैं।

और सबसे जरूरी बात। भारत के मुसलमानों तुम बाबरी मस्जिद से आगे जाने की सोचने लगे थे। वो भी सांप्रदायिक @narendramodi के भरोसे। उसका विकास भी तुम्हें लुभाने लगा है। अब बताते हैं हम तुम्हें, तुम्हारे भर चुके घावों को कुरेदेंगे, मिर्ची डालेंगे, हमारे सेक्युलर वोट, कम्युनल हो रहे थे। हम चुप कैसे बैठे रह जाते। याद करो बाबरी मस्जिद को, सेक्युलर हो जाओ, सेक्युलर वोट बन जाओ। आखिर कम्युनल, सेक्युलर की लड़ाई में सेक्युलर वोट ही न बचे तो हम किससे लड़ेंगे और कैसे जीतेंगे। एक बार सेक्युलर, कम्युनल हो जाए तो फिर देखो ये मोदी कैसे जीतता है। किसे याद रहेगा कि देश पिछले एक दशक में सबसे कम तरक्की कर रहा है। किसे याद रहेगा पिछले एक दशक में जो घोटाले हुए उससे छोटे-मोटे देश नए बनकर तैयार हो जाए। किसे याद रहेगा कि महंगाई ने पिछले तीन साल से जेब में छेद कर रखा है।

Tuesday, April 01, 2014

अपनी लेडीज के बहाने दूसरे की लेडीज के साथ

इलाहाबाद के अलोपी देवी मंदिर में नवरात्रि के पहले दिन की कतार
इलाहाबाद के अलोपशंकरी मंदिर में नवरात्रि दर्शन के लिए अच्छी व्यवस्था थी। हमारे लिए भी ये सुखद अनुभव था कि इलाहाबाद के अलोपीदेवी मंदिर में इतने व्यवस्थित तरीके से दर्शन हो रहे हैं। महिला, पुरुष की अलग कतार थी और कतार धीरे-धीरे ही सही लेकिन, लगातार बढ़ रही थी। इसी व्यवस्था की तारीफ करते हुए 2 पुरुष महिलाओं वाली कतार के सबसे पीछे लग लिए थे। और महिलाओं की कतार में पुरुष होने का भय, लज्जा छिपाने के लिए तेजी से बात करते हुए दिख रहे थे कि एकदम गेट पर रोक देगा तो रुक जाएंगे। मुझे लगा कि शायद ये अपने से धार्मिक जगह पर सद्बुद्धि का इस्तेमाल करेंगे और पुरुषों की कतार में आ जाएंगे। लेकिन, वो तो अपनी लेडीज का साथ छोड़ने को तैयार ही नहीं था। दोनों पुरुष अपनी पत्नी के पीछे महिला कतार में ही लगे रहे। आखिरकार मुझे बोलना पड़ गया। बोला तो दोनों एक साथ बोल पड़े हमारी लेडीज साथ में हैं। तो मैंने तुरंत कहाकि मेरी भी लेडीज महिला कतार में आगे हैं। और ये भी बोला मैं कि क्या आप चाहते हैं कि आपकी लेडीज के पीछे भी कतार में कोई और लग जाए। मैंने फिर जोर देकर कहाकि आप लोग व्यवस्था न बिगाड़िए पुरुष कतार में आ जाइए। इतना कहने पर भय, लज्जा के दबाव में सद्बुद्धि एक पुरुष को आई और वो अपनी लेडीज का साथ छोड़कर पुरुष कतार में लग गए। लेकिन, दूसरे वाले सज्जन पर भय, लज्जा का दबाव कम काम कर रहा था। क्योंकि, उनकी लेडीज का उनको गजब साथ मिल रहा था। इसलिए दूसरे सज्जन थोड़ा और आगे जाकर फिर वही प्रयास करने लगे। और इसमें उनकी लेडीज प्रेरक भूमिका में थी। जब मैंने जाने नहीं दिया तो देवी दर्शन को आए पुरुष कहे बहरै से माई क दरसन कई लेब कउनौ बात नाहीं।असल समस्या यही है। अच्छी खासी व्यवस्था को पहले हम खराब करते हैं। फिर अपनी लेडीज के साथ दुर्व्यवहार पर व्यवस्था को गरियाते हैं। और हम धार्मिक हैं।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...