Tuesday, April 29, 2014

संत चरित्र या कारोबारी चरित्र

साल 2013 के पहले महीने यानी जनवरी के आखिर में लंबी कसरत के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जब राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी नहीं होने दी तो, अलग-अलग कयास लगाए गए। कोई लालकृष्ण आडवाणी के अड़ जाने की खबर ला रहा था तो कोई संघ के खुद की छवि को धक्का न लगने की कोशिश को। कुछ पत्रकार ये भी खबर ला रहे थे कि दरअसल नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद जिस तरह से दिल्ली दरबार के डी4  को एकदम किनारे कर दिया था वो, बड़ी वजह बना। आज भी नितिन गडकरी पूरे ठसके से ये बात बोलते सुने जा सकते हैं कि पूर्ति के भ्रष्टाचार का मसला सिर्फ उन्हें हटाने के लिए लाया गया था। उसमें कोई सच्चाई नहीं है। हम जैसे सामान्य समझ और इस मामले में कम जानकारी रखने वाले लोगों को ये एक बार सही भी लगता है। क्योंकि, नितिन गडकरी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद कभी पूर्ति की चर्चा न मीडिया ने की, न कांग्रेस ने। तो क्या नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर गलती की। मेरी निजी राय में बिल्कुल नहीं। मेरी निजी राय यही है कि राजनीति से पहले अगर कोई और प्राथमिक काम किसी का है तो उसे कम से कम किसी पार्टी का राष्ट्रीय या प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बनना चाहिए। ऐसा नहीं है कि नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते कुछ बेहतर नहीं किया। नितिन गडकरी ने ढेर सारे बेहतर काम किए। नितिन गडकरी के पहले के 11 अशोक रोड और उसके बाद के 11 अशोक रोड में जाकर कोई भी गडकरी की दूसरी क्षमताओं से प्रभावित हो सकता है। लेकिन, राजनीतिक आंकलन में गडकरी से चूक हुई जो, 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में साफ दिखा। और इसीलिए मुझे हमेशा ये लगता है कि जो संघ विचारधारा से जुड़े चार्टर्ड अकाउंटेंट एस गुरुमूर्ति ने नितिन गडकरी पर पूर्ति विवाद के समय टिप्पणी की थी वो बड़ी महत्वपूर्ण है। गुरुमूर्ति ने ट्वीट किया था कि वो निजी तौर पर मानते हैं कि किसी भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को कारोबार में नहीं होना चाहिए। क्योंकि, इससे हमेशा मुश्किलें खड़ी होती रहती हैं। और, छवि पर भी बुरा असर होता है। इसी छवि का बड़ा महत्व है।

अब ताजा मामला है रामदेव का। जब कोई योग गुरु रामदेव कहता है तो मुझे एतराज नहीं होता। लेकिन, जब स्वामी या बाबा रामदेव कहता है तो थोड़ा पचाने में मुश्किल होती है। क्योंकि, भाई रामदेव संत नहीं हैं। इस पर कोई चाहे तो मुझसे बहस कर सकता है। स्वामी रामदव बिना डिग्री के आयुर्वेदिक डॉक्टर हो सकते हैं। अच्छे योग चेतना जगाने वाले प्रभावी पुरुष हो सकते हैं। लेकिन, ये बात रामदेव मानने, समझने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए वो फंस जाते हैं। रामदेव जैसे लोग दो चरित्र लेकर चलते हैं। एक चरित्र उनका योग गुरु और उनके लिहाज से स्वामी या बाबा रामदेव वाला है। दूसरा चरित्र कारोबारी रामदेव का है। एक गेरुआ कपड़े पहनता है, जिसमें से उनके बदन का काफी हिस्सा दिखता रहता है। दूसरे का हजारों करोड़ का कारोबार है। एक देश की बात करता रहता है और देश के खिलाफ दिखने वाली सरकार की हर हरकत का विरोध करता है। दूसरा अपने कारोबार के खिलाफ दिखने वाली सरकार की हर हरकत का विरोध करता है। रामदेव का एक चरित्र चुनाव में नरेंद्र मोदी का समर्थन इसलिए करता है कि उसे राष्ट्रवादी व्यक्ति को प्रधानमंत्र बनवाना है। उन्हीं रामदेव का दूसरा चरित्र नरेंद्र मोदी का समर्थन और सोनिया, राहुल गांधी का विरोध इसलिए करता है कि उनके पतंजलि योगपीठ के कारोबार पर प्रतिकूल असर न पड़े। दरअसल असल बात यही है कि जो एस गुरुमूर्ति ने कहा उसे में थोड़ा और आगे ले जाता हूं। मैं निजी तौर पर ये मानता हूं कि प्राथमिक कार्य के रूप में राजनीति, समाज कार्य में आने वाले लोग ही इसमें आगे रहें तो बेहतर। अब उसका उदाहरण ये है कि दुनिया भर में बड़े-बड़े कारोबारी ढेर सारे फाउंडेशन टाइप कुछ खोलकर लोगों की भलाई के लिए काम करते रहते हैं। वजह साफ है कि किसी भी कंपनी, कारोबार को बड़ा करने में ढेर सारे गलत काम करने पड़ते हैं और उन्हीं गलत कामों के अपराधबोध को कम करने के लिए कारोबारी, कंपनी के मालिक, चेयरमैन अपने, पत्नियों के नाम से कुछ पुण्य के काम करते रहते हैं। लेकिन, सोचिए कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन हो, नीता अंबानी वाली रिलायंस की फाउंडेशन हो, अजीम प्रेमजी वाली हो या दुनिया की कोई ऐसी कारोबारी संस्था की समाज कार्य करने वाली फाउंडेशन हो वो, अधिकतम कितनी रकम फाउंडेशन पर खर्च करेगी। दरअसल इसे समझने के लिए यही समझिए कि देश की ज्यादातर कंपनियां अपने मुनाफे का दो प्रतिशत भी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलटी  (CSR) पर खर्च नहीं कर पाती हैं। इसके लिए बाकायदा कानून बनाने की जरूरत पड़ी है। अब जरा मुझे बताइए न कि कौन सा खांटी नेता है जिसने धर्मशाला बनवाई हो। जिसने गरीब बच्चों को खिलाने-पहनाने का काम दिखाया, बताया हो। क्योंकि, प्राथमिक तौर पर राजनीति करने वाले तो ये काम यानी समाज की बेहतरी के काम खुद ही करते रहते हैं। लेकिन, जो समाज के किसी न किसी हिस्से का हक मारकर खुद को बड़ा बनाते हैं। वो, कारोबारी, कंपनी के मालिक किसी का हक मारने की बददुआ न लगे, इसके लिए ढेर सारे समाजसेवा के काम करने लगते हैं। बताइए न कितने नौकरी करने वालों को आप जानते हैं जो अपनी सैलरी में से समाजसेवा का काम करते दिखते हैं। मुश्किल से मिलेंगे। हां, अगर नौकरी में अनाप-शनाप कमाई हो रही है तो जरूर कुछ समाजसेवी टाइप के वो होते दिखेंगे। पूरा सिद्धांत ही यही है कि कारोबारी, कारोबारी रहेगा तो कारोबार में किए गलत कामों को सही करने के लिए धर्मशाला खुलवाएगा, कुछ समाजसेवा के काम करेगा लेकिन, अगर कोई साधु, नेता कारोबारी होगा तो अपने कारोबार की गलतियों को सही साबित करने के लिए राजनीति, साधु के चोले का इस्तेमाल करेगा।


वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की बाबा रामदेव के बारे में राय की कुछ लाइनें दिखीं। बड़े सलीके से वो सारी बात कह देती हैं। राम बहादुर राय कहते हैं कि ''बाबा रामदेव आर्य समाजी हैं, उन्होंने जो वस्त्र धारण किया है, वह् त्याग-तपस्या का वस्त्र है. बाबा भौतिक रुप से सन्यासी हैं और आध्यात्मिक रुप से कारोबारी. कोई व्यक्ति क्या है, इसका पता उसके आत्म तत्व से चलता है. एक कारोबारी में आत्म तत्व कम होता है . यह बात राम लीला मैदान में दिखाई भी पड़ी. रामदेव ने थोड़े समय के लिए ही सही सन्यास का वस्त्र छोड़ा. और उनका पुनर्जन्म हुआ. एक सन्यासी जब संन्यास का वस्त्र धारण करता है, तो उसका दूसरा जन्म होता है. और उसे उतार कर जब वह् महिला का वस्त्र पहनता है. तो उसका प्रेत जन्म होता है. वह् प्रेत अब किस-किस को नुकसान पहुँचाएगा और समाज का कितना भला करेगा, यह बड़ा प्रश्न है. बाबा ने अपना एक अवसर गन्वाया है और अब वे कोई भी प्रयास करेंगे, गन्वाया हुआ अवसर वापस नहीं आएगा.''
इसके आगे मैं अपनी राय जोड़ूं तो दरअसल बाबा रामदेव को वो गंवाया अवसर इसीलिए वापस नहीं मिलेगा क्योंकि, वो अपना आत्मबल कारोबार के मुनाफे में पूरी तरह से गंवा चुके हैं। उनका आत्मबल शायद अब इस बात से ज्यादा बढ़ता होगा कि उनके पतंजलि योगपीठ में कितने नए मरीज इलाज के लिए आ गए हैं। आत्मबल शायद इससे भी बढ़ता होगा कि हर दिन कितने हजार, लाख, करोड़ रुपये उन्हें पहले से ज्यादा मिल रहे हैं। आत्मबल शायद इससे भी बढ़ता होगा कि पतंजलि योगपीठ और कितना बड़ा ब्रांड बन चुका है। जाहिर है जब मामला ब्रांड या मुनाफे का होता है तो फिर आत्मबल या आत्मतत्व से ज्यादा जरूरत रणनीति की होती है। चमक-दमक की होती है। पैकेजिंग की होती है। और इसी ब्रांडिंग पैकेजिंग को बचाने के लिए वो मजबूत होते दिख रहे नरेंद्र मोदी के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। ये दूसरा वाला आत्मबल है। लेकिन, चूंकि असल वाला आत्मबल नहीं है तो वो महिलाओं के कपड़े पहनकर सरकार के सामने से भाग खड़े होते हैं। अरे उतना कमजोर आत्मबल वाला तो विश्वविद्यालय की राजनीति करने वाला छात्रनेता भी नहीं होता है। दरोगा, सिपाही की लाठी थाम लेता है। क्योंकि, उसकी कोई दुकान बंद होने का खतरा नहीं होता। रामदेव की तो बहुत बड़ी दुकान बंद होने का उसका मुनाफा घटने, कटने का डर है। और लोग भूल जाते हैं कि जब भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी जैसा मजबूत नेता नहीं था। पार्टी कमजोर होती जा रही थी। लोग कहने लगे थे कि अटल, आडवाणी के बाद बीजेपी खत्म ही समझो तो यही रामदेव थे जो अपनी पार्टी, सेना बनाकर भारत की सत्ता विजय का सपना देखने लगे थे। उस दौरान वो खुद को चाणक्य समझकर चंद्रगुप्त तैयार करने लगे थे। स्वामी रामदेव का यही दोहरा चरित्र है।

योग गुरु रामदेव आगे अपने राजनीतिक परिश्रम को न्यायसंगत बनाने के लिए गुरु वशिष्ठ, वाल्मीकि और उनके राम के साथ खड़े होने की घटना सुनाने लगे हैं। अब जरा ये भी बताते रामदेव जी की वशिष्ठ या वाल्मीकि महाराज को राज्य का भला करने के लिए कितने तरह के उत्पाद बनाने पड़े थे। कितनी योगपीठ बनानी पड़ी थी। कितने हेलीकॉप्टर लेने पड़े थे। कितनी जमीन खरीदनी पड़ी थी। कितने योग शिविर लगाने पड़े थे। रामदेव जी आप योग गुरु हैं। आपने देश में योग चेतना जगाने का अद्भुत काम किया है। उसी पर टिके रहिए। क्योंकि, उस योग चेतना जगाने के एवज में आपने अपना कारोबार खड़ा किया है। आपने जमकर मुनाफा कमाया है। आपने चमकती इमारतें खड़ी की हैं। इसलिए आप राजनीति के चक्कर में वैसे ही पड़िए जैसे कारोबारी पड़ते हैं। संत वाला चरित्र तो आप वैसे ही खो चुके हैं। एक कारोबारी की तरह किसी नेता का समर्थन, विरोध कीजिए और उसी लिहाज से मुनाफे, घाटे के लिए तैयार रहिए।

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