बैरिकेड के पीछे छिपी सरकार, राजपथ से इंडिया गेट तक खड़ी जनता से मुंह छिपाती सरकार |
सवाल वही कि दिक्कत कहां हैं? जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राष्ट्र के नाम संबोधन कर दिया। सबको तो पता है देश ही नहीं दुनिया को भी। आखिर कहां अपने प्रधानमंत्री बोलते या बोल पाते हैं। मतलब उन्होंने इसे इतना महत्वपूर्ण तो समझा ना कि इस पर राष्ट्र के नाम संबोधन किया। अब और क्या करें? वो, भी तब जब पुराने जमाने के निकट संबंधी और एक समय तक ताकतवर राष्ट्र के मुखिया पुतिन भारत की यात्रा पर हैं। फिर भी समय निकालकर वो, बोले ना। और, क्या करें आप ही बताइए ना। क्यों, ये लौंडे लपाड़ों की टीम चाहती है कि उनके कहे से देश चलने लगे। अरे, जाओ स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पूरी करो। सिस्टम में आओ। सिस्टम के जैसे बन जाओ। तब बताना कि देश कैसे चलता है। कानून कैसे बनता है। चले आते हैं। बेवजस सरकार की छवि खराब करते हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो, रोने लगी हैं। वो, भी तो महिला हैं। उनके साथ केंद्र भेदभाव करता है। पुलिस का नियंत्रण देश के गृहमंत्री के पास और गाली शीला दीक्षित को। इसीलिए उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित ने कह दिया कि कम से कम पुलिस कमिश्नर को तो बर्खास्त कर दो। संदेश जाएगा। संदेश तो जा रहा है। लेकिन, फिर सवाल वही कि दिक्कत कहां हैं? अब तो, सरकार के साथ मीडिया घराने भी ये संदेश चलाने में जोर शोर से लग गए हैं कि आंदोलन हुड़दंगियों के हाथ में चला गया है। अपने बच्चों/परिवार के लोगों को घर में बुला लीजिए। बेचारी सरकारी पुलिस दमन तो कर रही है असामाजिक तत्वों का। अगर आपने अपने बच्चों/परिवार के लोगों को घर वापस नहीं बुलाया तो, फिर दोष मत दीजिएगा सरकार और सरकारी पुलिस को कि इस सर्दी में क्यों पीटा, क्यों सिर फोड़ा, क्यों ठंडे पानी से नहला दिया? लेकिन, जब सब इतने समझदार हैं तो, फिर सवाल वही कि दिक्कत कहां हैं?
जवाब जानने के लिए सिर्फ एक जिम्मेदार व्यकित के बयान अच्छे से सुन लीजिए। ये हैं देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे साहब। विनम्रता इनकी पहचान हैं। दरोगा से गृहमंत्री तक बन गए। इन्होंने क्या कहा जब इनसे पूछा गया कि वो, छात्रों से सीधे जाकर क्यों नहीं मिल सकते।
Shinde to cnn ibn: if we meet students today, tomorrow we may have to meet maoists" #shame
Shinde: Tomorrow 100 Adivasis will be killed, can the govt go there?"#shame
बस यही
दोनों दरअसल जवाब हैं। इस सरकार का फर्मा ही बिगड़ा हुआ है। फर्मा मतलब सांचा। इस
सरकार में जो, कुछ भी
निकलेगा। आंड़ा तिरछा ही निकलेगा। अब बताइए साहब छात्रों से गृहमंत्री, प्रधानमंत्री या परम प्रधानमंत्री सोनिया गांधी इसलि नहीं मिलना चाहते कि
फिर माओवादियों से भी बात करनी पड़ेगी। पहले तो, ये कि छात्र कहां लैंडमाइन बिछा रहे
थे। कहां ये हैंडग्रेनेड दाग रहे थे। कहां ये पुलिस, सेना के जवानों की गाड़ी उड़ा रहे थे।
हां, अगर ऐसे
ही इन्हें चिढ़ाते रहे तो, ये सब ये करने लगेंगे। दूसरी बात ये कि
अगर बात करने से माओवादी भी सुधर सकते हैं तो, बात क्यों नहीं करोगे। घोषित/अघोषित
आतंकवादियों और उनको पालने वालों से तो, अकसर लाल कालीन बिछाकर बात करते रहते
हो। बौरा गए हो क्या। 100 आदिवासी
मर जाएं।
किसी भी वजह से और देश का गृहमंत्री, वहां तक जाने लायक घटना इसे नहीं
समझता। क्यों बने
हो मंत्री। मौज करने के लिए। सिर्फ अच्छे-अच्छे कपड़ों में PIB कांफ्रेंस हॉल में बैठकर मीडिया को संबोधित करने
के लिए। परेड लेने के लिए। दुनिया घूमने के लिए। इस मौके पर भी जिस सरकार में एक
साहसी नेता नहीं है जो, राजपथ/जनपथ
पर आकर अपनी बात
अपने लोगों से कह सकता। इसीलिए लगता है कि सरकार का फर्मा ही खराब हो चुका है।
फर्मा
खराब न हो चुका होता तो, आखिर सरकार क्यों इंतजार करती रहती कि असामाजिक तत्व आकर शांतिपूर्ण
चल रहे आंदोलन में शामिल हो जाते। दरअसल संदेह तो, ये होता है कि बड़े समय बाद
मनमोहन नीति के आवरण से निकली जनता इतना ज्यादा जाग चुकी है कि सरकार को लगता है
कि ऐसे तो, जनता ही सचमुच देश चलाने लगेगी और उसका लोकतंत्र के आवरण में राजशाही
चलाने का सपना गड़बड़ाने लगेगा। इसीलिए पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में भी
सरकार ने यही किया। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन को सत्ता का
आंदोलन, संघ का आंदोलन साबित करने की कोशिश की। और, आखिर में अरविंद केजरीवाल के
पार्टी बनाने को सत्ता की भूख करार कर दिया। दरअसल मैं ये बात मानता हूं कि इस देश
की जनता जब जागती है तो, उसे आंदोलन करने के लिए कभी किसी ‘आप’ या ‘बाप’ की जरूरत
नहीं होती है। आजादी से लेकर अब तक बात करें तो, आजादी की लड़ाई के नेता भले ही पूरी
तरह से गांधी-नेहरू बन गए। लेकिन, सच्चाई ये है कि जागी जनता को किसी नेता की
जरूरत नहीं रही। बाद में जेपी आंदोलन के नाम से जो जाना गया वो, सत्ता परिवर्तन की
लड़ाई भी तो, ऐसे ही शुरू हुई थी। आखिर में इसे बंदरों (नौजवानों) का आंदोलन समझने
वाले जयप्रकाश नारायण को नेता बनकर आगे आने की जरूरत लगी। दरअसल अभी भी मसला वही
है। परेशान देश झूठमूठ का आंख बंद करके सोने का नाटक करने से थक-पक चुका है। उसने
आंखें खोल ली है। और, कोई नेता बनना चाहे तो, थोड़ा सा त्यागी बनकर इस अपार
ऊर्जाशक्ति का नेता बन सकता है। इतिहास में अमर हो सकता है। लेकिन, मुश्किल यही है
कि सरकार से लेकर राजनीति के हर पायदान पर नेता गायब हो गए हैं।
सरकार रही नहीं। कम से कम लोकतंत्र वाली तो रही नहीं। और, तानाशाह होने भर की ताकत नहीं है। ये बीच वाली सरकार है। बीच वाली मतलब समझ रहे हैं ना। वर्ना शांतिपूर्वक खड़े हजारों नौजवानों के बीच आने से ये भला क्यों डरते। जवाब ये है कि दिक्कत यहां है कि ये समझ ही नहीं रहे। ये समझ ही नहीं रहे कि क्रांति ऐसे ही होती है।
इसका फ़र्मा 2014 में ही ठीक होगा
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