Saturday, December 22, 2012

क्रांति ऐसे ही होती है!

बड़े समय से ये बात कही जाने लगी थी कि उदारवाद/ग्लोबल विलेज की नीति के जमाने में भारत में पैदा हुए वर्ग की जवानी, मस्ती, मैकडोनल्ड, पिज्जा और डर्टी पिक्चर में ही बीतने वाली है। लेकिन, शायद ऐसा कहने वाले लोग ये भूले थे कि ऐसा होता नहीं है। हर आने वाली पीढ़ी पहले वाली से ज्यादा संवेदनशील, तेज और तरक्की पसंद होती है। हां, हो सकता है कि वो, बेवजह हर समय चौराहे पर नारे लगाते न दिखे। लेकिन, जब जरूरत पड़ेगी तो, निश्चित तौर पर वो, सड़क से संसद तक होगी और ज्यादा आक्रामक होगी। ये बात सरकारें भूल जाती हैं। या यूं कहें कि सत्ता में रहते-रहते उन्हें याद ही नहीं रहता कि सत्ता में आने का रास्ता क्या होता है। जनता क्यों सत्ता देकर मालिक बना देती है। वो, इसलिए तो, बिल्कुल नहीं कि दुष्कर्म के खिलाफ देश जब गुस्से में खड़ा हो तो, उस पर सरकार पानी की बौछार फेंके, आंसू गैस के गोले फेंके और लाठियां बरसाकर सर तोड़ दे।

जिस तरह से आज इंडिया गेट से रायसीना हिल्स तक गुस्से में नौजवान दिख रहा है। वो, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन के समय होने वाली आपसी चर्चा को बल देती दिख रही हैं। बात होने लगी है कि क्या अचानत जनता सरकार को जूतियाने के मन बना लेगी और सरकारी पुलिस के भरोसे बैठी सरकार का दम उसी के आंसू गैस के गोले से फूलेगा। कई दिनों से हम लोग ये चर्चा कर रहे थे कि दिल्ली में हुई वहशी दुष्कर्म के इतने बड़े मुद्दे पर अन्ना हजारे का अब तक कोई बयान नहीं आया लेकिन, आज का ये प्रदर्शन देखकर मुझे लगता है कि अन्ना हजारे तो प्रतीक भर थे। मनमोहन के उदारवाद वाली पॉकेट पॉलिटिक्स से उस दौर में पैदा हुआ नौजवान उकता गया है। उस बहाने पैदा हुए सिस्टम से उसे उल्टी आने लगी है। और, इसीलिए जरूरी ये है कि अन्ना से मिली ऊर्जा देश के नौजवान हर जगह का सिस्टम सुधारने में लगाएं। मुश्किल ये है कि ग्लोबलाइजेशन की नीति ने ऐसा हम सबको निकम्मा बना दिया था कि खून में भ्रष्टाचार घुसा सा दिखने लगा था। कई बार मैंने दिल्ली के रेडियो स्टेशनों पर अन्ना आंदोलन के समय ये बहस होते सुनी कि क्या बिना भ्रष्टाचार के हम जी भी सकते हैं। और, वो सब बड़े मजाकिया अंदाज में होता था।

विजय चौक पर रायसीना हिल्स को घेरे खड़े आंदोलनकारी
बड़ी मुश्किल तो ये होती है कि ऐसे आंदोलनों की समीक्षा इस तरह से होने लगती है कि इस आंदोलन की ताकत पिछले आंदोलन से ज्यादा थी या कम। अन्ना के आंदोलन में तो ये भी चर्चा होने लगी थी भ्रष्टाचार के खिलाफ ये लड़ाई सिर्फ सवर्ण लड़ रहे हैं। न पिछड़े हैं, न दलित हैं, न मुसलमान। खैर, बाद में ऐसा बोलने वालों की बुद्धि कुछ तो ठीक हुई ही होगी। और, सरकारों को डर भी लगने लगा था। लेकिन, इस सरकार को अब ज्यादा डरना चाहिए। क्योंकि, ये अब जागी जनता है। न इसे 'आप' की जरूरत है न किसी 'बाप' की। और, मुझे लगता है कि कल एक लड़की जिस तरह से राष्ट्रपति के गलियारे तक दौड़ती चली गई थी उससे लाल पत्थरों के भीतर बैठे लोग डरने लगे होंगे। और, आज सत्ता के असल प्रतीक रायसीना हिल्स- नॉर्थ, साउथ ब्लॉक और राष्ट्रपति भवन को जिस तरह से नौजवानों ने घेर रखा है उसने जरूर इन्हें ज्यादा डराया होगा।


3 comments:


  1. अन्याय, अनैतिकता, कुप्रशासन, व्यभिचार, के विरुद्ध उच्चारित
    ध्वनि का न तो कोई धर्म होता है एवं न ही कोई जाति-वर्ण.....

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  2. जब तक हम अपने 'मत' रूपी धन का मोल नहीं जानेगें और उसे
    ऐसे ऊँचे प्रासादों में बैठे व्यक्तियों पर लुटाते रहेंगे तब हम उत्तम
    शासन-प्रबंध से वंचित ही रहेंगें.....

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  3. मन को व्यक्त करने को एकत्र हुये हैं सब, लगता है।

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