उत्तर प्रदेश की जनता को कर्कश आवाज में मुलायम के जंगलराज के खिलाफ चीखकर मायावती ने ठग लिया है। जिन दलितों के दबे होने को लेकर वो सत्ता में आई अब वही दलित होना मायावती के लिए इतना बड़ा हथियार बन गया है कि पूरा उत्तर प्रदेश दलित बन गया है। मनुवाद को गाली देने वाली मायावती सबसे बड़ी मनुवादी हो गई है।
मायाराज- जंगलराज का समानार्थी शब्द लगने लगा है। लेकिन, दरअसल ये जंगलराज से बदतर हो गया है। क्योंकि, जंगल का भी कुछ तो कानून होता ही है। 24 अगस्त को मैंने बतंगड़ ब्लॉग पर लिखा था कि गुंडे चढ़ गए हाथी पर पत्थर रख लो छाती पर लेकिन, अब ये जरूरी हो गया है कि हाथी पर चढ़े गुंडों को पत्थरों से मार गिराया जाए। क्योंकि, पहले से bimaru उत्तर प्रदेश की बीमारी अब नासूर बनती जा रही है। शुरू में जब अपनी ही पार्टी के अपराधियों को मायावती ने जेल भेजा तो, लगा कि मायाराज, मुलायम राज से बेहतर है। लेकिन, ये वैसा ही था जैसा नया भ्रष्ट दरोगा थाना संभालते ही पुराने बदमाशों को निपटाकर छवि चमकाता है और अपने बदमाश पाल-पोसकर बड़े करता है। पता नहीं अभी up (उल्टा प्रदेश) को और कितना उलटा होना बाकी है।
और, सच्चाई तो यही है कि जब जनता ने मुलायम को पलटकर माया को सत्ता दिया था तो कोई बहुत माया की काबिलियत पर नहीं दिया था। मुलायम की कारस्तानियों पर दिया था। लेकिन, अब तो उत्तर प्रदेश की जनता बस यही कह रही है कि बहिनजी गलती हो गई माफ कर दो। लेकिन, इतने बड़े पाप की सजा अब 5 साल के पहले उत्तर प्रदेश की जनता को कहां मिल पाएगी।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Thursday, December 25, 2008
Sunday, December 21, 2008
Nawaz does an antulay on Zardari … I don’t think so .. what do u think
मेरे शीर्षक का पहला हिस्सा शनिवार को मुंबई के the free press journal की हेडलाइन थी जिस पर मुझे भयानक एतराज है। और, ये एतराज इसलिए भी बढ़ जाता है कि सिर्फ तुक ताल बिठाने के लिए फ्री प्रेस जर्नल ने ये हेडलाइन ठेल दी। वैसे तो, फ्री प्रेस जर्नल कितने लोग पढ़ते हैं इसका मुझे पता नहीं है लेकिन, फिर भी जाहिर है कुछ लोग तो ऐसे होंगे ही जिन्होंने इस हेडलाइन को पढ़कर नवाज शरीफ के साथ गैरशरीफ अंतुले को भी एक खांचे में डाल दिया होगा।
अब जरा एक नजर डालें कि आखिर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और यूपीए सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने क्या ऐसा किया कि मीडिया उनमें समानता खोजने लगा है। ऊपर से तो, दरअसल सिर्फ एक समानता दिखती है वो, ये कि ये दोनों अपने देश की सरकारों को सांसत मे डाल रहे हैं। और, इन दोनों के बयानों से- अंतुले के बयान से पाकिस्तान और शरीफ के बयान से भारत को- पड़ोसी देश को आरोप में मजबूती मिली है और इन दोनों के अपने देश का पक्ष कमजोर हुआ है।
अब सवाल ये है कि दिक्कत क्या है लोकतंत्र है और दोनों देशों में ऐसे सुर रखने वाले लोग हैं ये, क्या कम है। लेकिन, दरअसल सच्चाई बड़ी भयावह है। मैंने पिछले लेख में जब लिखा था कि जरदारी पर भरोसा करने में हर्ज क्या है तो, कई लोगों ने सवाल खड़ा किया था कि जरदारी पर भरोसा हम कैसे कर लें। लेकिन, मैंने उसी लेख के आखिर में चुनाव के समय और अंतुले जैसी जमात का भी जिक्र किया था जो, बासठ सालों से इसी तरह की बेतुकी बयानबाजी से ही अपना दानापानी चला रहे हैं और स्वस्थ मजबूत लोकतंत्र की निशानी मानकर कुछ जनता इनके बकरी से मिमियाने को शेर की दहाड़ और फिर इन्हें सवा सेर बनाती गई।
जब विपक्ष के नेता और हिंदुत्व के पुरोधा कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी और कम्युनिस्ट नेता मोहम्मद सलीम आतंकवाद को देश के खिलाफ जंग मानकर सरकार के साथ बिना किसी शर्त के खड़े थे तो, उस समय अब्दुल रहमान अंतुले को एटीएस चीफ हेमंत करकरे की हत्या मालेगांव धमाकों का सच छिपाने की साजिश के तहत की गई लगने लगी। वो, इतने से ही बस नहीं माने। उन्होंने ये भी कह डाला कि ये हिंदू आतंकवाद का हिस्सा हो सकता है। अंतुले ये बयान तब दे रहे थे जब ये साफ हो चुका है कि कितनी बड़ी साजिश के तहत मुंबई पर हमला पाकिस्तानी जमीन से तैयार हुआ। वो, सारे पाकिस्तानी थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि अब अंतुले इतनी बड़ी बेवकूफी को ढोल पीटकर सच करवा लेना चाहते हैं कि हिंदू आतंकवाद की साजिश का पता न चले इसके लिए पाकिस्तानी मुसलमान आतंकवादी, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और लश्कर जैसे संगठनों ने साजिश रची।
करकरे जिस तरह आतंकवादियों की गोली का निशाना बने उसमें ये साबित हो चुका है कि कोई सामान्य सिपाही भी होते तो, उन्हें आतंकवादियों की गोलियां न पहचानतीं। और, मुझे तो डर लगता है कि कहीं ये कांग्रेस की चुनावी रणनीति का हिस्सा न हो। क्योंकि, हर मोरचे पर पिटती सरकार जब आतंकवाद पर पिटी और उसी के साथ चुनाव हुए तो, जनता ने ये साफ कर दिया कि वो, आतंकवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं लेकिन, इस पर राजनीति वो बर्दाश्त नहीं करेंगे। और, शायद यही वजह थी कि आडवाणी हों या फिर कोई और संसद में सब एकसुर में आतंकवाद को कुचलने के लिए एक साथ तेज आवाज में सरकार के साथ बोले।
लेकिन, अंतुले तब भी अलग बोल रहे थे। वो, कह रहे थे कि नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी और unlawfull prevention act पास हुआ तो, इससे अल्पसंख्यकों के हित मारे जाएंगे। अब जब ये बिल आतंकवाद को कुचलने के लिए है तो, हिंदुस्तानी मुसलमान का हित कैसे मारा जाएगा। अंतुले जैसे लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को किस खांचे में खड़ा करना चाहते हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूं। थोड़ा दबे-दबे में लालू प्रसाद यादव से लेकर दूसरे बासठ सालों से इसी तरह की तुष्टिकरण की राजनीति पर जिंदा लोग भी अंतुले की खिलाफत करने से बच रहे थे।
लेकिन, जब सोनिया गांधी के विश्वस्त कांग्रेसी महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहाकि कि अंतुले ने क्या गलत कह दिया। तब मेरा संदेह और पक्का हो गया कि ये कांग्रेस की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। कांग्रेस कड़ी बयानबाजी और पाकिस्तान के खिलाफ दबाव बनाकर देश को ये संदेश देना चाहती है कि हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए सबसे काबिल हैं। साथ ही अंतुले, दिग्विजय जैसों की फौज अल्पसंख्यक वोट बटोरने के अभियान में लगा दी जिससे मुलायम, माया जैसों का वोट कटे और लोकसभा में कुछ सीटें बढ़ जाएं। विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक तीनों ये मान चुके हैं कि लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का मुद्दा तो नहीं चलेगा।
अंतुले इतने पर भी बस नहीं हुए। अब वो कट्टरपंथी मौलाना की तरह बोलने लगे हैं। उन्होंने कहाकि वक्फ की जमीन अल्लाह की जमीन है और इस पर अगर किसी ने कब्जा किया है तो, उसके खिलाफ जेहाद जायज है। यानी अंतुले गृहयुद्ध की बुनियाद और पुख्ता कर रहे हैं। अब अगर इसकी प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक भी उसी अंदाज में आया तो, हाल क्या होगा। जब मौका था कि मजबूरी में फंसे पाकिस्तान पर दबाव डालकर आतंकवाद की जड़ में मट्ठा डाला जा सकता था। जब मौका था कि भारत-पाकिस्तान को साथ लेकर अपनी तरक्की बेहतर कर लेता तो, अंतुले, दिग्विजय की कांग्रेस अपनी वोटबैंक पॉलिटिक्स को भुनाने में जुट गई है।
नवाज शरीफ अपने देश के राष्ट्रपति के खिलाफ बोले तो, वो सच्चाई है कि मुंबई हमले में पकड़ा गया आतंकवादी अजमल कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट का है। नवाज शरीफ का ये इंटरव्यू जिस पाकिस्तानी जियो न्यूज चैनल पर दिखाया गया उसने वहां के गांव वालों का इंटरव्यू तक प्रसारित किया जिससे ये और पुष्ट होता है। इससे तो, अंतुले का बयान वैसे ही खारिज हो जाता है। लेकिन, अंतुले जैसी राजनीति को पालपोसकर बड़ा करने वाली कांग्रेस अब शायद अंतुले को बुढ़ापे में अपने पुनर्जीवन के लिए इस्तेमाल कर लेना चाहती है। इसीलिए मैं फिर से कह रहा हूं कि खुली आंख से जरदारी, शरीफ पर भरोसा ठीक है। आंखबंदकर देश में बैठे लोगों की कारस्तानियों पर भरोसा ठीक नहीं है।
अब जरा एक नजर डालें कि आखिर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और यूपीए सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने क्या ऐसा किया कि मीडिया उनमें समानता खोजने लगा है। ऊपर से तो, दरअसल सिर्फ एक समानता दिखती है वो, ये कि ये दोनों अपने देश की सरकारों को सांसत मे डाल रहे हैं। और, इन दोनों के बयानों से- अंतुले के बयान से पाकिस्तान और शरीफ के बयान से भारत को- पड़ोसी देश को आरोप में मजबूती मिली है और इन दोनों के अपने देश का पक्ष कमजोर हुआ है।
अब सवाल ये है कि दिक्कत क्या है लोकतंत्र है और दोनों देशों में ऐसे सुर रखने वाले लोग हैं ये, क्या कम है। लेकिन, दरअसल सच्चाई बड़ी भयावह है। मैंने पिछले लेख में जब लिखा था कि जरदारी पर भरोसा करने में हर्ज क्या है तो, कई लोगों ने सवाल खड़ा किया था कि जरदारी पर भरोसा हम कैसे कर लें। लेकिन, मैंने उसी लेख के आखिर में चुनाव के समय और अंतुले जैसी जमात का भी जिक्र किया था जो, बासठ सालों से इसी तरह की बेतुकी बयानबाजी से ही अपना दानापानी चला रहे हैं और स्वस्थ मजबूत लोकतंत्र की निशानी मानकर कुछ जनता इनके बकरी से मिमियाने को शेर की दहाड़ और फिर इन्हें सवा सेर बनाती गई।
जब विपक्ष के नेता और हिंदुत्व के पुरोधा कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी और कम्युनिस्ट नेता मोहम्मद सलीम आतंकवाद को देश के खिलाफ जंग मानकर सरकार के साथ बिना किसी शर्त के खड़े थे तो, उस समय अब्दुल रहमान अंतुले को एटीएस चीफ हेमंत करकरे की हत्या मालेगांव धमाकों का सच छिपाने की साजिश के तहत की गई लगने लगी। वो, इतने से ही बस नहीं माने। उन्होंने ये भी कह डाला कि ये हिंदू आतंकवाद का हिस्सा हो सकता है। अंतुले ये बयान तब दे रहे थे जब ये साफ हो चुका है कि कितनी बड़ी साजिश के तहत मुंबई पर हमला पाकिस्तानी जमीन से तैयार हुआ। वो, सारे पाकिस्तानी थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि अब अंतुले इतनी बड़ी बेवकूफी को ढोल पीटकर सच करवा लेना चाहते हैं कि हिंदू आतंकवाद की साजिश का पता न चले इसके लिए पाकिस्तानी मुसलमान आतंकवादी, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और लश्कर जैसे संगठनों ने साजिश रची।
करकरे जिस तरह आतंकवादियों की गोली का निशाना बने उसमें ये साबित हो चुका है कि कोई सामान्य सिपाही भी होते तो, उन्हें आतंकवादियों की गोलियां न पहचानतीं। और, मुझे तो डर लगता है कि कहीं ये कांग्रेस की चुनावी रणनीति का हिस्सा न हो। क्योंकि, हर मोरचे पर पिटती सरकार जब आतंकवाद पर पिटी और उसी के साथ चुनाव हुए तो, जनता ने ये साफ कर दिया कि वो, आतंकवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं लेकिन, इस पर राजनीति वो बर्दाश्त नहीं करेंगे। और, शायद यही वजह थी कि आडवाणी हों या फिर कोई और संसद में सब एकसुर में आतंकवाद को कुचलने के लिए एक साथ तेज आवाज में सरकार के साथ बोले।
लेकिन, अंतुले तब भी अलग बोल रहे थे। वो, कह रहे थे कि नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी और unlawfull prevention act पास हुआ तो, इससे अल्पसंख्यकों के हित मारे जाएंगे। अब जब ये बिल आतंकवाद को कुचलने के लिए है तो, हिंदुस्तानी मुसलमान का हित कैसे मारा जाएगा। अंतुले जैसे लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को किस खांचे में खड़ा करना चाहते हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूं। थोड़ा दबे-दबे में लालू प्रसाद यादव से लेकर दूसरे बासठ सालों से इसी तरह की तुष्टिकरण की राजनीति पर जिंदा लोग भी अंतुले की खिलाफत करने से बच रहे थे।
लेकिन, जब सोनिया गांधी के विश्वस्त कांग्रेसी महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहाकि कि अंतुले ने क्या गलत कह दिया। तब मेरा संदेह और पक्का हो गया कि ये कांग्रेस की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। कांग्रेस कड़ी बयानबाजी और पाकिस्तान के खिलाफ दबाव बनाकर देश को ये संदेश देना चाहती है कि हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए सबसे काबिल हैं। साथ ही अंतुले, दिग्विजय जैसों की फौज अल्पसंख्यक वोट बटोरने के अभियान में लगा दी जिससे मुलायम, माया जैसों का वोट कटे और लोकसभा में कुछ सीटें बढ़ जाएं। विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक तीनों ये मान चुके हैं कि लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का मुद्दा तो नहीं चलेगा।
अंतुले इतने पर भी बस नहीं हुए। अब वो कट्टरपंथी मौलाना की तरह बोलने लगे हैं। उन्होंने कहाकि वक्फ की जमीन अल्लाह की जमीन है और इस पर अगर किसी ने कब्जा किया है तो, उसके खिलाफ जेहाद जायज है। यानी अंतुले गृहयुद्ध की बुनियाद और पुख्ता कर रहे हैं। अब अगर इसकी प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक भी उसी अंदाज में आया तो, हाल क्या होगा। जब मौका था कि मजबूरी में फंसे पाकिस्तान पर दबाव डालकर आतंकवाद की जड़ में मट्ठा डाला जा सकता था। जब मौका था कि भारत-पाकिस्तान को साथ लेकर अपनी तरक्की बेहतर कर लेता तो, अंतुले, दिग्विजय की कांग्रेस अपनी वोटबैंक पॉलिटिक्स को भुनाने में जुट गई है।
नवाज शरीफ अपने देश के राष्ट्रपति के खिलाफ बोले तो, वो सच्चाई है कि मुंबई हमले में पकड़ा गया आतंकवादी अजमल कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट का है। नवाज शरीफ का ये इंटरव्यू जिस पाकिस्तानी जियो न्यूज चैनल पर दिखाया गया उसने वहां के गांव वालों का इंटरव्यू तक प्रसारित किया जिससे ये और पुष्ट होता है। इससे तो, अंतुले का बयान वैसे ही खारिज हो जाता है। लेकिन, अंतुले जैसी राजनीति को पालपोसकर बड़ा करने वाली कांग्रेस अब शायद अंतुले को बुढ़ापे में अपने पुनर्जीवन के लिए इस्तेमाल कर लेना चाहती है। इसीलिए मैं फिर से कह रहा हूं कि खुली आंख से जरदारी, शरीफ पर भरोसा ठीक है। आंखबंदकर देश में बैठे लोगों की कारस्तानियों पर भरोसा ठीक नहीं है।
Wednesday, December 17, 2008
मुंबई में जिंदगी की रफ्तार से तेज दौड़ रही है दहशत
मुंबई में जिंदगी की रफ्तार कुछ ऐसी है कि छोटे शहरों से आया आदमी तो यहां खो जाता है। उसे चक्कर सा आने लगता है। इस रफ्तार को समझकर इसके साथ तो बहुतेरे चल लेते हैं। लेकिन, इस रफ्तार को कोई मात दे देगा ये, मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। पर 16 दिसंबर को रात 8 बजे की करी रोड से थाना की लोकल ट्रेन में सफर के दौरान दहशत मैंने अपने नजदीक से गुजरते देखी।
करी रोड से स्टेशन पहुंचकर रुकी तो, अचानक हवा में कुछ आवाजें सुनाई दीं कि कोई लावारिस बैग पड़ा है। 30 सेकेंड भी नहीं लगे होंगे कि ठसाठस भरी ट्रेन में एक दूसरे के शरीर से चिपककर पिछले 40 मिनट से यात्रा कर रहे यात्री एक दूसरे से छिटककर प्लेटफॉर्म पर पहुंच गए। फर्स्टक्लास का पूरा कंपार्टमेंट खाली हो गया था। शायद ये मुंबई की लोकल में चलने का लोगों का अभ्यास ही था कि लोग क दूसरे से रगड़ते 30 सेकेंड में ट्रेन के डिब्बे से बाहर हो गए और कोई दुर्घटना न हुई।
4-5 मिनट रुकने और पुलिस की जांच के बाद ट्रेन चल दी और फिर ट्रेन में नशे में धुत एक आदमी की इस बात से कि- कौन साला इस मारामारी की जिंदगी को ढोना चाहता है-जब मरना होगा तो, मरेंगे ही। क्या बाहर मौत नहीं है- मुंबई स्पिरिट जिंदा हो गया। डिब्बे में ही खड़े-खड़े ताश की गड्डी भी खुल गई और सब घर भी पहुंच गए। लेकिन, दरअसल आतंक की जमात का काम बिना कुछ किए पूरा हो चुका है। अब मुंबई ऐसे ही चौंक-चौंककर अनदेखी और देखी दहशत से डरेगी।
Monday, December 15, 2008
जरदारी पर भरोसा करने में हर्ज क्या है
पाकिस्तान पर हमला बोल देना चाहिए। पाकिस्तान से सारे रिश्ते खत्म कर लेना चाहिए। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले और उसके बाद इसमें पाकिस्तानी धरती के इस्तेमाल के साफ सबूत के बाद इस तरह की आवाजें तेज हो गई हैं। राजनीतिक नफा-नुकसान के लिहाज से ही सभी पार्टियों के नेता सड़क पर बयान दे रहे हैं। हां, अच्छी बात ये है कि संसद के भीतर आतंकवाद पर हुई चर्चा में बरसों बाद भारतीय नेता की ही तरह सारी पार्टियों ने बात की। कांग्रेस-भाजपा-लेफ्ट के चिन्हों से भले ही जनता उन्हें अलग नहीं कर पा रही है। अब सवाल ये है कि उस दिन की चर्चा के बाद क्या।
पाकिस्तान और भारत की सरकारें लगभग एक जैसे सुर में बात कर रही हैं। दोनों अपने देश के लोगों का भरोसा खोना नहीं चाहते। दोनों देशों की सरकारों को अब आतंकवाद नासूर बन गया दिख रहा है। और, उस नासूर का मवाद इस कदर बढ़ता जा रहा है कि शरीर का अंग कटने की नौबत आ गई है। वैसे, इस नासूर को पालने-पोसने में 1947 के बाद से दोनों देशों की सत्ता संभालने वालों ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत धार्मिक बुनियाद पर नहीं बंटा था, सब रंग मिले थे इसलिए खूनी रंग हम पर बहुत कम चढ़ा और इसकी वकालत करने वाले अकसर सामाजिक तौर पर अलग-थलग हो जाते थे। लेकिन, इसने भारत में एक ऐसी जमात खड़ी कर दी जो, सेक्युलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़कर अपने सारे दुष्कर्मों को निपटा देना चाहती है।
ऐसी जमात का काम चलता भी रहा। ये जनता के गुस्से का शिकार होते थे। लेकिन, फिर पलटी मारकर स्वभाव से शांति प्रिय भारतीय जनता की आधी-अधूरी, लूली-लंगड़ी ही सही लेकिन, लोकतांत्रिक पसंद बन जाते थे। और, उधर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान का हाल ये कि चाहे तानासाह हो या फिर लोकतांत्रिक हुक्मरान- सबको ये लगता था कि बिना हिंदू-हिंदुस्तान को गरियाए, भारत में आतंकवाद फैलाए उनकी सत्ता बहुत दिनों तक नहीं चल सकती। सबको जेहाद इस्लाम का सबसे जरूरी हिस्सा लग रहा था और ये भी लगता था कि भारत के मुसलमानों से भी कम आबादी वाला ये देश ही दुनिया में इस्लाम का झंडा उठाकर चल सकेगा। इस चक्कर में पाकिस्तान में जमात ही जमात खड़ी हो गई। ये जमातें पाकिस्तानी तानाशाहों और लोकतांत्रिक सरकारों के सरदारों से बड़ी हो गईं। और, हाल ये हो गया कि अवाम की चुनी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो निपट गईं।
इसके बाद पत्नी विरह ने आसिफ अली जरदारी को शायद इतनी नजदीक से आतंकवाद का मतलब समझाया। जरदारी और उनका विदेश में पढ़ रहा बेटा पाकिस्तान के अमन पसंद लोगों के साथ ही दुनिया के लिए आतंकवाद के खिलाफ एक हथियार की तरह दिखने लगे। लेकिन, ये आतंकवाद इतना कमजोर तो था नहीं। इसे तो, अमेरिका ने ही अपना काम मजे से चलाने के लिए तैयार किया था। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच मे तालिबान और दूसरे आतंकवादी कैंपों को सुहराकर-फुसलाकर-पुचकारकर अमेरिका ने ही बढ़ाया था। लेकिन, जब इसी जेहाद से अमेरिकी की फटी तो, वो विश्वशांति के बहाने इराक को बरबाद करने का लाइसेंस जबरी ले गया। अगर सबको याद हो तो, पाकिस्तान से बेहद खराब संबंधों के बावजूद भारत की हर तरह की जनता- धर्मनिरपेक्ष या राष्ट्रवादी- बुश को विलेन और सद्दाम को हीरो मानकर चल रही थी। साफ है पाकिस्तान से हमारी लड़ाई-अदावत धर्म की वजह से कम सीमा जुड़ी होने-पड़ोसी होने से ज्यादा है।
कमाल ये है कि मुंबई पर हुए हमले के बाद अपनी पश्चिमी दासता से प्रेरित मानसिकता की वजह से हम सबने इसे भारत का 9/11 बताकर तुरंत अमेरिका के इराक हमले जैसे ही एक्शन की उम्मीद करनी और उस उम्मीद को पूरा करने के लिए सरकार को दबाव में डालने की कोशिश शुरू कर दी। अब सवाल ये है कि क्या हम अमेरिका जैसे हैं। अमेरिकी जनता तो, खुद को दुनिया का दादा समझती है इसलिए उसकी इज्जत बची रहे इसके लिए 2-4 देश बरबाद कर देने वाले शासकों को वो ज्यादा महत्व देते हैं। लेकिन, क्या भारत की जनता का ये मिजाज है। क्या अमेरिका की तरह हम पाकिस्तान से लड़कर जीत सकते हैं। क्या अमेरिका और इराक की लड़ाई में जैसे इराक बरबाद हो गया और अमेरिका का नुकसान बहुत कम रहा। हम भारत-पाकिस्तान की लड़ाई में वैसे नतीजों की उम्मीद कर रहे हैं।
अब जो लोग ये कह रहे हैं कि भारत को पाकिस्तान या फिर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर हमला बोल देना चाहिए। उनके बुद्धि के संतुलन पर मुझे भरोसा एकदम नहीं है। क्योंकि, वो दो तरह के लोग हैं- पहले बेहद चालाक हैं सिर्फ राजनीतिक-सामाजिक नफे-नुकसान के बयान दे रहे हैं, खुद भीतर से डरे रहते हैं कि हालात इतने न बिगड़ें। दूसरे सचमुच के भावनात्मक बेवकूफ हैं। जो, सच्चे भारतीय हैं लेकिन, आजादी के बासठ सालों में नाकारा सरकारों से इतने नाराज हैं कि उन्हें लगता है कि अब आर या पार हो ही जाना चाहिए।
फिर अगर लड़ाई नहीं तो हम करें क्या। मुझे लगता है कि हमें जरदारी पर भरोसा करना चाहिए। आंखमूंदकर नहीं। जरदारी उतना ही आतंकवाद का मारा है जितना भारत। जरदारी सीधे-सीधे भारत सरकार के सामने झुक नहीं सकता ये उसकी राजनीतिक मजबूरी और कट्टर इस्लामी ताकतों का डर भी है। लेकिन, शायद ये जरदारी का रणनीतिक साथ ही हो सकता है जो, इस समय में भारत को इस मसले पर काफी राहत दे सकता है। जरदारी दबाव में ही सही लेकिन, आतंकवादी संगठनों के ऑफिस पर ताले लगवा रहा है। उन्हें भूमिगत होना पड़ रहा है। अच्छी बात ये है कि इस समय भारत को अमेरिका का रणनीतिक समर्थन भी हासिल है। और, भारत की दुनिया के नक्शे पर बढ़ती ताकत की वजह से दुनिया की दादा संस्थाएं यूनाइटेड नेशंस, सुरक्षा परिषद, वर्ल्ड बैंक, IMF भी भारत की सुन रहे हैं। कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को विपक्ष का भी समर्थन हासिल है। क्योंकि, ताजा चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि आतंकवाद का हल जनता चाहती है इस पर राजनीति तो बिल्कुल भी नहीं।
अब बस मुश्किल एक ही है कि चुनाव का समय नजदीक है। लाख सरकार और विपक्ष संसद मे चिल्लाकर बोल चुके हैं कि सब एक साथ हैं। लेकिन, सभी इसका राजनीतिक फायदा लेना चाहेंगे। सरकार ने अगर थोड़ी कार्रवाई को अपनी कामयाबी के खाते में जोड़कर वोट बटोरने की कोशिश की तो, विपक्ष तुरंत ही सरकार के बहीखाते के आतंकवाद पर नाकामी के किस्सों को मंच से चढ़कर चिल्लाने लगेगा। तब जरदारी को भी राहत मिलेगी, आतंकवादियों को भी फिर से मौका मिलेगा। वैसा ही जैसा हम पिछले बासठ सालों से देते आ रहे हैं।
Subscribe to:
Posts (Atom)
एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी
Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...
-
आप लोगों में से कितने लोगों के यहां बेटियों का पैर छुआ जाता है। यानी, मां-बाप अपनी बेटी से पैर छुआते नहीं हैं। बल्कि, खुद उनका पैर छूते हैं...
-
हमारे यहां बेटी-दामाद का पैर छुआ जाता है। और, उसके मुझे दुष्परिणाम ज्यादा दिख रहे थे। मुझे लगा था कि मैं बेहद परंपरागत ब्राह्मण परिवार से ह...
-
पुरानी कहावतें यूं ही नहीं बनी होतीं। और, समय-समय पर इन कहावतों-मिथकों की प्रासंगिकता गजब साबित होती रहती है। कांग्रेस-यूपीए ने सबको साफ कर ...