देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Wednesday, December 17, 2008
मुंबई में जिंदगी की रफ्तार से तेज दौड़ रही है दहशत
मुंबई में जिंदगी की रफ्तार कुछ ऐसी है कि छोटे शहरों से आया आदमी तो यहां खो जाता है। उसे चक्कर सा आने लगता है। इस रफ्तार को समझकर इसके साथ तो बहुतेरे चल लेते हैं। लेकिन, इस रफ्तार को कोई मात दे देगा ये, मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। पर 16 दिसंबर को रात 8 बजे की करी रोड से थाना की लोकल ट्रेन में सफर के दौरान दहशत मैंने अपने नजदीक से गुजरते देखी।
करी रोड से स्टेशन पहुंचकर रुकी तो, अचानक हवा में कुछ आवाजें सुनाई दीं कि कोई लावारिस बैग पड़ा है। 30 सेकेंड भी नहीं लगे होंगे कि ठसाठस भरी ट्रेन में एक दूसरे के शरीर से चिपककर पिछले 40 मिनट से यात्रा कर रहे यात्री एक दूसरे से छिटककर प्लेटफॉर्म पर पहुंच गए। फर्स्टक्लास का पूरा कंपार्टमेंट खाली हो गया था। शायद ये मुंबई की लोकल में चलने का लोगों का अभ्यास ही था कि लोग क दूसरे से रगड़ते 30 सेकेंड में ट्रेन के डिब्बे से बाहर हो गए और कोई दुर्घटना न हुई।
4-5 मिनट रुकने और पुलिस की जांच के बाद ट्रेन चल दी और फिर ट्रेन में नशे में धुत एक आदमी की इस बात से कि- कौन साला इस मारामारी की जिंदगी को ढोना चाहता है-जब मरना होगा तो, मरेंगे ही। क्या बाहर मौत नहीं है- मुंबई स्पिरिट जिंदा हो गया। डिब्बे में ही खड़े-खड़े ताश की गड्डी भी खुल गई और सब घर भी पहुंच गए। लेकिन, दरअसल आतंक की जमात का काम बिना कुछ किए पूरा हो चुका है। अब मुंबई ऐसे ही चौंक-चौंककर अनदेखी और देखी दहशत से डरेगी।
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ReplyDeleteअब मुंबई ऐसे ही चौंक-चौंककर अनदेखी और देखी दहशत से डरेगी......बहुत ही भयावह स्थिति है ये तो।
ReplyDeleteसर जी आतंक की जख्म खाई मुंबई अब बम की भनक लगते ही सतर्क हो जाते है, यही वजह है के शंका होते ही प्लात्फोर्म में भरभराकर कूद पड़े।
ReplyDeleteजितेन्द्र सिंह
हद है. कोई घबराकर ट्रेन की छत पर नहीं जा चढ़ा?
ReplyDeleteमुंबई (चौंक चौंक कर ही सही) फ़िर से रफ़्तार पकड़ रही है - यह अच्छी बात है, लेकिन मुंबई ही नहीं पूरे हिन्दुस्तान को २६/११ को न भुला कर चौंकना नहीं, चौकन्ना रहना चाहिए.
ReplyDeleteआतंक का साया बहुत दिनों तक पीछा करता है। लेकिन सतर्कता जरूरी है।
ReplyDeleteदूध का जला छाछ को भी फूँक फूँककर पीता है .
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