मेरे शीर्षक का पहला हिस्सा शनिवार को मुंबई के the free press journal की हेडलाइन थी जिस पर मुझे भयानक एतराज है। और, ये एतराज इसलिए भी बढ़ जाता है कि सिर्फ तुक ताल बिठाने के लिए फ्री प्रेस जर्नल ने ये हेडलाइन ठेल दी। वैसे तो, फ्री प्रेस जर्नल कितने लोग पढ़ते हैं इसका मुझे पता नहीं है लेकिन, फिर भी जाहिर है कुछ लोग तो ऐसे होंगे ही जिन्होंने इस हेडलाइन को पढ़कर नवाज शरीफ के साथ गैरशरीफ अंतुले को भी एक खांचे में डाल दिया होगा।
अब जरा एक नजर डालें कि आखिर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और यूपीए सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने क्या ऐसा किया कि मीडिया उनमें समानता खोजने लगा है। ऊपर से तो, दरअसल सिर्फ एक समानता दिखती है वो, ये कि ये दोनों अपने देश की सरकारों को सांसत मे डाल रहे हैं। और, इन दोनों के बयानों से- अंतुले के बयान से पाकिस्तान और शरीफ के बयान से भारत को- पड़ोसी देश को आरोप में मजबूती मिली है और इन दोनों के अपने देश का पक्ष कमजोर हुआ है।
अब सवाल ये है कि दिक्कत क्या है लोकतंत्र है और दोनों देशों में ऐसे सुर रखने वाले लोग हैं ये, क्या कम है। लेकिन, दरअसल सच्चाई बड़ी भयावह है। मैंने पिछले लेख में जब लिखा था कि जरदारी पर भरोसा करने में हर्ज क्या है तो, कई लोगों ने सवाल खड़ा किया था कि जरदारी पर भरोसा हम कैसे कर लें। लेकिन, मैंने उसी लेख के आखिर में चुनाव के समय और अंतुले जैसी जमात का भी जिक्र किया था जो, बासठ सालों से इसी तरह की बेतुकी बयानबाजी से ही अपना दानापानी चला रहे हैं और स्वस्थ मजबूत लोकतंत्र की निशानी मानकर कुछ जनता इनके बकरी से मिमियाने को शेर की दहाड़ और फिर इन्हें सवा सेर बनाती गई।
जब विपक्ष के नेता और हिंदुत्व के पुरोधा कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी और कम्युनिस्ट नेता मोहम्मद सलीम आतंकवाद को देश के खिलाफ जंग मानकर सरकार के साथ बिना किसी शर्त के खड़े थे तो, उस समय अब्दुल रहमान अंतुले को एटीएस चीफ हेमंत करकरे की हत्या मालेगांव धमाकों का सच छिपाने की साजिश के तहत की गई लगने लगी। वो, इतने से ही बस नहीं माने। उन्होंने ये भी कह डाला कि ये हिंदू आतंकवाद का हिस्सा हो सकता है। अंतुले ये बयान तब दे रहे थे जब ये साफ हो चुका है कि कितनी बड़ी साजिश के तहत मुंबई पर हमला पाकिस्तानी जमीन से तैयार हुआ। वो, सारे पाकिस्तानी थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि अब अंतुले इतनी बड़ी बेवकूफी को ढोल पीटकर सच करवा लेना चाहते हैं कि हिंदू आतंकवाद की साजिश का पता न चले इसके लिए पाकिस्तानी मुसलमान आतंकवादी, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और लश्कर जैसे संगठनों ने साजिश रची।
करकरे जिस तरह आतंकवादियों की गोली का निशाना बने उसमें ये साबित हो चुका है कि कोई सामान्य सिपाही भी होते तो, उन्हें आतंकवादियों की गोलियां न पहचानतीं। और, मुझे तो डर लगता है कि कहीं ये कांग्रेस की चुनावी रणनीति का हिस्सा न हो। क्योंकि, हर मोरचे पर पिटती सरकार जब आतंकवाद पर पिटी और उसी के साथ चुनाव हुए तो, जनता ने ये साफ कर दिया कि वो, आतंकवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं लेकिन, इस पर राजनीति वो बर्दाश्त नहीं करेंगे। और, शायद यही वजह थी कि आडवाणी हों या फिर कोई और संसद में सब एकसुर में आतंकवाद को कुचलने के लिए एक साथ तेज आवाज में सरकार के साथ बोले।
लेकिन, अंतुले तब भी अलग बोल रहे थे। वो, कह रहे थे कि नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी और unlawfull prevention act पास हुआ तो, इससे अल्पसंख्यकों के हित मारे जाएंगे। अब जब ये बिल आतंकवाद को कुचलने के लिए है तो, हिंदुस्तानी मुसलमान का हित कैसे मारा जाएगा। अंतुले जैसे लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को किस खांचे में खड़ा करना चाहते हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूं। थोड़ा दबे-दबे में लालू प्रसाद यादव से लेकर दूसरे बासठ सालों से इसी तरह की तुष्टिकरण की राजनीति पर जिंदा लोग भी अंतुले की खिलाफत करने से बच रहे थे।
लेकिन, जब सोनिया गांधी के विश्वस्त कांग्रेसी महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहाकि कि अंतुले ने क्या गलत कह दिया। तब मेरा संदेह और पक्का हो गया कि ये कांग्रेस की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। कांग्रेस कड़ी बयानबाजी और पाकिस्तान के खिलाफ दबाव बनाकर देश को ये संदेश देना चाहती है कि हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए सबसे काबिल हैं। साथ ही अंतुले, दिग्विजय जैसों की फौज अल्पसंख्यक वोट बटोरने के अभियान में लगा दी जिससे मुलायम, माया जैसों का वोट कटे और लोकसभा में कुछ सीटें बढ़ जाएं। विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक तीनों ये मान चुके हैं कि लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का मुद्दा तो नहीं चलेगा।
अंतुले इतने पर भी बस नहीं हुए। अब वो कट्टरपंथी मौलाना की तरह बोलने लगे हैं। उन्होंने कहाकि वक्फ की जमीन अल्लाह की जमीन है और इस पर अगर किसी ने कब्जा किया है तो, उसके खिलाफ जेहाद जायज है। यानी अंतुले गृहयुद्ध की बुनियाद और पुख्ता कर रहे हैं। अब अगर इसकी प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक भी उसी अंदाज में आया तो, हाल क्या होगा। जब मौका था कि मजबूरी में फंसे पाकिस्तान पर दबाव डालकर आतंकवाद की जड़ में मट्ठा डाला जा सकता था। जब मौका था कि भारत-पाकिस्तान को साथ लेकर अपनी तरक्की बेहतर कर लेता तो, अंतुले, दिग्विजय की कांग्रेस अपनी वोटबैंक पॉलिटिक्स को भुनाने में जुट गई है।
नवाज शरीफ अपने देश के राष्ट्रपति के खिलाफ बोले तो, वो सच्चाई है कि मुंबई हमले में पकड़ा गया आतंकवादी अजमल कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट का है। नवाज शरीफ का ये इंटरव्यू जिस पाकिस्तानी जियो न्यूज चैनल पर दिखाया गया उसने वहां के गांव वालों का इंटरव्यू तक प्रसारित किया जिससे ये और पुष्ट होता है। इससे तो, अंतुले का बयान वैसे ही खारिज हो जाता है। लेकिन, अंतुले जैसी राजनीति को पालपोसकर बड़ा करने वाली कांग्रेस अब शायद अंतुले को बुढ़ापे में अपने पुनर्जीवन के लिए इस्तेमाल कर लेना चाहती है। इसीलिए मैं फिर से कह रहा हूं कि खुली आंख से जरदारी, शरीफ पर भरोसा ठीक है। आंखबंदकर देश में बैठे लोगों की कारस्तानियों पर भरोसा ठीक नहीं है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
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सटीक लेख!
ReplyDeleteसटीक छापा !
ReplyDeleteआपने बहुत सही विश्लेषण किया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुंबई हमलों के बाद आतंकवाद को धर्म से अलग करके देखने का जो जन मत बना था उसे विभाजित करने की मुहिम शुरू हो गई है. क्या इसे सिर्फ़ एक संयोग कहा जा सकता है कि इस मुहिम की शुरुआत की है कांग्रेस के एक मंत्री ने. इस आदमी ने अल्पसंख्यक मामलों के विभाग का मंत्री होने के बाबजूद अल्पसंख्यकों के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये. लेकिन उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर रखने का षड़यंत्र फ़िर शुरू कर दिया. कांग्रेस जिस तरह इस मामले पर टाल-मोल की नीति अपना रही है उस से यह लगने लगा है कि अंतुले कांग्रेस के उच्च नेतृत्व के आदेशानुसार ऐसा कर रहा है. मुंबई हमले के बाद भी कांग्रेस अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को त्यागने के लिए ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही है. बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है यह.
ReplyDeleteअंतुले भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य थे, हैं, (पता नहीं कितना) रहेंगे।
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