Wednesday, February 13, 2008

राज की गिरफ्तारी और जमानत के ड्रामे का सच

राज ठाकरे को जमानत मिल गई। अगर किसी ने बुधवार चार बजे के पहले टेलीविजन बंद कर दिया होगा और किसी वजह से सात बजे तक टीवी नहीं देख पाया होगा तो, उसे लगेगा कि राज को जमानत क्यों लेनी पड़ी। जब पिछले 48 घंटों से राज्य सरकार की पूरी मशीनरी और केंद्र की ओर से भेजी गई अतिरिक्त अर्द्धसैनिक बलों की फौज राज के घर का सुरक्षा घेरा प्रधानमंत्री निवास से भी ज्यादा किए हुए थी और गिरफ्तारी नहीं हो पाई तो, फिर ये जमानत का ड्रामा क्या है।

बुधवार शाम चार से सात बजे के बीच की गिरफ्तारी से लेकर जमानत तक का ये ड्रामा महाराष्ट्र की गंध भरी राजनीति की असली कहानी कह देता है। शुरुआत में राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों के खिलाफ गंदगी करने की कोशिश सिर्फ ठाकरे खानदान के वर्चस्व की लड़ाई के तौर पर देखी जा रही थी। लेकिन, अब ये पूरी तरह साफ हो गया है कि मायानगरी में अब तक बनी किसी भी फिल्म से ज्यादा ड्रामे वाली इस पटकथा को राज्य के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और राज्य के वोटविहीन (शायद रियल लाइफ की बांटो-काटो की राजनीति कुछ वोट भीख में दे दे) नेता राज ठाकरे ने मिलकर तैयार किया है। और, पिक्चर अभी खत्म नहीं हुई है। क्योंकि, वोटों के लिहाज से राज ठाकरे को ज्यादा फायदा नहीं होगा। हां, कांग्रेस-एनसीपी के कमजोर, बेतुके शासन को एक और मौका मिलने में ये मदद करेगा।

ये दोनों नेता कितने दोगले हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज की जमानत से से ठीक पहले तक मुख्यमंत्री एक टीवी चैनल पर ये कह रहे थे कि राज्य में सभी की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी है। और, राज ठाकरे की गिरफ्तारी एकदम जायज है। उस समय विक्रोली कोर्ट में महाराष्ट्र पुलिस राज ठाकरे को 12 दिन की न्यायिक हिरासत में लेने का आधार तक नहीं पेश कर पाई। और, मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के कई हिस्सों खासकर नासिक, औरंगाबाद, पुणे में एमएनएस की गुंडागर्दी जमकर चल रही थी। वैसे राज पहले तो दहाड़ रहे थे कि वो जमानत किसी भी कीमत पर नहीं लेंगे फिर धीरे से भीगी बिल्ली की तरह जमानत लेकर निकल आए।


राज को जमानत देते समय अदालत ने जो दो बातें कहीं जरा उसे भी पढ़ लीजिए।
पहला- ‘शहर में शांति का ख्याल रखें’।
क्या, कानून तोड़ने वाले और देश बांटने की कोशिश करने वाले किसी व्यक्ति को इतनी इज्जत दी जा सकती है
दूसरा- ‘पढ़े-लिखे व्यक्ति की तरह व्यवहार करें’। ये एकदम सही सलाह लगी लेकिन, क्या ये बताने की जरूरत है पढ़े-लिखे हैं इसीलिए वो सारी गंदगी सोच-समझकर फैला रहे हैं।


राज के सिर्फ इस कुतर्क पर उन्हें जमानत मिल गई कि उनके बयानों को पूर्ण परिदृश्य में रखे बिना मीडिया ने उसका गलत इस्तेमाल किया। वैसे ऐसे कुतर्कों के साथ राज पहले भी कानून को ठेंगे पर रखते रहे हैं। लेकिन, पुलिस अदालत को ये क्यों नहीं बता पाई कि पिछले दस दिनों में मुंबई एक गुंडा ‘राज’ की बंधक हो गई थी। जबकि, अदालत में चल रही बहस के समय भी राज के गुंडे महाराष्ट्र में गैरमराठियों के लिए दहशत बढ़ाने की कोशिश छोड़ नहीं रहे थे। अब पुलिस अदालत को क्यों ये नहीं बता पाई कि टैक्सियों के तोड़े जाने, लोगों को सड़कों पर, ट्रेन में, बसों में पीटे जाने की तस्वीरें को अब भला किस पूर्णता की जरूरत है। पुलिस चाहती तो, किसी भी टीवी चैनल से वो तस्वीरें लेकर अदालत से गुंडा ‘राज’ की रिमांड ले सकती थी। कल नासिक से जिस तरह से उत्तर भारतीयों के आपात खिड़की से किसी तरह घुसकर नासिक छोड़कर जाने की तस्वीरें थीं वो, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद की ट्रेन की याद दिला रही थीं।

फिर भी अगर देशमुख की पुलिस राज को हिरासत में नहीं रख पाई तो, इसके पीछे ज्यादा कहानी खोजने की जरूरत है क्या। देशमुख ने वोटविहीन नेता को पिछले दस दिनों से सुर्खियों में रखा हुआ है। टैक्सी वालों को पीटने और टैक्सियां तोड़ने की पहली घटना के बाद अगर उस इलाके के थानेदार को ही प्रशासन ने कार्रवाई की छूट दी होती तो, रोनी सूरत वाले गृहमंत्री शिवराज पाटील और गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के मुर्दा वक्तव्य टीवी पर देखने की जरूरत नहीं होती। राज किसी आम गुंडे की तरह जेल की सलाखों के पीछे होता और मीडिया उसकी जमानत या गिरफ्तारी के ड्रामे पर अपना कैमरा न फोकस करता।

एक थानेदार के हाथों खत्म हो जाने वाली गुंडागर्दी पर कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारें 48 घंटों तक आपात बैठक करती रही और गुंडा ‘राज’ मराठियों का सबसे बड़ा नेता बनता गया। राज को जमानत मिलने के बाद जो, लोग टीवी चैनल पर एमएनएस समर्थक के तौर पर नाच रहे थे, भांगड़ा कर रहे थे, उनमें से ज्यादातर 18 साल तक के नहीं थे। जो 18 साल के ऊपर के थे वो, ज्यादातर खाली बैठे लोग थे जो, काम नहीं करना चाहते लेकिन, राज की सेना में शामिल होकर रुआब झाड़ना चाहते हैं।

मराठी माणुस के हितों की रक्षा करने के राज ठाकरे के खोखले दावे के साथ शुरू हुआ गुंडा ‘राज’ एक मराठी माणुस की जान ले चुका है। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में इंजीनियर 52 साल के अंबादास धारराव की राज ठाकरे के भक्तों के पथराव में मौत हो गई। अबंदास की बीवी के मराठी हितों की रक्षा का क्या हुआ। राज ने अदालत में भी मराठी माणुस के हितों की रक्षा करते रहने की प्रतिबद्धता दोहराई है यानी अभी पिक्चर बाकी है तो, अभी कितनी जानें जाएंगी, फिर वो मराठी माणुस की हों या फिर उत्तर भारतीयों की।

8 comments:

  1. राजनेताओं को जेल में न रखना भी खतरनाक है, और जेल में रखा भी जाये तो वो शहीद बनकर और भी ज्यादा पाप्युलर हो जाते हैं. इनका क्या करें?

    ये ऐसी बीमारी हैं जो छुड़ाये न छूटे.

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  2. सही लिखा, बंधु..

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  3. आप तो पक्के राजनीतिक विश्लेषक हैं.

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  4. आप का विश्लेषण सही है। मगर इस समय दो मूल समस्याओं की बात कोई नहीं कर रहा है। (1) आबादी विस्फोट (2) बेरोजगारी
    असल समस्याएं तो ये हैं। जब कोई भी व्यवस्था इन पर काबू पाने में असमर्थ होती है तो फिर राज जैसे नेताओं को पैदा करती है। ताकि जनता इन्हें याद रखे और मूल समस्याओं को भूल जाए।

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  5. मराठी मध्यवर्ग और उत्तरभारतीय मेहनतकश में क्लैश-ऑफ़ इण्टरेस्ट नहीं है। उत्तरभारतीय नेता बम्बई में राजनीति न करें और राज ठाकरे को इग्नोर किया जाये तो समस्या हल हो सकती है।

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  6. इस पूरे नाटक में जहाँ महाराष्ट्र सरकार की भूमिका संदिग्ध थी वही मीडिया की भूमिका भी बेहद नकारात्मक रही . सभी टीवी चैनल पूरे दिन केवल मनसे कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी ही दिखाते रहे और उन्हें वो प्रचार देते रहे जिसके लिए उन्होने ये सारा नाटक शुरू किया था (पत्रकारों को खबर करके अमिताभ बच्चन के घर में बोतल फेकना इसे साबित करता है). यदि मीडिया इसे गली मोहल्ले के गुंडों की गुंडागर्दी के तौर पे ही पेश करता (जो की सच भी था) और इसे ज्यादा तवज्जो न देता तो ये सारा प्रकरण सीमित समय में स्वयम ही समाप्त हो जाता.
    मीडिया इस बात को समझने में विफल रहा है कि प्रचार चाहे नकारात्मक ही क्यों न हो आज तमाम लोगों के लिए वांछनीय हो गया है और वे मीडिया को सिर्फ इस्तेमाल करते है.
    आतिशबाजी किसी की रोजी हो सकती है, किसी का शगल और कुछ का मनोरंजन लेकिन मत भूलिए की वह सारे गाँव में आग भी लगा सकती है .
    हमारे टीवी चैनल TRP के मायाजाल में इस कदर फँस चुके है कि न तो उन्हें पत्रकारिता के उसूलों से कोई सरोकार बचा है न ही सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास बाकी रहा है. लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी अब शायद जंग खाने लगा है.

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