Friday, January 18, 2008

अच्छा हुआ एनडीटीवी में दिबांग की हैसियत कम हो गई

कुछ महीने पहले जब ये खबर आई थी कि एनडीटीवी में दिबांग की पहले जैसी हैसियत नहीं रह गई। मेरे एक मित्र ने दिल्ली से मुझे फोन करके बताया कि किन्हीं कारणों से दिबांग से मैनेजिंग एडिटर के सारे अधिकार छीन लिए गए। जैसा मुझे पता चला कि एनडीटीवी में एक मेल के जरिए स्टाफ को बताया गया कि दिबांग अब संपादकीय फैसले नहीं लेंगे। ये फैसला लेने का अधिकार मनीष कुमार और संजय अहिरवाल को दे दिया गया है। पता नहीं ये बात कितनी सच है।

इसके बाद इसे एनडीटीवी में दिबांग युग के अंत बताया गया। कुछ लोगों ने तो दिबांग कौन से चैनल में जा रहे हैं या फिर दिबांग खुद नया चैनल लेकर आ रहे हैं जैसी खबरें भी बाजार में उड़ा दीं। दिबांग को लेकर मेरी भी व्यक्तिगत राय बहुत अच्छी नहीं थी। जितना लोगों से सुना था मेरे दिमाग में था कि दिबांग संपादकी कम तानाशाही ज्यादा चलाते थे। मेरी भी दिबांग के बारे में अच्छी राय नहीं थी। और, ये राय मैंने अपने बेहद निजी स्वार्थ में बनाई थी। एक बार काफी पहले नौकरी के लिए मैंने नंबर जुटाकर दिबांग को फोन किया लेकिन, दिबांग के खराब रिस्पांस के बाद मैं भी इस बात का जाने-अनजाने समर्थक हो गया कि दिबांग खड़ूस किस्म के संपादक हैं। इसीलिए मुझे भी लगा कि चलो ठीक ही हुआ।

मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि दिबांग त्रिवेणी के हेड होकर जा रहे हैं तो, दूसरे किसी ने बताया कि जी न्यूज के एडिटर के तौर पर दिबांग का नाम पूरी तरह से फाइनल हो गया है। लेकिन, हर बार जब मैं टीवी खोलता था तो, दिबांग के मुकाबला का प्रोमो एनडीटीवी इंडिया पर दिख ही जाता था। कहा ये गया कि दिबांग को निकाला नहीं गया है। उनसे एनडीटीवी के मैनेजमेंट ने कहा है कि वो अपना शो मुकाबला करें और जो, चाहें वो कर सकते हैं लेकिन, संपादकीय फैसलों में दखल न दें।

किसी संपादक को संपादकीय फैसलों से बाहर निकालकर ये कहा जाना कि आप अपना शो देखिए और जो चाहें वो रिपोर्टिंग कर सकते हैं। इसे संपादक की छुट्टी के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है। पता नहीं हो सकता है कि वो दिबांग की मजबूरी ही रही हो कि वो कहीं और छोड़कर नहीं गए। लेकिन, इसी वजह से वो बात हुई जिससे मैं प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। दिबांग ने इस मौके का भी पूरा फायदा उठाया और अपने को उस तरह से साबित किया जैसे कोई भी रिपोर्टर नई जगह पर अपने को साबित करता है।

दिबांग के मुकाबला शो की अपनी अलग तरह की पहचान है। जैसे संपादकों के शो होते है, वैसा ही बड़ा शो है। इसलिए इस बारे में कुछ भी कहने का बहुत मतलब नहीं है। लेकिन, दिबांग ने विदर्भ और बुंदेलखंड पर जो, खास खबरों की खबर किया वो, ये बताने के लिए काफी है कि दिबांग अपने संपादक रहते एनडीटीवी के रिपोर्टर्स से जो उम्मीद रखते थे वो, बेवजह नहीं थी। और, अगर कोई संपादक खुद इस स्तर की रिपोर्टिंग कर सकता है तो, उसे पूरा हक है कि वो अपने रिपोर्टर्स से उसी तरह के काम की उम्मीद करे। अच्छा है कि इसी बहाने दिबांग से देश भर से ऐसी रिपोर्ट बना रहे हैं जो, नए-पुराने पत्रकारों के लिए सबक हो सकती है।

दिबांग जिस तरह से रिपोर्टिंग कर रहे हैं उससे मुझे लगता है कि अच्छा हुआ एनडीटीवी में दिबांग की हैसियत कम हो गई। इससे नए पत्रकारों को कम से कम इस बात का अहसास तो होगा कि कोई भी व्यक्ति कितनी काबिलियत के बाद ही संपादक की कुर्सी तक पहुंचता है। वरना तो होता ये है कि कितना भी लायक संपादक हो उसके नीचे या उसके साथ काम करने वालों को कुछ ही दिन में ये लगने लगता है कि इतने लायक तो वो भी हैं। संपादक तो बेवजह कुर्सी पर बैठा ज्ञान पेलता रहता है।

3 comments:

  1. दिबांग अपने संपादक रहते एनडीटीवी के रिपोर्टर्स से जो उम्मीद रखते थे वो, बेवजह नहीं थी। और, अगर कोई संपादक खुद इस स्तर की रिपोर्टिंग कर सकता है तो, उसे पूरा हक है कि वो अपने रिपोर्टर्स से उसी तरह के काम की उम्मीद करे। अच्छा है कि इसी बहाने दिबांग से देश भर से ऐसी रिपोर्ट बना रहे हैं जो, नए-पुराने पत्रकारों के लिए सबक हो सकती है।
    waise hum ye TV to nahi dekh paate, lekin aapki baat dekh kar lagta hai ki kam se kam reporter ab thora kuch to seekh lenge.

    Nahi to zee tv ki news me jo reporter dekhta hoon unko dekh ke to yehi lagta hai, koi bhi ye kaam kar sakta. Hamesha unhe shabdo ki samasya rehti hai.

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  2. मुआफ़ कीजिएगा इस संदर्भ में न कहकर अलग ही बात कहने जा रहा हूं पर इतने सारे खबरी चैनल और उनके रिपोर्टर्स को देखने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि एनडीटीवी और स्टार के रिपोर्टर्स की तुलना में जी टी वी,इंडिया टी वी सहारा समय आदि अन्य चैनलों के रिपोर्टस नौसिखिए से ही लगते हैं।

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  3. Anonymous6:40 PM

    सच बात तो यह है की जबसे पत्रकारिता के धुआं धार कोर्स शुरू हुए है और जब से खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आई है रिपोर्टिंग का स्तर बहुत गिर गया है . नए रिपोर्टरों को शब्दों के लिए भटकते, गलत शब्द चयन करते, एक ही बात को दोहराते, और अंत में अंग्रेज़ी के शरण में जाते देख खीझ और झुंझलाहट में चैनल बदलने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता .
    ये बात सहारा के नए चैनल के एडिटर इन चीफ पुण्य प्रसून के साथ भी सही बैठती है . मैं समझ नहीं पाता कि शब्द कोष के मामले में अकिंचन व्यक्ति मीडिया में इतने ऊँचे स्तर तक कैसे पहुँच जाते हैं .
    जहाँ तक बात नए रिपोर्टरों कि है वे तो इसे सिर्फ एक नौकरी समझकर फर्ज पूरा करते से लगते है. न तो पुस्कालय, किताबों, पढ़ने - लिखने में उनकी रूचि है (जो कि इस पेशे में सबसे ज्यादा जरूरी है) न ही कोई पेशेवर नाता . खबरिया चैनल अब मनोहर कहानियाँ और सत्यकथा का दूरदर्शनी संस्करण बनकर रह गए हैं (NDTV इसका अपवाद है).

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