50 साल का हो गया इलाहाबाद का कॉफी हाउस
इलाहाबाद का कॉफी हाउस। शहर के सबसे पॉश इलाके सिविल लाइंस में रेलवे के नजदीक बसा ये कॉफी हाउस इलाहाबाद की खास संस्कृति का वाहक, पहचान रहा है। ये खास पहचान थी, इलाहाबाद की कला साहित्य, संस्कृति, आंदोलन और राजनीति में खास भूमिका की। वो, भूमिका जो, याद दिलाती है कला, साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद की अगुवाई की। माना ही ये जाता है कि कोई इस शहर से गुजर भी गया तो, साहित्य, संस्कृति और राजनीति के दांव-पेंच से अछूता, अपरिचित तो रह ही नहीं सकता।
एक जमाने में मशहूर प्रकाशन लोकभारती, नीलाभ, हंस, शारदा, अनादि, परिमल इलाहाबाद शहर में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से निकली साहित्यकारों से निकली टोली का जमावड़ा यहां होता था। अस्सी के दशक तक इलाहाबाद का कॉफी हाउस देश की राजनीति और साहित्य में सबसे ज्यादा प्रासंगिक था। यहां के सफेद फीते वाली ड्रेस में सजे सिर पर लाल फीत वाली लटकती टोपी को सिर पर सजाए बेयरे पूरी अंग्रेजी नफासत के साथ लोगों को कॉफी सर्व करते थे। और, बेहद पुरानी स्टाइल की चौकोर मेज के चारों तरफ राजनीति और साहित्य के साथ देश की दशा-दिशा पर जोरदार बहस यहां किसी भी समय सुनने को मिल जाती थी।
राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता और हेमवती नंदन बहुगुणा यहां राजनीतिक गुणा-गणित का हिसाब लगा रहे होते थे तो, इसी कॉफी हाउस में फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा जैसे देश के दिग्गज साहित्यकारों का दरबार लगा रहता था। और, इनकी बहसों से निकलने वाली बातें इलाहाबाद के आम लोगों की चर्चा मे अनायास ही शामिल हो जाती थीं। उपेंद्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे लोगों की चर्चा में लोगों की इनकी अगली कहानी के प्लॉट मिलते थे। कमलेश्वर जब भी इलाहाबाद में होते थे, कॉफी हाउस जरूर जाते थे। दूधनाथ सिंह तो, अब भी इलाहाबाद में कॉफी हाउस में कभी-गोल जमाए मिल सकते हैं।
लेकिन, आज 50 साल बाद शहर की इस खास पहचान के बारे में शहर के लोगों को भी बहुत कुछ खास पता नहीं रह गया है। यहां तक कि हाल ये है कि कला, साहित्य, संस्कृति, आंदोलन और राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाला कॉफी हाउस में अब चंद ही ऐसी रुचि के लोग मिलते हैं। अब ज्यादातर समय इस कॉफी हाउस में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ वकील, कुछ पुराने नेता, कुछ ऐसे बुजुर्ग जो, पुराने दिन याद करने चले आते हैं या फिर कुछ ऐसे लोग जो, कॉफी हाउस में बैठने की बस परंपरा निभाने के लिए ही बने हैं यानी एकदम खाली हैं।
कमाल तो है कि इलाहाबाद के इंडियन कॉफी हाउस के सामने सड़क पर अंबर कैफे खुला। ये कैफे खुला तो था सड़क पर अपना धंधा जमाने के लिए। लेकिन, कॉफी हाउस के सामने सड़क पर इसका खुलना ऐसा हो गया है कि नए जमाने के लड़के-लड़कयों को तो शायद ही अब असली कॉफी हाउस का पता होगा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराने-नए नेताओं का जमावड़ा भी इसी अंबर कैफे पर ही होता है। लेकिन, कॉफी हाउस की पुरानी पहचान आज भी शहर के लोगों को रोमांचित करती है। इलाहाबाद के कॉफी हाउस से जुड़ी बहुत कम बातों की जानकारी के लिए मुझे माफ करिएगा। और, अगर इलाहाबाद में पुराने दौर से जुड़ा आपमें से कोई इस कॉफी हाउस से जुड़े कुछ और रोचक या जानकारी बढ़ाने वाली बात जोड़ सके तो, स्वागत है।
पुरानी बाते हमेशा रोमाँचित कर जाती हैं.
ReplyDeleteवर्तमान दौर में भी मैं कॉफी हाउस ही जानता हूं। अम्बर कैफे तो कभी गया नहीं। कॉफी हाउस पर दो पोस्टें भी हैं मेरे ब्लॉग पर।
ReplyDeleteज्ञानजी
ReplyDeleteमैं इलाहाबाद के नए लड़के-लड़कियों की बात कर रहा था। आप तो, पुराने जमाने की विद्वत परिषद के ही हुए ना।