Wednesday, June 06, 2007

माया, शीला, वसुंधरा, हुड्डा को नोटिस क्यों नहीं?

सोमवार के दिल्ली बंद को सुप्रीमकोर्ट ने राष्ट्रीय शर्म कहा है। और, इसी पर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के साथ ही राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की डीजीपी से जवाब भी मांगा है कि वो लगातार बवाल होने के बाद भी मूकदर्शक कैसे बने रहे। किसी को भी परेशानी को आम जनता के लिए और परेशानी बना देने की राजनीतिज्ञों की अद्भुत कला के बीच अब जनता को अदालतें ही एकमात्र आशा की किरण दिखती हैं। इसलिए सुप्रीमकोर्ट की नोटिस से ऐसे लोग जरूर खुश हुए होंगे। लेकिन, क्या खुद को और निचली श्रेणी में आरक्षण देने की मांग को लेकर कोई एक जाति विशेष राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश यानी चार राज्यों की जनता को दहशत में डालने का हक रखती है। और, इस पर वहां की सरकारें क्या कर रही थीं। सब जानते हैं कि कानून-व्यवस्था भले ही पुलिस चलाती हो लेकिन, इसका पूरा नियंत्रण सरकारों के ही पास होता है फिर सुप्रीमकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरियाणा के मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुड्डा और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को सीधे अदालत में क्यों नहीं बुलाया।
दरअसल यही वो रास्ता है जिसके राजनेता अपना दामन बचा लेते हैं औऱ उनकी राजनीति जनता को भारी पड़ती रहती है। जहां तक राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बात है तो, उनकी तो बात ही करना बेकार है क्योंकि, इन्हीं वसुंधरा माता ने राजस्थान को इस आग में झोंका है। और, कमाल की बेशर्मी तो ये है कि वसुंधरा ने गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला के साथ फिर से 2003 जैसे ही गंदे फॉर्मूले पर समझौता किया है। यानी गुर्जर एसटी हैं या नहीं ये जानने के लिए कमेटी बनाओ और तीन महीने बाद जो होगा देखा जाएगा। झूठा आश्वासन और मामले को तब तक टालो जब तक वो गले की हड्डी न बन जाए। ये हिम्मत वसुंधरा माता ने तब दिखाई है जब इसी चक्कर में पड़कर एक हफ्ते वो अपने राजमहल से बाहर नहीं निकल सकीं थीं। समझ में नहीं आता कि जब 1981 में कांग्रेसी के शिवचरण माथुर की अगुवाई में बनी कमेटी ने ये साफ कर दिया था कि गुर्जरों को एसटी में नहीं डाला जा सकता। संविधान में एसटी बनने के लिए तय किसी भी शर्त को गुर्जर पूरा नहीं करते फिर दुबारा ये कमेटी क्यों बनाई गई जब आरक्षण खत्म करने के लए कमेटी बनाने की शुरुआत होनी चाहिए थी। तो, फिर ऐसी गंदी राजनीति करने के लिए वसुंधरा को अदालत का सम्मन क्यों नहीं गया।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित वही हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले ही ओछा बयान दिया था कि यूपी-बिहार के लोग दिल्ली पर बोझ बन गए हैं। फिर इनके शासन में किसी दूसरे राज्य में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जरों को दिल्ली बंद की इजाजत कैसे मिल गई। मौका था कि दिल्ली बंद को पूरी तरह से विफल करके जाति के नाम पर आंदोलन करने वालों को संदेश दिया जाता कि ये अब नहीं होने वाला। यही हाल हरियाणा के मुख्यमंत्री का रहा। रिलायंस के SEZ के लिए किसानों से जबरदस्ती जमीन लेने में मुख्यमंत्री ने शासन-प्रशासन का पूरा इस्तेमाल कर डाला है। लेकिन, जब गुर्जरों ने फरीदाबाद और राज्य के दूसरे इलाकों में कानून अपने हाथ में लिया तो, मुख्यमंत्री हुड्डा को राजनीति याद आ गई और उन्होंने जनता को गुर्जरों के गुस्से के हवाले छोड़ दिया। फिर इन दोनों गुनहगारों को सुप्रीमकोर्ट ने कैसे बख्श दिय। कम से कम एक फेयर ट्रायल तो होना ही चाहिए था।

लेकिन, सबसे बड़ी गुनहगार हैं उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती। मायावती को सत्ता मिली तो, एक बात जो पूरा मीडिया जोर-शोर से चिल्ला रहा था और जिस पर लोग भरोसा करना शुरू कर रहे थे, कि अब राज्य में गुंडई नहीं होने पाएगी। ऊपर के तीन मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक मजबूरियां भी थीं। और, नेता सबसे ज्यादा इसी मजबूरी से बंधा होता है। लेकिन, मायावती के साथ ऐसा भी कुछ नहीं था। न तो, राज्य में गुर्जर इतने बड़े वोट बैंक थे कि कुछ नुकसान होता और नही राज्य में एक साल बाद चुनाव की मजबूरी थी। इसके बावजूद मायावती के राज से गुजरने वाली ट्रेनों पर गुर्जरों को कब्जे की इजाजत कैसे दे दी गई। ये कब्जा भी ऐसा था कि मथुरा में ट्रेन के एसी कोच में चार घंटे तक तोड़फोड़ होती रही और प्रशासन वहां पहुंच ही नहीं पाया। ये हाल उस दिन का था जिस दिन देर शाम तक गुर्जरों ने आंदोलन (आंदोलन इसे मानें तो, वैसे ये सीधे-सीधे गुंडई ही थी)वापस ले लिया था।

इसके पहले राजस्थान से निकली आग सबसे पहले पड़ोसी राज्यों में उत्तर प्रदेश में ही पहुंची थी और इस पर मायावती का सख्त प्रशासन कुछ नहीं कर पाया। मेरठ, हापुड़, आगरा, मथुरा, दादरी में राजस्थान के गुर्जरों को एसटी बनाने के समर्थन में यहां के गुर्जरों ने हंगामा कर रखा। कहीं-कहीं तो, राजस्थान से भी ज्यादा। मायावती को एक मौका मिला था पांच साल के लिए बहुमत मिला था। वो चाहतीं तो, ये सिद्ध कर सकती थीं कि अगले पांच साल तक उत्तर प्रदेश में जाति के नाम पर किसी तरह की राजनीति नहीं होने दी जाएगी। लेकिन, शायद यही राजनीति का तकाजा है कि मौका होने पर भी चुप बैठो जिससे आग भड़के और आग भड़क जाने पर मजबूरी का हवाला देकर उस आग में लोगों को जल जाने दो। इसलिए सुप्रीमकोर्ट को चाहिए यही था कि जैसे स्वविवेक के आधार पर पुलिस प्रमुखों को नोटिस भेजा गया। वैसे ही इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अदालत में बुलाकर इनका ट्रायल किया जाता।

1 comment:

  1. बिल्कुल सही कह रहे हें आप ।
    घुघूती बासूती

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