हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi
भारत के कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने हाल के दिनों में लगातार कई ऐसे बयान दिए, जिससे यह प्रश्न गंभीरता से फिर से लोगों के सामने आ गया है कि, क्या भारत की स्वतंत्रता के साथ ही भारत की प्रथम सरकार ने महत्वपूर्ण मुद्दों पर कठोरता से निर्णय लिया होता तो देश का आज का चित्र कुछ अलग होता। देश के लिए नासूर बन चुकी कई समस्याएँ शायद होती हीं नहीं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर जम्मू कश्मीर लद्दाख में अनुच्छेद 370 लगाकर विशेष दर्जा देने को लेकर भारतीय जनता पार्टी हमेशा आक्रामक रहती है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने कड़ा निर्णय लेकर अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया है। और, अब भारतीय जनता पार्टी के मंत्री, नेता इसे लेकर अधिक आक्रामक रहते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि, भारत की स्वतंत्रता के साथ ही देश के उन मुद्दों पर बात की जाए, जिन्हें संविधान बनाते समय ही सुलझाया जा सकता था। संविधान में उन मुद्दों पर अधिक स्पष्टता से बात सामने आ जाती तो बाद में उसकी अलग-अलग व्याख्या के आधार पर विभाजन, अलगाव, विवाद की स्थिति नहीं बनती।
भारतीय संविधान में सत्ता के केंद्रीकरण को महत्व दिया गया। संयुक्त प्रांत के आर वी धुलेकर ने संविधान सभा की चर्चा में कहा था कि, अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के हाथ में होंगी, यह बहुत अच्छा है। आरंभ में शब्द यह है, भारत एक संघ रहेगा। इसका अर्थ यह है कि, हमारे यहाँ शक्तिशाली केंद्र होगा और भारत सदा अविभक्त और प्रबल रहेगा। एक देश के तौर पर भारत की एकता, अखंडता, संप्रभुता अक्षुण्ण रखने के लिए केंद्र का शक्तिशाली होना आवश्यक था और है, लेकिन केंद्र के शक्तिशाली होने के प्रावधानों का दुरुपयोग इंदिरा गांधी ने स्वयं को शक्तिशाली बनाने के तौर पर कर लिया और संविधान के तहत मिली शक्तियों का दुरुपयोग करके देश में आपातकाल लगा दिया। इसकी आशंका संविधान सभा की चर्चा में संयुक्त प्रांत के नेता कमलापति त्रिपाठी ने जताई थी। उन्होंने कहा था कि, अत्यंत मौलिक दोष इस संविधान का अत्यंत प्रचंड और घोर केंद्रित स्वरूप है। मुझे ऐसा लगता है कि, केंद्रीकरण व्यवस्था अनिवार्यत: उन प्रवृत्तियों को उत्पन्न करती है, जो भयावह हो सकती है। कमलापति त्रिपाठी की आशंकाओं को इंदिरा गांधी ने सच कर दिखाया। अच्छी बात यह रही कि, आपातकाल से हमने सबक सीखा और, 44वें संविधान संशोधन के ज़रिये आपातकाल की छह महीने में संसद से समीक्षा आवश्यक कर दिया। अब किसी भी तानाशाही के निर्णय को उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। संविधान में राज्य और केंद्र के संबंधों को लेकर भी स्पष्टता नहीं है। विशेषकर वित्तीय प्रबंधन और वित्तीय योजना के मामले में अधिकतर केंद्र और राज्य के बीच विवाद की स्थिति बनी रहती है। आज भी भारत सरकार और राज्यों के बीच राज्यों का बकाया वापस मिलने को लेकर संघर्ष की स्थिति बनती है और कई बार तो यह अप्रिय घटनाक्रम में बदल जाती है, जिसकी दुष्प्रभाव राज्य में जनता के लिए लागू की जाने वाली योजनाओं पर पड़ता है।
भारतीय संविधान में भाषा के प्रश्न पर एकमत नहीं बन पाया था। संयुक्त प्रांत के आर वी धुलेकर संविधान सभा की चर्चा में कहते हैं कि, हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा स्वीकार कर लिया गया है। कुछ लोग कह सकते हैं कि, पंद्रह वर्ष अंग्रेजी का शासन रहेगा। दूसरे कहते हैं कि, अन्याय हुआ है, क्योंकि हिन्दी भाषा को आज से लागू नहीं किया गया। किंतु मैं कहता हूँ कि, अंग्रेज भारत में दो सौ वर्ष से भी अधिक रहे, परंतु उन्हें भारत से जाना पड़ा। इसी प्रकार मैं अपने सब मित्रों को, हिन्दी प्रेमियों को आश्वासन देना चाहता हूँ कि अंग्रेजी भाषा भी एक दो वर्ष में ही भारत से चली जाएगी और पाँच वर्ष पश्चात अंग्रेजी में लिखा कोई पत्र गाँव देहातों में पढ़वाना मुश्किल हो जाएगा। हालाँकि, उसी संविधान सभा में भाषा को लेकर जिस तरह की तीखी प्रतिक्रिया और आशंका कमलापति त्रिपाठी ने जताई थी, वह आज भी सच साबित हो रही है। भाषा के नाम पर संघर्ष की राजनीति चरम पर है। कमलापति त्रिपाठी ने कहा था कि, भाषा संस्कृति का आधार होती है और संस्कृति राष्ट्रों के इतिहास और उनके जीवन और उनके उत्थान और विकास का आधार हुआ करती है। हमने इस बात पर ध्यान न दिया और आज भी विदेशी भाषा अपनाए रहे। भारत के पास और कुछ रहा हो या न रहा हो, लेकिन भाषा और लिपि के क्षेत्र में हमारा यह देश कभी दरिद्र नहीं रहा। इतिहास साक्षी है कि, समस्त एशियाई देशों ने हमारी लिपि का सहारा लेकर अपनी लिपि का निर्माण किया है। हमारी भाषा में ऐसा ऊँचा वांगमय है जिसके आगे समस्य संसार नतमस्तक है। कितनी लज्जा की बात है कि, हमारे देश का संविधान जिसे हम प्रमाणिकता देने जा रहे हैं, वह भी एक विदेशी भाषा में लिखा हुआ है। भाषा के प्रश्न को जिस तरह से टाल दिया गया, उसका दुष्परिणाम आज देखने को मिल रहा है कि, स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों के बाद जब मध्य प्रदेश में चिकित्सा शिक्षा के लिए हिन्दी में पाठ्यक्रम शुरू किया गया तो उस पर अंग्रेजीदां टिप्पणियाँ आ रही हैं। मजाक बनाया जा रहा है। अच्छी बात है कि, मोदी सरकार में गृह मंत्री अमित शाह ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं को लेकर समग्र दृष्टि के साथ आगे बढ़ना तय किया है। चेन्नई में जाकर अमित शाह मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को तमिल भाषा में तकनीकी पाठ्यक्रम शुरू करने को कहते हैं तो उनके पास हिन्दी विरोध का आधार नहीं रह जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा के प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन संविधान में शुरू से ही भाषा की स्थिति स्पष्ट हो जाती तो शुरुआती पाँच दस वर्ष भले मुश्किलें आतीं, लेकिन आज देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को यह न कहना पड़ता कि, देश के लोगों न्याय कैसे मिल सकता है जब न्यायालय के निर्णय की भाषा उन्हें समझ नहीं आती। अच्छी बात है कि, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय भाषा के महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए गंभीर है।
संविधान सभा पर चर्चा के दौरान बिहार से सदस्य दीप नारायण सिंह ने कहा था कि, इस संविधान में गाँवों की प्रधानता तो अलग रही, उसका कोई स्थान भी नहीं है। गाँवों की रूपरेखा क्या होगी, गाँवों का स्थान भविष्य में क्या होगा, इस तरफ हमारा संविधान चुप है। गाँवों को ही आधार मानकर निर्माण की सभी योजनाओं को बनाना होगा, चाहे उनका संबंध शासन से हो या दूसरे कामों से। हम ऐसा न कर सके तो हम अपने देश का पिछला दुखदपूर्ण इतिहास दोहराएँगे। यह चेतावनी, आशंका बहुत हद तक सही साबित हुई। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में पंचायतों के गठन का निर्देश राज्यों को दिया गया है, लेकिन 73वें संविधान संशोधन विधेयक, 1992 के जरिये 1993 में पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दी जा सकी। अभी सरकारी योजनाओं में गाँवों को प्राथमिकता मिलने लगी है, लेकिन गाँवों के समग्र विकास की लंबी यात्रा तय होना बाकी है।
भारतीय संविधान के मौलिक दोषों में एक यह भी लगता है कि, भारतवर्ष के मूल, हमारी पुरातन व्यवस्था से हमने कुछ नहीं लिया, विश्व के अलग-अलग देशों के संविधान से लिया जबकि, हमारा गणतंत्र पुरातन, परिपक्व और भारतीय संस्कृति के अनुरूप रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी इसका जिक्र करना शुरू किया है कि, भारत विश्व का सबसे बड़ा ही नहीं सबसे पुराना लोकतंत्र भी है। इसे संविधान सभा की चर्चा में कमलापति त्रिपाठी ने भी कहा था कि, इतिहास साक्षी है कि, हमारा देश वह भूमि है, जहां सर्वप्रथम यदि विशुद्ध लोकतंत्र नहीं तो बहुतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। जिस समय सिकंदर ने आक्रमण किया, उस युग में भी भारत के पश्चिम में समस्त पांचाल भूमि गणतंत्रों से भरी हुई थी। बुद्ध की जन्मस्थली कपिलवस्तु भी गणतंत्र था। लिच्छवियों का एक बड़ा गणतंत्र था। महाभारत में महर्षि वेदव्यास ने जो कुछ भीष्म के मुँह से कहलवाया, पूरा संविधान है, पूरी राजनीतिक विचारधारा है। इसलिए आवश्यक है कि, संविधान दिवस पर एक बार नये सिरे से संविधान को मौलिक दोषों की चर्चा और उसके निवारण पर बात की जाए।
(यह लेख 20 नवंबर 2022 को दैनिक जागरण में छपा है)
सही है, संविधान को देश की आशाओंके अनुरूप होना चाहिए
ReplyDeleteचिंतन परक विषय।
ReplyDeleteसार्थक विचार।