भला ऐसा
भी कभी होता है कि भाई के लिए कोई अपने बेटे का ही राजनीतिक भविष्य चौपट करने पर
तुल जाए। वो भी ऐसा भाई जिसकी छवि बहुत अच्छी न हो, उस पर अच्छी छवि वाले बेटे की
बलि चढ़ाने की कोशिश करे। लेकिन, जब राजनीति में कुछ इस तरह का हो, तो इसके मायने
ठीक से समझने की जरूरत बन जाती है। इसीलिए मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की इस
लड़ाई को सलीके से समझने की जरूरत दिखती है। दरअसल मुलायम सिंह यादव और अखिलेश
यादव एक दूसरे से लड़ने से ज्यादा अपनी-अपनी हासिल की गई जमीन को बचाने की लड़ाई
लड़ रहे हैं। और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और जातियों में गजब तरीके से बंटे राज्य
में जमीन बचाने की लड़ाई इतनी कठिन है कि
लग रहा है कि बेटा-बाप एक दूसरे के खिलाफ तलवार भांज रहे हैं। दरअसल इस तलवारबाजी
के पीछे एक दूसरे का नुकसान करने से ज्यादा बाप-बेटे की चिंता इस बात की है कि
दोनों की जमीन बची रह जाए और समाजवादी पार्टी से छिटककर दूसरी पार्टियों को जाने
वाले वोट थम जाएं।
पहले
बात करते हैं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बगावती तेवर के पीछे के राजनीतिक गणित की।
2012 में समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रही और भले ही
मुलायम सिंह यादव ये कहें कि जनादेश उनके नाम पर मिला था। लेकिन, सच्चाई ये भी है
कि अखिलेश यादव को नौजवानों ने वोट दिया था। इसको पुख्ता करता है समाजवादी पार्टी
को मिला मत। आमतौर पर सामान्य धारणा यही रही कि उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों ने
बहनजी को छोड़ दिया और वापस बीजेपी की तरफ चले गए। लेकिन, सच्चाई ये है कि बीएसपी और
समाजवादी पार्टी दोनों को ही 2012 में ब्राह्मण और राजपूतों के मत 2007 से ज्यादा
मिले हैं। 2007 में पड़े हर 100 ब्राह्मण मतों में से बहुजन समाज पार्टी को 16 मत
मिले थे। जबकि, 2012 में 100 में से 19 ब्राह्मण मत हाथी चुनाव चिन्ह पर पड़े थे।
और यही ट्रेंड राजपूत और वैश्य मतों में भी बरकरार रहा। हर पड़े 100 मतों में 12
से बढ़कर 14 और वैश्य मत 14 से बढ़कर 15 बीएसपी के खाते में आ गए। इसी तरह
समाजवादी पार्टी को हर 100 ब्राह्मण मतों में से 10 मत 2007 में मिले, जो 2012 में
बढ़कर 19 मत हो गए। और राजपूतों के भी 2007 में मिले 20 मत 2012 में बढ़कर 26 हो
गए। दरअसल यही वो मत हैं, जिन्हें बीजेपी में जाने से रोकने के लिए अखिलेश यादव
पिता-चाचा के खिलाफ बगावती तेवर अपनाए हुए हैं। क्योंकि, ये मत मुलायम सिंह यादव
और शिवपाल यादव के नाम पर कतई नहीं मिलने वाले। और, इसीलिए अखिलेश यादव इस लड़ाई
में कमजोर पड़ते दिखे, तो सवर्ण मत पूरी तरह से भागकर बीजेपी में वापस जा सकते
हैं।
ग्राफिक्स
– स्रोत- सीएसडीएस
एसपी-
कुल डाले गए वोटों में पार्टी की हिस्सेदारी
जाति 2007 2012
ब्राह्मण 10 19
राजपूत 20 26
मामला
सिर्फ सवर्ण मतों का ही नहीं है। दूसरी सामान्य धारणा ये है कि यादव किसी भी हाल
में अपने नेता यानी मुलायम सिंह यादव से दूर नहीं जाता है। इसीलिए जब 2012 में
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, तो ये
माना गया कि यादवों का पूरा ही मतदान एसपी के पक्ष में हुआ। लेकिन, सच ये है कि
यादवों के भरोसे तो अखिलेश यादव की पूर्ण बहुमत की सरकार कतई न बनती। क्योंकि,
2007 में 100 में से 72 यादवों ने समाजवादी पार्टी के पक्ष में मतदान किया था।
जबकि, 2012 में 100 में से सिर्फ 66 यादवों ने ही साइकिल की सवारी की। कमाल ये कि
2007 में 100 में से 5 यादव मत ही बीजेपी के खाते में आए थे। लेकिन, 2012 में हर
100 में से 9 यादव मत बीजेपी के खाते में आ गए। और सिर्फ बीजेपी ही नहीं बीएसपी के
खाते में भी 2012 में यादव मत बढ़े हैं। 2007 में हर 100 में से सिर्फ 7 यादव मत
ही बीएसपी को मिले थे, जो 2012 में बढ़कर 11 हो गए। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि यादव
अब आंख मूंदकर साइकिल की सवारी करने को तैयार है। नया यादव मतदाता मुलायम के
यादववाद से धीरे-धीरे ही सही लेकिन, नाराज होता दिख रहा है। इस नए यादव मतदाता को
भी अखिलेश ही लुभाते हैं। लेकिन, ये भी सच है कि समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने
के लिए इतने से काम नहीं चलने वाला। ये छिटपुट मत हैं।
मुलायम
सिंह यादव जानते हैं कि जो एकमुश्त चुनाव जिताऊ मत समाजवादी पार्टी को मिलता है,
वो मत अभी भी यादव और मुसलमान का ही है। और ये एकमुश्त वाला यादव, मुसलमान विकास
और साफ छवि के बजाए भाजपा विरोध और जातीय दंभ पर ही वोट करता है। इसलिए ये वोट
काफी हद तक मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव को ही मिलने वाले हैं। इन्हीं मतों के
बूते मुलायम सिंह यादव अच्छी छवि वाले अपने मुख्यमंत्री बेटे को कार्यकर्ताओं के
सामने चुनौती दे देते हैं कि तुम्हारी हैसियत ही क्या है। दरअसल मुलायम सिंह यादव
को पता है कि अखिलेश की विकास और स्वच्छ वाली ब्रांडिंग बहुत ज्यादा मत नहीं खींच
सकेगी। विकास और स्वच्छ छवि के मामले में बीजेपी बाजी मार सकती है। और फिर
समाजवादी पार्टी बीजेपी के सामने सीधी लड़ाई में नहीं रही, तो मुसलमान मत बीएसपी
की तरफ जा सकता है। और ये होता भी दिख रहा है। समाजवादी पार्टी को 2007 में हर 100
में से 45 मुसलमान मत मिले थे, जो 2012 में घटकर 39 रह गए। 2012 में बीएसपी के
खाते में मुसलमान मत 17 से बढ़कर 20 हो गए। कमाल की बात ये है कि 2007 के मुकाबले
2012 में मुसलमानों का भरोसा कांग्रेस पर भी बढ़ा। कांग्रेस को 2012 में हर 100
मतों में 4 मत 2007 से ज्यादा मिले।
एसपी- कुल डाले गए वोटों में पार्टी की हिस्सेदारी
जाति 2007 2012
यादव 72 66
मुस्लिम 45 39
मुसलमानों
का बीएसपी और दूसरी पार्टियों में जाने का खतरा मुलायम सिंह यादव समझ रहे हैं।
इसीलिए वो मुसलमानों की बात करते हिन्दू विरोधी दिखने में भी गुरेज नहीं करते हैं।
पिछले 3 विधानसभा चुनावों- 2002, 2007, 2012- में मुसलमान मत साइकलि से उतरकर
मायावती के साथ हाथी पर सवार होते दिखे। बीएसपी को 2002 में 100 में से सिर्फ 9
मुसलमान मत मिले थे, जो 2012 में बढ़कर 20 हो गए। जबकि, 2002 में 100 में से 52
मुसलमानों का मत पाने वाली समाजवादी पार्टी के पास 2012 में सिर्फ 39 मत ही बचे।
मुसलमान जीत की चाभी
साल मुस्लिम मत सपा मुस्लिम मत बसपा
2002 52 9
2007 45 17
2012 39 20
इसलिए
अगर समाजवादी पार्टी का झगड़ा सलीके से नहीं सुलझा, तो इसका सबसे बड़ा फायदा
बीजेपी को होता दिख रहा है। क्योंकि, बीजेपी ने सवर्ण जातियों के परंपरागत बंधन से
निकलकर पिछड़ी और गैर जाटव दलित जातियों में पहले से ही काफी असर बना लिया है। दूसरा
सबसे बड़ा फायदा बीएसपी को हो सकता है। क्योंकि, बीजेपी के लड़ाई में सीधे आने का
असर ये होगा कि मुसलमान आपस में लड़ रही समाजवादी पार्टी के बजाए मायावती के साथ
जाना पसंद करेगी। और इसकी संभावना सबसे कम है लेकिन, इस तरह की भ्रम की स्थिति में
थोड़ा बहुत फायदा कांग्रेस को भी मिल सकता है। दरअसल इन्हीं संभावनाओं को बनने से
रोकने की कोशिश में बाप-बेटे झगड़ रहे हैं। लेकिन, ये झगड़ा इतना आगे बढ़ गया है
कि समाजवादी पार्टी के आधार मतों में 2017 में सेंध सलीके से लगती दिख रही है।
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