प्रधानमंत्री
@narendramodi के
फ़ीडबैक तंत्र पर मुझे बड़ा भरोसा है। इसीलिए लिख रहा हूँ। हालाँकि जरूरी नहीं है
मेरी ये बात भी उन तक पहुँचे। लेकिन मुझे लगता है कि @ndtvindia पर प्रतिबंध का
फ़ैसला वापस लेना चाहिए और NBSA को इस मसले पर पूछा जाना चाहिए कि स्वनियंत्रण के तहत इस पर आप लोग
क्या कार्रवाई करेंगे। ये जरूरी इसलिए भी है कि किसी भी सरकार पर मीडिया की
स्वतंत्रता पर लगी रोक- कई बार बेहद जायज़ वजहों से भी लगी हो तो भी- सीधे
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला और तानाशाही की ओर बढ़ते क़दम की तरह देखी जाती
है/जाएगी। इसीलिए प्रधानमंत्री जी एनडीटीवी पर लगाए गए प्रतिबंध की वजहों को देश
के सामने रखिए और स्वनियंत्रण में बुरी तरह से फ़ेल रहे सम्पादकों की संस्था के ही
ज़िम्मे इसे कर दीजिए। ये देश को पता चलना जरूरी है कि आखिर किस खबर को दिखाने की वजह से देश
में सरोकारी चैनल की छवि रखने वाले एनडीटीवी को एक दिन के बंद करने का कड़वा सरकारी
आदेश जारी करना पड़ा। वरना भला सरकार को क्या पड़ी थी कि ढेर सारी छद्मधर्मनिरपेक्ष
जमात के सरकार के हर अच्छे काम को भी बुरा बताने के दौर में एक नई आफत मोल लेते।
लेकिन, ये खतरनाक था, जो हुआ। जो एनडीटीवी ने दिखाया। अच्छा हुआ कि आतंकवादी को इस
खबर से उस तरह की मदद नहीं मिल सकी, जैसी मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के दौरान
टीवी चैनलों- खासकर एनडीटीवी- पर दिखाई खबर से मिली थी। मुंबई के ताज होटल में बैठे
आतंकवादी और पड़ोसी देश में बैठे उनके हैंडलर भारतीय टीवी चैनलों पर खबर देखकर
निर्देश जारी कर रहे थे और उसी के लिहाज से हरकत कर रहे थे। यही वजह थी कि इतना
लंबा ऑपरेशन चलाना पड़ा, सेना/कमांडो को मुश्किलें आईं। वैसा ही खतरा पठानकोट के समय भी था। खतरा
कितना बड़ा था। इसका अंदाजा पठानकोट हमले के समय एनडीटीवी पर चली खबरों से लगाया
जा सकता है।
अपनी
लाइव रिपोर्ट में एनडीटीवी बता रहा था कि आतंकवादी आयुध भंडार के बेहद नजदीक हैं
और एनएसजी कमांडो के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यही है कि अगर दोनों जिन्दा
आतंकवादी आयुध भंडार तक पहुंचे गए, तो उनको खत्म करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इतना ही नहीं
रिपोर्ट में कहा गया कि आतंकवादी आयुध भंडार से 100 मीटर की दूरी पर पहुंच चुके
हैं, जहां से दक्षिण में मिसाइल और रॉकेट रखे हुए हैं। वायुसेना का हेलीकॉप्टर
उड़ान भर चुका है और किसी भी आतंकवादियों के छिपे हुए स्थान पर गोलियां बरसा सकता
है। एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध की सिफारिश करने वाले सरकारी पैनल के मुताबिक,
रिपोर्ट में ये भी बताया गया कि तीन तरफ से एनएसजी कमांडो आतंकवादियों को घेर चुके
हैं और दक्षिण का एरिया जंगल का है शायद इस वजह से उस तरफ घेराबंदी नहीं की गई है।
अब इन
खबरों को देखकर कोई भी ये समझ सकता है कि 26/11 का तरह ये कितना बड़ा खतरा बन सकती थीं। केबल टेलीविजन नेटवर्क
नियंत्रण अधिनियम का नियम 6(1)(P) ये साफ कहता है कि किसी भी भारतीय समाचार चैनल को आतंकवादियों के
साथ चल रही मुठभेड़ की लाइव कवरेज की इजाजत नहीं है। ये पूरी तरह से गैरकानूनी है।
साथ ही इसमें साफ लिखा है कि सिर्फ सेना के अधिकारिक प्रवक्ता का ही बयान इस्तेमाल
किया जाएगा। लेकिन, इसके बावजूद कई बार इस तरह की गलतियां भारतीय चैनलों ने की
हैं। और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी सरकारों
ने सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ दिया है। ज्यादातर समाचार चैनलों के मुद्दे पर
स्वनियंत्रण का कवच काम आता रहा है। और एनडीटीवी ने चैनल के तौर पर एनडीटीवी के
पत्रकारों ने लगातार ये भी साबित करने की कोशिश की कि सिर्फ वही हैं, जो
पत्रकारिता कर रहे हैं। इसीलिए बड़े सलीके से एक बेहद गम्भीर मसले पर हुई एक
कार्रवाई को पूरी पत्रकारिता पर बंदिश जैसा बताने की कोशिश हो रही है। जबकि, सच्चाई
ये भी है कि एनडीटीवी पर कोई हमेशा वाला प्रतिबंध नहीं लगा है। ये देश की सुरक्षा
से संबंधित संवेदनशील जानकारी पहुंचाने वाली रिपोर्टिंग पर की गई दंडात्मक
कार्रवाई है। लेकिन, इसे आपातकाल जैसा बताने की कोशिश हो रही है। आपातकाल में तो
हर खबर सरकार के अधिकारी से मंजूर हुए बिना न छप सकती थी, न सुनाई जा सकती थी। अभी
जब 9 तारीख के एक दिन के बंद के पहले एनडीटीवी प्रतिबंध के विरोध की खबरों को ही
अपनी टॉप 10 की दसों खबरों में शामिल करता है, तो समझा जा सकता है कि सरकारी
प्रतिबंध एक दिन की दंडात्मक कार्रवाई है या फिर आपातकाल। सिर्फ एनडीटीवी ही नहीं,
उसके बहाने सब जमकर सवाल पूछ रहे हैं। उससे पहले भी पूछ रहे थे और आगे भी पूछेंगे
ही। हिन्दुस्तान में किसी सरकार की औकात नहीं है कि वो सवाल पूछने से रोक सके।
किसी ने रोकने की कोशिश भी की, तो वो बहुत छोटा दौर होगा। ऐसे में इस बात को
स्थापित करने की कोशिश करना कि देश में सवाल पूछने का अधिकार ही किसी को नहीं रहा,
दरअसल असली गलती से ध्यान भटकाने की कोशिश है।
सवाल
पूछने का अधिकार मांगने वाले रवीश कुमार की बड़ी चर्चा है। सच्चाई ये है कि
पक्षपात रवीश की रिपोर्टिंग का मूल आधार रहा है। पक्षपाती सवाल और पक्षपाती जवाब।
मोदी और मोदीराज से रवीश कुमार की खुन्नस पुरानी है। 2007 में मैं सीएनबीसी
आवाज के लिए और रवीश कुमार एनडीटीवी के लिए गुजरात चुनाव की रिपोर्टिंग कर रहे थे।
दोनों लगभग एक ही दिन राजकोट में थे। मैंने कारोबारी चैनल के लिए रिपोर्ट तैयार की
और मेरी रिपोर्ट राजकोट का एक मुस्लिम सब ब्रोकर बता रहा था कि मोदी राज में मौके
सबके लिए बराबर हैं। रवीश ने टीवी की रिपोर्ट में तो क्या बोला होगा, ये मुझे ध्यान में
नहीं है। ब्लॉग पर लिखा गुजरात में कारोबार करना मुसलमानों के लिए आसान नहीं।
इसलिए रवीश कुमार वही सवाल पूछने के महारथी हैं, जिसका उन्हें मनमाफिक जवाब मिलता है। इसलिए सवाल
पूछते जाना है, वाली
बात सिवाय मनमाफिक सवाल-जवाब की तय कड़ी के कुछ नहीं है। ये सवाल पूछते जाना है
वाली बात इस कदर मनमाफिक सवाल वाली है कि एनडीटीवी ने अपने प्राइम टाइम में खुद ही
स्क्रीन काली कर ली थी। और उसमें बार-बार यही दोहराया गया था कि हमें अंत-अंत तक
सवाल पूछते जाना है। दरअसल उसमें साफ ध्वनि थी कि सवाल पूछने का प्रमाणपत्र सिर्फ
हमारे पास है। ये दंभ इस कदर कि स्क्रीन काली करके रवीश कुमार ने दूसरे चैनलों के
एंकरों को ये जताने की कोशिश की कि पत्रकारिता सिर्फ हमारी वाली है। और जो हमारे
जैसी पत्रकारिता नहीं कर रहा वो, दरअसल पत्रकार ही नहीं। और इसीलिए ये बड़ा जरूरी
हो जाता है कि सरकार एक दिन के प्रतिबंध की पूरी वजह को देश के सामने रखे। एक
पत्रकार होने के नाते मैं किसी भी हाल में पत्रकार स्वतंत्रता पर रंचमात्र भी
बंदिश के विरोध में खड़ा हूं। लेकिन, हमारा ये पत्रकारिता के साथ खड़ा होना किसी
भी हाल में देश के विरोध में और एनडीटीवी के साथ खड़ा होना नहीं है। इसीलिए जरूरी
है कि सरकार इसे साफ करे। सिर्फ साफ न करे, टीवी चैनलों पर स्वनियंत्रण के ठेकेदार
सम्पादकों की संस्थाओं से जवाब मांगे कि आपके स्वनियंत्रण के पैमाने क्या हैं और
उस पैमाने पर खरा न उतरने पर आपने क्या-क्या कार्रवाई की है। ये दरअसल सरकार की
साख के साथ मीडिया की साख के लिए भी जरूरी है। गोवा में हुए इंडिया आइडिया कॉन्क्लेव
2016 में फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने बड़ी समझने वाली बात कही है।
उन्होंने कहाकि आज के दौर में मीडिया सत्ता-सरकार हो गई है और सोशल मीडिया विद्रोही।
ये बहुत बड़ी बात है। इसलिए सवाल पूछने के अधिकार पर हमले के बहकावे में आने से
मीडिया को बचना चाहिए। मीडिया को सवाल पूछने के अधिकार की साख की चिन्ता करनी
चाहिए।
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