मसरत
आलम की रिहाई के बाद लगा कि अब जम्मू कश्मीर के साथ देश का भ्रम भी बना रहने वाला
है। वो भ्रम ये कि देश में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ हिंदुओं की पार्टी है और इसका
किसी भी ऐसी पार्टी के साथ गठजोड़ नहीं हो सकता जो, मुसलमानों के वोट के भरोसे ही
राजनीति करती हो। मतलब साफ है कि ये भ्रम नहीं पक्की धारणा बन चुकी है कि भारतीय
जनता पार्टी सिर्फ हिंदुओं और वो भी कट्टर किस्म के हिंदुओं के ही मतों से जीतने
वाली पार्टी है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी को गठजोड़ करने के लिए पंजाब में अकाली
दल और महाराष्ट्र में शिवसेना के अलावा देश में कोई पक्का सहयोगी नहीं मिल सकता।
सहयोगी मिलेगा भी तो तभी जब तक भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के सामने कमजोर गठजोड़
की अगुवा हो, जिसमें राज्य की लड़ाई की वजह से जनता दल यूनाइडेट जैसे सहयोगी
भारतीय जनता पार्टी को मिलते हैं। यही कुल मिलाकर देश की राजनीतिक स्थिति थी और
काफी हद तक अभी भी है। इसीलिए 282 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत में भारतीय जनता
पार्टी की सरकार होने के बावजूद बीजेपी को विपक्षी हिंदुओं और वो भी सिर्फ कट्टर
हिंदुओं से आगे की पार्टी मानने को तैयार नहीं हैं। या ये कहें कि दूसरी पार्टियां
डर रही हैं कि अगर बीजेपी की सिर्फ और सिर्फ कट्टर हिंदुओं के मतों से जीतने वाली
पार्टी की छवि न बनी रही तो राजनीति कठिन हो जाएगी। तब सिर्फ धार्मिक भावनाओं को
भड़काकर राजनीति नहीं की जा सकेगी। और इसीलिए सब पुरजोर कोशिशश में लगे रहे कि
किसी तरह बीजेपी-पीडीपी का गठजोड़ टूट जाए।
पहली
नजर में देखें तो पीडीपी-बीजेपी का गठजोड़ किसी तरह से होने लायक नहीं था, है।
दोनों को वोट देने वाले दो ध्रुव पर रहते हैं। पीडीपी वाला कश्मीर पाकिस्तानी
भावना के साथ जुनूनी दिखता है तो, बीजेपी वाला जम्मू-लद्दाख हिंदुस्तान के साथ
जुनूनी दिखता है। पीडीपी का पुराना इतिहास तथ्यों के साथ ये साबित करने के लिए
काफी है कि पीडीपी आतंकवादियों के साथ सहानुभूति ही नहीं रखती है, सीधे पीडीपी
नेताओं का आतंकवादियों के साथ जुड़ाव है। और आतंकवादी संगठन शेख-उमर अब्दुल्ला की
सरकार पर मुफ्ती सरकार को अपने नजदीक पाते हैं। भारतीय जनता पार्टी जो हिंदू हित
की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा से राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे- के
आधार पर खड़ी पार्टी है। इसीलिए ये गठजोड़ भला कैसे हो सकता है। और हो भी गया तो
कितने दिनों तक चलेगा, ये बड़ा सवाल है। लेकिन, अब जब मसरत आलम की रिहाई की खबरें
पूरी तरह से साफ हो रही हैं तो लग रहा है कि ये गठजोड़ अभी टूटता नहीं दिख रहा है।
और इस गठजोड़ का होना हिंदुस्तान के हित में है। देश की सड़ी-गड़ी लकीर पर हो रही
राजनीति के शुद्धीकरण के लिए बेहद जरूरी है। वो लकीर जो हिंदू-मुसलमान को राजनीतिक
तौर पर दो ध्रुवों पर खड़ा करके ही राजनीति करने देती है। वो लकीर जो धर्म के बाद
जाति और पुराने इतिहास के सहारे वहीं खड़े रहने देना चाहती है। इसीलिए जरूरी है कि
जम्मू कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठजोड़ बना रहे। और इस गठजोड़ की ये जिम्मेदारी
बनती है कि वो गठजोड़ के जरिए मिले इस मौके का इस्तेमाल सिर्फ जम्मू कश्मीर ही
नहीं देश में दो ध्रुवों पर खड़ें हिंदू मुसलमान में गठजोड़ कराने का रास्ता बनाए।
और ये रास्ता बनता भी दिख रहा है। अच्छा हुआ कि गठजोड़ टूटने के पहले ही साफ हो
गया कि मुफ्ती मोहम्मद सईद का अकेला फैसला नहीं था मसरत आलम को छोड़ने का। दरअसल
मसरत आलम को तो पहले ही छूट जाना चाहिए था। ये रास्ता इसलिए भी बनता दिख रहा है कि
मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती बार-बार ये कह रहे हैं कि वो उसी नीति पर
कश्मीर को आगे ले जाना चाहते हैं जिसकी कोशिश प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी
ने शुरू की थी। ये विश्लेषण का विषय है लेकिन, मैं निजी तौर पर जितना समझ पाता हूं
कि लालकृष्ण आडवाणी जब हिंदू हितों के रक्षक नेता बने तो वो सिर्फ हिंदुओं की बात,
संगत करते थे। जबकि, अटल बिहारी वाजपेयी जब हिंदू हिंतों के रक्षक नेता बनते थे
तो, उनके मन मस्तिष्क में ये साफ रहता था कि हिंदू हित तभी बचेंगे जब मुसलमान भी
ये बात समझेंगे और मुसलमान ये बात तभी समझेंगे जब उन्हें ये लगेगा कि हिंदू मतों
से जीतने वाली पार्टी उनके हितों पर डाका नहीं डालने वाली। और काफी हद तक ये काम
अटल बिहारी वाजपेयी ने किया भी। शायद दूसरा पांच साल उनको मिला होता तो देश की
राजनीति की बीमार लकीर काफी हद तक स्वस्थ हुई होती। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। देश की
तरक्की के दूसरे मोर्चे पर भी जो बेहतर काम 1999-2004 के दौरान हुए, उनका भी असर
ठीक से देश समझ नहीं सका।
अब वही
मौका प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को मिला है। अच्छी बात ये है कि
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस बार इस मौके को खोना नहीं चाहता। राम माधव ने जिस तरह
से बीजेपी-पीडीपी का गठजोड़ बनाने की बुनियाद तैयार की, यही साबित करता है। इसलिए
अब जब मुफ्ती सरकार की तरह से ये बयान आता है कि आगे से कोई भी फैसला बीजेपी की
सहमति के बाद ही लिया जाएगा। अच्छा है गठजोड़ का सम्मान बचा रहा तो अनायास ही सही
हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमान भी एक दूसरे का सम्मान धीरे धीरे करना सीख लेंगे। ये
कितना जरूरी है इसे समझने के लिए एक और बेहतर तथ्य सामने आ गया है। दिल्ली के
मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और आम आदमी
पार्टी के पूर्व विधायक राजेश गर्ग की बातचीत की जो रिकॉर्डिंग सामने आई है। उसके
बाद अरविंद केजरीवाल की जोड़तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश और नैतिकता पर बहस हो
रही है, होनी भी चाहिए। लेकिन, अरविंद केजरीवाल के मुंह से निकली एक बात बेहद
खतरनाक है। वो खतरनाक बात है कि कांग्रेस के छे में से तीन विधायक मुसलमान हैं, वो
किसी भी कीमत पर बीजेपी के साथ नहीं जा सकते। मतलब साफ है कि देश की राजनीति में
मुसलमान विधायक सबसे ज्यादा सीटों वाली बीजेपी के साथ इसीलिए नहीं जा सकते
क्योंकि, बीजेपी के साथ जाने पर मुसलमान उन्हें अगली बार मत नहीं देगा। यानी हिंदू
मुलमान विभाजन की सबसे बड़ी जमीन भारतीय राजनीति के इसी स्थापित तथ्य की वजह से
हैं। अरविंद केजरीवाल कहते थे कि हम राजनीति बदलने आए हैं। कितनी बदलने आए हैं, ये
अब बहुत अच्छे से साफ हो रहा है। सोचिए कि अरविंद केजरीवाल सरकार बनाने के लिए किस
कदर लगे हुए थे कि पूरी कांग्रेस तोड़कर नई पार्टी बनाकर उसके साथ गठजोड़ कर लेना
चाहते थे। राजनीति बदलने वाले अरविंद केजरीवाल भी मुसलमानों को बीजेपी से अछूत
बनाकर राजनीति में आसानी देख रहे थे। यानी देश की राजनीति बदलने का दावा करने वाले
अरविंद केजरीवाल भी हिंदू मुसलमान वाली राजनीति बदलने के पक्ष में नहीं हैं। उसकी
वजह भी साफ है। पुरानी लकीर टूटी तो जनता देश की तरक्की की बात करने, पूछने लगेगी।
रोजगार की बात करने लगेगी। जीवनस्तर बेहतर क्यों नहीं हुआ, ये पूछने लगेगी। इसीलिए
हिंदुस्तान की भलाई के लिए जरूरी है कि जम्मू कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी का गठजोड़
चले और दोनों पार्टियों को राजनीतिक मजबूरी से जो मौका मिला है उसका इस्तेमाल लंबे
समय में राजनीतिक मजबूरियों को खत्म करने में करें। अच्छा है कि प्रधानमंत्री के
तौर पर नरेंद्र मोदी विकास के एजेंडे से हट नहीं रहे हैं। जाहिर है इसका परिणाम
दिखने में समय लगेगा। लेकिन, हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमान गठजोड़ में से
पूर्वाग्रह हटा तो बहुत कुछ बेहतर होगा।
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