ये शायद
भारतीय राजनीति में किसी ने कल्पना नहीं की होगी। भारतीय राजनीति को बदलने के दावे
के दम पर देश की राजधानी की सत्ता हासिल करने वाली पार्टी में ऐसा होगा, ये तो
बिल्कुल भी किसी की कल्पना में नहीं रहा होगा। वो भी इतनी जल्दी हो जाएगा, ये तो
दूर-दूर तक किसी ने सोचा नहीं रहा होगा। हम राजनीति बदलने आए हैं। ये कहकर देश की
राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं को भ्रष्ट साबित करने के लिए हर हाल तक लड़ते
दिखने वाले अरविंद केजररीवाल यहां पहुंच जाएंगे, इस बारे में सोचा नहीं गया था।
लेकिन, ये हो गया है। भारतीय राजनीति को बदलने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी
ने वो कर दिया जो परंपरागत राजनीति में बरसो से जमी जमाई पार्टियां भी करने से
डरती हैं। आम आदमी पार्टी ने अपने दो प्रमुख संस्थापक सदस्यों, योगेंद्र यादव और
प्रशांत भूषण, को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। हालांकि, अभी ये कहा जा सकता है कि
पार्टी से दोनों को निकाला नहीं गया है।
लेकिन, ये निकाले जाने जैसा ही है। क्योंकि, अगर योगेंद्र और प्रशांत की भूमिका
पार्टी में इतनी नहीं है कि वो पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति में रह सकें,
तो ये निकाले जाने जैसा ही हुआ। ये कुछ इसी तरह से हुआ जैसे किसी कंपनी में शीर्ष
स्तर पर बैठे अधिकारी से सारे अधिकार छीनकर उसे अगले एक-दो-तीन महीने में विकल्प
तलाश लेने का रास्ता दे दिया जाता है। लेकिन, क्या देश के हजारों नौजवानों की
आंखों में राजनीति बदलने का सपना दिखाने वाली पार्टी इस तरह से व्यवहार कर सकती
है। क्या आम आदमी ने जिस तरह से योगेंद्र यादव को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए एक
रिपोर्ट को आधार बनाया है, वो तरीका सही हो सकता है। इससे भी बड़ा सवाल ये है कि
योगेंद्र यादव को बाहर करने के लिए उस रिपोर्ट को लिखने वाली पत्रकार से अरविंद
केजरीवाल का बातचीत करना और उसे रिकॉर्ड करना लोकतंत्र को किधर ले जाएगा। ये दुस्साहस
तो कांग्रेस ने अपने सर्वोच्च ताकत वाले मतलब इंदिरा गांधी के समय या फिर भारतीय
जनता पार्टी के सबसे मजबूती के दौर मतलब नरेंद्र मोदी के समय में भी बीजेपी ने
नहीं दिखाया।
इंदिरा
गांधी के ऊपर आपातकाल के समय पत्रकारों पर पाबंदी लगाने के ढेरों आरोप हैं। लेकिन,
मुझे एक भी आरोप ऐसा ध्यान में नहीं आता है जिसमें इंदिरा गांधी ने कांग्रेस से
किसी बड़े नेता को निकालने के लिए किसी रिपोर्ट को सहारा बनाया हो। और फिर उस
पत्रकार के साथ बातचीत का टेप रिकॉर्ड किया गया हो। अगर किया भी रहा होगा तो वो
चोरी छिपे हुआ होगा। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी
पत्रकारिता पर इस तरह का संकट पहले शायद ही आया रहा होगा। संकट ये कि अब पत्रकार
किसी नेता के साथ बात करते हुए डरे। पत्रकार नेताओं के निजी सचिवों, सहायकों के
साथ बात करते हुए डरे। पत्रकार डरे कि उसका फोन नेता या उसका सहायक रिकॉर्ड करके
उस बातचीत का इस्तेमाल दूसरे नेता को निपटाने में कर सकता है। अरविंद केजरीवाल के
निजी सचिव की पत्रकार के साथ बातचीत रिकॉर्ड करने और उसी बातचीत का इस्तेमाल योगेंद्र
यादव को आम आदमी पार्टी शक्तिशाली पार्लियामेंट्री अफेयर्स कमेटी से बाहर निकालने
के लिए किया जाना भारतीय लोकतंत्र के अशुभ का बड़ा संकेत हैं। वीडियो, ऑडियों
रिकॉर्डिग करके देश से भ्रष्टाचार भगाने का फॉर्मूला बताने वाले अरविंद केजरीवाल
ने देश के नेताओं को मजबूती का एक और मंत्र दे दिया है। अरविंद ने बता दिया है कि
राजनीति करनी है तो कैसे अपना एकक्षत्र राज स्थापित करने के लिए वीडियो, ऑडियो
रिकॉर्डिंग का शानदार तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। ये सांप भी मर जाए और
लाठी भी न टूटे, वाला अद्भुत मंत्र है। विरोधी नेता की छवि भी खराब हो गई, उसमें
अपना पक्ष सार्वजनिक तौर पर रखने की ताकत भी न बचे और पार्टी के भीतर और बाहर खुद
की छवि लोकतांत्रिक बनी रही। अरविंद की कही बात कि हम राजनीति बदलने आए हैं, साबित
होती दिख रही है। राजनीति में ऑफ कैमरा, ऑफ रिकॉर्ड ब्रीफिंग से आगे पत्रकार की
बातचीत रिकॉर्ड करके उसके इस्तेमाल करने जैसा बदलाव अरविंद ने कर दिखाया है। और
सोचिए ये सब कितना पहले से तय रहा होगा कि चौदह फरवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान
में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए उन्होंने जनता के सामने खुद को महान भी साबित
कर दिया। उऩ्होंने अपने लिए त्याग की मूर्ति और लोभ-लालच से मुक्त नेता का शानदार
आवरण तैयार कर लिया। अरविंद ने कहा कि हमें दिल्ली की जनता ने पांच साल की सेवा के
लिए जनमत दिया है। इसलिए हमें अहंकार नहीं करना है। पार्टी में कुछ लोग जो अहंकारी
हो गए हैं। जो दूसरे राज्यों में भी चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं, उनको अहंकार
से बचना होगा। मैं पांच साल दिल्ली की सेवा करूंगा। आम आदमी पार्टी दूसरा कोई
चुनाव नहीं लड़ने जा रही है। मतलब साफ था दूसरे राज्यों में चुनाव लड़ने-लड़ाने और
वहां हासिल सत्ता के जरिए आम आदमी पार्टी में सत्ता के नए केंद्र की कल्पना करने
वाले सब अहंकारी हैं। और अहंकार मुक्त, त्याग मुक्त सिर्फ और सिर्फ अरविंद
केजरीवाल हैं। जाहिर है अरविंद केजरीवाल को पता है कि इतनी छोटी सी पार्टी किसी और
राज्य में अगर सत्ता में या विपक्ष में भी पहुंच जाती है तो, उस राज्य के नेता की
हैसियत भी एक सत्ता के केंद्र के रूप में उभरेगी। इसीलिए अरविंद केजरीवाल इस मामले
में एकदम साफ हैं। पार्टी में किसी और को अरविंद केजरीवाल से बड़ा या उसके आसपास
भी ठहरने नहीं दिया जाएगा। इसमें बहस नहीं है कि आम आदमी पार्टी की असल ताकत
अरविंद केजरीवाल ही हैं। लेकिन, ये भी सच है कि अगर प्रशांत भूषण, शांति भूषण और
योगेंद्र यादव नहीं होते तो आम आदमी पार्टी इस तरह से देश में बदलाव का प्रतीक
नहीं बन पाती। ध्यान से देखने पर ये भी समझ में आता है कि योगेंद्र यादव हों या
फिर शांति भूषण-प्रशांत भूषण इनकी निजी या सार्वजनिक हैसियत में आम आदमी पार्टी के
दिल्ली की सत्ता हासिल करने से शायद ही कोई इजाफा हुआ हो। हां, अरविंद केजरीवाल की
निजी और सार्वजनिक हैसियत जरूर कई गुना बढ़ गई है। 11-8 से बाहर हुए योगेंद्र यादव
और प्रशांत भूषण की खबर में उन तीन मतों की चर्चा कम ही है, जो मतविभाजन में शामिल
नहीं हुए। वोटिंग से बाहर होने के फैसले के बड़े निहितार्थ होते हैं। आम आदमी
पार्टी के बेहद चर्चित, अहम चेहरे कुमार विश्वास और मयंक गांधी योगेंद्र यादव और
प्रशांत भूषण को पीएसी से बाहर निकालने के फैसले के समय बैठक से बाहर निकल गए।
इसका मतलब साफ है कि उन्हें पता है कि योगेंद्र और प्रशांत के साथ ठीक नहीं हुआ
है। और इससे भी ज्यादा अरविंद केजरीवाल की शैली में कल ऐसा उनके साथ भी हो सकता
है, ये आशंका भी जरूर होगी। इसीलिए मैं योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के आम आदमी
पार्टी की शक्तिशाली राजनीतिक मामलों की समिति से निकाले जाने के घटनाक्रम को
भारतीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत मानता हूं। खासकर इसमें एक पत्रकार की अरविंद
केजरीवाल के निजी सचिव के साथ हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग इस लोकतांत्रिक अशुभ की
खतरनाक बुनियाद है। कमाल की बात ये भी है कि इस तरह के हथियार का इस्तेमाल वो लोग
जायज ठहरा रहे हैं जो लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी पत्रकारिता से ही पहचान पाए हुए
हैं। और इसी वजह से अरविंद केजरीवाल की पत्रकार विरोधी आम आदमी पार्टी में प्रमुख
स्थिति में हैं। यहां तक कि बहुतायत स्वनामधन्य पत्रकार भी आम आदमी पार्टी को
बदलाव का प्रतीक मानकर आंख मूंदकर अरविंद के कर्मों सत्कर्म बता रहे हैं। इन्होंने
तब भी कुछ नहीं कहा था जब अरविंद की सरकार ने पत्रकारों को दिल्ली सचिवालय में
घुसने से मना कर दिया था। इन्होंने तब भी कुछ नहीं कहा था जब दिल्ली के मंत्री गोपाल
राय ने कहा था कि पत्रकार सिर्फ दलाली के लिए सचिवालय जाना चाहते हैं। ये अब भी
चर्चा नहीं कर रहे हैं कि एक पत्रकार का फोन रिकॉर्ड करना और उसका इस्तेमाल पार्टी
के दूसरे नेताओं को निपटाने के लिए करना लोकतंत्र के लिए कितना अशुभ संकेत है।
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