पत्रकारिता
से जी ऊबने की बात लगभग हर उम्र का पत्रकार करता मिल जाएगा। शुरुआती से लेकर
संपादक तक। ऐसा क्यों। इसका जवाब है मसरत आलम की रिहाई की घटना, जो साबित करती है कि दरअसल पत्रकारिता
कहीं हो ही नहीं रही है। जबकि, इसकी
देश को सख्त जरूरत है। लोकतंत्र के बेहतर रहने के लिए सख्त जरूरत है। सोचिए कि
जाने कितने दिनों तक मसरत आलम की रिहाई पर चर्चा इस लिहाज से हुई कि पीडीपी बीजेपी
के रिश्ते का क्या होगा। अब खबर आ रही है कि राष्ट्रपति शासन और उमर अब्दुल्ला के
शासन के समय ये हुआ तो अब बहस बदल गई है। अभी भी ठीक से ये खबर कहां आ पाई है कि
कितनी धारा उस पर लगी थी। कितने समय तक वो जेल में रहता। ऐसे ही दीमापुर जेल से
आरोपी बलात्कारी को निकालकर मारने वाली खबर भी रही। दरअसल सबसे बड़े संकट में
पत्रकारिता ही है। राजनीति, न्यायपलिका
और कार्यपालिका में सुधार की बात हो रही है। दिख रही है। लेकिन, पत्रकारिता का संकट बढ़ रहा है। और इसके
सुधरने के संकेत भी कम ही हैं। चमक में पहले से कई गुना ज्यादा पत्रकारिता में आ
रहे हैं। लेकिन, कितने
पत्रकारिता करने आ रहे हैं। कितने कभी कुछ नया लिखते दिखाते हैं। संपादक कहां हैं।
क्या कर रहे हैं। मुनाफे का लक्ष्य तय कर रहे हैं। या अखबार के पन्ने से लेकर टीवी
स्क्रीन तक की पैकेजिंग बेहतर करने में जुटे हैं। या संपादक उनका बखान करने वालों
पर पत्रकार का ठप्पा लगाकर बाजार में छोड़ दे रहे हैं कि ये पत्रकार का ठप्पा लगे लोग
उन्हें महान संपादक बनाएं। संकट है पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा संकट है। मेरी मुश्किल ये है कि इस सबके बीच में पत्रकार ही बने रहने की इच्छा बलवती हुई जाती है। मतलब पत्रकारिता से बड़ा संकट निजी तौर पर मेरे लिए हैं।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
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