Wednesday, October 30, 2013

प्रतिष्ठित भारत, धूमिल चीन



चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग ने 22 जनवरी को साफ कहा था कि चीन में कोई भी भ्रष्ट बचेगा नहीं। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि हमें उस धरती को ही खत्म कर देना है जिस पर भ्रष्टाचार का बीज पनपता है। जिनपिंग ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामले में छोटे या बड़े भ्रष्ट का फर्क नहीं होगा। चीन के राष्ट्रपति भले ही भ्रष्टाचार मुक्त चीन की कल्पना कर रहे हों। जिनपिंग इसे लेकर कितने संजीदा हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में ढेर सारे बड़े अधिकारियों के साथ चाइना नेशनल पेट्रोलियम के पूर्व मुखिया जियांग जीमिन भी बुरी तरह फंसते दिख रहे हैं। चीन के जिंयांगसू प्रांत की राजधानी नानजिंग के मेयर के खिलाफ भी आर्थिक अपराध की जांच चल रही है। लेकिन, चीन की कंपनियां भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने राष्ट्रपति की बड़ी लड़ाई की योजना की जड़ में ही मट्ठा डाल रही हैं।

दुनिया की जानी मानी संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल का ताजा सर्वे बता रहा है कि चीन की कंपनियां दुनिया की सबसे भ्रष्ट कंपनियां हैं। और उनके जो काम के तरीके हैं वो सबसे कम भरोसेमंद हैं। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल दुनिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाला संगठन है। इसका मुख्यालय बर्लिन में है। 52 पन्ने की इस रिपोर्ट में इमर्जिंग मार्केट्स में कॉर्पोरेट्स के कामकाज के तरीके को जांचा गया है। BRICS यानी ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका के अलावा 12 दूसरे विकासशील देशों की कुल 100 कंपनियों को इस सर्वे में शामिल किया गया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण खबर ये है कि ये लगभग वही 100 कंपनियां हैं जिन्हें 2011 में ग्लोबल चैलेंजर्स की सूची में शामिल किया गया था। और इन 100 कंपनियों में औसत पारदर्शिता की बात करें तो ये सिर्फ 36 प्रतिशत है। इस सर्वे में जो बातें निकलकर आई हैं उससे दुनिया में अमेरिका के विकल्प के तौर पर देखी जा रही चीन की कंपनियों के कामकाज का तरीका बेहद खतरनाक संकेत देता है। 100 में से 11 कंपनियां जिनमें कंपनी के अंदर ही पारदर्शिता लगभग न के बराबर है उसमें से 9 चीन की ही कंपनियां हैं। ये सारी चीन की बड़ी कंपनियां हैं। चाइना नेशनल ऑफशोर ऑयल, अंशन आयरन एंड स्टील ग्रुप, चाइना शिपबिल्डिंग इंडस्ट्री कॉर्पोरेशन, ऑटो पार्ट्स बनाने वाली कंपनी वैनजियांग और भारत में भी तकनीक का इस्तेमाल करने वालों के लिए काफी परिचित कंपनी हुआवेई टेक्नोलॉजीज भी शामिल हैं। इन कंपनियों ने किस देश में कितना निवेश है या किस तरह की आगे की योजना है इसकी भी जानकारी छिपाने की कोशिश की है।

चीन की कंपनियों से इसकी शुरुआत मैंने इसीलिए की कि बार-बार एक बात जो कही जाती है कि तरक्की के लिए चीन का मॉडल श्रेष्ठ है। जबकि, ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल का ताजा सर्वे बता रहा है कि किस तरह से चीन की कपनियां तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ती हैं। जबकि, इसी सर्वे में भारतीय कंपनियों ने भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने का काम किया है। ब्रिक्स देशों में सबसे अच्छी कंपनियां भारतीय ही हैं। भारत की कंपनियां ने सर्वे के पैमाने के औसत से काफी अच्छा 52 प्रतिशत हासिल किया है। भारत के बाद दक्षिण अफ्रीका, रूस, ब्राजील और सबसे अंत में जाहिर है चीन की कंपनियों का नाम आता है। और भारतीय कंपनियों की प्रतिष्ठा का झंडा लहराते सबसे आगे देश की सबसे प्रतिष्ठित टाटा ग्रुप की ही कंपनी है। ट्रांसपैरेंसी के मामले में टाटा कम्युनिकेशंस सबसे आगे है। सर्वे के मानकों पर टाटा कम्युनिकेशंस को 71 प्रतिशत मिले हैं। और इस सर्वे में एक बात जो और निकलकर आई है कि भले ही भारत की चर्चा दुनिया में इस समय पॉलिसी पैरालिसिस और भ्रष्टाचार जैसी वजहों से चर्चा में हो। लेकिन, भारत का कानूनी ढांचा ऐसा है कि भारत में काम करने वाली कंपनियों को अपनी आर्थिक जानकारियां सबके सामने रखनी पड़ती हैं। यानी भले ही नीरा राडिया टेप के बाद टाटा ग्रुप और भारतीय कंपनियों की प्रतिष्ठा धूमिल होती दिखी हो लेकिन, सच्चाई यही है कि भारतीय कंपनियां अभी भी दुनिया के पैमाने पर सबसे अच्छी हैं। इसीलिए ये ज्यादा जरूरी हो जाता है कि सरकार को उद्योगों की इस चेतावनी पर ध्यान देना चाहिए कि देश में बेहतर काम करने लायक माहौल खत्म हो रहा है। ये सर्वे दरअसल भारतीय लोकतंत्र और अदालतों के लोकतंत्र को ठीक रखने की भूमिका को भी महत्व दे रहा है।

इस सर्वे में एक और बात निकलकर सामने आई है कि जो कंपनियां शेयर बाजार में सूचीबद्ध हैं वो गैरसूचीबद्ध कंपनियों से ज्यादा बेहतर तरीके से काम कर रही हैं। यानी बाजार यहां पारदर्शिता बचाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में मददगार हो रहा है। दरअसल शेयर बाजार में गैरसूचीबद्ध कंपनियां अपने खातों में पारदर्शिता बहुत कम रखती हैं। यानी बाजार से सब बिगड़ता है ये वाली धारणा भी एकदम ठीक नहीं है। इस सर्वे में जब कंपनियों के राजनीतिक रिश्तों की जानकारी लेने की कोशिश की गई तो वहां ज्यादातर कंपनियों ने जानकारी स्पष्ट नहीं की। औऱ न ही दिए जाने वाले चंदे के बारे में। हालांकि, यहां भी भारतीय कंपनियां सबसे बेहतर हैं जबकि, चीन यहां भी सबसे बदतर। इस सर्वे की खबर भारतीय मीडिया में बहुत हल्के में लिखी-बोली गईं। जबकि, ये सर्वे भारतीय लोकतंत्र, कंपनियों और कानून की महत्ता दुनिया में दिखाने वाला है। और, सबसे बड़ी बात ये कि हमें अपने लिहाज से मॉडल तैयार करना होगा न कि चीन और अमेरिका को देखकर। उनका हश्र दुनिया देख रही है।

Tuesday, October 29, 2013

कांग्रेस की राजनीति को ध्वस्त करते मोदी


पटना के गांधी मैदान की रैली का सबको इंतजार था। इंतजार इस बात का था कि नरेंद्र मोदी इस रैली में आएंगे तो कितनी भीड़ जुटेगी। बिहारी नीतीश कुमार के गृह मैदान पर गुजराती नरेंद्र मोदी चलेगा या नहीं चलेगा। इंतजार इस बात का भी था कि नरेंद्र मोदी बोलेंगे क्या। क्या नरेंद्र मोदी अपने स्थापित हिंदू वोट बैंक को और पक्का करने वाली बात बोलेंगे। नरेंद्र मोदी की इस रैली के इंतजार में लाखों लोग भी थे। लेकिन, नरेंद्र मोदी की पटना के गांधी मैदान की रैली ने सारे पुराने इंतजार को ध्वस्त किया। दरअसल ये कम ही हो पाता है कि जब कोई अपने शीर्ष पर हो तो स्थिर दिमाग से सारे फैसले ले सके। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने इस अवधारणा को पूरी तरह से ध्वस्त किया है। हिंदू हृदय सम्राट की छवि मिलने के बाद बीजेपी के कई बड़े नेता कैसे बैराने लगते थे। ये इस देश ने लंबे समय तक देखा है। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने एजेंडा बदल दिया है। नरेद्र मोदी को हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि से राजनीतिक तौर पर नवाजा गया तो उन्होंने कभी उसे नकारा नहीं। लेकिन, धीरे-धीरे अपने एजेंडे पर वो पहले हिंदुओं को और फिर मुसलमानों को भी ला रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के इससे पहले के जितने भी हिंदू हृदय सम्राट की छवि वाले नेता रहे। वो ज्यादातर वही करते रहे जिसकी माहिर कांग्रेस रही है। यानी कांग्रेस मुसलमानों को ये डराकर कि संघ से नियंत्रित होने वाली बीजेपी सत्ता में आई तो आपका बहुत बुरा होगा जो वोट लेती थी। वही काम बीजेपी वाले हिंदू हृदय सम्राट करते थे कि मुसलमानों को तुष्टीकरण के नाम पर सब दे दिया जा रहा है। इसलिए आप मुसलमानों के खिलाफ खड़े हो तभी आपको पूरा हक मिल पाएगा। यानी कांग्रेस अल्पसंख्यकों को डराकर उनका पूरा और तटस्थ हिंदुओं का वोट लेने का खेल खेल रही थी और उसकी प्रतिक्रिया में बीजेपी के हिंदू हृदय सम्राट टाइप नेता बहुसंख्यक हिंदुओं के वोट के चक्कर में खेलने लगते थे। लेकिन, इस खेल की माहिर कांग्रेस इसलिए भी थी कि ज्यादातर समय सत्ता उसके पास थी तो सत्ता के लिहाज से तुष्टीकरण या जाहिर तौर पर किसी का भला बुरा करने की क्षमता सत्ताधारी पार्टी यानी कांग्रेस के ही पास थी।

नरेंद्र मोदी जब हिंदू हृदय सम्राट बने तो उनके सामने की चुनौती ज्यादा बड़ी थी। क्योंकि, उनके ऊपर 2002 का ऐसा दाग था जिस पर कोई आंख मूंदने को तैयार नहीं था न देश, न दुनिया। नरेंद्र मोदी ने इस दाग को छिपाया नहीं लेकिन, एक बात जो नरेंद्र मोदी ने बहुत सावधानी से मजबूत की कि ये दाग अब बढ़ेगा नहीं, न दोबारा लगेगा। ये बात मजबूत इससे नहीं हुई कि उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी की तरह बिना सोचे समझे जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताकर संघ की भी दुश्मनी ले ली और अपनी लोकप्रियता भी खो बैठते। उन्होंने सद्भावना उपवास में भी टोपी नहीं पहनी। वो टोपी जिस पर उनकी खूब खिंचाई हुई और फिर से ये प्रचारित करने की कोशिश की गई कि नरेंद्र मोदी मुसलमान विरोधी हैं। जिस देश में प्रतीक और प्रतीक और प्रतीकों की राजनीति से इतने साल से राजनीति चल रही हो वहां ऐसे प्रतीक की राजनीति में बिना फंसे ये नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का ही कमाल था। नरेंद्र मोदी ने सबके भले के काम की बात की। लेकिन, कभी हिंदू या मुसलमान के हित की अलग बात नहीं की। नरेंद्र मोदी ने पूरा निशाना कांग्रेस और यूपीए की सरकार पर ही रखा। यहां तक कि जब तक वो बीजेपी के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हुए तब तक पूरी तरह से 6 करोड़ गुजरातियों की ही बात करते रहे। यानी अपनी जो मिली जमीन है उसी को और बेहतर करते रहे। उसके बाद जब उन्हें भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया तो उन्होंने सवा सौ करोड़ भारतीयों की सेवा की बात करनी मजबूती से की।

नरेंद्र मोदी ने धीरे-धीरे कब हिंदू हृदय सम्राट से विकास पुरुष की उपाधि धारण कर ली। ये लोगों को अहसास तो हुआ लेकिन, ये हुआ कैसे ये पता नहीं चला। नरेंद्र मोदी की गुजरात के सचमुच के मौलाना गुलाम मोहम्मद वास्तनवी ने तारीफ की तो पहली बार लगा कि मुसलमानों को ये अहसास होने लगा है कि नरेंद्र मोदी कोई हत्यारा नहीं एक राज्य का शानदार काम करने वाला मुख्यमंत्री है। हालांकि, वास्तनवी की उस आवाज को नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा ही माना गया और मुसलमानों में वास्तनवी के ही खिलाफ आवाज उठी। जबकि, वास्तनवी ऐसे मौलाना हैं जो सिर्फ प्रतीकों के मौलाना नहीं हैं। यानी दाढ़ी बढ़ाकर और कुछ अजीब फतवे जारी करके मौलाना नहीं बने हैं। वास्तनवी ने गुजरात और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से में मुसलमानों की तालीमी हालत दुरुस्त करने का काम किया है। वो हर रोज मोदी के काम को देख रहे थे। या कहें कि मोदी की सरकार से हर रोज प्रभावित हो रहे थे। इसलिए मौलाना वास्तनवी की बात बड़ी महत्वपूर्ण थी। लेकिन, कांग्रेस और दूसरी मुसलमानों को डराकर वोट जुटाने वाली पार्टियों के लिए ये बेहद खतरनाक था तो इस धारणा को ध्वस्त करने की कोशिश हुई। खुद वास्तनवी को उसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन, वास्तनवी का बयान मोदी के विकास पुरुष की छवि को मजबूत करने का शानदार आधार बन चुका था। मोदी विकास, गवर्नेंस के अलावा कोई बात नही करते। या तो गुजरात और बीजेपी शासित राज्यों के विकास की बात करते हैं या फिर यूपीए की केंद्र की सरकार के विकास न होने की बात। और सबसे बड़ी तथ्यों के साथ इस तरह की बात करने वाले मोदी अकेले नेता बन रहे थे। हालांकि, कई बार उनके तथ्य विवाद में भी आए। लेकिन, मोदी हर बार उससे आगे बढ़े।

फिर नरेंद्र मोदी ने एक और बयान दिया जिसे देकर यूपीए के मंत्री जयराम रमेश फंस चुके थे। नरेंद्र मोदी ने कहा कि उनका ये कहना बड़ा मुश्किल था लेकिन, वो ये मानते हैं कि पहले शौचालय फिर देवालय। सचमुच ये कहने क लिए बड़ा साहस होना चाहिए। क्योंकि, इसे सीधे हिंदुओं की आस्था से जोड़कर विश्व हिंदू परिषद और हिंदूवादी संगठन जयराम रमेश की ऐसी तैसी कर चुके थे। एक और बात जिसकी चर्चा जरूरी है। नरेंद्र मोदी ने एक कार्यक्रम में ये बताया कि किस तरह से अहमदाबाद नगर निगम चुनाव से पहले उन्होंने अतिक्रमण करने वाले मंदिरों, मस्जिदों या किसी भी अतिक्रमण को हटाने का जब अभियान चलाने को मंजूरी दी तो उन्हें अपनी पार्टी में तगड़ा विरोध झेलना पड़ा। लेकिन, अतिक्रमण हटने से हिंदू मुसलमान सब खुश थे। यहां भी विकास पुरुष की उनकी छवि मजबूत हुई। फिर महमूद मदनी और कल्बे सादिक के बयानों ने इतना तो तय कर दिया कि अब तक बीजेपी नहीं चलेगी और उसके खिलाफ किसी को भी बिना सोचे वोट करने वाले मुसलमानों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया था कि बीजेपी नहीं चलेगी ये तो ठीक है लेकिन, बिना सोचे किसी को वोट क्यों दें और फिर उससे आगे बात ये भी मुसलमानों के दिमाग के किसी कोने में आने लगा कि आखिर बीजेपी या नरेंद्र मोदी का विरोध बिना सोचे समझे क्यों करना चाहिए। यानी अब तक बिना सोचे समझे वोट बैंक की तरह वोट करने वाला मुसलमान एक समय के हिंदू हृदय सम्राट की वजह से सोचने लगा था।
बिहार में तो पूरी तरह से मुसलमान बीजेपी और नरेंद्र मोदी के दो धुर विरोधियों के साथ है। एक लालू प्रसाद यादव और दूसरा नीतीश कुमार। लेकिन, पटना के गांधी मैदान की रैली में विकास पुरुष नरेंद्र मोदी ने हिंदू मुसलमान अलग करके नहीं देखा। वो भी तब जब आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन रैली को पूरी तरह से बिगाड़ने के लिए एक के बाद एक धमाके करा रहा था। विकास पुरुष नरेंद्र मोदी बोले हिंदुओं मुसलमानों आपस में मत लड़ो। गरीबी से लड़ो। पटना का गांधी मैदान जयप्रकाश नारायण की क्रांति की सबसे बड़ी बुनियाद बना था। अब नरेंद्र मोदी ने देश की राजनीति में मुसलमानों-हिंदुओं के राजनीतिक समीकरण को नए सिरे से परिभाषित करने की जो कोशिश लंबे समय से की है। उसको भी पक्का करने का काम गांधी मैदान में किया है। हिंदुओं मुसलमानों को गरीबी से लड़ने के लिए साथ आने की अपील की है। आजादी के लिए भी हिंदू मुसलमान साथ लड़े थे। अगर ये दोनों साथ आ जाएं तो दुनिया भारत से लड़ने में सोचे। मैं लंबे समय से ये मानता रहा हूं कि अगर मुसलमान बीजेपी के साथ आए तो देश की राजनीति बदलेगी। नरेंद्र मोदी वो राजनीति बदलते दिख रहे हैं।

Wednesday, October 23, 2013

1000 टन सोने का सपना, नाड़ी से शर्तिया इलाज और भारत सरकार

एक हजार टन सोने के खजाने से देश परेशान है। इस पर भी कि सरकार कैसे इस तरह से खजाने की खुदाई करा सकती है। इस पर भी कि आखिर सपने का साइंस से संतुलन कैसे बैठ गया। कुछेक संपादक लोग इस पर भी कि मीडिया वाले मूर्ख हैं (खासकर टीवी मीडिया) कि सपने की बात कह रहे हैं जबकि, ये सपने नहीं साइंस के आधार पर सोना खोजा रहा है। नरेंद्र मोदी और उनके समर्थक परेशान हैं कि सरकार मोदी की लोकप्रियता से जनता का ध्यान हटाने के लिए साजिशन ये कर रही है और सरकार समर्थक परेशान हैं कि एक हजार टन सोना भी लोगों को पीपली लाइव की तरह डौंड़ियाखेड़ा लाइव देखने के लिए लोगों को प्रेरित नहीं कर सका। और, जनता कानपुर चली गई नरेंद्र मोदी की रैली देखने। परेशान उत्तर प्रदेश की सरकार भी है और मुलायम का कुनबा भी कि पहली ही रैली में मोदी निपट जाते तो आगे दिक्कत न होती। इसी परेशानी में शिवपाल ने तो बयान भी दे डाला कि नरेंद्र मोदी को अब यूपी में घुसने नहीं देंगे जैसे वो डौंड़ियाखेड़ा के राजा रावबक्श सिंह हों या अंग्रेज सरकार।

लेकिन, जनता परेशान है। क्योंकि, उसकी परेशानी का इलाज करने के लिए इस जैसी दुकान नोएडा जैसे विकसित शहरों के चौराहों पर भी दिख जाती हैं। जनता परेशान है शादी से, शादी के बाद क्या होगा इससे, पेट खराब होने से लेकर जाने किस-किससे। खैर मुझे क्या ऐसी परेशानियों से मुझे क्या लेना देना। और जब सिर्फ 20 रुपये में नाड़ी देखकर इस सोनिया आयुर्वेदिक खानदानी दवाखाना वाले वैद्यजी सब परेशानी दूर कर रहे हैं तो हमें परेशानी होनी भी क्यों चाहिए। लेकिन, परेशान हम भी हो गए। एक हजार टन सोने की चाह में सरकार खुदाई क्यों करा रही है इससे भी हम ज्यादा परेशान नहीं हुए थे। लेकिन, इस खानदानी दवाखाना की दुकान ने मुझे भी परेशान कर दिया। वजह ये कि ये खानदानी दवाखाना भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है। यानी भारत सरकार इस दुकान पर लिखी सारी बीमारियों के ठीक होने की गारंटी ले रही है। ये दुकान नोएडा के चौराहे पर पिछले कई दिनों से भारत सरकार की गारंटी के साथ चल रही है। अब सोचिए जब हमारी भारत सरकार इस नाड़ी से इलाज करने वाले वैद्य की गारंटी ले सकती है तो फिर बाबा के चोले में हजारों-लाखों की आस्था का केंद्र बने शोभन सरकार या कांग्रेसी से बाबा बने उनके शिष्य ओम बाबा के कहने-सपने का साइंस से संतुलन बैठाकर खुदाई क्यों नहीं करा सकती। और यहां तो 1000 टन सोने का सपना भी दिख रहा है।

Tuesday, October 22, 2013

भारतीयों में गुलामी का हार्डवेयर

प्रेस कांफ्रेंस से पहले बिना तौलिये की ऊंची कुर्सी
हम भारतीयों में गुलामी का सॉफ्टवेयर इनबिल्ट है। यानी इसको सॉफ्टवेयर की जगह गुलामी का हार्डवेयर कहें तो बेहतर होगा। ये गुलामी का हार्डवेयर हम भारतीयों के मानस में ऐसा फिट है कि न चाहते हुए भी हम इसे आसानी से कर जाते हैं। या हमारे शरीर का कंप्यूटर ऑन होते ही हार्डवेयर से गुलामी सबसे पहले अपडेट होती है। देश के वित्त मंत्री सरकारी बैंकों के प्रमुखों के साथ समय-समय पर मिलते हैं। जिससे बैंकों की हालत का पता लगे और साथ ही सरकार क्या चाहती है। कौन सी प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं उन्हें बैंकों को बताया जा सके। आम तौर पर ये बैठक विज्ञान भवन में होती है। लेकिन, आज ये बैठक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के दिल्ली हेडऑफिस में हुई। संसद मार्ग पर स्थित शानदार एसबीआई के ऑफिस में अलग-अलग जगहों पर सरकारी बैंकों को प्रमुखों के साथ वित्त मंत्री की बैठक और बैठक के बीच में वित्त मंत्री की प्रेस वार्ता का कार्यक्रम रखा गया था।

चिदंबरम के आने से ठीक पहले ऊंची कुर्सी पर लगा तौलिया
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की इमारत कई मंजिलों की है। और 11वीं मंजिल पर पत्रकार वार्ता थी। लेकिन, इस बड़ी इमारत में भी वित्त मंत्री की प्रेस कांफ्रेंस के लिहाज से छोटी जगह वाला हॉल चुना गया था। एक बजे की प्रेस कांफ्रेस 2 बजे के बाद शुरू हो सकी। ये ऊपर की पूरी घटना मैं सिर्फ संदर्भ के तौर पर लिख रहा हूं। असल बात अब शुरू होती है। 5 कुर्सियां लगाई गईं थीं। वित्त मंत्री, वित्त राज्य मंत्री, वित्त सचिव, सहायक वित्त सचिव और एडिशनल डीजी (पीआईबी)। 5 में एक कुर्सी अलग सबसे ऊंची नजर आ रही थी। जाहिर है वो वित्त मंत्री पी चिदंबरम के लिए रखी गई थी। उस कुर्सी को देखकर हमारे मन में आया कि चिदंबरम ने तो बिल्कुल नहीं कहा रहा होगा कि उनकी कुर्सी सबसे ऊंची रखी जाए। मैंने उस तस्वीर को लिया। तब तक हम भारतीयों की गुलामी और लालफीताशाही के प्रति असल प्रेम वाली तस्वीर आई। स्टेट बैंक के एक अधिकारी ने प्रेस कांफ्रेंस शुरू होने से ठीक पहले  सबसे ऊंची यानी वित्त मंत्री पी चिदंबरम वाली कुर्सी पर सफेद तौलिया लगा दिया। अब बताइए भला। पूरी तरह से वातानुकूलित उस प्रेस वार्ता कक्ष में किस पसीने को सुखाने-पोंछने के लिए उस तौलिये की जरूरत थी। दरअसल ये हमारी गुलामी मानसिकता का शानदार नमूना है जो गाहे बगाहे देखने को मिलता रहता है। 

इस गुलाम मानसिकता को तोड़ने की कोशिश पूर्व वित्त मंत्री और अभी के हमारे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने की है। उन्होंने सर्कुलर भेजकर कहा है कि उनके नाम के आगे महामहिम न लगाया जाए। श्री या आदरणीय लगाने में एतराज नहीं।

Friday, October 18, 2013

नरेंद्र मोदी और बीजेपी का प्रचारक बन गया है Network 18 ?


मतदाताओं को जागरुक करने की नेटवर्क 18 की कोशिश
ये चुनाव बड़ा महत्वपूर्ण साबित हो रहा है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यूपीए ने क्या किया और एनडीए क्या करेगा। इसलिए भी नहीं कि नरेंद्र मोदी आएंगे या राहुल गांधी कुछ कर पाएंगे। दरअसल ये चुनाव महत्वपूर्ण इसलिए साबित हो रहा है कि वोटों का प्रतिशत इस चुनाव में अभूतपूर्व तरीके से बढ़ने की उम्मीद की जा रही है। लोग इस बार मान रहे हैं कि बरसों से सोया मतदाता और इसी बार मतदान करने को पाया मतदाता दोनों ही इस बार पोलिंग बूथ तक पहुंचेंगे। इसीलिए बार-बार युवाओं की सरकार जैसा जुमला नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की तरफ से उछाला जा रहा है। यही नौजवान मतदाता है जो मतों का प्रतिशत अप्रत्याशित तौर पर बढ़ाने वाला है। चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दल तक हर कोई मतदाताओं को जगाने में लगा है। सोशळ मीडिया पर पहले से बढ़त ले चुकी भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया टीम मतदाताओं के पंजीकरण में जी जान से जुटी है। और इस मुहिम में Network 18 भी खूब लगा है। नेटवर्क एटीन की वेबसाइट Firstpost.com में एक और महत्वपूर्ण पन्ना जुड़ गया है http://www.firstpost.com/firstvote/ का। 

फर्स्टवोट के पन्ने का नीचे खुला बक्सा बीजेपी को आगे बताता
इस पन्ने पर जाकर आप अपना वोटर आईडी कार्ड बनवा सकते हैं। Register for Your 2014 Voter ID। इस पन्ने पर ये भी जानकारी दिखती है कि हर घंटे कितने वोटर इसके जरिए आ रहे हैं। यहां आपको सीधे सीधे ये बताना है कि आप किस पार्टी को वोट देंगे। वोटर कहां से आ रहा है और किस पार्टी को वोट दे रहा है इस आधार पर ये भी अंदाजा लग जाता है कि कौन सी पार्टी कहां आगे चल रही है। मतलब ये मतदाता जागरुकता अभियान एक बढ़िया चुनावी सर्वेक्षण भी साबित हो रहा है। यहां लोग तेजी से जुड़ रहे हैं। इस अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मैंने जब इसे लिखना शुरू किया तो मतदाता 56680 थे और जब इसे ब्लॉग पर लगाया तो 56700 से ज्यादा मतदाता हो चुके थे। अच्छी पहल है लेकिन, एक बात जो मेरे मन में सवाल पैदा कर गई कि क्या फर्स्टवोट नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए काम कर रहा है। फर्स्टपोस्ट की वेबसाइट पर मैंने कई बार जाकर देखा कि नीचे एक बक्सा खुलता है। FirstVote के इस बक्से में लिखा है BJP is leading in Uttar Pradesh. Have you Voted? इस तरह दूसरी बार लिखकर आता है BJP is leading in Delhi. Have you Voted? इसमें Have you Voted? पर क्लिक करके आप फर्स्टवोट के पन्ने पर जा सकते हैं। इस तरह का फायदा उठाने का काम राजनीति दल करते हैं। हो सकता है कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश से इस पन्ने पर वोट दे चुके लोगों में ज्यादातर बीजेपी को वोट कर रहे हों लेकिन, क्या किसी मीडिया हाउस को इस तरह से किसी पार्टी का कैंपेनर बनना चाहिए?

Tuesday, October 15, 2013

अमेरिका पर भरोसा दुनिया में ताला लगाएगा!



अमेरिका में आंशिक तालाबंदी अमेरिका और अमेरिकियों का नया चरित्र दुनिया के सामने पेश कर रही है। ऐसे सरकारी कर्मचारी जिनको अस्थाई तौर पर छुट्टी के लिए कहा गया है। उनके सामने कितनी तेजी में संकट हो गया है। इसका अंदाजा इस उदाहरण से आसानी से लग जाएगा। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत यावत जीवेत सुखम जीवेत का सिद्धांत भले ही चार्वाक दर्शन हो और भारतीयों के संदर्भ में जाना जाता हो लेकिन, सच्चाई ये है कि इस सिद्धांत को जीते सिर्फ अमेरिकी हैं। हफ्ते भर में ही बिना वेतन के छुट्टी पर भेजे गए कर्मचारियों के सामने संकट खड़ा हो गया है। बचत है नहीं देनदारियां ढेर सारी। अमेरिका के डिफेंस डिपार्टमेंट की डिफेंस एक्विजिशन यूनिवर्सिंटी में आईटी एक्सपर्ट के तौर पर काम करने वाली मेकाइला कोलमैन की मुश्किल इतनी बड़ी हो गई है कि उन्हें अपने रोज के खर्चों के लिए अपने पुराने सामान बेचने की नौबत आ गई है। और ये सामान क्या हैं ये सुनकर आपको हंसी आ सकती है। मेकाइला ने अपने बच्चों के कुछ ऐसे सामानों को बेचने का विज्ञापन दिया है जिसकी उन्हें आगे जरूरत नहीं लगती। विज्ञापन में मेकाइला ने साफ लिखा है कि कीमतों कम ज्यादा हो सकती हैं लेकिन, जो सचमुच खरीदना चाहते हैं वही संपर्क करें क्योंकि उन्हें खर्च चलाने के लिए रकम की सख्त जरूरत है। जिन सामानों का विज्ञापन दिया गया है उसकी अनुमानित कीमत करीब 300 डॉलर बताई गई है। मेकाइला के पति भी काम करते हैं लेकिन, मेकाइला और उनके पति ने सारी बचत अपने उस घर को ठीक कराने में हाल ही लगा दी जिसे वो बेचना चाहते हैं। मेकाइला और उनके पति को अंदाजा ही नहीं था कि एक राजनीतिक तूफान आएगा और उनकी जिंदगी में इस तरह का संकट खड़ा हो जाएगा। डेमोक्रैट और रिपब्लिकन के बीच की जंग अमेरिकियों के लिए खतरनाक संकट बनती दिख रही है और धीरे-धीरे दुनिया के लिए भी। 

ये अंदाजा दुनिया को भी नहीं था कि अमेरिका ऐसे बंद भी हो सकता है। चौंकाने वाली बात है कि ये कैसे हो सकता है। दुनिया जिस एक देश के इशारे पर चलती है। जिस एक देश के बारे में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ये सोचते हैं कि उसके मुखिया से शिकायत लगाकर भारतीय प्रधानमंत्री अपने पक्ष की बात मजबूत कर लेंगे। जिस एक देश की अपनी समस्याएं भले खत्म न हों लेकिन, कश्मीर सुलझाने के लिए वो आगे आ जाता है। जिस देश के बैंकिंग सिस्टम के दिवालियेपन से दुनिया एक बार बर्बाद हो चुकी है और अब बड़ी मुश्किल से पटरी पर आती दिख रही थी। जिस अमेरिका के सुधरने से भारत जैसा देश भी अपनी अर्थव्यवस्था सुधरने का अनुमान लगाए बैठा है। उस अमेरिका में ताला कैसे लग सकता है। लेकिन, सच्चाई यही है कि वहां ताला लग गया है। अमेरिका को ताला लगने का मतलब क्या हुआ, पहले तो ये समझना जरूरी है। दरअसल अमेरिका के 8 लाख फेडरल कर्मचारी (भारतीय संदर्भ में समझें तो केंद्रीय सरकार के कर्मचारी) छुट्टी पर भेज दिए गए हैं। अमेरिकी फेडरल के कुल करीब तैंतीस लाख कर्मचारी हैं। और उनमें से ये आठ लाख कर्मचारी एक अक्टूबर से तब तक तनख्वाह नहीं पाएंगे। जब तक किसी तरह अमेरिका की इज्जत बचाने के लिए कोई समझौता रिपब्लिकन और डेमोक्रैट के बीच हो जाए तो बात अलग। इसकी वजह है अमेरिकी सीनेट और कांग्रेस में प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों दलों डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन के बीच चल रही तनातनी।

वैसे तो अमेरिका जिस राह पर था उसका इस हाल में पहुंचना तय था। लेकिन, अभी जो अमेरिकी बंदी की वजह बनी है वो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की निजी इच्छा है। निजी इच्छा मतलब ओबामा ने 2010 में एक हेल्थकेयर कार्यक्रम लागू किया था जिसे एक अक्टूबर से लागू कर दिया गया है। सारी लड़ाई उसी की है। इसके लिए फंड का भी प्रावधान कर दिया है वहां की सीनेट (संसद) ने। अमेरिका के मुख्य सदन में इस बिल को अफोर्डेबल हेल्थकेयर फॉर अमेरिका एक्ट के नाम से जाना जाता है। यही कानून सीनेट में पेशेंट प्रोटेक्शन और अफोर्डेबल एक्ट के नाम से पास हुआ। हाउस और सीनेट दोनों के अपने अलग अनुमान हैं इस बिल को लागू करने में आने वाले खर्च को लेकर। हाउस मानता है कि इसे लागू करने में एक हजार बिलियन डॉलर से कुछ ज्यादा की रकम खर्च होगी जबकि, सीनेट का अनुमान इस पर करीब साढ़े आठ सौ बिलियन डॉलर खर्च होने का है। इस कानून के मुताबिक, हर अमेरिकी को स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए बीमा करने में आसानी की बात है। वैसे अमेरिका में बीमा सुरक्षा करीब पचासी प्रतिशत लोगों के पास पहले से है। भारत जैसा नहीं कि खाद्य सुरक्षा योजना से पचास करोड़ गरीबों को फायदा मिलेगा या 82 करोड़ गरीबों को यही तय नहीं हो पा रहा है। लेकिन, इस नए कानून के बाद सभी अमेरिकियों को बीमा सुरक्षा देने की अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की योजना है। यहं से रिपब्लिकन का विरोध शुरू हो जाता है। रिपब्लिकन का कहना है कि इस योजना पर होने वाले खर्च से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को झटका लगेगा साथ ही लोगों पर भारी टैक्स थोपा जाएगा। इसीलिए रिपब्लिकन इस बिल को कम से कम एक साल के लिए टालने की बात कर रहे हैं। जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का साफ कहना है कि ये पूरी तरह से राजनीति है। ओबामा का कहना है कि ये अमेरिका के इतिहास में पहली बार होगा जब रिपब्लिकन इस बात पर अड़े हैं कि मैं करोड़ो लोगों के हित वाला कानून को लागू न करूं। ऐसा करने पर वो अमेरिकी सरकार को बंद करने की धमकी दे रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका अपनी देनदारी नहीं चुका पाएगा।

अब अगर ओबामा के इस हेल्थकेयर बिल के बारे में उदाहरण के साथ समझना है तो इसे आप भारत के खाद्य सुरक्षा बिल की तरह से समझ सकते हैं। भारत का चालू खाते का घाटा लगातार बढ़ रहा है इसके लिए सरकार ने पेट्रोलियम प्रोडक्ट की सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म करने की योजना बनाई है लेकिन, सवा लाख करोड़ रुपये के खर्च वाली खाद्य सुरक्षा योजना को आनन फानन में पहले अध्यादेश और फिर कानून बनाकर संसद से पास कर दिया गया। चालू खाते का घाटा पहले तिमाही यानी अप्रैल से जून के दौरान जीडीपी के 4.9% को पार कर गया है। लेकिन, सोनिया गांधी की निजी इच्छा वाली खाद्य सुरक्षा योजना लागू हो गई है। हालांकि, वो धीरे-धीरे लागू होगी। चुनावी राज्यों यानी दिल्ली, राजस्थान से इसकी शुरुआत हुई है और 2014 के चुनाव जीतने भर की वोट सुरक्षा योजना बन गई है। ठीक इसी तरह बराक ओबामा ने अमेरिकियों के लिए हेल्थकेयर योजना शुरू की है। अब अमेरिका पहले ही कर्ज के बोझ में बुरी तरह डूबा हुआ है। उस पर ये हेल्थकेयर योजना का खर्च मुसीबत बन गया है। इससे पहले भी कर्ज की सीमा बढ़ाने को लेकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था खतरनाक संकट से जूझ चुकी है। अमेरिकी कांग्रेस ने अभी कर्ज लेने की अधिकतम सीमा $16.7 ट्रिलियन तय कर रखी है। अब अगर ये सीमा नहीं बढ़ाई जाती है तो सरकार खर्च चलाने के लिए भी रकम का जुगाड़ मुश्किल से कर पाएगी। क्योंकि, ये सीमा 17 अक्टूबर तक परी हो जाएगी। इसका सीधा सा मतलब होगा कि अगर सीनेट ने अमेरिका के कर्ज लेने की सीमा नहीं बढ़ाई तो अमेरिका के लिए देनदारी चुकाना भारी पड़ने लगेगा। और ये बड़े संकट की शुरुआत होगी। अमेरिका पूरी तरह से करीब एक दशक से उधार की अर्थव्यवस्था पर चल रहा है। दुनिया भर की सरकारें कर्ज लेती हैं लेकिन, अमेरिका का कर्ज संकट कितना बड़ा है इसको समझना जरूरी है। भारत की सरकार का कर्ज उसके जीडीपी का 67% है। मतलब 100 रुपये अगर भारत की जीडीपी मान लें तो 67 रुपये का कर्ज भारत पर है। लेकिन, जरा अमेरिका की स्थिति समझिए। अमेरिका पर कर्ज उसकी जीडीपी का 104% है। मतलब अगर अमेरिकी जीडीपी- हिंदी में अमेरिका की पूरी हैसियत- 100 डॉलर मानें तो उस पर कर्ज 104 डॉलर से ज्यादा है। ये अमेरिका की अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था में चुनाव के पहले ओबामा हर अमेरिकी को बीमा सुरक्षा आसान प्रीमियम और शर्तों पर देना चाहते हैं और रिपब्लिकन इससे किसी भी कीमत पर डेमोक्रैट को चुनावी फायदा नहीं होने देना चाहते। यही पूरी लड़ाई है और अमेरिकी शटडाउन के संकट की वजह है। ये लंबी खिंचे या जल्दी खत्म हो जाए। इससे दुनिया को एक चेतावनी जरूर है कि उसे विकल्प खोजना होगा। डॉलर भुगतान संतुलन और उधारी की अर्थव्यवस्था पर चल रहे अमेरिका पर अब भरोसा दुनिया के लिए खतरनाक हो सकता है। वीजा मिलना इस समय थोड़ा मुश्किल है लेकिन, उधारी पर दादागीरी दिखाने वाले अमेरिका की असलियत देखनी हो तो इसी समय अमेरिका जाइए। नेशनल पार्क तक में घूमने का मौका नहीं मिलेगा। क्योंकि, नेशनल पार्क के कर्मचारी भी उन्हीं आठ लाख कर्मचारियों में से हैं जिन्हें अस्थाई छुट्टी गई है। इससे हर रोज अमेरिका को 30 लाख डॉलर का नुकसान हो रहा है। फिलहाल अमेरिका बंद है, डेमोक्रैट, रिपब्लिकन लड़ रहे हैं और दुनिया दहशत में है।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

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