Friday, April 23, 2010

और भी खेल हैं देश में क्रिकेट के सिवाय


फटाफट क्रिकेट का आधुनिकतम संस्करण इंडियन प्रीमियर लीग फटाफट घोटाले की सबसे आधुनिकतम मशीन बन गया है। वो, भी मशीन ऐसी कि समझ में नहीं आता कि आखिर कौन सा तरीका है जो, एक क्रिकेट टीम खरीदने के लिए करीब दो हजार करोड़ रुपए के निवेश पर मुनाफा कमाने की गारंटी दे रहा है। गारंटी ऐसी है कि इस इंडियन प्रीमियर लीग के मैदान पर एक मंत्री क्लीनबोल्ड हो गया। और, एक ताकतवर मंत्री अपने विभाग से ज्यादा तवज्जो क्रिकेट के इस खेल को दे रहा है। लेकिन, मैं फिलहाल इंडियन घोटाला लीग की चर्चा नहीं करना चाहता। मैं इस वक्त इस घोटाले की दुनिया के सामने आने के बहाने बात करना चाहता हूं देश के दूसरे खेलों की।

भारत में क्रिकेट मंदिर और क्रिकेटर कुछ इस कदर भगवान माने जा रहे हैं कि देश के दूसरे खेलों को गुमनामी का राक्षस निगल गया है। यही वजह है कि छुटभैये क्रिकेटर को भी एक बार चाहे इंडियन टीम हो या फिर IPL में मौका मिल जाने के बाद उसी तारीफों के कसीदे पढ़े जाने शुरू हो जाते हैं लेकिन, विजेंदर और अखिल के मुक्के से निकला बॉक्सिंग चैंपियन का तमगा भी उन्हें दिल्ली की ऑटो की सवारी करने की मजबूरी से बचा नहीं पाता।

अभी ताजा-ताजा हॉकी विश्व कप खत्म हुआ है। भारतीय हॉकी टीम ने पहले मैच में पाकिस्तान को पीटकर हॉकी जादूगर ध्यानचंद की पौध के फिर से हरे होने के संकेत दिए लेकिन, दुर्भाग्य ये कि उस जीत से मिली ऊर्जा को भारतीय टीम संजो नहीं पाई और छठवें नंबर पर चली गई। वैसे ये पिछले कई विश्व कप में हॉकी टीम की रैंकिंग से बेहतर है। लेकिन, सवाल ये है कि इस हॉकी टीम को चैंपियन बनते देखने की देश के दिल में, खेल मंत्रालय और हॉकी फेडरेशन की मंशा कितनी शामिल थी। हॉकी खिलाड़ियों का हाल ये कि विश्व कप से ठीक पहले भारतीय कप्तान पर ये आरोप लगता है कि चंडीगढ़ में एक चैरिटी मैच के लिए कप्तान ने 5 करोड़ मांग लिए। ये इतनी रकम है जो, इंडियन प्रीमियर लीग में चिल्लर जैसी लगती है। इससे करीब 14 गुना ज्यादा रकम तो, लीग की एक टीम को मार्गदर्शन देने भर के लिए सुनंदा पुष्कर को मुफ्त में मिल रहे थे। हल्ला ज्यादा हो गया तो, भले उनको लौटाना पड़ गया। 5 करोड़ रुपए इंडियन प्रीमियर लीग में बिके सबसे महंगे खिलाड़ी की व्यक्तिगत रकम से भी कम रकम है। फिर भी हॉकी खिलाड़ियों पर हर तरफ से थू-थू होने लगी थी। विश्व कप के ठीक पहले हॉकी खिलाड़ियों को ढंग के पैसे न मिलने का हल्ला हुआ तो, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर सहारा ग्रुप के सुब्रत रॉय की दरियादिली से थोड़ा सहारा मिला। लेकिन, सवाल यही है कि आखिर हॉकी ही क्यों, क्रिकेट के अलावा देश के दूसरे खेलों की ऐसी दुर्दशा क्यों है।

क्रिकेट के बाजार को मुनाफा मशीन बताने वाले तर्क देते हैं कि क्रिकेट बाजार से कमाई कराता है और इसीलिए क्रिकेट खिलाड़ियों और क्रिकेट की ज्यादा पूछ होना स्वाभाविक है। लेकिन, सवाल ये है कि ये पूछ आखिर क्यों है। दूसरे खेल में मेडल जीतने पर क्या देश के लोगों का सीना गर्व से चौड़ा नहीं होता। क्या ओलंपिक में विजेंदर को मिला पदक या फिर पेस-भूपित के हाथ में चमचमाती ट्रॉफी देश का सम्मान नहीं बढ़ाती। जबकि, दुनिया के मशहूर खेलों में क्रिकेट का तो नामोनिशान तक नहीं है। ये तो, अंग्रेजों की गुलामी वाली कुछ देशों और गरीब देशों का खेल भर है।

अब कहा ये जा रहा है कि 5 दिन से 50-50 ओवर और 50 ओवर से 20-20 ओवर में बदले क्रिकेट ने आज की तेज भागदौड़ वाली जिंदगी में लोगों के रोमांच का अंदाज बदल दिया है। अब सवाल ये है कि एक खिलाड़ी खड़े होकर खेले और 11 खिलाड़ियों की टीम के बीच से हो रही चौके-छक्के की बौछार से कम रोमांच क्या आमने-सामने लड़ रहे दो मुक्केबाजों, दो टेनिस खिलाड़ियों या फिर 11 के सामने 11 खिलाड़ियों की हॉकी और फुटबॉल टीम के मैच में होता है। चक दे इंडिया फिल्म में बेहद कमजोर भारतीय महिला हॉकी टीम के फाइनल मैच में टीम के सदस्यों से शाहरुख खान का ये कहना कि ये 70 मिनट आपकी जिंदगी बदल सकते हैं। आखिर 70 मिनट के मैच से ज्यादा रोमांच 3 घंटे के IPL में कैसे हो सकता है।

क्रिकेट क्या कोई भी खेल हो और उसमें भारतीय खिलाड़ी शानदार प्रदर्शन करे तो, देश का दिल उस खिलाड़ी से लग जाता है और खिलाड़ी से देश का दिल लगे तो, बाजार खिलाड़ी से दिल लगा लेता है और उस पर पैसों की बरसात शुरू हो जाती है। साथ ही उस खेल से बाजार भी कमाई करने लगता है। लेकिन, ये होने के लिए एक तो, दूसरे खेल के खिलाड़ियों को लोग पहचानें और वो खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करें ये, जरूरी है। मुझे याद है मैं उस समय एक बिजनेस न्यूज चैनल में था और ओलंपिक में विजेंदर के क्वार्टरफाइनल जीतने के बाद पूरा न्यूजरूम थम गया था। शेयरों का हाल छोड़कर सब विजेंदर के मुक्के की ताकत बढ़ाने के लिए दुआ करने लगे थे। यही ताकतवर मुक्का बाजार बनाता है। सोचिए एक मुक्के में नॉकआउट-क्रिकेट में ये रोमांच क्या किसी भी तरह आ सकता है। जरूरी नहीं है कि ये बाजार क्रिकेट के छक्के-चौके पर ही खजाना खोले। हॉकी-फुटबॉल के गोल पर भी पैसे बरस सकते हैं लेकिन, उसके लिए माहौल बनाना होगा। पाकिस्तान के मैच में शानदार खेल दिखाने वाले हॉकी खिलाड़ी संदीप सिंह, कप्तान राजपाल सिंह, प्रभजोत सिंह और चंडी की जर्सी सब पहचानने लगे थे। बस यही जज्बा आगे बढ़ जाए तो, बात बन जाए।

एक मंत्री उनकी करीबी महिला और इंडियन प्रीमियर लीग के कमिश्नर के रिश्तेदारों के घोटाले सामने आए तो, इससे मुनाफा खाने से बचे सांसदों ने संसद में हंगामा मचाना शुरू कर दिया कि ये खेल तो ब्लैकमनी का धंधा है, इसे तुरंत बंद करो। यही भेड़ियाधंसान ही है कि जब फटाफट क्रिकेट का सिक्का चल रहा था तो, सारे दलों के नेता, राज्यों के मुख्यमंत्री, सारे उद्योगपति इंडियन प्रीमियर लीग के मैच में ललित मोदी के बगल वाली कुर्सी पर चहकते बैठे दिख रहे थे। और, थोड़ा सा क्रिकेट के इस संस्करण पर घोटाला मशीन बनने का आरोप जैसे ही खुलेआम लगने लगा कि सब एक साथ पिल पड़े कि इसे बंद करो। वहीं उन बेचारों की जान सूखी जा रही है जिन्होंने करोड़ो रुपए लगाकर टीमें खरीदीं और बमुश्किल 150-200 करोड़ कमाई के बीच सालाना टीम पर 100 करोड़ रुपए तक खर्च करके आगे इससे मुनाफे की उम्मीद पाले बैठे हैं।

इसलिए ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है इंडियन प्रीमियर लीग या क्रिकेट को नकारने से दूसरे खेलों का भला नहीं होने वाला। भला इस बात से होने वाला है कि अंग्रेजों के क्रिकेट पर भारतीयों की इंडियन प्रीमियर लीग ब्रांड की जीत का शानदार उत्सव मनाया जाए। इसकी गंदगी पर छन्नी लगे लेकिन, देश के दूसरे खेलों को ब्रांड बनाने की कोशिश की जाए। टेलीविजन और प्रिंट मीडिया को भी चाहिए कि वो दूसरे खेलों को बढ़ाने के लिए कुछ नियमित  एयरटाइम और अखबारी पन्ने छोड़ें। क्योंकि, रस्मी तौर पर हॉकी विश्व कप के पहले टीम का मनोबल बढ़ाने के लिए मैच देखने स्टेडियम जाने वाले सितारे प्रियंका चोपड़ा, वीरेंद्र सहवाग, राज्यवर्धन राठौड़ स्क्रीन से निकलकर स्टेडियम तक नहीं पहुंच पाए।

सचिन ने क्रिकेट में भारत को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया है उसके लिए उन्हें भगवान का दर्जा बिल्कुल दीजिए लेकिन, सचिन की कला के कद्र में राजपाल सिंह, संदीप सिंह, भूटिया, पंकज आडवाणी, विश्वनाथन आनंद, विजेंद्र सिंह, अखिल कुमार, साइना नेहवाल, अभिन्न श्याम गुप्ता, लिएंडर पेस, महेश भूपति और देश के दूसरे महान खिलाड़ियों की कला का अपमान मत करिए। ये सही मौका है क्रिकेट को छोड़ दूसरे खेलों की बात करने का। सरकार जागी है कह रही है कि अब BCCI यानी देश में क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था को टैक्स देना पड़ेगा। सोचिए लाखों करोड़ की कमाई वाली इस संस्था को टैक्स से छूट मिली हुई थी। अब 2006 से इस पर टैक्स लगेगा तो, अनुमानित 1000 करोड़ रुपए का टैक्स बनता है। बस इसी टैक्स की रकम का एक हिस्सा दूसरे खेलों पर लगा दिया जाए तो, दूसरे खेलों के खिलाड़ी भी देश की पहचान बन जाएंगे
(this article is published on jansatta's samantar coloumn)

Wednesday, April 21, 2010

प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, भ्रमित नेता

भारतीय जनता पार्टी ने बुधवार को आज दिल्ली में जो रैली की वो, अपने आप में एतिहासिक कई मायनों में है। सबसे बड़ी बात तो ये कि भारतीय जनता पार्टी की इस 42 डिग्री की गर्मी में दिल्ली में हुई इस रैली ने साबित कर दिया कि घर बैठे कांग्रेस सरकार के राज में महंगाई की गर्मी की तपिश दिल्ली आकर 41 डिग्री के तापमान में झुलसने से कहीं ज्यादा भारी है। साबित ये भी हुआ कि नितिन गडकरी कैसे अध्यक्ष होंगे, उनका बीजेपी के इतिहास में नाम कैसे लिखाएगा ये तो, वक्त बताएगा लेकिन, संघ के इस लाडले अध्यक्ष की ताकत पूरे देश ने देख ली। साबित ये भी हुआ कि अटल-आडवाणी-जोशी और उस दौर के सारे नेताओं को भी नमस्ते किया जा चुका है। पार्टी कार्यकर्ता के सामने सिर्फ और सिर्फ सरकार से महंगाई पर कड़े सवाल पूछते गडकरी ही दिख रहे थे।

लेकिन, इतना सबकुछ होने गडकरी के सबसे ताकतवर नेता के तौर पर प्रतिस्थापित होने के बावजूद गडकरी की बेहोशी ने मीडिया को विश्लेषण का वो बहाना दे दिया कि जब नेता खुद खड़ा नहीं हो पा रहा है तो, पार्टी क्या खड़ी करेगा। देश भर से आए बीजेपी कार्यकर्ताओं की जुबान में बोलते हुए बीजेपी के ताजा-ताजा प्रवक्ता बने तरुण विजय भले ही इसे मीडिया का फाउल गेम कहें कि मीडिया बेवजह उनके अध्यक्ष की बेहोशी को तूल दे रहा हो, मीडिया को देश भर से आए लाखों कार्यकर्ता नहीं दिखे। अब तरुण विजय कुछ भी कहें लेकिन, सवाल उनसे मीडिया अगर पूछे कि क्या कांग्रेस की किसी रैली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी धूप में बेहोश होकर गिर पड़ें तो, क्या बीजेपी इस बात का बतंगड़ नहीं बनाएगी। बनाएगी और जरूर बनाएगी।

प्रतीकों की राजनीति से सत्ता तक पहुंच जाने वाली पार्टियों के इस देश में ऐसे प्रतीक बड़ा असर करते हैं। और, गडकरी की बेहोशी का असर भी उसी तरह से हुआ। गडकरी को कुछ दिन पहले मैंने अपने लेख में एक सलाह दी थी, दूसरे उनके शुभचिंतक भी उनको ये सलाह जरूर देते होंगे अगर वो, उनका बात सुनते होंगे। वो, सलाह भी यही होती होगी कि गडकरी जी राहुल गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस से लड़ना है तो, चुस्त-दुरुस्त रहिए। स्लिम मत होइए लेकिन, स्वस्थ रहिए-स्वस्थ दिखिए। वरना तो, राहुल गांधी के NREGS में तसला उठाए धूप में मिट्टी ढोती तस्वीरों के सामने आपकी रैली में करीब डेढ़ लाख की भीड़ होने पर भी बेहोश होकर गिरने की तस्वीरें कहां ठहर पाएंगी। सोचिए सिर्फ अच्छी बातें करने से कुछ नहीं होगा। अच्छी बातों पर अमल दिखे और इन बातों पर अमल करने वाला पार्टी अध्यक्ष अच्छा दिखे ये बड़ा जरूरी है। अभी ये शुरुआत है आगे इसे सुधार लें तो, शायद मामला संभल जाए।

बीजेपी की महारैली देखने के लिए मैंने राजीव चौक स्टेशन से रामलीला मैदान के लिए ऑटो वाले से पूछा तो, उसका जवाब था-साहब पिछले 25 सालों से ऑटो चला रहा हूं ऐसी रैली नहीं देखी। मैं नहीं जाऊंगा। दूसरा ऑटो वाला इस शर्त पर तैयार हुआ जहां ज्यादा जाम हुआ वहीं छोड़ दूंगा लेकिन, 30 रुपए लूंगा। मुझे लगा अतिशयोक्ति है लेकिन, रामलीला मैदान पर सचमुच ऐसा माहौल था जिससे कहीं से ये लग ही नहीं रहा था ये उस पार्टी की रैली है जिसके गर्त में जाने की भविष्यवाणी पिछले लोकसभा चुनाव में हार के बाद जाने कितने राजनीतिक विश्लेषक लगाने लगे थे। कार्यकर्ताओं में जबरदस्त जोश और जान दिख रही थी।

मंच पर बुढ़ाती पीढ़ी के आडवाणी-जोशी थे लेकिन, पोस्टरों से ये सब गायब थे। किसी-किसी को गडकरी के साथ आडवाणी की सुध आ गई दिख रही थी। मंच के एक-एक तरफ दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तस्वीरें टंगी थीं। और, मंच के एक तरफ बड़ा सा लहराता हुआ अटल बिहारी वाजपेयी का मुस्कुराता चित्र था जिस पर उनकी कविताएं लिखीं थीं। नारे लिखे बोर्ड्स पर आम जन या फिर नितिन गडकरी ही दिख रहे थे।

सबसे बड़ी बात ये थी कि रैली में ज्यादातर जगहों कम से कम उत्तर प्रदेश से तो कार्यकर्ता जुटाकर नहीं लाए गए थे। छिटपुट 10-20 की टोली में आए थे। किसी बड़े नेता के साथ जुटकर नहीं आए थे। उम्मीद में चले आए थे पता नहीं अगर वो, रैली के बाद नेताओं के व्यवहार से ठगे न महसूस कर रहे होंगे तो, उत्तर प्रदेश में जमीन से चिपकी पार्टी थोड़ी तो, ऊपर उठेगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी की दुर्दशा की वजह समझ में आई जब पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह बोलने खड़े हुए तो, एक कार्यकर्ता मेरे ठीक पीछे से बोला अब तो ग आधी भीड़। ये कोई पैमाना नहीं है लेकिन, ऐसी कच्ची-पक्की लाइनें किसी गंभीर सर्वे से ज्यादा महत्व रखती हैं। हां, रैली में इंतजाम से कार्यकर्ता बहुत खुश थे। पानी के टैंकर से लेकर पैंकेटबंद पानी तक मुफ्त था। लखनऊ से आने वाले करीब डेढ़ हजार कार्यकर्ताओं के लिए सांसद लालजी टंडन के घर भोजन का इंतजाम था। लखनऊ के कार्य़कर्ताओं की बसें तो, जाम में फंस गईं वो तो, समय से नहीं पहुंच सके। हां, उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों से आए कार्यकर्ताओं को शानदार भोजन मिल गया।

अब बीजेपी इस रैली की सफलता से गदगद होगी लेकिन, लगे हाथ उसे ये भी आंकलन जरूर करना चाहिए कि इतनी बड़ी भीड़ की मंशा पार्टी नेता क्यों नहीं भांप सके जो, इस गर्मी में भी पुलिस की लाठी खाने को तैयार थी लेकिन, नेता जी लोग गर्मी झेलने से डर रहे थे। और, बार-बार कार्यकर्ताओं को अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे थे। जितनी बार बीजेपी के बड़े नेता सिर्फ दस हजार लोगों के जंतर-मंतर तक जाने की प्रशासन की इजाजत बताकर कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने की कोशिश कर रहे थे। उतनी बार कार्यकर्ता नेताओं पर खीझ रहा था। दरअसल ये वही कार्यकर्ताओं की भीड़ थी जो, 2004 के लोकसभा चुनावों के समय भी बीजेपी के साथ थी जिसे देखकर पूरे मीडिया ने बीजेपी की जीत का अनुमान लगाया था। और, ये भीड़ 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी के साथ थी लेकिन, नेताओं इन कार्यकर्ताओं के जोश को वोट में नहीं बदल सके। बीजेपी और उसके नए अध्यक्ष ये बात समझ लें तो, शायद एक बार फिर बाजी पलट सकती है।
(this article is published on peoples samachar's edit page)

Saturday, April 03, 2010

इस अपराध बोध से मुक्ति कैसे मिले

 दरअसल मैं कुछ गलत नहीं कर रहा हूं लेकिन, फिर भी मुझे अपराध बोध हो रहा है। पानी पीते वक्त ले में अंटक जाता है। लगता है कि जितना पानी मैं पी रहा हूं उससे कई गुना ज्यादा पानी बर्बाद करने का दोषी भी मैं बन रहा हूं।

मुंबई से जब दिल्ली आया था तो, महीने- दो महीने में ही नोएडा का पानी जहर लगने लगा था। पता चला कि हमारा एक्वागार्ड यहां के जहरीले पानी को साफ नहीं कर पा रहा है। हेमामालिनी और उनकी दो बेटियों के भरोसे मैंने केन्ट की RO (REVERSE OSMOSIS) मशीन लगवा ली। भरोसा काम आया और सचमुच एकदम बोतलबंद पानी जैसा बढ़िया पानी पीने को मिलने लगा।

कुछ दिन तो अच्छा लगा लेकिन, बेहद संवेदनशील ये मशीन वैसे तो, हर दूसरे तीसरे महीने पानी के कम बहाव या फिर टंकी में पानी खत्म होने से कुछ न कुछ मुश्किल बढ़ाने लगी। उस पर एक बोतल पानी भरने पर RO सिस्टम बहुत देर तक पानी बहाता रहता। अभी एक दिन मैंने एक बोतल पानी निकालने के बाद बर्बाद होने वाले पानी को बोतल में नापा तो, पता लगा कि हर एक लीटर शुद्ध पानी के लिए हमारे घर में केन्ट मशीन की वजह से करीब 5 लीटर पानी बह जाता है।

अब मजबूरी ये है कि नोएडा में रहते हुए परिवार का स्वास्थ्य ठीक रखना है तो, यही पानी पीना पड़ेगा क्योंकि, सप्लाई का जहरीला पानी तो, हलक से नीचे उतरने से रहा। लेकिन, इस चक्कर में कितना पानी कम होता जाएगा इस अपराध का भागी मैं और हमारे जैसे ज्यादातर नोएडा में रहने वाले बन रहे हैं। और, फिलहाल इससे मुक्ति के कोई आसार नहीं हैं। ग्रोथ, GDP जैसे शब्दों से सरकार अकसर ये बताती रहती है कि भारत बड़ी तरक्की कर रहा है लेकिन, इन बड़े-बड़े वायदों के बीच दाना-पानी जैसी सबसे बुनियादी जरूरत ही नहीं पूरी हो रही है। दाना महंगाई के मारे हलक से नीचे जाते कड़वाता है। पानी इतना जहरीला हो गया है कि हलक से नीचे जाते कड़वाता है। उस पर सरकारें तो बस प्रतीकात्मक अभियानों के तामझामी प्रचार से ही दुनिया बचा लेने का मंसूबा संजोए हैं।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...