हर्ष वर्धन त्रिपाठी
लोकतंत्र में जनता ही माई बाप होती है, यह जुमला अकसर सुनने को मिल जाता है, लेकिन कमाल की बात है कि लोकतंत्र में नेता हरसंभव कोशिश करके धीरे-धीरे जनता से उसका चुनने वाला अधिकार ही छीनने की कोशिश में लगे रहते हैं। भारत में बहुदलीय लोकतंत्र है और इसे अलग-अलग विचारों के स्वतंत्र तौर पर बढ़ते हुए लोकतंत्र को ज्यादा मजबूत करने के तौर पर देखा जाता है और काफी हद तक यह सही भी है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर अलग-अलग सोच रखने वाले अलग-अलग तरीके से राजनीतिक धारा को आगे बढ़ाने की बात करने वाले एक दूसरे के साथ आकर जनता के सामने सरकार का विकल्प देने की बात करने लगें तो क्या यह लोकतंत्र के मजबूत होने का प्रमाण है। इस जवाब आ सकता है कि राजनीतिक तौर पर इसमें बुराई क्या है। और, अलग-अलग विचार की पार्टियों के साथ आकर सत्ता के लिए विकल्प देने की इस प्रक्रिया को हमेशा साझा कार्यक्रम की सरकार के तौर पर पेश करने की कोशिश होती है। एक बड़ा राजनीतिक विद्वानों का समूह है, जिसे गठजोड़ की सरकारों में ज्यादा जीवंत लोकतंत्र नजर आता है। इसे ऐसे भी कहा जाता है कि जब लोकतंत्र में एक दल बहुमत के साथ सत्ता में होता है तो धीरे-धीरे उसमें तानाशाही की भावना आने लगती है और इसीलिए गठजोड़ की सरकार लोकतंत्र में ज्यादा लोकतांत्रिक और जीवंत होती है, लेकिन कमाल की बात यह है कि ऐसे गठजोड़ की सरकारें जनता के विकल्प चुनने की स्वतंत्रता पर किस कदर चोट पहुंचाती हैं, इसका अनुमान ही नहीं लगता।
अभी
बिहार में चुनाव हो रहा है और बिहार में किसी से भी बात कर लीजिए। तुरन्त यह जवाब
आ जाएगा कि बिहार में हम बदलाव तो चाहते हैं, लेकिन विकल्प कहां है। दोनों
राष्ट्रीय पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस- बिहार की क्षेत्रीय पार्टियों- जदयू और
राजद- की पिछलग्गू पार्टियां हैं। ऐसे में बिहार में सिर्फ गठजोड़ ही विकल्प है। और,
इस गठजोड़ वाले विकल्प ने बिहार के लोगों से विकल्प चुनने का विकल्प ही छीन लिया।
लोकतंत्र में विकल्प चुनना यह सबसे महत्वपूर्ण होता है और 5 वर्ष तक जनता
प्रतीक्षा इसी बात की करती है कि बेहतरी की उम्मीद कितनी पूरी हुई, इस आधार पर किस
विकल्प पर निशान लगाए। बिहार के मामले में कमाल की बात यह भी रही कि ढेरों राजनीतिक
दल होने से भले ही विकल्पों की संख्या बढ़ती गई, लेकिन जनता का विकल्प सीमीत होता
गया। बिहार में कांग्रेस का नेता कौन है, इसका पता ही नहीं है और भाजपा नेता सुशील
मोदी की पूरी पहचान ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उप मुख्यमंत्री (सहायक) के तौर
पर होती है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति के दिनों में एक बार किसी
नेता ने इस बात का गूढ़ जवाब दिया था कि उपाध्यक्ष की भूमिका छात्रसंघ में क्या
होती है। जवाब इतना सटीक है कि अभी तक मन मस्तिष्क में बैठा हुआ है और वह जवाब था,
उप मतलब चुप। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष पद के लिए उप मतलब चुप
की यह व्याख्या शायद उतनी सटीक उस समय नहीं लगी होगी, लेकिन अब जब बिहार में भाजपा
के उप मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को देखता हूं तो विश्वविद्यालय के जमाने की वह बात
सटीक लगती है।
बिहार
में भाजपा का सबसे बड़ा नेता उप बनकर चुप हुआ तो पूरी भाजपा चुप हो गई। 2015 में
चुप्पी तोड़ने का साहस किया तो नीतीश कुमार ने पलटी मारकर लालू प्रसाद यादव से हाथ
मिला लिया और बहुविकल्पीय लोकतांत्रिक प्रश्न के उत्तर में भी बिहार की जनता को
विकल्पहीनता के तौर पर नीतीश कुमार ही मिले। बिहार के डेढ़ दशक में यह भी साबित
हुआ कि लोकतंत्र में भले ही जनता के माई बाप होने की अवधारणा स्थापित है, लेकिन गठजोड़
की सरकारों में जनता का महत्व कमतर होता जाता है। और, कई बार तो शून्य से भी नीचे
चला जाता है। बिहार में एक समय सुशासन बाबू की छवि के साथ चमकने वाले नीतीश कुमार के
निरंतर राज में अब जनता के माई बाप होने की अवधारणा शून्य से भी नीचे चली गई है,
लेकिन हर गड़बड़ी के बावजूद लोकतंत्र जनता को अधिकार देने के लिहाज से सर्वश्रेष्ठ
अवधारणा है और इसी सर्वश्रेष्ठ अवधारणा में विकल्पहीनता में भी विकल्प की तलाश
जनता कर लेती है।
बिहार
विधानसभा के चुनाव में इस बार हर कोई यह कह रहा है कि भारतीय जनता पार्टी और
लोकजनशक्ति पार्टी के बीच अंदरुनी गठजोड़ है और चिराग पासवान इसे चिल्लाकर कह भी
रहें हैं क्योंकि इसकी उन्हें जरूरत भी बहुत ज्यादा है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी
उतने ही जोर से यह स्पष्ट करने की कोशिश कर रही है कि भाजपा और लोकजनशक्ति का कोई
ऐसा अंदरूनी समझैता नहीं है। दरभंगा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नीतीश
कुमार को भावी मुख्यमंत्री बताकर राजनीतिक धंध छांटने की कोशिश की है, लेकिन यह धुंध
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन भाजपा कार्यकर्ताओं के सामने से छांटना चाहते हैं,
उनको जब कोई धुंध दिख ही नहीं रही है या कोई भ्रम है ही नहीं तो उनके लिए स्थिति
में कोई बदलाव होने से रहा। दरअसल, लगातार नीतीश-भाजपा गठजोड़ में भाजपा कार्यकर्ता
नीतीश कुमार को अपना नेता मान बैठा और उसके पीछे बड़ी वजह यही कि नीतीश कुमार भाजपा
के सुशासन वाले एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन 2015 में भाजपा के उस
कार्यकर्ता को बड़ा झटका लगा, जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव की पार्टी से
हाथ मिला लिया और यह झटका सिर्फ भाजपा कार्यकर्ताओं को नहीं, उन सभी बिहारियों को
लगा था जो बिहार की बेहतरी की राह पर नीतीश कुमार की अगुआई में आगे बढ़ रहे थे। बाद
में जुलाई 2017 में नीतीश कुमार फिर से भाजपा के साथ आए गए, लेकिन करीब 20 महीने
में विकल्पहीनता की अवस्था में नीतीश को विकल्प मान बैठे बिहार के लोगों ने विकल्प
खोजने का मन बना लिया और इस बार तरीका अलग था।
बिहार
में भाजपा कार्यकर्ता और नरेंद्र मोदी के आभामंडल की वजह से जुड़ा नया भाजपाई
नीतीश कुमार को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। मोदी और शाह इसे अच्छी तरह से समझ
रहे थे, लेकिन 2015 का असफल प्रयोग उन्हें दुस्साहसी होने से रोक रहा था और इसीलिए
नीतीश कुमार को लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव के पाले में जाने से रोकना
भी जरूरी थी। विकल्पहीनता में विकल्प खोज रही बिहार की जनता के लिए 2020 विधानसभा
चुनाव एक ऐसा प्रयोग है, जिसकी सफलता की प्रतीक्षा देश के दूसरे राज्यों के
विकल्पहीन मतदाता भी कर रहे हैं। बिहार विधानसभा के चुनाव नतीजे यह भी तय करेंगे
कि लोकतंत्र में असली माई बाप तो जनता ही होती है।