Tuesday, May 26, 2020

काश! सरकार तानाशाह हो जाए


नागरिक समाज की हर समय महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन पिछले कुछ समय में नागरिक समाज की ओछी हरकतों से लोकतंत्र में उनकी भूमिका कमतर होती जा रही है और यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।



इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान एक नारा सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करता था। संघर्षों के साये में इतिहास हमारा पलता है, जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है। विश्वविद्यालय प्रशासन हो या फिर सरकार, छात्र हमेशा इसी नारे से ओतप्रोत होकर संघर्षों के लिए हमेशा तैयार रहते थे, लेकिन उस ओतप्रोत भावना के दौरान भी छात्र और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच अघोषित सहमति जरूर होती थी कि किसी भी हाल में उसमें अराजकता बर्दाश्त नहीं की जाएगी। हालांकि, यह अघोषित सिद्धान्त बारंबार टूटता रहा और देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र आन्दोलन सिर्फ अराजकता का पर्याय बनकर रह गये। अराजकता इस कदर बढ़ गयी कि कई विश्वविद्यालयों में प्रशासन को छात्रसंघ खत्म करने का मजबूत आधार मिल गया। कई बार तो विश्वविद्यालय के छात्रनेता सिर्फ इसलिए प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी या आन्दोलन करते थे कि छात्रों में माहौल बना रहे। छात्र संगठनों की ही तरह देश में सामाजिक संगठनों की भूमिका होती है, जिसका काम सरकार के साथ जनता के हितों के लिए निरन्तर संघर्ष करना होता है। छात्र संघर्ष के बाद छात्रसंघ में पदाधिकारी चुन लिए जाते हैं और आगे चलकर संसदीय परंपरा में भी शामिल होते हैं और सामाजिक संगठन या सरकार के अलावा समाज में अलग-अलग तरीके से दृष्टि देने के काम में पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और एक्टिविस्ट लगे होते हैं। सरकारी तंत्र एक तय तरीके से काम करता है और इसीलिए उस तय तरीके को ठीक करने के लिए सरकार से बाहर बैठे समाज के अलग-अलग वर्गों में दृष्टि रखने वाले तंत्र को दुरुस्त करने के लिए सुझाव और सलाह सरकार को देते रहते हैं और सरकार कई बार उनके सुझावों को मान लेती है, कई बार उसे उपयोगी नहीं मानती है और कई बार तो सरकार से भी ऊपर एक सलाहकार समिति बनाकर सरकार को सुझाव देने के काम में सरकार से बाहर के ऐसे लोगों का उपयोग सरकार करती है, जैसा यूपीए शासनकाल में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री से भी ऊपर का अधिकार देने के लिए एक राष्ट्रीय सलाहकार समिति बनी और उसमें सदस्य के तौर पर ऐसे ही सोशल एक्टिविस्ट को शामिल किया गया।  
राष्ट्रीय सलाहकार समिति भले ही सोनिया गांधी को सुपर प्राइममिनिस्टर बनाए रखने के मकसद से बनाई गई थी, लेकिन समिति के सदस्य समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में लगातार कार्य करने वाले योग्य व्यक्ति थे। यूपीए सरकार में कमजोर लोगों की मदद के लिए सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे बेहद महत्वपूर्ण कानून इसी सलाहकार समिति के सदस्यों के सुझाव पर बने, लेकिन 2017 में सामने आई राष्ट्रीय सलाहकार समिति की फाइलों से साबित हुआ कि कैसे राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त किया। मंत्रालयों से ज्यादा प्रभाव राष्ट्रीय सलाहकार समिति का हुआ करता था। मनमोहन कैबिनेट के मंत्रियों को दूसरे मंत्रालयों से तालमेल के लिए राष्ट्रीय सलाहकार समिति का सहारा लेना पड़ता था। यह स्थिति पूरी तरह से संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस व्यवस्था ने लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये जनप्रतिनिधियों की स्थिति को कमजोर किया था। कमाल की बात यह रही कि ओघिषत तौर पर सरकार से ऊपर और सरकार का हिस्सा होते हुए भी राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सदस्य लगातार सरकार के साथ संघर्ष करते दिखते थे। फिर भी सरकार का हिस्सा रहने तक वह संघर्ष एक सीमा के आगे नहीं गया, लेकिन जब मई 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आई तो सरकार चलाने के आदी रहे सलाहकार समिति के सदस्यों और उसी आस में एक्टिविज्म करने वाले, संघर्षों के साये में, वाली मन:स्थिति में आ गये। डेवलपमेंटल इकोनॉमिस्ट के तौर पर ख्यातिप्राप्त ज्यां द्रे हों या फिर हर्ष मंदर जैसे पूर्व नौकरशाह। वही हर्ष मंदर, जिन्होंने जामिया के गेट पर संविधान को ही चुनौती दे दी थी और जिस पर न्यायालय तक मामला गया। अब यूपीए शासनकाल में राष्ट्रीय सलाहकार समिति के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अर्थशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्ट ने मिलकर एक मिशन जय हिंद का सुझाव सरकार को दे दिया है। पहली नजर में मिशन जय हिंद सचमुच इस असाधारण स्थिति में देश की स्थिति सुधारने वाला मंत्र लगता है, लेकिन ध्यान से देखने पर समझ आता है कि सरकार चलाने के आदी रहे इस सलाहकार समिति जैसी असंवैधानिक व्यवस्था से सत्तासुख लेने वाले आखिर क्या चाहते हैं। 
ऐसे लोग क्या चाहते हैं, इसे समझने के लिए मिशन जय हिन्द को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है। प्रोफसर प्रणब बर्धन, ज्यां द्रे, अभिजीत सेन, मैत्रीश घटक, जयति घोष, डेबराज रे, आर नागराज, अशोक कोतवाल, संतोष मेहरोत्रा, अमित बसोले और हिमांशु जैसे अर्थशास्त्री मिशन जयहिन्द के मूल प्रस्तावक हैं और नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन इससे पूरी तरह सहमति रखते हैं और इसके अलावा राजमोहन गांधी, रामचंद्र गुहा, गणेश डेवी, ईएएस शर्मा, हर्ष मंदर, निखिल डे, एडमिरल रामदास, ललिता रामदास, आकार पटेल, बेजवाडा विल्सन, आशुतोष वार्ष्णेय, दीपा सिन्हा और योगेंद्र यादव जैसे बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट इसका समर्थन कर रहे हैं। ऊपर लिखे सारे नाम, देश के बड़े नामों में शामिल हैं, बड़े अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट की श्रेणी में श्रेष्ठ दिखते हैं, लेकिन आखिर मिशन जय हिंद के जरिये यह बड़े लोग देश को उबारना कैसे चाह रहे हैं, इसे समझना बेहद जरूरी है। 7 सूत्रीय सुझाव में पहला सुझाव यही है कि 10 दिनों के भीतर सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचा दिया जाए। राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सुझाए मनरेगा के जरिये रोजगार देना इनका सबसे बड़ा सुझाव है। गांव लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को तुरन्त राहत देने के लिए आत्मनिर्भर भारत अभियान विशेष पैकेज में सरकार ने मनरेगा में 40 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त देने का एलान पहले ही कर दिया है, जिससे गांवों में रोजगार आसानी से मिल सके। मिशन जय हिंद में जो कहा गया है, शायद ही कोई एक बिंदु ऐसा हो जो उल्लेखनीय हो और जिस पर केंद्र और राज्य की सरकारें काम न कर रही हों, लेकिन मिशन जय हिन्द के नाम पर हिन्द को बर्बाद करने वाला सुझाव इस प्रस्ताव का एकमात्र उल्लेखनीय और सबसे खतरनाक हिस्सा है। अंग्रेजी में लिखे प्रस्ताव में कहा गया है कि मिशन जय हिन्द के लिए जरूरी संसाधन जुटाने के लिए कुछ भी किया जाए और इस कुछ भी किया जाए के लिए सुझाव दिया गया है कि देश के सभी व्यक्तियों की संपत्तियों को सरकार अपने कब्जे में कर ले और इससे आए राजस्व का आधा राज्यों के साथ बांट दे। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि जब देश में सबके एक साथ खड़े होने की जरूरत है और जब सब एक साथ खड़े हैं, इस खतरनाक लड़ाई में विजय प्राप्त करने के लिए, तब सरकार को लोगों की संपत्ति जब्त करने जैसा सुझाव देकर सरकार को तानाशाही साबित करने और वर्ग संघर्ष खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। यह बात भी जानना फिर से जरूरी है मिशन जय हिन्द के नाम से यह खतरनाक, देश बर्बाद करने वाला सुझाव देने वाले बहुतायत अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट यूपीए शासनकाल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से सत्ता सुख प्राप्त करते रहे हैं और दुर्भाग्य से इस सरकार के हर फैसले के खिलाफ खड़े होते रहे हैं। कई तो लगातार साजिश रचते रहे हैं। अब इतने संवेदनशील समय में देश में वर्ग विभाजनकारी, संघर्ष वाली स्थिति पैदा करने की कोशिश हो रही है। कोशिश यही है कि किसी तरह केंद्र सरकार जनविरोधी निर्णय ले और तानाशाह घोषित हो जाए, जिससे इन्हें फिर संघर्षों के साये में नारा लगाने का अवसर मिल जाए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नरेंद्र मोदी जनता की संपत्ति जब्त करने जैसा तानाशाह, जनविरोधी निर्णय कतई नहीं लेगी, लेकिन जरूरी है कि देश के लोगों को इन बंधुआ, बंद दिमाग वाले अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट के बारे में स्पष्टता से पता हो। इन बंद दिमाग बुद्धिजीवियों ने प्रस्ताव कैसे तैयार किया है, इससे अनुमान लगता है कि मिशन जय हिन्द को नीचे आते निशन जैन हिन्द लिख दिया गया है। किसी भी समाज में सरकार से अलग नागरिक समाज की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन एक विशेष तरह की सरकार की इच्छा रखने वाले अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट लगातार ऐसी स्थिति बना रहे हैं, जिससे नागरिक समाज की भूमिका संदेह का दायरे में आ रही है और यह स्थिति भी समाज के लिए अच्छी नहीं है।
(यह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 26 मई 2020 को छपा है)

Monday, May 25, 2020

हिन्दुओं का विरोध करके बुद्धिजीवी बनने की बीमारी



हिन्दू महिलाएं वट सावित्री की पूजा करती हैं। इस पूजा का मूल उद्देश्य अपने पति की दीर्घायु की कामना होता है और इसमें पूजा भी उसी सावित्री की होती है, जिसने अपने पतिव्रत धर्म के पालन से उच्च आदर्शों वाले पति सत्यवान को यमराज से भी वापस ले लिया था। सावित्री के साथ उस बरगद वृक्ष की भी पूजा इस व्रत में हिन्दू महिलाएं करती हैं, जिसके नीचे सावित्री की गोद में बैठकर सत्यवान के प्राण निकल गये थे, लेकिन पतिव्रता सावित्री ने यमराज को भी विवश कर दिया की पति सत्यवान को उन्हें फिर से जीवन देना पड़ा। संयोग से इस वर्ष का यह व्रत कोरोना वायरस के बीच में हुआ जब चौथे चरण की देशबंदी के बीच देश गुजर रहा है। सामान्य गतिविधियां बंद हैं, ज्यादातर मंदिरों पर ताले पड़े हुए हैं। गांवों में तो महिलाओं को मंदिरों पर ताले पड़े होने या फिर सामान्य गतिविधि चलने न चलने से खास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि लगभग हर गांव के अगल-बगल 2-4 बरगद के विशाल वृक्ष होते ही हैं, जहां हिन्दू महिलाओं ने जाकर अपने पति की दीर्घ आयु के साथ बरगद की परिक्रमा करते हुए अपना व्रत किया, लेकिन शहरों में संकट खड़ा हो गया। जहां ज्यादातर मंदिरों के दरवाजों पर ताले लगे हुए थे। देश के करोड़ों मंदिरों के पुजारियों के लिए जीवनयापन का संकट खड़ा हो गया है क्योंकि, मंदिरों पर ताला लगा हुआ है और इस ताले में मंदिरों के भीतर लगे बरगद वृक्ष पर भी ताला लग गया। वट सावित्री की पूजा करने वाली शहरी महिलाओं के लिए सबसे बड़ा संकट बरगद कगा वृक्ष खोजना हो गया। शहरों में बरगद के पेड़ ना के बराबर हो गये हैं। शहरों में बहुत से लोगों के लिए बरगद का वृक्ष पहचानना भी असहजता की वजह बन जाता है। वट सावित्री पूजा में आस्था रखने वाली महिलाओं ने सड़क किनारे कहीं भी मिल गये बरगद के चक्कर लगाकर या फिर गमले में बरगद की टहनी लगाकर और बच्चों में पूड़ी हलवा और चना बांटकर अपना व्रत पूरा किया। कहीं-कहीं इस आस्था के चक्कर में एक ही बरगद के इर्द गिर्द चक्कर लगाती कई महिलाओं की तस्वीर एक साथ दिखी और तुरन्त तथाकथित निष्पक्ष वामपंथी बुद्धिजीवियों ने सवाल पूछा कि आखिर सोशल डिस्टेंसिंग कहां चली गयी और वट सावित्री का व्रत रखने वाली हिन्दू महिलाओं का मजाक बनाया गया।
कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने उत्तर प्रदेश सरकार को 1000 बसों का प्रस्ताव पेश किया और कहाकि 1000 बसों का प्रयोग उत्तर प्रदेश की सीमा पर जुटे मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए किया जाए। उत्तर प्रदेश सरकार ने 1000 बसों की सूची मांगी और फिर बसों की सूची में ऑटो, दुपहिया और ट्रक भी शामिल होने की जानकारी सार्वजनिक की गयी। इसके बाद कांग्रेस और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच तीखे आरोप-प्रत्यारोप हुए और आखिरकार कांग्रेसी बसों को स्वीकृति नहीं दी गयी। कांग्रेस और देश के तमाम निष्पक्ष बुद्धिजीवियों ने उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार पर निकृष्ट राजनीति करने का आरोप लगाया, लेकिन योगी आदित्यनाथ सरकार ने इसके जवाब में कोटा से उत्तर प्रदेश के छात्रों को लाने के लिए राजस्थान सरकार को भरा गया बिल सार्वजनिक कर दिया गया। इससे स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को मजदूरों की या छात्रों को भेजने की चिंता से ज्यादा विशुद्ध राजनीति करके योगी आदित्यनाथ सरकार की छवि खराब करने की ज्यादा चिंता हो रही थी और कांग्रेस की इस राजनीति को कांग्रेस की रायबरेली की विधायक अदिति सिंह ने सार्वजनिक आलोचना करके कांग्रेस को निरुत्तर किया तो उनको नोटिस भेज दिया गया, लेकिन उसी समय कांग्रेस पंकज पुनिया ने ट्विटर पर लिखा कि कांग्रेस सिर्फ मजदूरों को अपने खर्च पर उनके घर भेजना चाहती थी। बिष्ट सरकार ने राजनीति शुरू की। भगवा लपेटकर यह नीच काम संघी ही कर सकते हैं और इसके बाद जो कांग्रेसी नेता पंकज पुनिया ने लिखा उसे मैं यहां नहीं लिख सकता। पंकज पुनिया ने हिन्दू, भगवा और हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीराम तक को अपने ट्वीट में लपेट लिया। बाद में पंकज पुनिया की गिरफ्तारी की मांग तेज हुई तो ट्विटर पर माफी मांगकर मामले को रफा दफा करने की कोशिश की, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ और करनाल में पंकज पुनिया की गिरफ्तारी हुई। अदिति सिंह को नोटिस देने वाली कांग्रेस ने पंकज पुनिया पर दिखावे के लिए भी कुछ नहीं किया और तथाकथित निष्पक्ष बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उस समय पंकज पुनिया का लानत भेजने के बजाय कुम्भ के समय प्रयागराज में खड़ी बसों की कतार दिखाकर बता रहे थे कि कांग्रेस की भेजी बसों को योगी आदित्यनाथ सरकार ने मंजूरी दी और निष्पक्ष बुद्धिजीवियों में बचे योगी सरकार पर आरोप लगाते कह रहे थे कि अगर कुम्भ में इतनी बसें लग सकती हैं तो मजदूरों को भेजने के लिए क्यों नहीं। इस देश के तथाकथित निष्पक्ष बुद्धिजीवी धरातल की वास्तविकता से कितने कटे हुए हैं, इसका अनुमान कुम्भ पर की गयी टिप्पणी से ही लग जाता है। इन्हें अनुमान नहीं है कि आज जो मजदूर सड़कों पर है या फिर ट्रेनों-बसों के जरिये अपने घरों तक पहुंचाया जा चुका है, उसी के लिए योगी आदित्यनाथ की सरकार ने बसों का भव्य इंतजाम किया था। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और एक योगी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है, इतना तो देश के निष्पक्ष बुद्धिजीवियों के विरोध के लिए मजबूत आधार बन जाता है। इस विरोध में यह जरूरी आंकड़ा भी उन्हें नहीं दिखता कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अब तक 20 लाख से ज्यादा मजदूरों को वापस प्रदेश में लाने का कार्य पूरा किया है। इसके लिए बसों और विशेष ट्रेनों का उपयोग किया गया। देश में ट्रेनों से कुल 21 लाख के करीब प्रवासी मजदूर आए, इसमें सबसे ज्यादा 1154 ट्रेनों का उपयोग करके उत्तर प्रदेश ने अपने 15 लाख 27 हजार श्रमिकों को राज्य में वापस बुलाया।
उत्तर प्रदेश के नोएडा स्थित फिल्मसिटी में ज्यादातर टीवी चैनल हैं। एक टीवी चैनल के कई कर्मचारियों को कोरोना हो गया और जब इसकी खबरें बाहर आईं तो देश के तथाकथित निष्पक्ष बुद्धिजीवी अद्भुत तरीके से प्रसन्न हो गये। तुरन्त उन्होंने उस मीडिया चैनल के कार्यालय को निजामुद्दीन के तबलीगी जमात के मुख्यालय, मरकज जैसा बता दिया। पत्रकार, बुद्धिजीवी अगर इस बात पर प्रसन्न हो रहे हों कि उस मीडिया हाउस के कर्मचारियों को कोरोना हो गया है, जिसने मरकज के खिलाफ जमकर कहानियां लोगों को दिखाईं तो इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि देश का निष्पक्ष बुद्धिजीवी दरअसल तब्लीगियों की बेहूदगी पर चुप्पी साधे बैठा तो इसकी वजह कोई मुसलमानों से उनका प्रेम नहीं था, दरअसल यह उनका हिन्दू विरोध था जो अलग-अलग घटनाओं पर निकलकर सामने आ जाता है। हिन्दू विरोध में किसी भी हद तक जाने वाले तथाकथित निष्पक्ष बुद्धिजीवियों को हिन्दू अब पहचान गया है, लेकिन दुर्भाग्य से मुसलमान इन्हें अपना हितैषी मान लेता है और उसका नुकसान हिन्दू-मुसलमान दोनों को बराबर हो रहा है। सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि देश में महामारी से लड़ने में जब देश को एकसाथ होना चाहिए तो देश के तथाकथित बुद्धिजीवी हिन्दू मुस्लिम विभाजन कराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
(यह लेख इंदौर से निकलने वाले अखबार प्रजातंत्र में 25 मई को छपा है)

Monday, May 04, 2020

खोदा पहाड़, निकली चुहिया

राहुल-रघुराम की बातचीत से निकला क्या ?

दुनिया के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने चाइनीज वायरस के संकट के दौर में शिकागो से दिल्ली में केरल के वायनाड से कांग्रेस सांसद राहुल गांधी से बातचीत की। बाकायदा कांग्रेस ने बड़ी तैयारी के साथ इस बातचीत को पहले से प्रचारित किया था। सबको इसकी प्रतीक्षा थी क्योंकि रघुराम राजन जैसे दुनिया के बड़े अर्थशास्त्री इस तरह से सार्वजनिक तौर पर प्रचारित बातचीत में शामिल हो रहे थे तो सबको भरोसा था कि भारत और विश्व के लिए कुछ बेहतर आर्थिक सूत्र निकलकर आएंगे। केरल के वायनाड से कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी औपचारिक अभिवादन के बाद कुछ इसी अंदाज में बातचीत शुरू की थी कि उन्हें और उस चर्चा को देखने वालों को भारत अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को समझने और उससे बाहर निकलने का मंत्र दुनिया के बड़े अर्थशास्त्री रघुराम राजन देंगे। इतनी उम्मीद इसलिए नहीं थी कि राहुल गांधी, रघुराम राजन से बात कर रहे थे। उम्मीद की वजह थी उन रघुराम राजन की वजह से जो अभी शिकागो विश्वविद्यालय के शिकागो बूथ स्कूल ऑफ बिजनेस में केथरीन डुसाक मिलर विशिष्ट सेवा प्रोफेसर के तौर पर अर्थशास्त्र के छात्रों को अर्थशास्त्र के गुर सिखा रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से रघुराम राजन ने अपना सारा ज्ञान अपने विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए ही बचाकर रख लिया और राहुल गांधी के साथ हुई उनकी 28 मिनट से थोड़ा ज्यादा हुई बातचीत में सिर्फ एक बात निकलकर आई कि देश के गरीबों, मजदूरों, जरूरतमंदों को सरकार की तरफ से तुरन्त मदद की जरूरत है और राहुल गांधी के पूछने पर 65 हजार करोड़ रुपये का आंकड़ा भी रघुराम राजन ने बताया। क्या सिर्फ यह 65 हजार करोड़ रुपये का आकड़ा सुनाने के लिए कांग्रेस पार्टी ने अपने एक सांसद की बातचीत को इतना प्रचारित किया था और अगर हां, तो खोदा पहाड़, निकली चुहिया कहावत को इससे अधिक चरितार्थ करने वाली घटना हाल में हुई हो, ध्यान में नहीं आता। रघुराम राजन को अर्थशास्त्री के तौर पर अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना चाहिए था क्योंकि इस बार खुला खतरा था। इससे पहले रघुराम राजन यूपीए के शासनकाल में आर्थिक नीतियों को तय करने वाले महत्वपूर्ण पदों पर रहकर वापस शिकागो विश्वविद्यालय पढ़ाने लौट गए, लेकिन उस दौरान हुई आर्थिक गड़बड़ियों के लिए उन पर ऊंगली कम ही उठाई जाती है। इसकी बड़ी वजह यही रही कि दुनिया के एक और आर्थिक विद्वान डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज थे तो रघुराम राजन से भला सवाल क्यों पूछा जाता, लेकिन आज यह प्रश्न पूछना जरूरी है कि किस मोह में रघुराम राजन ने राहुल गांधी को दुनिया की स्थिति और उसके मुकाबले भारत की स्थिति, भारत की सरकार फैसले और उसके अच्छे-बुरे होने बात नहीं की।
रघुराम राजन अभी अमेरिका के तीसरे सबसे ज्यादा आबादी वाले शहर शिकागो से बात कर रहे थे। अमेरिका में चाइनीज वायरस से प्रभावित मरीजों का आंकड़ा 10 लाख के पार चला गया है और करीब 64 हजार अमेरिकियों की जान नहीं बचाई जा सकी है। राजन जिस शिकागो शहर से बोल रहे थे, उस राज्य इलनॉइस में करीब 53 हजार मामले सामने आए हैं और तेईस सौ से ज्यादा लोगों की जान नहीं बचाई जा सकी। राहुल गांधी जिस दिल्ली शहर में बैठकर बात कर रहे थे, वहां कुल 3515 मामले सामने आए हैं और 59 लोगों की जान नहीं बचाई जा सकी। पूरे भारत में अब 35 हजार से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं और ग्यारह सौ से ज्यादा लोगों की जान नहीं बचाई जा सकी। भारत के सर्वाधिक प्रभावित महाराष्ट्र में दस हजार से ज्यादा मामले सामने आए और साढ़े चार सौ से ज्यादा लोगों की जान नहीं बचाई जा सकी। राहुल गांधी जिस केरल के वायनाड से सांसद हैं, उस केरल राज्य में ही चाइनीज वायरस के शुरुआती मरीज आए थे, लेकिन केरल में अभी भी इस बीमारी से पीड़ित कुल मामले 500 के नीचे ही हैं और उसमें से 383 बचा लिए गए, 4 की जान नहीं बचाई जा सकी। देश की सबसे बड़ी आबादी, करीब 22 करोड़ जनसंख्या, वाले राज्य उत्तर प्रदेश में बाइस सौ से कुछ ज्यादा मामले सामने आए हैं और साढ़े पांच सौ लोगों को बीमारी से बचाने में सफलता मिल चुकी है और 40 लोगों की जान नहीं बचाई जा सकी। राहुल गांधी और रघुराम राजन की बहुप्रचारित चर्चा में अगर इस नजरिये से बात होती तो दुनिया में भारत की छवि और बेहतर होती। इन आंकड़ों के साथ आलोचना भी होती और उसे ठीक करने की चर्चा होती तो भारत की सरकार पर और देश की राज्य सरकारों पर ज्यादा बेहतर करने का दबाव भी बनता, लेकिन रघुराम राजन ने राहुल गांधी के साथ बातचीत में वह नहीं किया, जिससे भारत की सरकार पर, देश की राज्य सरकारों पर बेहतर करने का दबाव बनता और दुनिया यह भी देखती कि भारत की स्थिति दुनिया के मुकाबले कितनी अच्छी है। इससे चीन से निकलने वाली दुनिया की कंपनियों को स्पष्ट संदेश भी जाता कि भारत एक बेहतर जगह हो सकती है, लेकिन दुर्भाग्य से यूपीए शासनकाल में और कार्यकाल पूरा होने तक मोदी के पहले शासनकाल में भी आर्थिक नीतिनियंता की कुर्सी पर बैठने वाले रघुराम राजन ने भारत की छवि सुधारने की कोई कोशिश नहीं की।
राहुल-रघुराम की बातचीत दार्शनिक प्रश्नों, अथॉरिटेरियन मॉडल लिबरल मॉडल पर भारी पड़ने की कोशिश कर रहा है, समाज में विभाजन हो रहा है, सत्ता का विकेंद्रीकरण जरूरी, राज्य सरकारों-पंचायतों को अधिकार कम है, राजीव गांधी जिस पंचायत राज को लेकर आए, उसे कमजोर किया जा रहा है, हम पंचायत राज में आगे बढ़े थे, अब उस पर लालफीताशाही हावी हो गई है, दक्षिणी राज्य अच्छा कर रहे हैं, विकेंद्रीकरण कर रहे हैं, उत्तरी राज्यों में लालफीताशाही हावी है। कुल मिलाकर कैसे खुले अर्थव्यवस्था से शुरू हुई राहुल-रघुराम की बातचीत इस कठिन चुनौतियों और अवसरों वाले समय में भारत की छवि खराब करने की मजबूत कोशिशों के साथ खत्म हो गई। एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये के शुरुआती पैकेज में ही भारत सरकार ने कमजोर लोगों की जरूरत भर के राशन और नकदी का इंतजाम कर दिया था। छत्तीस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की नकदी, केंद्र और राज्य सरकारों की अलग-अलग योजनाओं में जरूरतमंदों के खाते में सीधे डाले जा चुके हैं। महिला, किसान, दिहाड़ी मजदूर, मनरेगा मजदूर, सब सीधे खाते में रकम पा चुके हैं। नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बैनर्जी के अस्थाई राशन कार्ड की चर्चा करके छोड़ दिया गया, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरी सरकारों के बयान पर कोई बात न हुई कि इस समय जिसको जरूरत है, राशन मिलेगा, राशन कार्ड की जरूरत नहीं है। ऐसे कठिन समय में राशनकार्ड बनवाने का प्रस्ताव ही लालफीताशाही को जमकर बढ़ाने वाला है, लेकिन दुनिया के महान अर्थशास्त्री रघुराम राजन यह सब जानबूझकर नहीं देख रहे थे और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी को यह समझा भी नहीं रहे थे। राहुल गांधी के एक बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर भी रघुराम राजन ने ठीक से नहीं दिया। राहुल गांधी ने पूछा कि अभी देश संकट में है, क्या इसके बाद भारत को कोई फायदा होगा, किस प्रकास दुनिया बदलेगी। राजन का जवाब आया कि किसी देश के लिए पॉजिटिव इफेक्ट नहीं, लेकिन देश इसका फायदा उठा सकते हैं और इसके लिए ज्यादा से ज्यादा देशों से संवाद की जरूरत है। होना यह चाहिए था कि रघुराम राजन चाइनीज वायरस के प्रकोप की वजह से बदल रही दुनिया में भारत की महत्वपूर्ण स्थिति को ज्यादा महत्वपूर्ण करने के तरीके बताते, लेकिन राजन यहां भी चुप साध गये। ठीक उसी तरह से जैसे यूपीए के शासनकाल में 2007 से 2014 तक आर्थिक नीतियां तय करने वाले महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद बैंकिंग तंत्र की गड़बड़ियों पर आंखें मूंदें रखीं। क्या रघुराम राजन खुद को 1991 वाले डॉक्टर मनमोहन सिंह की तरह अगली यूपीए सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं और इसीलिए आर्थिक नजरिया बताने के बजाय राजनीतिक नजरिये से वर्तमान सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं। डॉक्टर रघुराम राजन 2007-08 में आर्थिक मामलों के सुधार पर बनी समिति के अध्यक्ष थे। 2008-12 तक वो प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार थे। 2012 से रिजर्व बैंक गवर्नर बनने तक रघुराम राजन देश के वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। 2007 से लेकर 2013 तक देश में आर्थिक अराजकता चरम पर थी। आज जिन डूबते कर्जों की सबसे ज्यादा चर्चा होती थी, उन्हें 2006-08 के दौरान ही बांटा गया था और यह बात खुद डॉक्टर रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक के गवर्नर से हटने के बाद बताया था। राहुल गांधी को इस बात का ख्याल भले न हो कि उनकी छवि का क्या होगा, लेकिन डॉक्टर रघुराम राजन को इस छवि का ख्याल रखना था और जिस देश में राजन को इतने शीर्ष पदों पर बैठने का अवसर मिला, इस अवसर का प्रयोग उन्हें उसकी छवि दुरुस्त करने के लिए करना था, जो राजन नहीं कर सके। कुल मिलाकर यह सवाल हमेशा पूछा जाता रहेगा कि महामारी के दौर में देश को जब आर्थिक मंत्र की जरूरत थी तो रघुराम राजन जैसे विद्वान अर्थशास्त्री सिर्फ राजनीतिक एजेण्डा पेश करके क्यों चले गये। 
(यह लेख आज इंदौर से छपने वाले प्रजातंत्र अखबार में छपा है)

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...