नागरिक समाज की हर समय महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन पिछले कुछ समय में नागरिक समाज की ओछी हरकतों से लोकतंत्र में उनकी भूमिका कमतर होती जा रही है और यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान एक नारा सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करता था।
संघर्षों के साये में इतिहास हमारा पलता है, जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना
चलता है। विश्वविद्यालय प्रशासन हो या फिर सरकार, छात्र हमेशा इसी नारे से ओतप्रोत
होकर संघर्षों के लिए हमेशा तैयार रहते थे, लेकिन उस ओतप्रोत भावना के दौरान भी
छात्र और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच अघोषित सहमति जरूर होती थी कि किसी भी हाल
में उसमें अराजकता बर्दाश्त नहीं की जाएगी। हालांकि, यह अघोषित सिद्धान्त बारंबार
टूटता रहा और देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र आन्दोलन सिर्फ अराजकता का
पर्याय बनकर रह गये। अराजकता इस कदर बढ़ गयी कि कई विश्वविद्यालयों में प्रशासन को
छात्रसंघ खत्म करने का मजबूत आधार मिल गया। कई बार तो विश्वविद्यालय के छात्रनेता सिर्फ
इसलिए प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी या आन्दोलन करते थे कि छात्रों में माहौल बना
रहे। छात्र संगठनों की ही तरह देश में सामाजिक संगठनों की भूमिका होती है, जिसका
काम सरकार के साथ जनता के हितों के लिए निरन्तर संघर्ष करना होता है। छात्र संघर्ष
के बाद छात्रसंघ में पदाधिकारी चुन लिए जाते हैं और आगे चलकर संसदीय परंपरा में भी
शामिल होते हैं और सामाजिक संगठन या सरकार के अलावा समाज में अलग-अलग तरीके से
दृष्टि देने के काम में पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और
एक्टिविस्ट लगे होते हैं। सरकारी तंत्र एक तय तरीके से काम करता है और इसीलिए उस
तय तरीके को ठीक करने के लिए सरकार से बाहर बैठे समाज के अलग-अलग वर्गों में
दृष्टि रखने वाले तंत्र को दुरुस्त करने के लिए सुझाव और सलाह सरकार को देते रहते
हैं और सरकार कई बार उनके सुझावों को मान लेती है, कई बार उसे उपयोगी नहीं मानती
है और कई बार तो सरकार से भी ऊपर एक सलाहकार समिति बनाकर सरकार को सुझाव देने के
काम में सरकार से बाहर के ऐसे लोगों का उपयोग सरकार करती है, जैसा यूपीए शासनकाल
में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री से भी ऊपर का अधिकार देने के लिए एक राष्ट्रीय
सलाहकार समिति बनी और उसमें सदस्य के तौर पर ऐसे ही सोशल एक्टिविस्ट को शामिल किया
गया।
राष्ट्रीय
सलाहकार समिति भले ही सोनिया गांधी को सुपर प्राइममिनिस्टर बनाए रखने के मकसद से
बनाई गई थी, लेकिन समिति के सदस्य समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में लगातार कार्य
करने वाले योग्य व्यक्ति थे। यूपीए सरकार में कमजोर लोगों की मदद के लिए सूचना का
अधिकार, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे बेहद महत्वपूर्ण कानून इसी सलाहकार
समिति के सदस्यों के सुझाव पर बने, लेकिन 2017 में सामने आई राष्ट्रीय सलाहकार
समिति की फाइलों से साबित हुआ कि कैसे राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने संवैधानिक
व्यवस्था को ध्वस्त किया। मंत्रालयों से ज्यादा प्रभाव राष्ट्रीय सलाहकार समिति का
हुआ करता था। मनमोहन कैबिनेट के मंत्रियों को दूसरे मंत्रालयों से तालमेल के लिए
राष्ट्रीय सलाहकार समिति का सहारा लेना पड़ता था। यह स्थिति पूरी तरह से संवैधानिक
व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस व्यवस्था ने लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये
जनप्रतिनिधियों की स्थिति को कमजोर किया था। कमाल की बात यह रही कि ओघिषत तौर पर
सरकार से ऊपर और सरकार का हिस्सा होते हुए भी राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सदस्य लगातार
सरकार के साथ संघर्ष करते दिखते थे। फिर भी सरकार का हिस्सा रहने तक वह संघर्ष एक
सीमा के आगे नहीं गया, लेकिन जब मई 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आई तो सरकार
चलाने के आदी रहे सलाहकार समिति के सदस्यों और उसी आस में एक्टिविज्म करने वाले,
संघर्षों के साये में, वाली मन:स्थिति में आ गये। डेवलपमेंटल इकोनॉमिस्ट के तौर पर ख्यातिप्राप्त
ज्यां द्रे हों या फिर हर्ष मंदर जैसे पूर्व नौकरशाह। वही हर्ष मंदर, जिन्होंने
जामिया के गेट पर संविधान को ही चुनौती दे दी थी और जिस पर न्यायालय तक मामला गया।
अब यूपीए शासनकाल में राष्ट्रीय सलाहकार समिति के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
अर्थशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्ट ने मिलकर एक मिशन जय हिंद का सुझाव
सरकार को दे दिया है। पहली नजर में मिशन जय हिंद सचमुच इस असाधारण स्थिति में देश
की स्थिति सुधारने वाला मंत्र लगता है, लेकिन ध्यान से देखने पर समझ आता है कि
सरकार चलाने के आदी रहे इस सलाहकार समिति जैसी असंवैधानिक व्यवस्था से सत्तासुख
लेने वाले आखिर क्या चाहते हैं।
ऐसे लोग
क्या चाहते हैं, इसे समझने के लिए मिशन जय हिन्द को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है। प्रोफसर
प्रणब बर्धन, ज्यां द्रे, अभिजीत सेन, मैत्रीश घटक, जयति घोष, डेबराज रे, आर
नागराज, अशोक कोतवाल, संतोष मेहरोत्रा, अमित बसोले और हिमांशु जैसे अर्थशास्त्री
मिशन जयहिन्द के मूल प्रस्तावक हैं और नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन इससे पूरी
तरह सहमति रखते हैं और इसके अलावा राजमोहन गांधी, रामचंद्र गुहा, गणेश डेवी, ईएएस
शर्मा, हर्ष मंदर, निखिल डे, एडमिरल रामदास, ललिता रामदास, आकार पटेल, बेजवाडा
विल्सन, आशुतोष वार्ष्णेय, दीपा सिन्हा और योगेंद्र यादव जैसे बुद्धिजीवी और
एक्टिविस्ट इसका समर्थन कर रहे हैं। ऊपर लिखे सारे नाम, देश के बड़े नामों में
शामिल हैं, बड़े अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट की श्रेणी में श्रेष्ठ
दिखते हैं, लेकिन आखिर मिशन जय हिंद के जरिये यह बड़े लोग देश को उबारना कैसे चाह
रहे हैं, इसे समझना बेहद जरूरी है। 7 सूत्रीय सुझाव में पहला सुझाव यही है कि 10
दिनों के भीतर सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचा दिया जाए। राष्ट्रीय सलाहकार
समिति के सुझाए मनरेगा के जरिये रोजगार देना इनका सबसे बड़ा सुझाव है। गांव लौटने वाले
प्रवासी मजदूरों को तुरन्त राहत देने के लिए आत्मनिर्भर भारत अभियान विशेष पैकेज
में सरकार ने मनरेगा में 40 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त देने का एलान पहले ही कर
दिया है, जिससे गांवों में रोजगार आसानी से मिल सके। मिशन जय हिंद में जो कहा गया
है, शायद ही कोई एक बिंदु ऐसा हो जो उल्लेखनीय हो और जिस पर केंद्र और राज्य की
सरकारें काम न कर रही हों, लेकिन मिशन जय हिन्द के नाम पर हिन्द को बर्बाद करने
वाला सुझाव इस प्रस्ताव का एकमात्र उल्लेखनीय और सबसे खतरनाक हिस्सा है। अंग्रेजी
में लिखे प्रस्ताव में कहा गया है कि मिशन जय हिन्द के लिए जरूरी संसाधन जुटाने के
लिए कुछ भी किया जाए और इस कुछ भी किया जाए के लिए सुझाव दिया गया है कि देश के
सभी व्यक्तियों की संपत्तियों को सरकार अपने कब्जे में कर ले और इससे आए राजस्व का
आधा राज्यों के साथ बांट दे। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि जब देश में सबके एक
साथ खड़े होने की जरूरत है और जब सब एक साथ खड़े हैं, इस खतरनाक लड़ाई में विजय
प्राप्त करने के लिए, तब सरकार को लोगों की संपत्ति जब्त करने जैसा सुझाव देकर
सरकार को तानाशाही साबित करने और वर्ग संघर्ष खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। यह
बात भी जानना फिर से जरूरी है मिशन जय हिन्द के नाम से यह खतरनाक, देश बर्बाद करने
वाला सुझाव देने वाले बहुतायत अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट यूपीए
शासनकाल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से सत्ता सुख प्राप्त करते रहे हैं और
दुर्भाग्य से इस सरकार के हर फैसले के खिलाफ खड़े होते रहे हैं। कई तो लगातार साजिश
रचते रहे हैं। अब इतने संवेदनशील समय में देश में वर्ग विभाजनकारी, संघर्ष वाली
स्थिति पैदा करने की कोशिश हो रही है। कोशिश यही है कि किसी तरह केंद्र सरकार
जनविरोधी निर्णय ले और तानाशाह घोषित हो जाए, जिससे इन्हें फिर संघर्षों के साये
में नारा लगाने का अवसर मिल जाए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नरेंद्र मोदी जनता
की संपत्ति जब्त करने जैसा तानाशाह, जनविरोधी निर्णय कतई नहीं लेगी, लेकिन जरूरी
है कि देश के लोगों को इन बंधुआ, बंद दिमाग वाले अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और
एक्टिविस्ट के बारे में स्पष्टता से पता हो। इन बंद दिमाग बुद्धिजीवियों ने
प्रस्ताव कैसे तैयार किया है, इससे अनुमान लगता है कि मिशन जय हिन्द को नीचे आते
निशन जैन हिन्द लिख दिया गया है। किसी भी समाज में सरकार से अलग नागरिक समाज की
बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन एक विशेष तरह की सरकार की इच्छा रखने वाले अर्थशास्त्री,
बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट लगातार ऐसी स्थिति बना रहे हैं, जिससे नागरिक समाज की
भूमिका संदेह का दायरे में आ रही है और यह स्थिति भी समाज के लिए अच्छी नहीं है।
(यह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 26 मई 2020 को छपा है)
एक समंजस एवं विवेकपूर्ण व्यक्ति का मंतव्य है ये.
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