पूरा
बॉलीवुड अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उठ खड़ा हुआ है। संजय लीला भंसाली को
लतियाए जाने के बाद ये स्वतंत्रता बोध हुआ है। फ़िल्म, कहानी समाज में कोई भी सन्देश देने का सबसे
प्रभावी माध्यम है। इसी में टीवी धारावाहिक भी जोड़िए। कब किसी फ़िल्म में हिन्दू
समाज की किसी कुरीतियाँ को दिखाए जाने पर कोई भी विरोध करके स्वीकार्यता पा सका
है। यहाँ तक कि भारतीय समाज ने लगातार कहानी/फ़िल्मों से भी खुद को सुधारा है और
उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा सम्मान किया है। लेकिन भंसाली को लतियाए जाने पर किसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बॉलीवुड के प्रगतिशाली कमर कस रह हैं। उस अभिव्यक्ति ने लगातार स्वतंत्रता के नाम पर भारतीय समाज को लतियाने की कोशिश की है। अपराधियों को फिल्में ऐसे महान बना दे रही हैं कि समाज
का नौजवान अपराधी बन जाना चाहता है। इतनी प्रसिद्धि, प्रभाव
अपराधी को दिखाया जाता है, कौन
भला ये नहीं चाहता। इतिहास के चरित्र इनकी कलात्मकता में परिहास बन जात हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई में भंसाली के साथ खड़ा कोई हंसल मेहता है जो
कह रहा है कि बॉलीवुड को राष्ट्रगान के समय खड़े न होकर भंसाली पर हुए हमले का
विरोध करना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ये पैरोकार इतने छिछले, बेहूदे
हैं। अब बताइए हंसल मेहता जैसे निर्देशक को लतियाने का मन हो रहा है कि नहीं। ये
इतिहास को ग़लत तरीक़े से पेश करके अपराधी को महान बनाकर करोड़ों की कमाई करने
वाले बॉलीवुड की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। आइए हम सब अपनी अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के अधिकार के तहत इन्हें वैसे ही लतियाएं, जैसे
मैं अभी लतिया रहा हूँ।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Monday, January 30, 2017
मजबूर मायावती या मुख्तार अंसारी
उत्तर प्रदेश
की राजनीति हर बीतते दिन के साथ बदल रही है। जिस मुख्तार अंसारी की पारिवारिक
पार्टी कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय की घटना ने मुलायम सिंह के बाद
सपा के सबसे ताकतवर नेता शिवपाल यादव को एक विधानसभा का नेता बनाकर रख दिया, अब
वही कौमी एकता दल मायावती की बीएसपी में समाहित हो गई है। एक दशक से ज्यादा समय से
जेल में बंद अपराधी नेता मुख्तार अंसारी की कौमी एकता दल को बीएसपी का हिस्सा
बनाते मायावती ने कहाकि मुख्तार के खिलाफ कोई अपराध साबित नहीं हुआ है। अगर अपराध
साबित हुआ तो वो कोई कार्रवाई करने से हिचकेंगी नहीं। कौमी एकता दल के विलय के
बदले में अंसारी परिवार को तीन सीटें मायावती ने दे दीं। मऊ सदर विधानसभा सीट से
मुख्तार बीएसपी प्रत्याशी होंगे। घोसी से मुख्तार का बेटा बीएसपी से लड़ेगा और बगल
के जिले गाजीपुर को मोहम्मदाबाद सीट से मुख्तार के सिबगतुल्लाह अंसारी चुनाव
लड़ेंगे। 1996 में पहली बार बीएसपी टिकट पर जीतने के बाद जेल में रहने के बावजूद
मुख्तार लगातार मऊ सदर से चुनाव जीत रहे हैं। मोहम्मदाबाद सीट पर भी अंसारी परिवार
का ही कब्जा है। यहीं से कृष्णानंद राय की पत्नी बीजेपी से चुनाव लड़ रही हैं।
मुख्तार अंसारी कृष्णानंद राय की हत्या के आरोपों में ही लम्बे समय से जेल में बंद
हैं। हत्या की वजह भी 2002 का विधानसभा चुनाव माना जाता है। जब कृष्णानंद राय ने
मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी को विधानसभा चुनाव में हरा दिया था। उसके बाद ही
कृष्णानंद राय की हत्या कर दी गई थी।
मायावती के
मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय के बदले अपने घोषित तीन प्रत्याशियों को हटाने को
इस तरह से देखा जा सकता है कि मायावती किसी भी हाल में इस चुनाव में मुसलमानों को
अपने नजदीक लाने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती हैं। इस लिहाज से मायावती के लिए
अंसारी परिवार की पार्टी की बीएसपी में शामिल होना सबसे बेहतर विकल्प दिख रहा है।
वैसे भी मुख्तार अंसारी पुराने बसपाई हैं। कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखने की छवि
रखने वाली मायावती ने ही सबसे पहले मुख्तार अंसारी को 1996 में मऊ सदर से विधानसभा
पहुंचने का रास्ता दिखाया था। हालांकि, उसके बाद बीएसपी से बाहर रहते भी मुख्तार
अंसारी मऊ सदर से लगातार विधायक चुने जाते रहे। जेल में रहकर भी। मुख्तार के भाई
अफजाल अंसारी गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से 1985 से लगातार चुने जाते हैं। सिवाय
2002 और 2005 में हुए उपचुनाव के। 2002 में बीजेपी के कृष्णानंद राय और 2006 के
उपचुनाव में कृष्णानंद की हत्या के बाद उनकी पत्नी अलका राय इस सीट को जीतने में
सफल रहीं। उसके बाद अफजाल लोकसभा पहुंचे और मुख्तार के दूसरे भाई सिबगतुल्लाह
अंसारी इस सीट से विधायक हैं। अंसारी परिवार को दी गई तीनों सीटों का बीएसपी के
खाते में जाना लगभग तय है। सीधे तौर पर मायावती को 3 सीटों का फायदा है। दूसरी
बड़ी बात ये कि अंसारी परिवार की कौमी एकता दल ने 2012 में 43 विधानसभा में चुनाव
लड़ा और 2 सीटें जीतीं। लेकिन, मत प्रतिशत के लिहाज से मऊ, गाजीपुर और बलिया में करीब
15% मत हथिया लिए। इन तीनों जिलों में कुल 15 सीटें हैं। यहां
मायावती की बहुजन समाज पार्टी को मुख्तार परिवार के आने से काफी ताकत मिलेगी। 2005
के बाद कृष्णानंद राय की हत्या के बाद तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने
मुख्तार अंसारी की गिरफ्तारी के लिए न्याय यात्रा निकाली थी। 2005 में ही मऊ में
दंगे हुए थे और दंगों के बाद लगे कर्फ्यू के दौरान मुख्तार अंसारी की खुली जिप्सी
में अपने निजी असलहाधारी अंगरक्षकों और पुलिस के साथ की तस्वीरें मीडिया में खूब
चर्चा में आई थी। इन सब वजहों से मायावती के लिए मुख्तार अंसारी जेल में बंद होने
के बाद भी मुसलमानों के नजदीक जाने का बड़ा जरिया दिख रही हैं।
मायावती की
मजबूरी साफ दिखती है कि मुसलमानों का मत पाने के लिए कुछ भी करेंगी। लेकिन मुख्तार
अंसारी भी कम मजबूर नहीं हैं। मुख्तार अंसारी के लिए ये राजनीतिक जीवन-मरण का
चुनाव है। करीब 12 सालों से मुख्तार जेल में बंद हैं। और 2012 के चुनाव में भले ही
कौमी एकता दल ने 2 सीटें जीत लीं। लेकिन, खुद मुख्तार मऊ सीट पर मतों के मामलों
में पिछड़ते दिख रहे हैं। 1996 में मुख्तार ने मऊ विधानसभा सीट पर बीएसपी के टिकट
पर 45.85% मत हासिल किए। 2002 में निर्दलीय मुख्तार को पहले से ज्यादा
46.06% मत मिले और 2007 में मुख्तार की लोकप्रियता निर्दलीय
प्रत्याशी के तौर पर ही और बढ़ गई। मुख्तार को 46.78% मत मिले। लेकिन,
2012 मुख्तार के लिए खतरों की घंटी साबित हुए। मुख्तार अंसारी विधायक बन गए।
लेकिन, मत प्रतिशत जबर्दस्त तरीके से घटकर 31.24% रह गया। बीएसपी ने इस सीट पर मऊ
डिग्री कॉलेज के महामंत्री रहे मनोज राय को टिकट दिया था। मनोज राय का मऊ सीट पर
मजबूत आधार है। समाजवादी पार्टी ने यहां अलताफ अंसारी को टिकट दिया है। ऐसे में
बिना किसी पार्टी के मुख्तार अंसारी को अपनी सीट जाती दिख रही थी। इसीलिए मुख्तार
अंसारी ने पहले समाजवादी पार्टी में अपनी पार्टी की विलय की कोशिश की और असफलता
मिलने पर हाथी की सवारी कर ली। कुल मिलाकर कौमी एकता दल के बीएसपी में विलय बीएसपी
के तीन सीटों पर लगभग पक्की जीत की कहानी नहीं है। ये मुसलमान, मायावती और मुख्तार
का ऐसा राजनीतिक मेल है, जो कई संभावनाओं और आशंकाओं की जमीन तैयार कर रहा है।
Friday, January 27, 2017
अटल-आडवाणी-जोशी की तैयार की जमीन दूसरों को सौंप रहे हैं मोदी-अमित शाह
अमित शाह हर हाल में उत्तर प्रदेश जीतना चाहते हैं। मूल वजह ये कि
अमित शाह जानते हैं कि चुनाव जीतकर ही सब सम्भव है। गुजरात में अमित शाह ने
चमत्कारिक जीत का जो मंत्र जाना था, उसे वो 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश
में दोहरा चुके हैं। लेकिन, उसी लोकसभा चुनाव की चमत्कारिक जीत ने अब अमित शाह के
ऊपर ये दबाव बहुत बढ़ा दिया है कि वो हर हाल में उत्तर प्रदेश में बीजेपी का सरकार
बनवा पाएं। अच्छे प्रदर्शन के लिए दबाव कारगर होता है। लेकिन, कई बार अपेक्षित
परिणाम पाने के दबाव में ऐसे उल्टे काम हो जाते हैं, जिसका पता बहुत बाद में चलता
है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी अमित शाह की अगुवाई में कुछ ऐसे ही काम
कर रही है। भारतीय जनता पार्टी की 2 सूची आ चुकी है। 149 और 155 मिलाकर 299 सीटों
के प्रत्याशियों की सूची पर नजर डालने से दूसरी पार्टियों की तरह बेटा-बेटी को प्रत्याशी
बनाना साफ दिख रहा है। साथ ही ये भी कि बाहरी-भीतरी, अब वाली बीजेपी में फर्क नहीं
डालता। लेकिन, एक बात जो नहीं दिख रही, वो ये कि उत्तर प्रदेश में 2017 का
विधानसभा चुनाव इसलिए भी याद रखा जाएगा कि बीजेपी ने अपनी कई परम्परागत सीटें भी
जिताऊ के नाम पर दूसरे प्रत्याशियों को दे दीं। उत्तर प्रदेश में अटल-आडवाणी-जोशी
की तैयार की गई शहरी जिताऊ सीटों पर अब नरेंद्र मोदी-अमित शाह-सुनील बंसल वाली
बीजेपी दूसरे दलों के प्रत्याशियों को उपहार के तौर पर दे रही है।
इलाहाबाद की शहर उत्तरी सीट से भारतीय जनता पार्टी ने हर्षवर्धन
बाजपेयी को उम्मीदवार बनाया है। 2012 में हर्षवर्धन बाजपेयी इसी सीट से बीएसपी से
उम्मीदवार थे और दूसरे स्थान पर रहे थे। ये सीट अभी कांग्रेस के खाते में है।
अनुग्रह नारायण सिंह लगातार दूसरी बार इस सीट से चुने गए। हर्षवर्धन बाजपेयी के
पारिवारिक आधार के भरोसे बीजेपी के सभी कार्यकर्ताओं को दरकिनार करके टिकट दिया
गया। वो पारिवारिक आधार ये है कि 1962 से 1974 तक हर्षवर्धन बाजपेयी की दादी
राजेन्द्री कुमारी बाजपेयी यहां से चुनी जाती रहीं। 1977 में देशभर के साथ शहर
उत्तरी सीट ने भी नतीजे दिए। लेकिन, 1980 में फिर से इस सीट को हर्षवर्धन बाजपेयी
के पिता अशोक कुमार बाजपेयी ने जीत लिया। इस लिहाज से देखने पर लगता है कि बीजेपी
नेतृत्व ने बहुत शानदार फैसला लिया है बीएसपी से बीजेपी में आए हर्षवर्धन बाजपेयी
को टिकट देकर। कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह से आसानी से बाजपेयी के पारिवारिक
मजबूत आधार और बीजेपी के आधार के भरोसे बीजेपी ये सीट फिर से झटक सकती है। लेकिन, इस सीट को और ठीक से समझने के लिए 1991
के बाद की कहानी सुननी जरूरी है। 1991 में यहां से पहली बार भारतीय जनता पार्टी का
खाता खुला और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नरेंद्र सिंह गौर को शहर उत्तरी
की जनता ने चुन लिया। ये रामंदिर आंदोलन का दौर था। मंडल पर कमंडल की जीत हो चुकी
थी। डॉक्टर गौर ने अभी के विधायक अनुग्रह नारायण सिंह को ही हराया था। इसके बाद
1993, 96, 2002 में भी डॉक्टर गौर ही जीतते रहे। इस सीट के बारे में कहा जाता रहा
कि अगर यहां से किसी को भी कमल निशान के साथ खड़ा कर दिया जाए, तो वो जीत जाएगा। 2007
में डॉक्टर गौर हारे और उसके बाद 2012 में बीजेपी ने इलाहाबाद की बारा सीट से 2
बार विधायक रहे उदयभान करवरिया पर दांव लगाया लेकिन, फिर से हार मिली। उदयभान
करवरिया और हर्षवर्धन बाजपेयी के बीच करीब डेढ़ हजार मतों का फासला था और उस लड़ाई
का फायदा कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह को मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व
सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह, राममंदिर आंदोलन के अगुवा नेता विहिप के अशोक
सिंघल और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर
डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी की तिकड़ी ने इलाहाबाद को बीजेपी का मजबूत किला बना दिया
था और आज उस मजबूत किले को जीतने के लिए भारतीय जनता पार्टी एक बाहरी के सहारे है।
शहर उत्तरी ब्राह्मण बहुल सीट है, तो इससे सटी दूसरी सीट है शहर दक्षिणी, जो कि
बनिया बहुल है। यही ब्राह्मण-बनिया है, जो बीजेपी का मूल आधार है। शहर दक्षिणी से
भारतीय जनसंघ का खाता पहली बार 1969 में ही खुल गया था। रामगोपाल संड विधायक चुने गए
थे। उसके 1989 में केशरी नाथ त्रिपाठी ने फिर से बीजेपी के लिए ये सीट जीती। 89 के
बाद 91, 93, 96 और 2002 में भी केशरी नाथ त्रिपाठी इस सीट पर कमल खिलाते रहे। 2007
में बीएसपी के नंद गोपाल गुप्ता नंदी ने केशरी नाथ को हरा दिया और अब वही नंद
गोपाल गुप्ता नंदी बीजेपी के टिकट पर दक्षिणी से उम्मीदवार हैं। केशरी नाथ
त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं और वो नंदी को टिकट देने के पूरी तरह से
खिलाफ हैं। लेकिन, उनकी नहीं सुनी गई।
इलाहाबाद की लोकसभा सीट से लगातार तीन बार डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी
चुनाव जीते। इलाहाबाद की शहर उत्तरी और दक्षिणी की ये कहानी थोड़ी लम्बी भले हो
गई। लेकिन, उत्तर प्रदेश की शहरी सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की पकड़ बताने के
लिए ये कहानी जरूरी है। ये वो शहरी सीटें हैं, जहां आम मध्य वर्ग, हिन्दुत्व से
जुड़ा मतदाता बिना सोचे लगातार करीब 3 दशकों से मत देता रहा है। यही वजह है कि 14
वर्षों से भले ही भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने से बहुत दूर
है। महानगरों की विधानसभा सीटों पर उसकी प्रभावी उपस्थिति बनी रही। लेकिन, अमित
शाह के कुछ भी करके जीतने के मंत्र के प्रभाव से बीजेपी का अपना प्रभाव गायब होता
दिख रहा है। लखनऊ लोकसभा सीट पर अटल बिहारी वाजपेयी के सांसद बनने के बाद ये सीट
भाजपा का सबसे मजबूत किला रहा। 1991 से 2009 तक अटल बिहारी वाजपेयी और उसके बाद
लालजी टंडन और राजनाथ सिंह इसी सीट से कमल निशान पर लोकसभा पहुंचे। इसी लोकसभा की
2 महत्वपूर्ण सीटों लखनऊ कैंट और लखनऊ मध्य पर बीजेपी ने कांग्रेस से आई रीता
बहुगुणा जोशी और बीएसपी से ब्रजेश पाठक को उम्मीदवार बनाया है। ये सही है कि जिताऊ
प्रत्याशी खोज लेना राजनीति की सबसे बड़ी चुनौती होती है। जिसे अमित शाह बखूबी पार
कर जा रहे हैं। लेकिन, ये सवाल तो आने वाले समय में उठेगा कि जिताऊ खोजने के चक्कर
में अपनों के जरिये जीती जा सकने वाली सीटें भी दूसरों को दे देना कौन सी राजनीतिक
समझदारी है। लखनऊ और इलाहाबाद बड़े उदाहरण हैं, ऐसी करीब 50 सीटें हैं, जो बीजेपी
अपने प्रत्याशियों के भरोसे जीत सकती थी। लेकिन, उसने जिताऊ के नाम पर बाहरी पर
दांव लगाया। मोटा-मोटा हर जिले की करीब एक ऐसी सीट जिताऊ के चक्कर में बीजेपी ने
दूसरों को दे दी है। इन बाहरियों के आने से बीजेपी कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी साफ
देखने को मिल रही है।
(ये लेख Quint Hindi पर छपा है।)
(ये लेख Quint Hindi पर छपा है।)
Tuesday, January 24, 2017
बाबा साहब का “आरक्षण” न होता, तो बीएसपी में दलित कहां होते?
बहुजन समाज पार्टी दलितों की पार्टी
है। ये जवाब बताने के लिए कोई राजनीतिक-सामाजिक जानकार होने की जरूरत नहीं है।
लेकिन, क्या ये जवाब 2017 के विधानसभा चुनावों के समय भी सही माना जाएगा। छवि के
तौर पर अभी भी यही सही जवाब है। क्योंकि, देश की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती
बीएसपी की अध्यक्ष हैं। इसलिए बहुजन समाज पार्टी बहुजन यानी दलितों की ही पार्टी
मानी जाएगी। लेकिन, अब जब मायावती उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए 403 में से
400 प्रत्याशी घोषित कर चुकी हैं, तो बीएसपी के दलितों की पार्टी होने पर बड़ा
सवाल खड़ा हो गया है। सबसे पहले बात कर लेते हैं बांटे गए टिकटों में दलितों की
संख्या की। टिकटों की संख्या के लिहाज से बीएसपी यानी दलितों की पार्टी में दलितों
का स्थान चौथा आता है। मायावती ने सबसे ज्यादा टिकट सवर्णों को दिया है। उत्तर
प्रदेश के विधानसभा चुनाव में 403 में 113 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवार हाथी की सवारी
कर रहे हैं। दूसरे स्थान पर पिछड़ी जाति के प्रत्याशी हैं। पिछड़ी जाति से आने
वाले कुछ 106 प्रत्याशियों को बीएसपी ने टिकट दिया है। इसके बाद बीएसपी में मुसलमानों
का स्थान आता है। 97 मुसलमानों को मायावती ने टिकट दिया है। और चौथे स्थान पर
दलितों को जगह मिली है। विधानसभा चुनावों के लिए कुल 87 दलितों को बीएसपी ने हाथी
की सवारी करने का मौका दिया है। सोचिए कि जिन सवर्णों और पिछड़ों के शोषण के खिलाफ
पहले बाबा साहब ने और बाद में कांशीराम ने लड़ाई लड़ी। आज उन्हीं आदर्शों पर
राजनीति करने का दावा करने वाली मायावती की बीएसपी में दलितों का प्रतिनिधित्व
सवर्णों और पिछड़ों से भी कम हो गया। 2007 में 89 ब्राह्मणों को टिकट देकर
मायावती ने सामाजिक समीकरण चमत्कारिक तरीके से साध लिया था। उत्तर प्रदेश में
मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी। लेकिन, 2012 में 74 ब्राह्मणों और 2014
के लोकसभा चुनाव में 21 ब्राह्मणों को टिकट देने के बाद भी मायावती को अपेक्षित
परिणाम नहीं मिले। इसीलिए मायावती ने इस बार 66 ब्राह्मणों को ही विधानसभा का टिकट
दिया है। लेकिन, दूसरी सवर्ण जातियों के साथ ये संख्या दलितों से काफी ज्यादा हो
जाती है।
दरअसल उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य
में किसी एक जाति या धर्म के आधार पर राजनीति करना बेहद मुश्किल है। और ऐसी
पार्टियां भले ही एक बड़ा मत प्रतिशत हासिल करने में कामयाब होती रही हों। लेकिन,
बिना दूसरी जातियों को जोड़े उन्हें सत्ता का सुख अपने दम नहीं मिल सका। इसका सबसे
बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला था, जब सवर्णों को गाली देकर ही बीएसपी का आधार
मजबूत करने वाली मायावती ने दलित-मुसलमान के तय खांचे से आगे निकलकर सवर्णों
(खासकर ब्राह्मणों) को लुभाने की सफल कोशिश की। 2007 के विधानसभा चुनाव में
अप्रत्याशित तौर पर बीएसपी को ब्राह्मणों को मत मिला और 30.43% मतों के साथ
मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार सत्ता में आ गई। उस चुनाव में समाजवादी पार्टी 25% से ज्यादा मत पाने के बावजूद 97 सीटों पर ही
सिमट गई। लेकिन, 2012 के चुनाव में मायावती का ये मंत्र काम नहीं कर पाया। बहुजन
समाज पार्टी को 26% से कम मत मिले और इसकी वजह से सीटें घटकर 80 रह
गईं। समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई। लेकिन, फिर भी बीएसपी को ये
लगता है कि सिर्फ दलित-मुसलमान से यूपी की सत्ता हासिल नहीं की जा सकती। इसीलिए
फिर से 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए बहनजी के उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा सवर्ण
हो गए। और दलितों को संख्या 87 रह गई।
87 की संख्या देखकर फिर भी ये माना
जा सकता है कि राजनीतिक मजबूरियों के चलते सवर्ण और पिछड़ों को टिकट बांटना मजबूरी
हो गई है। फिर भी मायावती ने अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं का ख्याल रखा है। लेकिन, इसके
बाद का ये आंकड़ा दलितों को परेशान कर सकता है। और वो आंकड़ा ये है कि दलितों को
जिन 87 सीटों पर टिकट दिया गया है, उसमें से 85 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के
लिए ही आरक्षित हैं। ये वही आरक्षण है, जो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने महात्मा
गांधी से लड़कर हासिल किया था। जो बाद में संविधान का हिस्सा बन गया। यानी अगर
बाबा साहब का राजनीतिक आरक्षण न होता, तो बीएसपी में सिर्फ 2 उम्मीदवार दलित होते।
भला हो बाबा साहब के लड़कर लिए गए आरक्षण का कि, 87 दलित हाथी पर सवार होकर
विधानसभा पहुंचने की कोशिश तो कर पा रहे हैं। वरना राजनीतिक मजबूरी में जाने कितने
दलित हाथी की सवारी कर पाते। जो दलित मायावती के इशारे पर किसी को भी बिना सवाल
किए मत देता रहा है, उन्हीं दलितों में से मायावती को आरक्षित सीटों के अलावा योग्य
जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिल सका। वो भी तब जब 2007 में पूर्ण बहुमत की 5 साल की
सरकार और उससे पहले भी टुकड़ों में 3 बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह
चुकी हैं। अब फिर से मैं वही सवाल पूछ रहा हूं। क्या बीएसपी दलितों की पार्टी है। अब
इसका जवाब देना आसान नहीं रह गया है।
Wednesday, January 18, 2017
मां-बाप का मजबूत साथ होता, तो जायरा माफी न मांगती
हरियाणा में लड़कों के मुकाबले लड़कियां बहुत कम
हैं। फिर भी हरियाणा में लड़कों की चाहत सबको है। और हरियाणा ही क्या हिन्दुस्तान
में लड़कों की चाहत सबको ही है। महावीर सिंह फोगट की पत्नी भी लड़के की चाहत में
मन्दिर जाने से लेकर मन्नत मांगने तक सब करती रहीं। और यही वजह रही होगी कि महावीर
सिंह फोगट के 4 लड़कियां हुईं। लड़के की चाहत मन में रही होगी। पति-पत्नी के खुद
भी और समाज के दबाव में भी। लेकिन, महावीर सिंह फोगट सिर्फ शरीर से ही पहलवान नहीं
थे। फोगट कलेजे से भी पहलवान निकले। इस कदर कि अपनी सभी बेटियों को अखाड़े में
उतार दिया। हरियाणा में पहलवानी खूब होती है। लेकिन, अपनी सभी बेटियों को अखाड़े
में उतारने वाले महावीर सिंह फोगट शायद अकेले पहलवान होंगे। और यही असली पहलवान
होने को साबित करता है। महावीर सिंह फोगट की जीवन चरित्र इतना ऊंचा उठ गया कि
नीतेश तिवारी ने दंगल फिल्म की कहानी ही महावीर पर लिख डाली। इस फिल्म में महावीर
सिंह फोगट का अभिनय आमिर खान ने किया है। इस फिल्म की खूब तारीफ हुई है। सिर्फ आमिर
खान की ही तारीफ नहीं हुई महावीर सिंह फोगट बनने के लिए। फिल्म में गीता फोगट का
अभिनय करने वाली जायरा वसीम की भी खूब तारीफ हुई है। लड़कों के गालियां देने पर
पटककर पीटने पर सिनेमाहॉल और उसके बाहर भी खूब तालियां बजीं। असल पहलवान गीता फोगट
का अभिनय भर कर लेने से लोगों ने उसे असली गीता फोगट मान लिया। और उसे अपना आदर्श
मानने लगे। लेकिन, जायरा वसीम ने खुद ही लोगों से कहाकि वो आदर्श नहीं है। ये अलग
बात है कि ये कहने के पीछे जायरा का बड़प्पन नहीं था। जायरा की बुजदिली थी। जायरा
के 16 साल के होने की बात कहकर उसकी बुजदिली को हल्का करने के भी तर्क आने लगे
हैं। दरअसल जायरा पर्दे पर पहलवानी से इतनी प्रसिद्ध हुई कि जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री
महबूबा मुफ्ती ने उसे मिलने के लिए बुला लिया। बस यही मिलन कश्मीर घाटी के
अलगाववादी एजेंडे को चलाने वालों को रास नहीं आया। फेसबुक से लेकर सोशल मीडिया पर
जायरा को जमकर गालियां दी गईं। इस कदर कि जायरा को हारकर माफी मांगनी पड़ी। माफी
मांगने के साथ जायरा ने कहाकि वो कश्मीर को नौजवानों का आदर्श नहीं हैं। जायरा ने
डरकर यहां तक लिखा कि वो नहीं चाहते कि लोग उनके रास्ते पर चलें। जायरा ने ये भी
माफीनामे में ये भी लिखा मैं खुद उस पर गर्व नहीं करती, जो मैं कर रही हूं। इसलिए
नौजवानों को असली आदर्शों के रास्ते पर चलना चाहिए। जायरा ने खुद के 16 साल की
होने के आधार पर भी लोगों से माफ कर देने की विनती की है।
आखिर वो कौन लोग हैं, जिनसे जायरा ने इस तरह से
माफी मांगी। बताया जा रहा है कि फक्र-ए-कश्मीर और ऐसे कई दूसरे समूहों के जरिये
जायरा को गालियां दी गईं और उसे माफी मांगने पर मजबूर किया गया। इन समूहों के
जरिये कहा जा रहा था कि जायरा ने धर्म के खिलाफ काम किया है। धमकियां दी जा रही
थीं। इन धमकियों का असर इस कदर था कि जायरा ने अपने माफीनामे का अंत अल्लाह के
रास्ता दिखाने और रहम करने की गुजरिश के साथ किया है। पर्दे की गीता फोगट सोशल
मीडिया पर पड़ी गालियों से डरी या फिर उसे असल में भी धमकाया गया और ढेर सारी
गालियां दी गईं। ये जान लेने से बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन, ये जानने की जरूरत
है कि जायरा वसीम के मां-बाप की इस बारे में क्या राय है। ये राय शायद ही पता चले।
लेकिन, जो दिख रहा है वो यही है कि जायरा के मां-बाप उसके साथ खड़े नहीं हुए।
बल्कि, शायद उन धमकियों से डरे मां-बाप ने जायरा को और डराया होगा। कश्मीर में
इससे पहले भी प्रगाश बैंड को अपना संगीत की यात्रा बंद करनी पड़ी थी। कश्मीर को
बांटने वाली ताकतें ये डर कश्मीरी नौजवानों के मन से निकलने नहीं देना चाहतीं। इसीलिए
जायरा को इस कदर डराया गया कि पर्दे पर गीता फोगट जैसी साहसी लड़की का अभिनय करने
वाली जायरा ने कश्मीरी नौजवानों से विनती कर डाली कि उसे आदर्श न माने। अच्छा है
कि जायरा ने खुद ही ये कह दिया। कश्मीर के नौजवानों, वहां की लड़कियों का आदर्श
असली वाली गीता फोगट है। और उसके पिता महावीर सिंह फोगट। वो गीता फोगट जो कह रही
है कि उनके साथ भी समाज में ऐसी ढेर सारी मुश्किलें आईं और उनसे जूझकर वो आगे
निकलीं। शायद जायरा भी आदर्श बन जाती। लेकिन, उसके मां-बाप उसके साथ नहीं दिखे। जबकि,
गीता, बबिता फोगट के साथ उसके पिता महावीर सिंह फोगट और मां दया कौर खड़े रहे। इसीलिए
किसी लड़के में असल जिंदगी में भी ये साहस नहीं है कि फोगट बहनों को गाली देकर
बिना हड्डियां तुड़वाए निकल जाए। महावीर सिंह फोगट के अपनी 4 बेटियां और भाई की 2
बेटियां हैं। सभी 6 बेटियां पहलवान हैं। गीता, बबिता और विनेश फोगट तो
अंतर्राष्ट्रीय पहलवान हैं। लेकिन, फोगट बहनों की सारी पहलवानी का दम पहलवान
महावीर सिंह फोगट के दम से है। महावीर ने दम न दिखाया होता तो गीता, बबिता भी
लड़कों, समाज की गालियां-ताने सुनकर घर बैठ गए होते या फिर जायरा की तरह माफी
मांगने को मजबूर हो गए होते। इसलिए बुजदिली जायरा की नहीं है। बुजदिली जायरा के
मां-बाप की है, परिवार की है। बताया जाता है कि जायरा के बैंकर पिता और शिक्षक मां
जायरा के मुंबई जाने के खिलाफ थे। फिल्मी करियर के खिलाफ थे। लेकिन, जिद पर अड़ी
जायरा नहीं मानी। मजबूरी में जायरा का वो फैसला उन्हें स्वीकार करना पड़ा। लेकिन,
समाज का आदर्श बनने की दहलीज पर खड़ी जायरा के साथ उसके मां-बाप नहीं खड़े हो सके।
नतीजा जायरा बुजदिल साबित हो गई। बेटियों के साथ मां-बाप खड़े रहेंगे, तो किसी बेटी
को जायरा की तरह माफी नहीं मांगनी पड़ेगी।
(ये लेख quinthindi पर छपा है)
Tuesday, January 10, 2017
उत्तर प्रदेश में "परिवर्तन" का क्या होगा?
प्रख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया कहा
करते थे कि जिन्दा कौमें 5 साल तक इंतजार नहीं करती हैं। लेकिन, देश के सबसे बड़े
सूबे में समाजवादी सरकार के मुखिया अखिलेश यादव 5 साल के बाद भी उत्तर प्रदेश की
जनता को “परिवर्तन की आहट” ही सुना पा रहे हैं। और इसी परिवर्तन की आहट के जरिये वो उत्तर प्रदेश की
जनता को संदेश देना चाह रहे हैं कि प्रदेश के लोगों की भलाई दोबारा समाजवादी
पार्टी की सरकार लाने में ही है। और इसे बौद्धिक तौर पर मजबूती देने के लिए अखिलेश
यादव के इस कार्यकाल पर एक किताब आई है। इस किताब में “परिवर्तन की आहट” बताता अखिलेश के भाषणों का संकलन है। कमाल की बात ये है कि आमतौर पर परिवर्तन
की बात विपक्ष सत्ता हासिल करने के लिए करता है। लेकिन, उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य
बनने जा रहा है, जहां चुनावी लड़ाई परिवर्तन के ही इर्द गिर्द हो रही है। फिर चाहे
वो सत्ता पक्ष हो या विपक्ष। सरकार में आने के लिए विपक्ष सत्ता परिवर्तन की लड़ाई
लड़ता है। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी का परिवर्तन पर खास जोर देना आश्चर्यजनक नहीं
लगता। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष विशेषकर परिवर्तन पर जोर देते हैं। भारतीय जनता
पार्टी की पूरी चुनावी रणनीति इसी एक शब्द के इर्दगिर्द बुनी हुई दिखती है।
परिवर्तन रथयात्रा और परिवर्तन महारैली ये भारतीय जनता पार्टी के दो सबसे बड़े
चुनावी अस्त्र नजर आ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी अपनी यात्रा और रैली के जरिये ये
बताने की कोशिश कर रही है कि उत्तर प्रदेश की जनता को अगर देश के सबसे बड़े सूबे
का खोया हुआ सम्मान हासिल करना है, तो उसे परिवर्तन करना होगा। और वो परिवर्तन
भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आने से होगा।
बीजेपी राजनीतिक तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार की
नाकामियों, कानून व्यवस्था और परिवारिक झगड़े को मुद्दा बनाए हुए है। साथ ही
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की उन योजनाओं का भी जिक्र परिवर्तन के साथ किया जा
रहा है जिससे देश के साथ उत्तर प्रदेश के लोगों को भी सीधे लाभ मिलता दिखे। और
इसीलिए अमित शाह हों या बीजेपी की परिवर्तन रथयात्रा के नेता, मोदी सरकार की हर
योजना को एक सांस में लोगों को बताना नहीं भूलते। राजनीतिक लड़ाई के साथ बौद्धिक
लड़ाई में भी भारतीय जनता पार्टी अब “परिवर्तन” की ही बात कर रही है। और इस बौद्धिक लड़ाई में “परिवर्तन” की ब्रांडिंग का
जिम्मा बीजेपी के थिंक टैंक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान ने ले लिया
है। संस्थान के निदेशक अनिर्बान गांगुली की मूल भाषा अंग्रेजी है। लेकिन, पिछले
कुछ समय में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान ने हिन्दी को लेकर ढेर सारे
शोध पत्र, पुस्तकें प्रकाशित की हैं। और अब “परिवर्तन की ओर” नाम से एक पुस्तक संस्थान लेकर आया है। अनिर्बान
गांगुली कहते हैं कि ये कहना गलत होगा कि बीजेपी ने ये पुस्तक लिखी या लिखवाई है। निश्चित
तौर पर इस पुस्तक में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद देश में अलग-अलग क्षेत्रों
में हुए परिवर्तन की चर्चा है। लेकिन, इसे लिखने वाले कहीं से भी बीजेपी से
सम्बद्ध नहीं हैं। ये स्वतंत्र लेखकों की ओर से स्वतंत्र तौर पर केंद्र सरकार की
नीतियों की समीक्षा है। वैसे तो ये किताब केंद्र सरकार की नीतियों के असर पर है।
लेकिन, बीजेपी इसका फायदा उत्तर प्रदेश के चुनावों में लेना चाहती है।
बीजेपी “परिवर्तन की ओर” ले जाने की बात कर रही है, तो समाजवादी पार्टी
या कहें कि अखिलेश यादव प्रदेश की जनता को “परिवर्तन की आहट” सुनाना चाह रहे हैं। डॉक्टर श्यामा प्रसाद
मुखर्जी शोध संस्थान की ये किताब 168 पन्ने की जिसमें कुल 28 लेखकों ने लिखा है। जबकि,
अखिलेश यादव की किताब “परिवर्तन की आहट” पूरी तरह से अखिलेश यादव के दिए गए भाषणों का
संग्रह है। करीब सवा दो सौ पृष्ठ की इस किताब में 34 शीर्षकों से प्रदेश में
समाजवादी सरकार के कामों का ब्यौरा दिया गया है। साथ ही अखिलेश यादव ने इस किताब
के जरिये भावनात्मक तौर पर भी यूपी की जनता से जुड़ने की कोशिश की है। बीजेपी
सरकार बदलने के लिए “परिवर्तन की ओर” जाने की बात कर रही है तो अखिलेश यादव “परिवर्तन की आहट” के जरिये प्रदेश की जनता को ये समझाना चाह रहे
हैं कि परिवर्तन की आहट पिछले 5 सालों में सुनाई देने लगी है लेकिन, परिवर्तन के
लिए जनता को उन्हें एक मौका और देना चाहिए। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की जनता के
सामने दो बड़ी पार्टियां परिवर्तन की दुहाई दे रही हैं। अब देखना है कि उत्तर
प्रदेश की जनता को “परिवर्तन की आहट” सुनाई देती है या वो “परिवर्तन की ओर” चल देती है।
Monday, January 09, 2017
कांग्रेस को एक पूर्णकालिक राजनेता की जरूरत
स्वराज भवन, इलाहाबाद में राहुल, प्रियंका गांधी |
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल के आखिरी दिन
जो बोला, उस पर टिप्पणी के लिए कांग्रेस की तरफ से दूसरी, तीसरा कतार के नेता ही
मिल पाए। उसकी वजह ये कि उनके अभी के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी छुट्टी पर हैं।
ये पहली बार नहीं है, जब राहुल गांधी छुट्टी पर गए हैं। संसद सत्र का समय हो या
बिहार चुनाव राहुल गांधी ने ऐसा कई बार किया है। यहां तक कि देश में रहते भी राहुल
गांधी अपनी सुविधानुसार ही राजनीतिक सक्रियता रखते हैं। 90 के दशक में इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में छात्रसंघ की राजनीति करते/कराते और संगठन का
काम करते/कराते दो बातें जो सबसे ध्यान में रहती थीं।
पहली ये कि दूसरा नेता/संगठन क्या कर रहा है और
उससे बेहतर हम क्या कर सकते हैं। दूसरी बात ये कि कल सुबह आने वाले अखबार में
हमारा किया कैसे छपेगा। हालांकि, छात्रसंघ या छात्र संगठन की राजनीति करते कुछ लोग
ऐसे भी होते थे जो सिर्फ इस बात कि चिन्ता करते थे कि कैसे छप जाया जाए। अच्छा,
बुरा कुछ भी, कैसे भी। पहली दोनों बातें ध्यान में रखने वाले राजनीति में
धीरे-धीरे तपे-तपाए नेता के तौर पर स्थापित होते जाते। और इस प्रक्रिया में वो
पूर्णकालिक राजनेता बन जाते हैं। छपास रोगी नेता लम्बे समय तक नहीं चल पाते हैं और
अगर चल भी गए तो गम्भीर नेता की उनकी छवि कभी नहीं बन पाती। यहां तक कि राजनीति
में ज्यादा समय देने के बावजूद सिर्फ छपासी नेता पूर्णकालिक राजनेता नहीं बन पाते।
देश की राजनीति में और राज्यों की राजनीति में मजबूत ज्यादातर नेता पहली दो बातों
का ठीक से ध्यान रखते हैं। और उसी को ध्यान में रखते वो राजनीति में आगे बढ़ रहे
हैं। अब सवाल ये है कि फिर राहुल गांधी का राजनीतिक विकास क्यों नहीं हो पा रहा
है। लम्बे समय से राहुल गांधी लोकसभा में हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
हैं, लगभग अध्यक्ष ही हैं। और कई बार तो मुझे ये भी लगता है कि ईमानदारी से लोगों
की तकलीफों को समझना चाहते हैं। फिर ऐसा क्या है जो उन्हें गम्भीर, पूर्णकालिक
राजनेता नहीं बनने दे रहा है। अब उसके कारण ढेर सारे हैं। लेकिन, इतना तय है कि
कांग्रेस को इस समय एक गम्भीर पूर्णकालिक राजनेता की सख्त जरूरत है। बिना
पूर्णकालिक राजनेता के कांग्रेस का विकास क्रम सही नहीं होने वाला। पूर्णकालिक
वैसे तो संघ का कॉपीराइट लगता है लेकिन, आज कांग्रेस की ये सबसे बड़ी जरूरत दिखती
है।
कांग्रेस के बारे में आम राय यही रही है कि
सत्ता की स्वाभाविक दावेदार यही पार्टी है। नरेंद्र मोदी की सरकार के पूर्ण बहुमत
में आने के बाद भी कई लोगों इस तरह की बात करते दिख जाते हैं। इस स्वाभाविक
दावेदारी के पीछे ढेरों तर्क हो सकते हैं। लेकिन, मेरी नजर में सबसे बड़ा तर्क यही
है कि कांग्रेस पूर्णकालिक राजनेताओं की पार्टी रही है। यानी ऐसे नेता जिनके लिए
राजनीति उनका ओढ़ना, बिछाना, खाना-पीना, सोना सब था। पूर्णकालिक राजनेता के तौर पर
राजीव गांधी कमजोर साबित हुए थे। और उस कमजोरी का नुकसान ये कि अचानक बोफोर्स से
भ्रष्टाचार का गोला छूटा और वो जनता में अपनी छवि बचा नहीं सके। लेकिन, राजीव
गांधी को सीधे प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला जिसकी वजह से सत्ता ने लम्बे समय तक
राजीव गांधी को नेता बनाए रखा। राजीव के जाने के बाद पी वी नरसिंहाराव गजब के
पूर्णकालिक राजनेता के तौर पर सामने आए। यही वजह रही कि अल्पमत की सरकार को भी
उन्होंने सलीके से चला लिया और भारतीय राजनीति के ढेर सारे चमत्कारी फैसले ले लिए।
विदेशी मूल का आरोप झेल रही सोनिया गांधी ने इस पूर्णकालिक राजनेता होने के मंत्र
को जान लिया और यही वजह रही कि उन्होंने सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला लिया,
प्रधानमंत्री न बनने का। सबसे लम्बे समय तक वो कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। बिना
प्रधानमंत्री रहे आजाद भारत में शायद ही कोई इतना ताकतवर रहा हो, जितनी सोनिया
गांधी रहीं। उस सबकी वजह थी उनका पूर्णकालिक राजनेता होना। लेकिन, ये कांग्रेस का
दुर्भाग्य कहा जाएगा कि इलाहाबाद में कांग्रेस के मूल स्थान वाले शहर में राजनीति
करने वालों की तुलना में राहुल गांधी पासंग भी राजनेता न बन सके हैं। पूर्णकालिक
राजनेता होना तो शायद राहुल के मूल स्वभाव के ही विपरीत है। राहुल गांधी अंशकालिक
राजनेता हैं। वो अंशकाल भी राहुल का तय नहीं होता है। इतने अनिश्चित राजनेता को
जनता कैसे स्वीकारे। पूर्णकालिक राजनेता होने का लाभ नरेंद्र मोदी और अरविंद
केजरीवाल को किस कदर मिला, ये सबके सामने है। ढेर सारी गलतियों के बाद भी इन दोनों
नेताओं का एक पक्का वाला समर्थक वर्ग है। वो समर्थक वर्ग जानता है कि सबके बाद
हमारा नेता भागने वाला, गायब होने वाला नहीं है। सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर
नोटबंदी- किसी भी मुद्दे पर अपने बयान और व्यवहार से राहुल गांधी एक पूर्णकालिक
राजनेता जैसा नहीं दिखे। इसलिए, मुश्किल ये कि कांग्रेस के कार्यकर्ता की छोड़िए,
नेता तक को राहुल गांधी के किसी मुद्दे पर निश्चित व्यवहार की उम्मीद नहीं है।
इसीलिए उत्तर प्रदेश में ढेर सारे प्रयोगों, कार्यक्रमों को चलाने के बाद भी राज्य
में कांग्रेस का चुनावी भविष्य अब पूरी तरह से समाजवादी पार्टी से समझौते में कुछ
सीटें मिलने की आस पर ही टिका हुआ है। और ये भी आस इसलिए बनी है कि पूर्णकालिक
राजनेता के तौर पर विकसित हो गए अखिलेश यादव को लग रहा है कि सत्ता रहने से और
परिवारी मारापीटी के दुष्प्रभाव से बचने में कांग्रेस का साथ कुछ मददगार हो सकता
है। लेकिन, यहां भी पूर्णकालिक राजनेता जैसा व्यवहार राहुल गांधी नहीं कर पा रहे
हैं। हो ये रहा है कि रणनीतिकार के तौर पर स्थापित हो गए प्रशांत किशोर थकने लगे
हैं और इस बुरे हाल में भी पार्टी का झंडा बुलंद करने वाले कांग्रेस नेता खीझने
लगे हैं।
पहले से ही खीझे कांग्रेसी नेताओं की खीझ राहुल
गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बिना आधार के आरोप लगाकर और फिर संसद सत्र
के आखिरी दिन जाकर प्रधानमंत्री से मिलकर बढ़ा दी है। अंशकालिक राजनेता होने का ही
नुकसान था कि विमुद्रीकरण पर ढेर सारे विपक्षी दलों का समर्थन पा रही कांग्रेस
अचानक फिर अकेले हो गई। भूकम्प लाने का दावा करने वाले राहुल गांधी प्रधानमंत्री
को हिला देने वाला भूकम्प तो नहीं ला सके। हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस की अपनी
छत भी गिरती दिख रही है। इसीलिए कांग्रेस को सख्त जरूरत है एक पूर्णकालिक राजनेता
की। वो प्रियंका गांधी भी हो सकती हैं या कोई और। कांग्रेस के साथ स्वस्थ लोकतंत्र
के लिए भी ये जरूरी है।
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