पिछले साल नवंबर में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने लंदन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के साथ यूरोपीय यूनियन पर जनमत
संग्रह के लिए तैयार हो रही जनता से एक तरह से यूरोपीय संघ के साथ रहने की ही गुजारिश
की थी। नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारतीय नजरिये से यूरोप में जाने का दरवाजा ब्रिटेन
ही है। और ग्रेट ब्रिटेन ने उसके बाद जनमत संग्रह में यूरोप से अलग होने का फैसला
कर लिया। हालांकि, अब ब्रिटेन के अंदर ही नए सिरे से यूरोप में बने रहने के लिए
आवाज मुखर हो रही है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल भारतीय संदर्भ में ये है कि क्या
यूरोप का दरवाजा अलग हो जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा या फायदा। दुनिया
में हो रहे किसी भी घटनाक्रम का पहला आर्थिक असर शेयर बाजार के उतर-चढ़ाव से ही तय
होता है। और इस नजरिये से देखें तो भारतीय शेयर बाजार ने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ
से अलग होने के फैसले को बेहद खराब तरीके से देखा। सेंसेक्स 24 जून को छे सौ चार
अंक से ज्यादा गिरकर बंद हुआ। इससे ये एक सामान्य धारणा हम भारतीयों के मन में
पक्की हुई है कि ब्रिटेन के यूरोप से अलग होने से भारत के लिए आर्थिक तौर पर ढेर
सारी मुसीबतें आने वाली हैं। मीडिया में ब्रिटेन में भारतीय कंपनियों के ढेर सारे
हितों को भी कमजोर होने की खबरें आ रही हैं। बताया जा रहा है कि कैसे टाटा ग्रुप
का एक दिन तीस हजार करोड़ रुपया घट गया। मीडिया में आ रहे इन विश्लेषणों के बाद ये
लगने लगा है कि भारतीय रुपया और अर्थव्यवस्था के लिए ये फैसला भारी पड़ने वाला है।
लेकिन, एक मुझे लगता है कि शेयर बाजार की प्रतिक्रिया और दूसरे विश्लेषण एक तत्कालिक
प्रतिक्रिया भर हैं।
ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के ढेर सारे
पहलू हैं। जिस पर अलग-अलग चर्चा की जानी चाहिए। राष्ट्रवाद का उभार या फिर कहें कि
अपनी परिसंपत्तियों पर दूसरों के हक जताने के खिलाफ जागरुकता का परिणाम भी इसे कह
सकते हैं। लेकिन, फिलहाल सिर्फ एक पहलू को समझने की जरूरत है कि इससे भारत की
अर्थव्यवस्था पर किस तरह से असर पड़ सकता है। निश्चित तौर पर एक इतनी बड़ी घटना है
जो, कई दशकों में एक बार होती है। इसलिए इसका अच्छा-बुरा दोनों ही असर दुनिया पर
देखने को मिलेगा और भारत पर भी। लेकिन, इसकी बड़ी सच्चाई ये है कि आर्थिक तौर पर
इस घटना का ज्यादा असर ब्रिटेन, यूरोप और अमेरिका पर पड़ने वाला है। भारत या दूसरे
विकासशील देशों पर इसका खास असर नहीं पड़ने वाला है। सीएलएसए के इक्विटी स्ट्रैटेजिस्ट
क्रिस्टोफर वुड इसे और साफ करते हैं। वुड का कहना है कि ब्रेक्सिट मुद्दे का
संदर्भ विकासशील बाजारों के लिए बिल्कुल नहीं है। बाजार की भावनाओं के लिहाज से
इसका कुछ असर विकासशील बाजारों पर देखने को मिल सकता है। लेकिन, यूनाइटेड किंगडम
के यूरोप से अलग होने से विकासशील देशों और खासकर भारत के मजबूत आर्थिक आधार पर
कोई असर नहीं पड़ने वाला। एक बात ये हो रही है कि इससे भारत में आने वाले निवेश पर
फर्क पड़ सकता है। हालांकि, ज्यादा खतरा ब्रिटेन के है क्योंकि, भारतीय कंपनियां
वहां एफडीआई का बड़ा स्रोत हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि इससे भारतीय कंपनियों के
लिए और सहूलियतें बढ़ेंगी। क्योंकि, यूरोप से बाहर होने के बाद जब यूरोपीय बाजार
के मद्देनजर ब्रिटेन से अपन काम कर रही भारतीय कंपनियों को अपना यूरोपीय बाजार कम
होता हुआ दिखेगा, तो वो वहां से बाहर जाने का मन बनाएंगी। और ऐसी स्थिति में
ब्रिटेन को भारतीय कंपनियों को ज्यादा सहूलियतें देनी ही पड़ेंगी। वैसे भी 2018
में जब यूरोपीय संघ ये तय करेगा कि ब्रिटेन से काम करने वाली कंपनियों को यूरोपीय
संघ के सदस्य देशों को मिलने वाली छूट मिलनी चाहिए या नहीं। तभी तय हो पाएगा कि
ब्रिटेन में भारी निवेश कर रही भारतीय कंपनियों को कितना फायदा नुकसान होगा। तब तक
ब्रिटेन की तरफ से करों में छूट और नियमों-शर्तों में बड़ी ढील भी भारतीय कंपनियों
को मिल सकती है। चूंकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2015 में डेविड कैमरन
के साथ खड़े होकर ये कहा कि ब्रिटेन यूरोप का दरवाजा है, तो इससे ये आभास होता है
कि भारत के लिए अब ब्रिटेन और यूरोप के साथ संबंधों को एक साथ बेहतर रख पाना
मुश्किल होगा। लेकिन, आज के संदर्भों में भारत-यूरोप के बेहतर संबंध भारत से
ज्यादा यूरोप के हित में है। अब ब्रिटेन के बाहर जाने से यूरोप के लिए और जरूरी हो
जाएगा कि वो भारत के साथ अपने आर्थिक संबंध बेहतर करे। अमेरिका और चीन को संतुलित
रखने के लिए भी जरूरी है कि यूरोप के आर्थिक संबंध भारत से बेहतर हों। क्योंकि,
दुनिया की सबसे तेजी से तरक्की करती अर्थव्यवस्था के साथ खराब रिश्ते किसी भी देश
या देशों के संघ के लिए बेहतर नहीं होंगे। इसीलिए भले ही ब्रिटेन के यूरोप से
निकलने से तुरंत भारत को कुछ नुकसान भी हो। लेकिन, लंबे समय में भारत के लिए यूरोप
से शुद्ध मुनाफे की ही स्थिति बनेगा। इसीलिए वित्त मंत्री अरुण जेटली का ये बयान
तार्किक समझ में आता है। ब्रेक्सिट का भारत पर किस तरह का असर होगा, इस सवाल के
जवाब में अरुण जेटली ने कहा कि प्रचुर विदेशी मुद्रा भंडार, तेज तरक्की की रफ्तार,
काबू में महंगाई, काबू में चालू खाते का घाटा और वित्तीय अनुशासन अगर है, तो उस
देश पर इस तरह की घटनाओं का खास असर नहीं होगा और इन सब कसौटी पर भारत खरा उतरता
है।
ब्रिटेन में भारतीय मूल के बड़े उद्योगपति जी पी
हिंदुजा का ये कहना कि इससे भारत-ब्रिटेन के संबंध और मजबूत होंगे, ये दर्शाता है
कि ब्रेक्सिट का भारत को नुकसान कम, फायदा ज्यादा होने वाला है। हिंदुजा ने कहा कि
इससे दोनों देशों के बीच कारोबार और निवेश में बढ़ोतरी होगी। दरअसल ब्रेक्सिट में
भारत के फायदे की ढेर सारी खबरें छिपी हुई हैं। भारत तेल और दूसरी कमोडिटीज का
बड़ा आयातक है। उम्मीद की जा रही है कि ब्रिटेन के यूरोप से बाहर निकलने से कमोडिटीज
की कीमतों पर दबाव और बढ़ेगा, मतलब कीमतें कम होंगी। जिसकी सीधा फायदा भारत को ही
होने वाला है। एक और जो अच्छे से समझने वाली बात है। दरअसल बार-बार ये भी चर्चा हो
रही है कि भारत में आने वाला विदेशी निवेश इससे घट सकता है। इसमें तथ्य समझने की
जरूरत है। तथ्य ये है कि यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम दोनों से ही भारत को आने
वाले निवेश में पिछले कुछ समय में पर्याप्त कमी आ चुकी है। मार्च में खत्म हुए
वित्तीय वर्ष में भारत में ब्रिटेन से आने वाला विदेशी निवेश साढ़े सोलह प्रतिशत
घट चुका है। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि भारत में ब्रिटेन से आने वाले विदेशी निवेश
का ब्रिटेन के यूरोपीय संघ को छोड़ने से कोई ताल्लुक नहीं है। हां, भारतीयों के
लिए ये अच्छी खबर जरूर हो सकती है कि पाउंड की कीमत घटने से भारतीयों के लिए ब्रिटेन
खरीदारी का बड़ा अड्डा बन सकता है। विदेश घूमने जाने वालों और ब्रिटेन के
विश्वविद्यालय में पढ़ने की इच्छा रखने वाले भारतीयों के लिए ब्रेक्सिट अच्छी खबर
की तरह आता दिख रहा है।
यूरोपीय संघ के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते
में आने वाला अड़ंगा भी दूर हो सकता है। ब्रिटेन के अलग होने के बाद यूरोपीय संघ
भारत से समझौता करने में लचीला रुख अपना सकता है। भारत के पक्ष में एक और जो बड़ी
बात है कि पहले से ही भारत की निर्यात पर निर्भरता बहुत कम है। क्रेडिट सुइस के
मुताबिक, अगर ब्रेक्सिट से मंदी के आसार बनते हैं, तो मलेशिया, हांगकांग, वियतनाम
और सिंगापुर पर सबसे बुरा असर होगा। जबकि, भारत, इंडोनेशिया और चीन पर सबसे अंत
में इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। यूरोपीय संघ के नियमों से मुक्त ब्रिटेन का बाजार
भारतीय कंपनियों, उत्पादों के लिए एक आसान बाजार बन सकता है।