आईआईटी रुड़की से तिहत्तर छात्रों को
निकालने की खबर आई तो लगा कि कोई संस्थान ये कैसे कर सकता है। बीटेक के पहले साल
में ही तिहत्तर बच्चों को निकालने की खबर के बाद हर किसी को छात्रों के साथ
सहानुभूति हो गई। सोशल मीडिया से लेकर लोगों के बीच से दबाव बनने लगा कि छात्रों
को मौका देना चाहिए। इस तरह से तो उनका भविष्य खराब हो जाएगा। लेकिन, इन तिहत्तर
छात्रों का भविष्य बनाने की चिंता किस तरह से पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था की
चिंता को और बढ़ाएगी, इस पर शायद ही किसी का ध्यान जा रहा हो। या फिर कोई बहस हो
रही है। सबसे पहले तो ये कि आखिर इन तिहत्तर छात्रों को बीटेक पहले साल की परीक्षा
की नौबत क्यों आई। उसका जवाब ये है कि इन छात्रों ने पहले साल पांच सीजीपीए से भी
कम नंबर हासिल किए हैं। आईआईटी रुड़की ने इसी आधार पर छात्रों को बाहर करने का
नोटिस भेज दिया। ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी आईआईटी में छात्रों को खराब
प्रदर्शन की वजह से निकाला नहीं गया है। लेकिन, बाद में उन्हें वापस ले लिया गया।
मुझे लगता है कि यही छात्रों को वापस लेना भारतीय शिक्षा व्यवस्था की चिंता की
सबसे बड़ी वजह बनते हैं। कमाल की बात तो ये है कि भारतीय शिक्षा संस्थानों के
दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों की सूची में न होने पर शर्म करने वाली भी
वही हैं। और छात्रों को आरक्षण के आधार पर आईआईटी, मेडिकल में दाखिला दिलाने की
पैरवी करने वाले भी वही हैं। दुनिया भर में बेहतर संस्थानों की सूची जब आती है तो,
उसमें गलती से एकाध संस्थान भारत के आ जाएं तो बड़ी बात होती है। हर बार उसी समय
बड़ा सपना देखा जाता है। बड़े लेख भी आते हैं। बड़ा विचार होता है। फिर से स्थगित
कर दिया जाता है अगले साल सूची आने और उस पर स्यापा करने के लिए। किसी भी समाज में
कमजोर तबके को दूसरे तबकों के बराबर लाने के लिए आरक्षण जरूरी होता है। भारत में
भी है। लेकिन, किसी भी समाज को कमजोर करने के लिए आरक्षण का इस्तेमाल बेहद खतरनाक है।
और इसीलिए आरक्षित हो या अनारक्षित, अगर छात्र तय नंबर से कम पा रहा है तो, उसे
देश के उन शिक्षा संस्थानों में पढ़ने का मौका नहीं मिलना चाहिए, जिससे देश
निर्माण का महत्वपूर्ण जिम्मा है। सामान्य वर्ग या आरक्षित वर्ग का छात्र अगर किसी
तरह से आईआईटी, पीएमटी या आईआईएम की प्रवेश परीक्षा पास करके ये समझ लेता है कि अब
ये संस्थान की महती जिम्मेदारी है कि वो उसे किसी भी तरह से अगले दो-तीन-चार सालों
में डिग्री देकर ससम्मान विदा करे।
जाहिर है इस तरह डिग्री हासिल कर निकलने
वाले छात्र न तो शिक्षा व्यवस्था की बेहतरी कर सकते हैं। और न इस शिक्षा को पाने
के बाद भारत निर्माण में बेहतर योगदान कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि आईआईटी
रुड़की के तिहत्तर छात्रों को निकालने के फैसले को वापस लेने का दबाव न बने।
बल्कि, इस बात का दबाव बने कि आखिर क्या वजह है कि आईआईटी रुड़की में दाखिला पाने
वाले छात्र पांच सीजीपीए भी हासिल नहीं कर सके। और वो भी एक साल की आईआईटी रुड़की
की शिक्षा के बाद। यानी शिक्षक और छात्र दोनों की ये समस्या है। और ये समस्या और
गंभीर होती दिख रही है। इस चुनौती की वजह ये है कि देश की स्कूली शिक्षा व्यवस्था
में गिरावट होती जा रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए मेरिट आती है
तो, लगता है जैसे देश में स्कूली शिक्षा से निकलने वाले बच्चे बेहद होनहार हैं।
पंचानबे प्रतिशत के नीचे तो कोई मेरिट शुरू ही नहीं होती है। कई नामी कॉलेजों में
ये मेरिट अट्ठानबे-निन्यानबे प्रतिशत तक होती है। लेकिन, ये एक पहलू है। अब जरा
दूसरा पहली देखिए। आईआईटी में दाखिले के लिए जो ताजा मेरिट है, वो चौंकाने वाली
है। जेईई
के परीक्षा में सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों की मेरिट लिस्ट इस साल चौबीस दशमलव
पांच प्रतिशत रही है। यानी पांच सौ चार नंबर में से सिर्फ एक सौ चौबीस नंबर। ये
सामान्य वर्ग की मेरिट है। ओबीसी की मेरिट इससे थोड़ा सा ही कम करीब बाइस प्रतिशत
है। हालांकि, पिछले साल से ये दोनों मेरिट कम है। पिछले साल सामान्य वर्ग की मेरिट
पैंतीस प्रतिशत तक गई थी। जबकि, ओबीसी की इकतीस प्रतिशत। ये आंकड़े ही हमें निराश
करने लगते हैं। और असल स्थिति बताते हैं हमारी स्कूल शिक्षा व्यवस्था की। लेकिन,
इसके बाद के आंकड़े तो निराशा में और गहरे डुबो देते हैं। अनुसूचित जाति, जनजाति
के बच्चों की मेरिट इस बार साढ़े बारह प्रतिशत रही है। जो, पिछले साल साढ़े सत्रह
प्रतिशत थी। इतने तक ही गिरावट नहीं रुकती है। देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठिक आईआईटी
संस्थानों को अनुसूचित जाति, जनजाति के बच्चों को पांच सौ चार में से सिर्फ 31
नंबर लाने वाले बच्चों को भी दाखिला देना होगा। क्योंकि, सीटें खाली रह जाएंगी। ये
करीब छे प्रतिशत है। पिछले साल कम से कम मेरिट भी करीब नौ प्रतिशत थी। ये वो सीटें
हैं जिनमें एक साल बच्चों को तैयार किया जाएगा। उसके बाद बीटेक में दाखिला दिया जाएगा।
मेरिट में ये गिरावट तब है जब आईआईटी में दाखिले के लिए ये भी जरूरी शर्त है कि जेईई
एडवांस्ड की प्रवेश परीक्षा पास करने वाले छात्र के इंटरमीडिएट (बारहवीं) में कम
से कम पचहत्तर प्रतिशत नंबर हों। और इस पैमाने की वजह से भी इकतीस छात्रों को
प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद भी दाखिला नहीं मिल सका है।
भारतीय स्कूल शिक्षा व्यवस्था की
खामी का ये अद्भुत उदाहरण है। सरकारों को इस बारे में सोचना होगा कि आखिर वो कैसे
इस गुणवत्ता असंतुलन को दूर कर सकते हैं। इसका शुरुआत आईआईटी रुड़की के तिहत्तर
छात्रों को एक साल की तैयारी का मौका देकर किया जा सकता है। लेकिन, उसमें शर्त
कड़ी होनी चाहिए कि अगर तय पर्सेंटाइल नहीं आया तो, उसे दोबारा आईआईटी में दाखिला
नहीं मिलेगा। लेकिन, लंबे समय की योजना में केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों को
अपने बोर्ड की स्कूली शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता ठीक करने की जरूरत है। वैसे भी
सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड के अलावा दूसरे राज्य शिक्षा बोर्ड के प्रदर्शन में
बेहतरी होने की बजाए गिरावट ही देखने को मिल रही है। और इसकी सबसे बड़ी वजह राज्यों
में दसवीं-बारहवीं के नतीजे के राजनीतिक नफा-नुकसान से जुड़ जाना रहा है। उत्तर
प्रदेश में नकल विरोधी अध्यादेश भी बीजेपी सरकार के दोबारा न आने में काफी मददगार
रहा है। सपुस्तकीय परीक्षा प्रणाली और राज्यों में कुंजी-गाइड सिस्टम से
दसवीं-बारहवीं पास करने वाले बच्चे कैसे आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए आईआईटी रुड़की के
तिहत्तर छात्रों के खराब प्रदर्शन और उस आधार पर इन्हें निकालने को सिर्फ तिहत्तर छात्र और
आईआईटी रुड़की के बीच का समस्या समझने के बजाए पूरी भारतीय स्कूली शिक्षा व्यवस्था
की समस्या के तौर पर देखना होगा। तभी शायद इस तरह की बेहद असहज स्थिति से हमारे
प्रमुख शिक्षा संस्थान बच सकेंगे।
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