राजस्थान के एक
किसान की आत्महत्या ने भारतीय राजनीति की अब तक की सबसे बड़े गिरावट देश के सामने
पेश की है। ये गिरावट सिर्फ चरित्रहीनता, बेईमानी, मौकापरस्ती तक सीमित नहीं है।
राजस्थान के किसान गजेंद्र की आत्महत्या भारतीय लोकतंत्र में संवेदना के मर जाने
का पुख्ता प्रमाण है। एक और बबात जो एकदम साफ है कि गजेंद्र न तो उस तरह से किसान
था और न ही उस तरह से किसी तरह की ऐसी समस्या में था जिसकी वजह से उसे दौसा से
दिल्ली आकर इस तरह से आत्महत्या करनी पड़ती। अगर गजेंद्र विपन्न किसान नहीं थे
जिसे अपनी फसल बर्बाद होने के गम में आत्महत्या करनी पड़ जाए तो, गजेंद्र सिंह इस
तरह से आम आदमी पार्टी की किसान रैली में क्यों आया और क्या सचमुच वो जंतर मंतर पर
आत्महत्या करने ही आया था। इसका जवाब पक्के तौर पर ना में है। क्योंकि, न तो वो
विपन्न किसान था और न ही वो आत्महत्या करने आया था। दरअसल जबर्दस्त राजनीतिक
महत्वाकांक्षा रखने वाला गजेंद्र लाइव टेलीविजन के जरिए मिलने वाली प्रतिष्ठा और
इस लाइव टेलीविजन को अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए इस्तेमाल करने में
माहिर अरविंद केजरीवाल के खेल में फंस गया। गजेंद्र सिंह राजनीतिक, सामाजिक तौरर
पर सक्रिय, जागरुक व्यक्ति थे। गजेंद्र को सामाजिक प्रतिष्ठा कि इस कदर शौक था कि
राजस्थान के दौसा जिले में आने वाला शायद ही कोई बड़ा राजनीतिक व्यक्तित्व रहा
होगा जिसने गजेंद्र के हाथ से उनकी पगड़ी न पहनी हो। गजेंद्र सिंह जयपुरिया साफे
का कारोबार करते थे। उन्होंने देश-दुनिया के नामचीन लोगों को अपने हाथों से साफा
पहनाया था, जिनमें बिल क्लिंटन,
नेपाल के राष्ट्रपति परमानंद, मुरली मनोहर जोशी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसी हस्तियां शामिल हैं।
गजेंद्र सिंह इस कला में इतनी महारत रखते थे कि वो एक मिनट में 12 लोगों के सिर पर
पगड़ी बांध देते थे। इसके अलावा गजेंद्र 33 स्टाइल की पगडियां बांधने में भी निपुण
थे। अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए उन्होंने बाकायदा वेबसाइट भी बनाई थी, तो फेसबुक जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी वो
सक्रिय थे। गजेंद्र
सिंह कल्याणवत मूल रूप से दौसा जिले के बांदीकुई विधानसभा इलाके के रहने वाले थे। गजेंद्र
के चाचा प्रधान और सरपंच भी रह चुके थे। गजेंद्र ने बीजेपी के साथ राजनीति की
शुरुआत की। वो बीजेपी के स्थानीय कार्यक्रमों में भागीदारी करते रहते थे और चुनाव
लड़ने की ख्वाइश भी रखते थे। 2003 में जब बीजेपी की तरफ से गजेंद्र सिंह को टिकट
नहीं मिला, तो
गजेंद्र सिंह कल्याणवत ने सपा से टिकट हासिल किया और 2003 का विधानसभा चुनाव लड़ा,
जिसमें उनको
बीजेपी की अल्का सिंह से हार का मुंह देखना पड़ा। गजेंद्र इसके बाद भी राजनीति में
डटे रहे। उन्होंने 2013 तक सपा में रहकर राजनीति की। इस दौरान गजेंद्र ने सपा
जिलाध्यक्ष से लेकर प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य तक का सफर तय किया। हालांकि 2013 में
उन्होंने विधानसभा टिकट मिलने की आस में कांग्रेस का दामन थाम लिया। लेकिन जब
कांग्रेस में गजेंद्र सिंह की अनदेखी की गई, तो वो आम आदमी पार्टी के करीब आ गए। और
उसी आम आदमी पार्टी में बेहतर स्थिति की तलाश में वो जंतर मंतर आए थे। गजेंद्र ने
आत्महत्या के पहले जो कागज छोड़ा है उसमें उन्होंने लिखा है कि मेरे पिता ने मुझे
घर से निकाल दिया है। उसमें वो बर्बाद फसल का भी हवाला दे रहे हैं। लेकिन, सलीके
से उस नोट को पढ़ें तो उसमें कहीं भी आतमहत्या करने की कोई इच्छा नहीं दिखी है।
सवाल ये है कि फिर
गजेंद्र ने आत्महत्या क्यों कर ली। तो, उसका जवाब ये है कि गजेंद्र ने आत्महत्या
नहीं की। उसकी हत्या हुई है। और वो हत्या हुई है लाइव टेलीविजन के जरिए मिलने वाली
प्रतिष्ठा की चाह ने। और इस चाह को बलवती बनाने का काम किया आम आदमी पार्टी ने। आम
आदमी पार्टी देश की अकेली पार्टी होगी जिसने बेहद कम समय में एक राज्य की सत्ता
हासिल कर ली। और उसे देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के सबसे मजबूत विकल्प के
तौर पर देखा जाने लगा है। हालांकि, असम गण परिषद में भी नौजवानों ने ऐऐसे ही सत्ता
हासिल की थी। लेकिन, वो उदाहरण अलग है, वहां छात्र राजनीति से निकले लोगों ने अपनी
तरह का संघर्ष करके सत्ता हासिल कर ली थी। वहां शायद लक्ष्य हासिल करने का इतना
व्यवस्थित तरीका भी नहीं था। और सबसे बड़ी बात कि वो लाइव टेलीविजन का युग नहीं
था। भ्रष्टाचार के खिलाफ हुआ अन्ना का आंदोलन लाइव टीवी युग का आंदोलन था। और इस
लाइव टीवी युग को शातिराना तरीके से भुनाने की कला अरविंद केजरीवाल को आती थी। लोकसभा
चुनाव के समय गुजरात के हालात समझने की बात हो, बनारस से चुनाव लड़ने की बात हो या
अपने क्षीण शरीर का प्रदर्शन करते गंगा स्ना की बात हो या और आगे बनारस में जाकर
अजान के लिए रैली में भाषण रोक देने की बात हो, सब अरविंद का लाइव टेलीविजन के
लिहाज से तैयार किया गया कार्यक्रम था। अरविंद केजरीवाल ने इसे सलीके से इस्तेमाल
कर लिया। टीवी के स्वनामधन्य संपादक लोग कब एक शातिर राजनेता अरविंद केजरीवाल के
जाल में फंस गए, पता ही नहीं चला। अरविंद ने पूरी तरह से आम आदमी पार्टी और खुद के
कार्यक्रमों को सिर्फ लाइव टेलीविजन के लिहाज से ही तैयार किया। अरविंद तुरंत असर
चाहने वाले नेता हैं। इसलिए अरविंद आशंकित रहते थे कि लाइव टेलीविजन के अलावा टीवी
के रिपोर्टर, प्रोड्यूसर की बुद्धि से तैयार होने वाले कार्यक्रम उनकी राजनीतिक
महत्वाकांक्षा को साधने में असरदार होंगे। इन्सटेंट फूड, मीडिया के जमाने में
अरविंद ने इन्सटेंट पॉलिटिक्स का फॉर्मूला तैयार कर लिया है। ये फॉर्मूला अरविंद
की राजनीति के लिए अमृत बन गया है। और यही फॉर्मूला गजेंद्र के लिए जहर बन गया। सारे
चैनलों पर बहस ज्यादातर भावुक हो रही थी। आजादी के बाद के पूरे राजनीतिक तंत्र को
गाली देकर बात की जा रही थी। लेकिन, सीएनबीसी आवाज के संपादक संजय पुगलिया ने बहस
में एक सवाल खड़ा किया कि क्या संपादकों को लाइव टीवी के लिए नए तरीके से
गाइडलाइंस बनाने पर सोचना होगा। हालांकि, बहस में आए मेहमानों ने उस सवाल की गहराई
को आगे ले जाने की कोशिश नहीं की। ज्यादातर भावुक बहस का ही दौर चल रहा था। लेकिन,
सच्चाई यही है कि ये भावुक होने का नहीं गंभीरता से सोचने का वक्त है कि कैसे एक राजनीतिक
महत्वाकांक्षा रखने वाले साफे के कारोबारी व्यक्ति को किसान का साफा पहनाकर आम
आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल ने एक आत्महत्या के जरिए टीवी की स्क्रीन पर छाने
की कोशिश की। ये आत्महत्या लाइव टीवी की टीआरपी और उसके जरिए अरविंद केजरीवाल की
लोगों के दिलों-दिमाग पर छाने की घृणित कोशिश का परिणाम है। लाइव टीवी नहीं होता
और लाइव टीवी के ही बूते मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी
नहीं होती तो, गजेंद्र भी दौसा से आकर जंतर मंतर पर आत्महत्या नहीं करता।
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