Friday, February 21, 2014

ये राजनीति जानी तो इसी रास्ते थी


आखिरकार कम से कम बोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बोल ही पड़े। बोल रहे हैं कि राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का फैसला सही नहीं है। प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि ये फैसला कानूनी रूप से सही नहीं है। इसलिए जयललिता सरकार हत्यारों को रिहा न करे। मनमोहन जी ये भी कह रहे हैं कि कोई भी सरकार, पार्टी आतंकवादियों पर नरम न हो। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका से जयललिता के राजनीतिक दांव को अमल में लाने से भले रोक लग गई हो। लेकिन, क्या इससे जयललिता का राजनीतिक दांव उलट जाएगा। अब सवाल ये भी है कि जो बात प्रधानमंत्री कह रहे हैं वो क्या ईमानदारी से वो कह पाएंगे। क्योंकि, कांग्रेस के सारे फैसलों के तरीकों की जानकारी तो उन्हें कम से कम पिछले दस सालों में मिल ही रही होगी। अगर इस खुले रहस्य को मान भी लें कि फैसले कांग्रेस पार्टी में उनसे पूछकर नहीं लिए जाते रहे हैं। तो भी कम से कम वो जानते तो रहे ही होंगे। फिर ये बयान देने का साहस वो कैसे कर पाए होंगे कि किसी सरकार, पार्टी को आतंकवादियों के प्रति नरमी नहीं दिखानी चाहिए। ज्यादा पुराना फैसला नहीं है जब लगातार यूपीए के लिए संकट मोचन बनी रहने वाली उत्तर प्रदेश की सरकार ने मुसलमानों के खिलाफ आतंकवाद के मामले वापस लेने का फरमान सुना दिया था। हालांकि, अदालत आंख पर पट्टी बांधे हुए भी ये सब देख गई और इस पर रोक लगा दिया। ऐसे ढेर सारे मामले इससे पहले हुए हैं जब आतंकवाद पर राजनीति की गई है। और अगर मैं ये कहूं तो ये सिर्फ आरोप नहीं साबित होने वाली बात होगी कि इस आतंकवाद पर नरमी, गरमी दिखाने वाली राजनीति की बुनियाद खुद कांग्रेस पार्टी ने ही तैयार की है। वही कांग्रेस पार्टी जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरदार मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर 1984 में सिखों का कत्लेआम करने वाले कांग्रेस आतंकवादियों के सारे गुनाहों की माफी का भरोसा मन में पाल लिया था। ऐसी लंबी कहानियां सुनाई जा सकती हैं जो कांग्रेस के आतंकवाद को पुष्पित-पल्लवित करने वाली नीतियों को सबको समझा सकती हैं। लेकिन, अभी बात सिर्फ और सिर्फ इस मामले की यानी हमारे देश के प्रिय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी, उम्रकैद और जेल से रिहाई की।

दरअसल कांग्रेस अब फंस गई है। छे दशक से एक जैसी राजनीति करती आ रही कांग्रेस ये भूल गई कि कमजोर से कमजोर पहलवान भी एक जैसे दांव से कितनी बार पटका जा सकता है इसकी सीमा होती है। लेकिन, कांग्रेस लगातार अपने उसी घिसे-पिटे संवेदनशील से संवेदनशील मुद्दे पर राजनीतिक रोटी सेंकने वाले दांव से दूसरे राजनीतिक दलों को चित करती रही है। लेकिन, अब राजनीतिक अखाड़े के पहलवान दांव समझने-चलने के मामले में उतने भी कमजोर नहीं रहे हैं। वो कांग्रेस के एक तरह के दांव में उस्ताद हो चुके हैं। जयललिता ने वही दांव कांग्रेस पर दे मारा है जो कांग्रेस इस्तेमाल करके राजनीतिक अखाड़े की स्वनाम धन्य पहलवान बनी हुई थी। कांग्रेस की राजनीति पर नजर डालिए क्या हुआ। देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा से माफी किसने दिलवाई श्रीमती सोनिया गांधी ने। देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्यारी नलिनी से मिलने जेल में कौन गई श्रीमती प्रियंका गांधी। ये देश के पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी और पुत्री थीं जिन्होंने राजीव गांधी की हत्या को देश के प्रधानमंत्री की हत्या से ज्यादा एक पति और पिता की हत्या बना दिया। जाहिर है फिर देश के लोगों का किसी के पति और किसी के पिता की हत्या के मामले दखल करने का अधिकार भी घट गया। क्योंकि, अब वो निजी मामला हो चुका था। देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों के साथ जो व्यवहार होना था वो व्यवहार नहीं होगा। ये तय हो गया था। वजह साफ कि निजी संबंधों यानी पति और पिता की हत्या में मानवता घुस चुकी थी। सोनिया और प्रियंका के आगे गांधी लगा हुआ है। गांधी मतलब कांग्रेस है। इसलिए पति और पिता के हत्यारों पर सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी का लिया गया कोई भी फैसला कांग्रेस का फैसला माना गया। और मानवतावादी सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी ने हमारे देश के प्रिय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों के खिलाफ लिए जाने वाले फैसले को मानवतावाद की राजनीतिक चाशनी में ऐसे डुबो दिया कि जातीय उन्माद में हुए हमारे प्रधानमंत्री के खून के धब्बे गायब हो गए। दिख रहा था तो मानवतावादी सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी का चेहरा और उसके साथ देश की अकेली मानवतावादी पार्टी कांग्रेस का चेहरा। ये कांग्रेस की राजनीति थी जिसमें एक राजनीति ये कि प्रियंका गांधी के पिता के हत्यारों से जेल में मिलने जाती हैं। सोनिया गांधी भी पति के हत्यारों को फांसी की सजा दिलवाने के बजाय मानवतावादी चेहरा दिखाने लगती हैं। अदालत तो हर संभव बड़े मामलों में मानवतावादी होती ही है। अदालत ने राजीव गांधी के हत्यारों की सजा फांसी से हटाकर उम्र कैद कर दी। लोकसभा चुनाव का मौका है। जाने किस-किस आरोप में घिरी कांग्रेस के लिए ये चुनाव बेहद निराशाजनक हैं इसलिए कभी तेलंगाना तो कभी मानतावादी चेहरे के जरिए तमिल संवेदना हासिल करने की कोशिश कांग्रेस कर रही थी। फायदा भी होता दिख रहा था। नलिनी, मुरुगन के परिवारवाले राहुल गांधी, प्रियंका गांधी से माफी मांग रहे हैं।  सोनिया गांधी को भगवान बता रहे हैं। सब कुछ ठीक था। लेकिन, तमिलनाडु की राजनीति की अम्मा जयललिता ने कांग्रेस सोनिया माता की सारी मानवता तार-तार कर दी। जितनी तेजी में ये फैसला आया कि भारत देश के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की बजाय उम्रकैद होगी। 

जयललिता अम्मा ने जल्दी से उम्र कैद के सालों का हिसाब जोड़कर राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के आदेश दे दिए। हत्यारों को छोड़ दिया। अब राहुल गांधी जागे वैसे ही 2014 उनके लिए इतने प्रश्नवाचक चिन्ह छोड़ता दिख रहा था जिसका जवाब शायद ही कभी मिले। उस पर अम्मा जयललिता की राजनीति ने 2014 की राजनीति के लिए कांग्रेस के दो-चार सही होते जवाबों पर भी कट्टम-कुट्टम मारने की कोशिश कर दी। अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि आम आदमी को भी इस देश में क्या न्याय मिलेगा। जब देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों को भी इस तरह छोड़ दिया गया। सच बात है देश के सबसे ताकतवर परिवार, नाम गांधी के हत्यारों का ऐसा छूटना इस देश में बड़ा सवाल है। वही मासूमियत के साथ राहुल गांधी ने उठाया है। लेकिन, हम भारत के लोगों के लिए तो हमारे प्रधानमंत्री के हत्यारे खुले में घूमने वाले हैं। देश के प्रधानमंत्री के हत्यारे, साजिश करने वालों को मौत से कम की सजा क्यों हो। ये कौन सी मानवता है। हमारे लिए ये कष्ट की बात है। लेकिन, हम भारत के लोग सवाल कैसे खड़े कर पाएंगे क्योंकि, सबसे बड़ा सवाल यही है कि ऐसी राजनीति की बुनियाद रखने और उसे पुष्पित, पल्लवित करने का काम कांग्रेस करती रहेगी। तो फिर एक राज्य या छोटे-छोटे हितों की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल ऐसे राजनीति फैसले लेंगे तो सवाल हम भारत के लोग कैसे खड़ा कर पाएंगे।

Thursday, February 20, 2014

अरविंद की पार्टी का नाम ईमानदार पार्टी क्यों नहीं है?

आम आदमी पार्टी। नाम भी कमाल के होते हैं। देश के ढेर सारे खास लोगों के इससे जुड़ने के बाद भी ये आम आदमी पार्टी है। और इस पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल सबसे ईमानदार हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को अपनी पार्टी का मूलमंत्र बताने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी का नाम ईमानदार पार्टी क्यों नहीं रखा। अरविंद केजरीवाल अब तक ईमानदार दिख रहे हैं। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं दिखता। ईमानदारी भले ही सापेक्ष हो। अब मैं क्यों कह रहा हूं कि अरविंद सापेक्ष तौर पर ही सही ईमानदार हैं। इसकी वड़ी सीधी-सीधी वजहें हैं। अरविंद ने राजनीति करनी शुरू की है। या कहें कि राजनीति के इरादे से ही ईमानदारी की बात करनी शुरू की। या और आगे जाकर ये कहें कि राजनीति के इरादे से ईमानदारी का अकेला चेहरा बनने के लिए भ्रष्टाचार को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया। और आगे जाएं तो राजनीति के लिए देश के दूसरे सारे राजनीतिज्ञों को भ्रष्टाचारी बताया। अब भ्रष्टाचारी बताया तो इससे होता क्या। क्योंकि, भ्रष्टाचार तो हम सब करते हैं। लेकिन, भ्रष्टाचार भी दाल में नमक की तरह हो। या खाने में मिर्ची की तरह हो तो चलता है। किसी को थोड़ी कम मिर्ची वाला खाना अच्छा लगता है। किसी थोड़ा ज्यादा मिर्ची वाला खाना। अब कोई मिर्ची ही खाकर जीवन बिताता है तो, उसे समाज या हम लोग अजीब सी नजरों से देखते हैं। कुछ ऐसा ही भ्रष्टाचार का भी होता है। समाज थोड़े बहुत भ्रष्टाचार के साथ रहने का आदी होता है। लेकिन, भ्रष्टाचारी को कभी मान्यता नहीं मिलती। ठीक वैसे ही जैसे मिर्ची खाने में हो सकती है लेकिन, मिर्ची से ही खाना नहीं बन सकता। बनेगा तो स्वस्थ शरीर नहीं बना पाएगा। और भारतीय समाज में यही हुआ। भ्रष्टाचार को गाली देते-देते लेकिन, अपने हिस्से का भ्रष्टाचार जमकर करते हम भारतीय कब मिर्ची से ही खाना बनाकर खाने लगे। यानी संपूर्ण भ्रष्टाचारी हो गए पता ही नहीं चला।

जाहिर है नेता भी तो हमारे अपने ही हैं। तो उनको भी पता नहीं चला कि कब अपने चुनाव, राजनीति भर के लिए चंदे का जुगाड़ करते-करते वो चंदाचोरी के उस्ताद बन गए। फिर जब पता भी चला तो दिखा कि अरे इसमें तो मजा ही है। भ्रष्टाचार मजा बन गया। भ्रष्टाचार तो आम आदमी भी कर रहा था। लेकिन, बेचारा भ्रष्टाचार की मार भी सबसे ज्यादा खा रहा था। इसीलिए कांग्रेस सालों से अपना हाथ आम आदमी के साथ रखे हुए उससे वोट ले रही थी। लेकिन, वो एक ही हाथ था। दूसरे हाथ से भ्रष्टाचार कर रही थी। और दबाकर कर रही थी। अरविंद केजरीवाल का राजनीति का इरादा तो तभी बन गया रहा होगा जब वो आईआरएस यानी असिस्टेंट कमिश्नर इनकम टैक्स की नौकरी और फिर उसे छोड़कर एनजीओ चलाने में जुटे थे। पता चल गया होगा। सब राजनीति से होता है। पैसा राजनीति से आता है। पैसा राजनीति में जाता भी है। इसीलिए उद्योगपति उद्योग जैसे ही राजनीति में भी पैसा लगाता है। फिर उससे जो राजनीति बनती है। उससे राजनीति में भी पैसा आता है। उस लगाने वाले उद्योगपति के पास भी आता है। अरविंद ने इस बात को समझा। समझा ये भी आम आदमी के नाम पर बनी पार्टी के लिए भले ही कुछ खास लोग पैसे दे दें। लेकिन, उद्योगपति तो राजनीति के लिए ही पैसा देता है। और आम आदमी के नाम पर वोट भले मिलता रहे। लेकिन, आम आदमी के नाम पर बनी पार्टी में पैसा लगाकर पैसा आता नहीं दिख रहा। तो क्या करें। अरविंद ने पार्टी तो आम आदमी के नाम पर ही बनाई। इसलिए आम आदमी के साथ दिखो। आम आदमी जैसी हरकतें करो। मतलब आम आदमी जैसा इसलिए कि लाखों-करोड़ों के फंड वाले एनजीओ के संचालक होने के बावजूद वैगन आर में चलो। मफलर ऐसे बांधो जैसे साइकिल, रिक्शा, बाइक तक से चलने वाले आम लोग बांधते हैं। खांसी आए तो विधानसभा में खांसो, शपथ ग्रहण में भी। हरकत आम आदमी जैसी इतनी ही नहीं। आम आदमी जैसी मतलब ऐसा दिखाओ कि भविष्य की मैं नहीं सोचता। आम आदमी हूं। बड़ा छोटा आदमी हूं। ये सब इसलिए कि आम आदमी का वोट बैंक है। आपमें से कोई ईमानदारी से ये कह सकता है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में ईमानदारों का कोई वोट बैंक है। मुश्किल है। सापेक्ष ईमानदारों का वोट बैंक हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे अरविंद केजरीवाल आज की राजनीति के सापेक्ष ईमानदार हैं।

इसीलिए अरविंद केजरीवाल की पार्टी का नाम आम आदमी पार्टी है, ईमानदार पार्टी नहीं। अरविंद केजरीवाल कितने ईमानदार हैं देखिए। अरविंद ने कहा था मुझे राजनीति नहीं करनी, राजनीति में नहीं आना लेकिन, आ गए। अरविंद ने कहा था मुझे लोकपाल चाहिए। लोकपाल आ गया। लेकिन, अब वो मेरा लोकपाल उनका लोकपाल कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि बिजली की कीमतें आधी करेंगे। कीमतें आधी नहीं हुईं। उन्होंने बिल न भरने वाले आम आदमी पार्टी के साथ खड़े लोगों के बिल माफ कर दिए। ये ईमानदारी कैसे हो सकती है। लोकतंत्र में ये तो बड़ी बेईमानी है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी या फिर डीएमएक, एआईएडीएमके दूसरी तरह से अपने समर्थकों को खुश करते हैं। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक वामपंथी अपने कैडर के जरिए सरकार चलाता रहा। क्या ये ईमानदारी है। आशुतोष क्या अरविंद केजरीवाल के ही पैमाने पर भ्रष्ट मुकेश अंबानी के चैनल में काम नहीं कर रहे थे। क्या ढेर सारे लोगों की छंटनी के बाद भी आशुतोष चुप नहीं रहे। क्या ये ईमानदारी है। इसीलिए अरविंद केजरीवाल की पार्टी का नाम ईमानदार आदमी पार्टी नहीं है। अरविंद केजरीवाल चिल्लाते थे कि सरकार बनी तो शीला दीक्षित जेल में होंगी। कांग्रेस-भाजपा के नेता जेल में होंगे। क्या हुआ शीला को भ्रष्ट बनाने के लिए भाजपा से सबूत जुटाने को कह दिया। अब खुद ही अरविंद ये कहते रहे हैं कि भाजपा-कांग्रेस मिले हुए हैं। और खुद ही दोनों से कह रहे हैं कि एक दूसरे के खिलाफ सबूत दो। मुकेश अंबानी, वीरप्पा मोइली और दूसरे लोगों के खिलाफ गैस कीमतों में की गई एफआईआर ईमानदारी है या सिर्फ राजनीति। क्या ईमानदारी से अरविंद इस सवाल का जवाब दे पाएंगे। रिलायंस इंडस्ट्रीज और दूसरी कंपनियां अपने कारोबारी हितों के लिए ढेर सारे सही-गलत काम करती होंगी। लेकिन, इस तरह की एफआईआर जो कानूनी तौर पर गिर जाएगी ये इसलिए अरविंद ने की कि प्रतीक बना दें ईमानदारी का और राजनीतिक फायदा उठा लें। तो ये मुकेश अंबानी के कारोबारी हितों को साधने के लिए किए गए कामों की तरह अरविंद का राजनीतिक फायदा लेने के लिए भ्रष्ट आचरण नहीं है।

तय ये था कि सब जनता तय करेगी। फिर इस्तीफा देने से पहले जनता से क्यों नहीं पूछा। यानी अपनी सहूलियत के लिए जनता से पूछेंगे और सहूलियत नहीं है तो नहीं पूछेंगे। ये कौन सी ईमानदारी हुई। अरविंद इस बार जनता से पूछने का साहस इसलिए नहीं जुटा पाए कि लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए ये सबसे सही समय था। दिल्ली विधानसभा छोड़ो, देश की लोकसभा पर नजर गड़ाओ। सिर्फ 20 टिकट बांटे हैं अभी आम आदमी पार्टी ने और हाल ये कि आरोप लग रहे हैं कि टिकट पहले से ही तय थे। पैसे देकर टिकट खरीदने के भी आरोप लग गए। तो ये ड्रामा क्यों कि दूसरी पार्टियों में हाईकमान तय करता है हमारी पार्टी में आम आदमी तय करेगा। यहां भी तो अरविंद और उनकी कोर टीम ही सब तय कर रही है। इसीलिए अरविंद की पार्टी का नाम ईमानदार आदमी नहीं है। हालांकि, मैं खुद इस बात से इत्तफाक रखता हूं कि सबकुछ लोगों से पूछ पूछकर होगा तो कोई पार्टी, संगठन, संस्था कुछ कर ही नहीं सकती। इसके लिए तो जरूरी है कि कुछ पूरी तरह से उस विचार, कार्य के प्रति प्रतिबद्ध लोग ही फैसले लें। लेकिन, फिर ये सारी बात अरविंद ने क्यों की कि हम सारे फैसले सड़क पर ही लेंगे। क्या इस तरह का भ्रम फैलाना ईमानदारी है। इसीलिए अरविंद की पार्टी का नाम ईमानदार आदमी पार्टी नहीं है। अरविंद अभी भी ये कह रहे हैं कि उनका पहला प्यार दिल्ली है। फिर दिल्ली विधानसभा में जब काम करने का मौका था तो दिल्ली लोकसभा के जरिए जीतने की इच्छा क्यों जाग पड़ी है। आम आदमी वोट बैंक है। आम आदमी भीड़ है। आम आदमी सड़क पर निकलकर संसद वालों को चुनौती दे सकता है। आम आदमी आम को खास और खास को और खास बना सकता है। ईमानदार आदमी वोट बैंक नहीं है। ईमानदार आदमी भीड़ नहीं है। ईमानदार खुद को सबसे खास समझता है। इसीलिए वो राजनीतिक दलों के काम का नहीं है। इसीलिए कोई भी दल ईमानदारों को भरोसे पार्टी नहीं चला सकता। इसीलिए अरविंद की पार्टी का नाम आम आदमी पार्टी नहीं है। इसीलिए आम आदमी की पार्टी में अरविंद केजरीवाल अकेले ईमानदार बने रहेंगे। और उनकी ईमानदारी बचाने के लिए आम आदमी पार्टी में आम आदमी।

Monday, February 10, 2014

हिंदी की मजबूती के लिए ये नायाब तरीका है


चाचा नेहरू की जीवन पर आधारित कार्यक्रम में शामिल अमोली
किसी एक दिन भारत में हिंदी दिवस होता है। हालांकि, ये बेहद शर्मनाक है कि हिंदुस्तान में हिंदी दिवस मनाया जाता है। लेकिन, मनाया जाता है क्या करिएगा। खैर, दिवसों में रिश्ते हों, प्यार हो या फिर भाषा, उसकी अहमियत कितनी होती है ये सब साबित हो चला है। हम सब हिंदी के लोगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि आखिर किस तरह से तेज दौड़ती भाषा के साथ अपनी हिंदी को भी मजबूत बनाए रखें। अकसर इसे लेकर कई तरह के भाव आते रहते हैं। कभी गर्व, कभी पिछड़ने के खतरे का डर। ये भी लगता है कि हिंदी को मजबूत करने का तरीका क्या कोई निकाल पाएगा या सिर्फ चिंता करते रहेंगे और सचमुच सिर्फ दिवस में ही हिंदी न रह जाए। खैर, मैं ये भी मानता हूं कि ये डर निर्मूल है और हिंदी की इज्जत बनी रहेगी। लेकिन, एक तरीका भी अभी दिखा है हिंदी की इज्जत बढ़ाने का। बिटिया के स्कूल का सालाना दिवस था। एनुअल डे को लेकर बिटिया भी उत्साहित थी। हम भी। क्योंकि, अमोली इसमें चाचा नेहरू वाले कार्यक्रम में शामिल भी हो रही थी। एपीजे स्कूल नोएडा के अच्छे स्कूलों में है। कई बार बेटी की टीचरों से अंग्रेजी की वजह से बात करने में असुविधा भी होती है। लेकिन, समय के साथ तो चलना ही होगा।

एपीजे स्कूल के साथ अच्छी बात ये है कि पूरी तरह से आधुनिक शिक्षा के साथ परंपरा भी जुड़ी रहती है। अतिआधुनिकता से ग्रसित नहीं लगता ये विद्यालय। ऑडीटोरियम में हम पहुंचे तो खचाखच भरा हुआ था। एपीजे के फाउंडर डॉक्टर सत्य पॉल की बेटी जो, अब प्रेसिडेंट हैं उनकी सफलता की कहानी के वृत्तचित्र से मैं थोड़ा परेशान हुआ। फिर लगा कि जब इतनी बड़ी संस्था बनाई है तो उसका श्रेय लेना तो बनता ही है। नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस वे अथॉरिटी के चेयरमैन रमारमण कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे और जाने माने कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग विशिष्ट अतिथि। इसके अलावा एपीजे स्कूल के ही तीन बच्चे जो इस समय अपनी कामयाबी साबित कर चुके हैं, उन्हें भी स्कूल बुलाकर सम्मानित कर रहा था। 

एपीजे स्कूल के सालाना कार्यक्रम की शुरुआत शिव नृत्य के साथ
कार्यक्रम की शुरुआत शिव नृत्य के साथ हुई। उसके बाद शानदार कव्वाली और फिर महात्मा गांधी, रवींद्र नाथ टैगोर और चाचा नेहरू के जीवन पर प्रस्तुत बच्चों का कार्यक्रम। सब शानदार था। अच्छी बात ये भी पता चली कि स्कूल के हाउस- रेड, ग्रीन, यलो टाइप न होकर गांधी, टैगोर जैसे सचमुच के बड़े और अनुकरणीय लोगों के नाम पर हैं। एपीजे स्कूल की प्रेसिडेंट सुषमा बर्लिया ने अच्छी बातें लेकिन, पूरी तरह से पहले से तैयार अंग्रेजी में पढ़ीं। मुख्य अतिथि रमारमण की बारी आई तो उन्होंने सलीके से हिंदी में अपनी पूरी बात रखी। और पूरा प्रेक्षागृह रमारमण की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। हो ये भी सकता है कि रमारमण जी की अंग्रेजी बहुत अच्छी न हो इसलिए वो हिंदी में बोले हों। लेकिन, इतने सालों का एक आईएएस अधिकारी इतनी अंग्रेजी तो सीख ही लेता है। और नहीं तो वो लिखी अंग्रेजी पढ़कर तो काम चला ही सकते थे। लेकिन, जिस तरह से उन्होंने हिंदी भाषा का विस्तार उन लोगों के बीच में किया जो, अपने बच्चों को अंग्रेजी में पारंगत देखना चाहते हैं, वो काबिले तारीफ है। उसी जमात में मैं भी शामिल हूं। तीन बच्चे जो एपीजे के पढ़े हुए थे। आशीष खन्ना, शिवम तेवतिया और सौम्या पांडेय। उन्हें भी स्कूल ने सम्मामित किया। आशीष विश्व बैंक में और शिवम आईएएस है। दोनों ने अंग्रेजी भाषा में ही अपनी बात रखी। सौम्या पांडेय भी आईआरएस हैं। और सौम्या ने जितनी अंग्रेजी बोली उससे साफ समझ में आया कि सौम्या की अंग्रेजी काफी अच्छी है। फिर वो एपीजे की ही पढ़ी-लिखी है तो अंग्रेजी कम आने जैसी बात तो हो ही नहीं सकती। लेकिन, सौम्या ने ज्यादातर बातचीत दिल से की। तो जाहिर है भारतीयों के दिल की भाषा तो हिंदी ही हो सकती है। यही तरीका है हिंदी को स्थापित करने का। जो भी ऊंची जगहों पर पहुंचें वो, अंग्रेजी में भी विद्वान हों लेकिन, जहां बच्चों-देश के भविष्य को भाषाबोध कराना है हिंदी में बोलें। ये प्रयास सारे हिंदी दिवसों, सरकारी योजनाओं, हिंदी की चिंताओं से ज्यादा बेहतर प्रयास होगा। अनुकरणीय लोगों को सोचना चाहिए कि बच्चों को अनुकरण करने के लिए वो अपना रुतबा, प्रभाव, प्रयास ही दे रहे हैं या फिर अपनी भाषा भी। बस बात बन जाएगी। रमारमण जी और सौम्या पांडेय दोनों को मेरी तरफ से बधाई।

Wednesday, February 05, 2014

बढ़ती भीड़, बढ़ता भाजपा का संकट!


सात लाख अस्सी हजार। मेरठ में रैली खत्म होने के बाद भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के मीडिया प्रभारी मनीष शुक्ला पत्रकारों को बता रहे थे कि जिस मैदान में नरेंद्र मोदी की रैली हुई। उसकी क्षमता सात लाख अस्सी हजार की थी। जाहिर है सारे पत्रकार मुस्कुरा रहे थे। क्योंकि, हम पत्रकारों को आसानी से इतनी बड़ी भीड़ का आंकड़ा हजम नहीं होता। एक पत्रकार ने कहा- तो डेढ़ दो लाख तो रही ही होगी ये मान लें। फिर जवाब आया- हमारी पिछली गोरखपुर की रैली ही 6 लाख से ज्यादा की थी। और ये तो उससे बहुत बड़ा मैदान है। इस मैदान की क्षमता ही करीब आठ लाख की है। अगर मंच, बैरीकेडिंग वगैरह हटा दें तो लगभग इतने लोग कम से कम माने जा सकते हैं। उस पर भी सबसे बड़ी बात ये कि रैली खत्म होने के बाद भी आने वालों को तांता लगा हुआ था। मेरठ भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी की कर्मभूमि भी है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी के लिए ये चुनौती थी कि अध्यक्ष के गृह जिले में नरेंद्र मोदी की होने वाली रैली पिछली सभी रैलियों से ज्यादा बड़ी हो। खुद नरेंद्र मोदी ने भी मंच से किसी रैली में कहा कि हमारी हर रैली पहले की रैली से बड़ी होती है। ये दबाव था जो लक्ष्मीकांत बाजपेयी के ऊपर रहा होगा। साढ़े दस बजे के आसपास मैं भी रैली स्थल पर पहुंचा और मीडिया के लिए बने सबसे आगे के इलाके में जाकर स्थापित हो गया। खास कोहरा था। मीडिया के कैमरे लग चुके थे। हर जगह की तरह दो सटे मंच भगवा रंग में रंगे हुए थे। सिर्फ मीडिया के पीछे बना ब्लॉक पूरी तरह से भरा हुआ था। उसके अलावा पूरा मैदान खाली था। हम मीडिया के लोगों को लग रहा था कि क्या आज कोहरा नरेंद्र मोदी की सभा चौपट करेगा। लेकिन, मजे की बात ये थी कि कोई भी भाजपा नेता चिंता में, भीड़ कहां से कितनी आ रही है। कितने बजे तक आएगी। ये सब पूछता चिल्लाता नजर नहीं आ रहा था। ये समझना मुश्किल हो रहा था कि रैली से तीन घंटे पहले लगभग खाली मैदान होने के बावजूद भाजपा नेताओं को चिंता क्यों नहीं हो रही है। टीवी मीडिया के लोग इस बात को लेकर ज्यादा तफ्तीश करते दिख रहे थे कि आखिर सत्यपाल सिंह मेरठ रैली में बीजेपी में शामिल हो रहे हैं या नहीं। भाजपा के नेता इसका जवाब ये दे रहे थे कि ये नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की रैली है। जिसको भाजपा में आना हो वो आए। हुआ भी यही सत्यपाल सिंह सहित कई लोग भाजपा में बेहद सामान्य तरीके से शामिल हो गए। वो भी नरेंद्र मोदी के आने से पहले ही। दरअसल भारतीय जनता पार्टी इस समय किसी को भी नरेंद्र मोदी के सामने शामिल कराकर उसका कद बहुत ऊंचा नहीं करना चाहती। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को ये पता है कि ये नरेंद्र मोदी की हवा है इसलिए सिर्फ नरेंद्र मोदी की ही चर्चा होनी चाहिए।

दोपहर के बारह बजते-बजते सूर्यदेवता कोहरे के कोप से बाहर निकलते दिखे और साथ ही रैली स्थल के हर प्रवेश द्वार से लोगों की भीड़ भगवा-हरे कमल निशान वाले झंडे लहराती नजर आने लगी। लेकिन, लग यही रहा था कि मेरठ में एकाध ब्लॉक खाली ही रह जाएंगे। लेकिन, जब एक बजे के बाद नरेंद्र मोदी की हेलीकॉप्टर सभा स्थल के ऊपर दिखा तो लगा जैसे हर कोई मेरठ के शताब्दी नगर मैदान (जिसे भाजपा ने शहीद मातादीन सभा स्थल का नाम दिया था) में पहुंच जाने के लिए हर कोशिश कर लेना चाहता है। टीवी कैमरों के लिए बने ऊंचे मंच से ये हलचल आसानी से देखी-महसूस की जा सकती थी। चार चक्कर लगाने के बाद नरेंद्र मोदी की हेलीकॉप्टर जब तक मैदान के पीछे बने हेलीपैड पर उतरता। तब तक मैदान में भीड़ का दबाव विशाल मैदान को छोटा साबित करने पर आमादा हो चुका था। लाउडस्पीकर टांगने के लिए बने लोहे के खंभों पर भाजपा के कार्यकर्ता चढ़े हुए थे। तीन-चार कार्यकर्ता तो एक ऐसे खंभे पर चढ़ गए जिसमें लाउडस्पीकर बंधा था और बिजली के तार भी उससे जा रहे थे। डबल बैरीकेडिंग होने के बाद भी लगातार दबाव इस तरह बढ़ रहा था कि डर लग रहा था कि कहीं भगदड़ न मच जाए। ये डर नरेंद्र मोदी को भी लग रहा था इसीलिए मोदी ने माइक संभालते ही हाथ जोड़कर कहा कि मेरठ के वीर पुरुषों को मेरा नमन। लेकिन, कृपया आप लोग खंभों से नीचे उतर आएं वरना कुछ अनर्थ हुआ तो हमारे लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। नरेंद्र मोदी का भी प्रयास थोड़े समय बाद ही उन उत्साही वीर पुरुषों पर असर कर सका।

जिस तरह से नरेंद्र मोदी की रैलियों में भीड़ बढ़ रही है और बढ़ती भीड़ के लिहाज से सही संख्या का अनुमान लगाना और उससे भी बड़ा संकट पत्रकारों को बताना हो जाता है। ये संकट इतना बड़ा है कि पिछली कुछ रैलियों से पत्रकार भारतीय जनता पार्टी के लोगों से संख्या पूछते जरूर हैं लेकिन, इतनी भारी संख्या सुनकर उसका जिक्र करने का साहस नहीं कर पाते हैं। यानी अब किसी टीवी न्यूज चैनल या फिर अखबार में ये नहीं लिखा जाता कि नरेंद्र मोदी की सभा में कितनी अनुमानित भीड़ रही। अब एक लाख, दो लाख, तीन, पांच लाख तक तो चल गया लेकिन, उसके आगे संकट बढ़ता है। अब यही संकट मेरठ की रैली में दिखा था। इसलिए किसी भी मीडिया ने आठ लाख वाली भारतीय जनता पार्टी की भीड़ बताने का जोखिम नहीं उठाया। वैसे नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी तथ्यों और तैयारी के साथ ज्यादातर बातें करने लगी है। भाजपा नेता जोड़कर यही बता रहे थे कि दो लाख वर्ग मीटर से बड़ा मैदान था और पूरा मैदान भरा था। साथ ही अंतिम समय तक मैदान में किसी तरह पहुंच जाने के लिए लंबी लाइन लगी थी। अब ये तो था भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का दावा। लेकिन, मेरा खुद को जो कष्टप्रद अनुभव रहा उसे भी बताना जरूरी है। मैं मेरठ में नरेंद्र मोदी की भीषड़ भीड़ वाली रैली में शामिल था। मीडिया गैलरी में होने से किसी प्रकार के देहमर्दन कार्यक्रम से मैं बचा रहा। लेकिन, हर पल ये डर तो लग ही रहा था कि कहीं किसी ओर से बेहद उत्साही ये भीड़ बैरीकेडिंग तोड़कर हमारी गैलरी में भी न घुस जाए। सवा तीन बजे के बाद रैली खत्म हुई। हम लोग तेजी से निकलकर होटल पहुंचे। लेकिन, होटल से निकलकर तुरंत दिल्ली लौटने का साहस नहीं जुटा सके। मेरठ से दिल्ली का रास्ता पूरी तरह जाम दिख रहा था। होटल में करीब डेढ़ घंटे और बिताए। छे बजकर आठ मिनट पर होटल से निकले और पहले एक घंटे में चार किलोमीटर, दूसरे एक घंटे में पांच किलोमीटर और तीसरे एक घंटे में भी करीब पांच किलोमीटर ही दिल्ली की तरफ बढ़ पाए। कुल मिलाकर दिल्ली से मेरठ की करीब सत्तर किलोमीटर की दूरी तय करने में पूरे पांच घंटे लग गए। और इस सबकी वजह नरेंद्र मोदी की रैली थी। अब इस उत्साही भीड़ को रैलियों से संभालकर मतदान स्थल तक पहुंचाना बड़ी चुनौती है लेकिन, अगर नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी इसमें कामयाब हो गए तो सचमुच 2014 में भारतीय राजनीति का नया अध्याय शुरू होगा।

यूपीए 2 का आर्थिक शीर्षासन !


राजनीति अर्थनीति पर हमेशा भारी पड़ती है ये तो समय-समय पर साबित होता रहा है। लेकिनखुद को सुधारवाद की सबसे बड़ी अगुवा घोषित करने वाली सरकार  5 साल बीतते-बीतते अगर अपने सारे सिद्धांतों को उलट दे तो क्या कहेंगे। यूपीए सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में कुछ ऐसा ही कर रही है। मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने थे तो लगा था कि देश-दुनिया में अर्थशास्त्र के विद्यार्थी, अध्यापक रहते जो कुछ भी उन्होंने सीखा, समझा है उसे ठीक से लागू करेंगे और देश की अर्थव्यवस्था कुछ ऐसी हो जाएगी कि दुनिया के विकसित देशों के साथ हम कंधे से कंधा मिला सकेंगे। मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री रहते हुए जो कमाल किया था, वो भारत के लोगों को अच्छे से याद है। इसीलिए मजबूरी में ही सही जब ऐसा आदमी प्रधानमंत्री बनता दिखा तो नौजवान भारत को लगा कि अब तक सब्सिडी से सरकार और देश चलाने के आदी नेताओं का वक्त खत्म हो गया। क्योंकि, पी वी नरसिंहाराव के प्रधानमंत्री रहते वित्त मंत्री बने मनमोहन सिंह ने वो कर दिखाया था जो, होना संभव ही नहीं था। मनमोहन सिंह ने इस देश को काफी हद तक लालफीताशाही से मुक्ति दिला दी थी। भारत का 1991 दुनिया के लिए मिसाल बना और मौका भी। मनमोहन सिंह की नीतियों का ही असर था कि ये देश दुनिया के लिए खुले मन से बांहे खोलकर खड़ा हो गया था। दुनिया को अनछुआ बाजार दिखा और दुनिया दौड़ पड़ी भारत के बाजार में अपने को सिद्ध करने के लिए। इससे दबाव भारतीय कंपनियों पर भी पड़ा जो, भारत सिर्फ टाटा, बिड़ला का नाम और पंरपराएं लेकर जी रहा था। वो भारत टाटा, बिड़ला का नाम सम्मान से लेने के साथ ये भी पूछने, समझने लगा था कि आखिर दुनिया की दूसरी कंपनियों के साथ मुकाबले में हमारे उद्योगपति कहां हैं। हमारी कंपनियां बनाती क्या हैं, कहां बेचती हैं और दुनिया में इनकी स्थिति क्या है। ये बड़ा परिवर्तन था। लालफीताशाही टूटने का असर था। इंस्पेक्टर राज खत्म होने का असर था। और ये सब किया प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहाराव की खुली छूट के साथ अर्थशास्त्री वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने।

2004 आया। विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया को देश जब स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं दिखा तो सोनिया को मनमोहन सिंह याद आए। बेहद विनम्र व्यवहार के मनमोहन सिंह ने विनम्रता से देश को सपना ये दिखाया कि आर्थिक सुधार ही आज के समय में सारे सुखों की वजह बन सकता है। हालांकि, ये बहस का विषय है कि आर्थिक सुधार क्या है। यूपीए एक के समय शुरू हुआ आर्थिक सुधार के कार्यक्रम में मोटे तौर पर दो बातें शामिल थीं। पहला सबकुछ विदेशियों के लिए खोलना। मतलब साफ था कि अपने बाजार की ताकत दिखाकर विदेशियों को भारत में नए जमाने का विकसित भारत तैयार करने वाला बुनियादी ढांचा तैयार करवाना। साथ ही सब्सिडी देकर समाज के कमजोर तबके को संतुलित करने की जो राजनीतिक प्रक्रिया थी उसे धीरे-धीरे खत्म करना। मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार का कार्यक्रम ये सपना दिखाता था कि दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार होगी। हर भारतीय की जेब में इतनी रकम होगी कि वो सबकुछ बाजार की कीमत पर खरीद सकेगा। फिर भला सब्सिडी की जरूरत क्यों होगी। और कमाल की बात ये यूपीए एक से यूपीए दो बना तो इसमें जरा सा भी जिक्र सोनिया गांधी की अगुवाई वाली यूपीए एक ने इस बात का नहीं करना जरूरी समझा कि ये चमकते भारत के मनमोहिनी सपने पर वोट मिला। सोनिया गांधी के मनरेगा यानी 100 दिन 100 रुपये की न्यूनतम मजदूरी वाले कार्यक्रम को ही यूपीए दो लाने का पूरा श्रेय दे दिया गया। फिर यूपीए दो भी आया। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश को इसी पर खुश करते रहे कि दुनिया मुसीबत में हैं हम कम मुसीबत में हैं। और वो फिर से सपना दिखाने लगे कि चिंता मत करो अब सब ठीक हो जाएगा। ये अलग बात थी कि भारत सरकार की लुंजपुंज आर्थिक नीतियों की वजह से दुनिया की बाजारू नीति भारत की साख घटाना शुरू कर चुकी थी। फिर बहुप्रतीक्षित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का फैसला भी ले लिया गया। इस भरोसे कि एक वॉलमार्ट या टेस्को आएगा और देश के हर नागरिक को विकसिक देशों के लोगों जैसा अहसास कम से कम खरीदारी करते समय तो देने ही लगेगा। हुआ उल्टा। भारत के संवैधानिक संघीय ढांचे की वजह से दिल्ली, महाराष्ट्र छोड़ कहीं भी दुकान खोलने की इजाजत सलीके से नहीं मिली। हर राज्य की अपनी शर्तें थीं। इतनी शर्तें देखकर विदेशी रिटेलर ऐसे घबड़ाए कि अबतक कोई भी विदेशी मल्टीबांड रिटेलर की दुकान का बोर्ड चमकता नहीं दिख रहा है। खबरें तो ये भी आ रही हैं कि जो अकेला रिटेलर भारत आ भी रहा है टाटा के साथ समझौता करके वो भी सरकार की नाक बचाने के लिए बड़ी लॉबीइंग का नतीजा है। ये तो हुआ मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार के कार्यक्रम का। देश की तरक्की की रफ्तार अब तक घटकर साढ़े चार तक लुढ़क चुकी है।

ये तो था विदेशों से पैसे लाने के सरकारी नीतियों का हाल। लेकिन, बात और बुरी हो गई जब घरेलू हालात दुनिया के बाजार के मुताबिक करने के लिए चल रही योजना भी उलटती दिखने लगी। वो योजना थी धीरे-धीरे सब्सिडी खत्म करने और भारत के लोगों को बाजार की कीमत पर पेट्रोलियम उत्पादों के मिलने का। एकबारगी तो ऐसा लगा कि सरकार कलेजा कड़ा कर चुकी है। उसे देश की तरक्की की चिंता सबसे पहले है वोटबैंक की बाद में। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस सबकी कीमत बाजार तय करने लगा। कहीं पूरी तरह से कहीं आंशिक तौर पर। लेकिन, ये सब तब हो रहा था जब लोकसभा चुनाव में काफी वक्त था। लोकसभा चुनाव नजदीक आ गए। चार राज्यों में कांग्रेस का खाता बंद हो गया। हर सर्वे यूपीए की किसी भी संभावना तक को दूर-दूर तक नकारने लगा। बस मनमोहन सिंह को प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ गई। ये तक कहना पड़ गया कि मैं नहीं बनूंगा प्रधानमंत्री। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की तालकटोर स्टेडियम की बैठक में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सब्सिडी, कालाबाजारी घटाने की महत्वाकांक्षी 9 सिलिंडर की गैस को 12 सिलिंडर की गैस में बदलने की बात कह दी। तीन बढ़े सिलिंडर से निकली गैस से मनमोहन सिंह और यूपीए की सुधारवादी आर्थिक नीतियों का दम घुटना शुरू हो चुका था। शीर्षासन लोगों की सेहत ठीक करता है। लेकिनअगर कोई सरकार अपनी आर्थिक नीतियों का शीर्षासन करने लगे तो क्या होगा। कुछ ऐसा ही हुआ है जब देश को सुधारों की पटरी पर दौड़ाते-दौड़ाते यूपीए की सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों में उल्टी दौड़ लगा रही है। लेकिन, मामला यहीं नहीं रुका। अचानक बुलाई गई प्रेस कांफ्रेंस में पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने सीएनजीपीएनजी के दाम करीब एक तिहाई घटा दिए। लौट के बुद्धू घर को आए की तर्ज पर लौटकर सुधारों से सब्सिडी पर आए। अब जिस रास्ते लौट आए हैं उसे जायज तो ठहराना ही है। दरअसल नेताओं को लगता है कि जनता की याददाश्त बड़ी छोटी होती है। लोकसभा चुनावनजदीक हैं और पिछले साढ़े चार सालों से महंगाई से त्रस्त जनता को 15 रुपए सस्ती सीएनजी और रुपये सस्ती पीएनजी मिलेगी तो वो पिछली महंगाई भला कहां याद रख पाएगी।  मोइली जी कल तक सारे बाजारू फॉर्मूले गिनाकर हर पेट्रोलियम पोडक्ट महंगा कर रहे थे। अचानक उन्होंने सीएनजी-पीएनजी सस्ता करने का फॉर्मूला निकाल दिया। आम लोग बमुश्किल ही समझ पाएंगे कैसे। तरक्की की रफ्तार बढ़ाने वाले उद्योगों के हिस्से की गैस रोक दी गई है और उसे सिटी गैस वितरण कंपनियों को दे दिया गया। अब 100 प्रतिशत सस्ती गैस सिटी गैस वितरण कंपनियों को मिलेगी। उन्हें घरेलू गैस फील्ड वाली सस्ती गैस मिलेगी। महंगी गैस आयात करने से उनको मुक्ति मिली और इसका लाभ जनता को सस्ती सीएनजी-पीएनजी के तौर पर मिलेगा। यूपीए सरकार को उम्मीद यही कि देश की जनता यूपीए के आखिरी दिनों में मिली इस सस्ती गैस का कर्ज यूपीए बनाकर उतार देगा। अब सवाल यही है कि क्या इस जमाने में भी साढ़े चार साल की नीति को साढ़े चार महीने के लिए उल्टा करके सरकार बनाई जा सकेगी। इस प्रयोग का परिणाम मई 2014 में पता चलेगा कि ये प्रयोग सफल हुआ या नहीं।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...