Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी
अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले विपक्षी एकता का स्वर तेज हो चला है। कांग्रेस पार्टी के रायपुर में हुए महाधिवेशन के बाद कांग्रेस पार्टी की मजबूती की योजना देश में विकल्प तलाशने वाले देखना, सुनना चाहते थे, लेकिन हुआ उल्टा। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की तरफ से कहा गया कि, कांग्रेस ने कभी प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश नहीं की। खरगे ने कहाकि, कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश नहीं कर रही है क्योंकि, उसके लिए विपक्षी एकता अधिक महत्वपूर्ण है। 1885 में जब ए ओ ह्यूम ने कांग्रेस पार्टी की स्थापना की थी और, बाद में देश के स्वतंत्रता आंदोलन की पहचान बनी। उस समय शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि, एक दिन ऐसा भी आएगा, जब कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष देश की क्षेत्रीय पार्टियों के सामने इस तरह से याचक मुद्रा में कहेगा कि, प्रधानमंत्री पद पर हमारी कोई दावेदारी ही नहीं है। भारत की राजनीति में इस अवसर को इतिहास में दर्ज किया जाएगा। जब नरेंद्र मोदी और, भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था तो, आलोचना होती थी कि, स्वस्थ लोकतंत्र में किसी पार्टी से मुक्त भारत की बात करना कहां तक ठीक है, लेकिन अब की स्थितियाँ नरेंद्र मोदी के कहे को ही स्थापित कर रही हैं। जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे स्वयं कह रहे हैं कि, प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस ने कोई दावेदारी पेश ही नहीं की है तो, ऐसा लग रहा है कि, भले ही कांग्रेस मुक्त भारत व्यवहारिक रूप में न हुआ हो, लेकिन नरेंद्र मोदी के आगे कांग्रेस पार्टी यह मान चुकी है कि, कांग्रेस स्वयं पीछे नहीं हट गई तो भारत कांग्रेस मुक्त होने की तरफ बढ़ चलेगा। लगभग यही सोच देश की दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के मन में भी बलवती हो रही है।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि, क्या सभी विपक्षी दल मिलकर नरेंद्र मोदी को हराने के लिए एक साथ आएँगे और, 2024 में भारतीय जनता पार्टी के सामने बड़ी चुनौती पेश करेंगे। इस वर्ष पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले गुजरात, हिमाचल और, दिल्ली नगर निगम के चुनावों ने स्पष्ट कर दिया कि, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी किसी भी सूरत में कांग्रेस के साथ वाले विपक्षी खेमे में जाने को तैयार नहीं है। उसकी सबसे बड़ी वजह यही दिखती है कि, केजरीवाल स्वयं को कांग्रेस की ही जमीन पर स्थापित करके भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने की इच्छा रखते हैं। दिल्ली में दो-दो बार प्रचंड बहुमत की सरकार बनाने के बाद ही केजरीवाल ने यह तय कर लिया था। उसके बाद पंजाब ने अरविंद केजरीवाल के इस सिद्धांत को मजबूती दे दी और, अब दिल्ली नगर निगम में मेयर पद पर काबिज होने के बाद तो अरविंद स्वयं को नरेंद्र मोदी के इकलौते विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। कमाल की बात यह है कि, राज्यों में जिन पार्टियों की मजबूती है, उनकी सोच अरविंद केजरीवाल जैसी ही है। अरविंद की ही तरह तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव सोचने लगे हैं। उन्होंने तो अपनी पार्टी का नाम बदलकर तेलंगाना राष्ट्र समिति से भारतीय राष्ट्र समिति कर लिया। यह अलग बात है कि, तेलंगाना पहले जिस राज्य आंध्र प्रदेश से निकलकर बना है, वहां भी केसीआर की पार्टी का प्रभाव लगभग शून्य ही है। केजरीवाल और, के चंद्रशेखर राव की ही तरह ममता बनर्जी भी सोचती हैं। अपने राज्य पश्चिम बंगाल में प्रचंड बहुमत से तीसरी बार सत्ता में हैं। मोदी विरोधी राग में शामिल यही तीनों नेता हैं, जिनकी एक राज्य या उससे अधिक में कुछ मजबूती है। इन तीनों को ही प्रधानमंत्री बनना है। कांग्रेस भले प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश न कर रही हो, लेकिन इन तीनों को इनकी पार्टी प्रधानमंत्री पद के सर्वाधिक योग्य बताती है। यह अलग बात है कि, दो राज्यों में भले आम आदमी पार्टी की सरकार हो, लोकसभा में एक भी सांसद केजरीवाल के पास नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में सपने देखने का अधिकार सबको है। दुर्भाग्य देखिए कि, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अब सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री पद का सपना भी नहीं देख पा रही है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी और, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के लिए अपना राज्य, अपने कब्जे में रखना ही प्राथमिकता है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के परिणामों ने इसे और अच्छे से स्थापित कर दिया है कि, कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है और, उसकी कमजोरी का लाभ बिना एक क्षण गँवाए वही दल उठा रहे हैं, जिनके साथ मिलकर कांग्रेस पार्टी नरेंद्र मोदी से 2024 में लड़ना चाहती है। तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल से बाहर मेघालय में सफलता मिली तो ममता बनर्जी ने 2024 का चुनाव अकेले लड़ने का एलान कर दिया। एक बिहार मॉडल की चर्चा खूब जमकर राजनीतिक विश्लेषक करते हैं। अब यहाँ एक बात अच्छे से समझने की है कि, बिहार में तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार को अपनी राजनीति बचाए रखने के लिए विपक्षी एकता की बात करना मजबूरी है, लेकिन नीतीश और तेजस्वी भी लगातार एक ही बात कह रहे हैं कि, कांग्रेस को त्याग करना होगा। बिहार की ही तरह सीटों के बँटवारे की भी बात नीतीश कुमार लगातार कहते हैं। अगर, बिहार मॉडल पूरे देश में लागू करके विपक्षी एकता होगी तो, इसका सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस पार्टी को ही होने वाला है। उदाहरण के लिए 2020 के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल 144 और, कांग्रेस 70 सीटों पर लड़ी थी। 29 सीटें वामपंथी दलों के लिए महागठबंधन ने छोड़ीं थीं। तेजस्वी ने अपने कोटे से विकासशील इंसान पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा को सीटें दीं थीं। तब तेजस्वी यादव ने कहा था कि, नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहते बिहार आईसीयू में चला गया है। इसलिए हम सब मिलकर बिहार को बचाने साथ लड़ रहे हैं। बिहार में कुल 243 सीटें है। अब इस फॉर्मूल को लागू करने पर उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव शायद ही दस से अधिक सीटें कांग्रेस को दे सकेंगे। दरअसल, लालू प्रसाद यादव और शरद पवार, दो ऐसे नेता हैं, जिनकों अपने पुत्र-पुत्रियों के लिए पार्टी को बचाना है, इसके लिए उन्हें लगता है कि, विपक्षी एकता का राग गाकर अपनी पार्टियों के लिए कांग्रेस का नियमित समर्थन जुटा सकेंगे। कुल मिलाकर थके-हारे, परिवारवादी नेताओं के लिए विपक्षी एकता नरेंद्र मोदी के सामने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का जरिया भर है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि, विपक्ष मजबूत हो, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस इस बात को समझने को तैयार ही नहीं है या कहें कि, उसका मनोबल टूट गया है और, इसी वजह से कांग्रेस चाहती है कि, सब मिलकर एक बार नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर कर दें, उसके बाद मिल जुलकर सत्ता में सबको थोड़ा-थोड़ा हिस्सा मिल जाएगा। भले ही इस मिली-जुली सरकार से देश की प्रगति रुक जाए। देश की सरकार कोई भी निर्णय पक्के तौर पर न ले सके। अच्छी बात यह है कि, देश अब इस बात को समझता है और, नरेंद्र मोदी भ्रम फैलाने के इस खतरे को अच्छे से समझते हैं, इसीलिए नरेंद्र मोदी बार-बार देश की जनता को सब कुछ याद कराते रहते हैं। नरेंद्र मोदी विपक्षी एकता के इस भ्रम का अब लाभ भी उठाते हैं और, 2024 में भी इसका लाभ मोदी को मिलता स्पष्ट दिख रहा है।
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