भारतीय जनता पार्टी 37 साल की हो गई है। 6
अप्रैल 1980 को जन्मी पार्टी ने करीब-करीब 4 दशक में भारत जैसे देश में पूर्ण
बहुमत हासिल कर लिया है। देश के 14 राज्यों में सरकार बना ली है। और दुनिया की
सबसे ज्यादा सदस्यों वाली पार्टी बन गई है। स्पष्ट तौर पर ये भारतीय जनता पार्टी
के लिए जबर्दस्त चढ़ाव का वक्त है। और चढ़ाव के वक्त में थोड़ी मेहनत करके ज्यादा
हासिल किया जा सकता है। और अगर ज्यादा मेहनत की जाए, तो उसके परिणाम बहुत अच्छे
आते हैं। इस समय नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी भारतीय जनता पार्टी को चला रही
है, जो ज्यादा मेहनत के लिए ही जानी जाती है। इसीलिए आश्चर्य नहीं होता, जब इसी
समय का इस्तेमाल करके नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई में कांग्रेस मुक्त भारत
का नारा बुलन्द किया जा रहा है। जिस तेजी से मई 2014 के बाद देश के अलग-अलग
राज्यों से कांग्रेस पार्टी खत्म होती जा रही है, वो भारतीय जनता पार्टी के
कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को साकार करता दिखाता है। लेकिन, क्या भारतीय जनता
पार्टी के लिए सबसे उपयुक्त स्थिति है “कांग्रेस मुक्त भारत” का होना ? मुझे लगता है- इसका जवाब ना में है। दरअसल ये कांग्रेस का होना ही था, जिसकी
वजह से देश में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ 37 साल में सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर
है।
“कांग्रेस मुक्त भारत” की बात करते हुए बीजेपी के बड़े नेताओं से लेकर
छोटा कार्यकर्ता तक हमेशा इस बात की वकालत करता है कि महात्मा गांधी ने भी
कांग्रेस को आजादी के बाद खत्म करने की बात की थी। लेकिन, कांग्रेस को खत्म करने
का महात्मा गांधी का तर्क बड़ा साफ था। कांग्रेस दरअसल भारत की आजादी के आंदोलन
में सर्वजन की एक पार्टी नहीं आंदोलन बढ़ाने का जरिया था। इसीलिए जब देश आजाद हुआ,
तो जरूरी था कि देश की आजादी के आंदोलन वाली उच्च आदर्शों वाली पार्टी सत्ता
हथियाने के लिए किसी परिवार, किसी एक विचार की पार्टी होकर न रह जाए। लेकिन,
दुर्भाग्य कि ऐसा न हो सका। जवाहर लाल नेहरू और उसके बाद इंदिरा गांधी ने और
मजबूती से उसे महात्मा गांधी का नाम लगाकर गांधी परिवार की पार्टी बना दिया। सिर्फ
परिवार की पार्टी ही नहीं बनाया, उस परिवार के दायरे से बाहर जाने वालों को कांग्रेस
में भी लोकतंत्र का दुश्मन बना दिया गया। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को लगा कि
वैचारिक तौर पर संघ से निपटने में हो रही मुश्किल का सबसे आसन इलाज है कि वामपंथियों
को वैचारिक लड़ाई का जिम्मा दे दिया जाए। वामपंथ की अपनी एक वैचारिक धारा है। जो
सरोकार से लेकर समाज तक की बात तो करती है। लेकिन, दुर्भाग्य देखिए कि भारतीय
वामपंथ के पास एक भी अपना नायक नहीं है। अभी भी भारतीय वामपंथ को नायक के तौर पर मार्क्स-लेनिन
और चे ग्वेरा ही मिलते हैं। कांग्रेस हिन्दुस्तान की तटस्थ धारा वाली पार्टी के
तौर पर बखूबी चल रही थी। इस काम को कांग्रेस ने सलीके से संघ को गांधी हत्यारा
घोषित करके और मजबूती से कर लिया था। लेकिन, वामपंथ के साथ और फिर बाद में बीजेपी को
किसी हाल में सत्ता के नजदीक न पहुंचने देने की गरज से कांग्रेस ने ही लालू प्रसाद
यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं का साथ लिया। इसने कांग्रेस की तटस्थ छवि पर
चोट पहुंचानी शुरू की थी। कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता बनाए रखने के लिए हर तरह के
तुष्टीकरण और तुष्टीकरण ही क्यों, इसे गम्भीरता से आंका जाए, तो साम्प्रदायिक
राजनीति को संस्थागत तरीके से किया। वामपंथियों, लालू, मुलायम के साथ कांग्रेस का
मेल ही था, जो मुसलमानों को उनका हक देने की राजनीति को इस हद तक ले गया कि
हिन्दुओं को ये अहसास होने लगा कि उनका हक छीना जा रहा है। कांग्रेस ये काम बचाकर
कर रही थी लेकिन, लालू, मुलायम जैसे क्षेत्रीय नेताओं को जातियों में बंटे हिन्दू
वोटबैंक से बड़ा वोटबैंक मुसलमानों का दिखा और उन्होंने खुलकर मुस्लिमों के हक में
दिखने वाली सांप्रदायिक राजनीति शुरू कर दी। जब लालू, मुलायम जैसे नेता कांग्रेस
की ही जमीन में बड़ा हिस्सा काटकर मुस्लिम सांप्रदायीकरण की राजनीति कर रहे थे,
कांग्रेस केंद्र में गठजोड़ के सहारे सत्ता सुख बचाए रखने की लड़ाई आगे बढ़ा रही
थी। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार से कांग्रेस लगभग गायब सी हो
गई। लेकिन, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ की अगुवा बनने के फेर में कांग्रेस देश के
हिन्दुओं के मन में ये धारणा पक्की करती रही कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर कोई
हिन्दू हित की बात नहीं कर रहा है।
2004 में जब इंडिया शाइनिंग का नारा ध्वस्त हुआ,
तो भी भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस से सिर्फ 7 सीटें ही कम मिली थीं। कांग्रेस
को 145 सीटें मिली थीं और बीजेपी को 138। जबकि, क्षेत्रीय दलों को 159 सीटें मिली
थीं। इसमें बीएसपी और एनसीपी शामिल नहीं हैं। अगर बीएसपी और एनसीपी की 28 सीटें
शामिल कर ली जाएं, तो क्षेत्रीय दलों को 2004 में 187 सीटें मिली थीं। इस लिहाज से
सरकार कांग्रेस की नहीं बननी चाहिए थी। लेकिन, कांग्रेस ने यूपीए बनाया और सरकार
बनाने में सफलता हासिल कर ली। और, मुस्लिम सांप्रदायिकता की राजनीति को नए स्तर पर
ले जाते हुए 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय
विकास परिषद की बैठक में कह दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। इससे
भी आगे जाते हुए राहुल गांधी ने मार्च 2007 में बयान दे दिया कि अगर कोई गांधी देश
का प्रधानमंत्री होता, तो बाबरी मस्जिद नहीं गिरती। विश्लेषकों ने इसे बहुत तवज्जो
भले नहीं लेकिन, सच यही है कि इसने मुस्लिमों को कांग्रेस के पक्ष में गुपचुप एक
करने में मदद कर दी। 1990 के बाद से लगातार कांग्रेस से दूर जा रहे मुसलमान इस कदर
कांग्रेस के करीब आ गए कि 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 543 में से 206
सीटें मिल गईं और सहयोगी दलों को मिलाकर बने यूपीए को 262 सीटें मिलीं। बची 10
सीटों के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने समर्थन
करके सरकार बनवा दी। उत्तर प्रदेश में यादव, दलितों ने एसपी, बीएसपी की इज्जत बनाए
रखी, वरना ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस ने यूपीए के सहयोगी दलों का ही हिस्सा
खाया था।
ज्यादातर विश्लेषक अभी की भारतीय जनता पार्टी और
नरेंद्र मोदी के उत्थान के पीछे सबसे बड़ी वजह 2002 के गुजरात दंगों में खोजते
हैं। लेकिन, सच बात यही है कि 2002 के गुजरात दंगों से ज्यादा कांग्रेस की सरकार
के प्रधानमंत्री के तौर पर डॉक्टर मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेता के तौर पर राहुल
गांधी का बयान और इन सबसे बढ़कर कांग्रेस की सबसे लम्बे समय तक अध्यक्ष रहने वाली
सोनिया गांधी का- मौत का सौदागर- बयान भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के पक्ष
में हिन्दुओं को गोलबन्द करने की वजह बना। फिर रही सही कसर दिग्विजय सिंह जैसे
ढेरों कांग्रेसी नेता समय-समय पर पूरी करते रहते हैं। ये कांग्रेस ही थी जिसने
जामा मस्जिद के इमाम को शाही बना दिया और मुसलमान मतों को ठेकेदार भी। और ये भी
कांग्रेस ही थी जिसके राज में 2004 के बाद भगवाधारी होना बुरी नजर से देखा जाने
लगा। जवाहर लाल नेहरू से इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी से राहुल गांधी तक आते-आते
कांग्रेस ने बड़े सलीके से खुद को आजादी की लड़ाई वाली कांग्रेस से बदलकर एक
परिवार की पार्टी से भ्रष्टाचारियों की पार्टी और फिर मुस्लिम सांप्रदायिकता की
राजनीति करने वाली पार्टी के तौर पर खड़ा कर लिया। और इसी मुस्लिम सांप्रदायिकता
की राजनीति की प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दू मतदाता भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र
मोदी के पक्ष में एकजुट हुआ है। इसलिए कार्यकर्ताओं में जोश दिलाने के लिए
राजनीतिक नारे के तौर पर तो “कांग्रेस मुक्त भारत” का नारा अच्छा है। लेकिन, सही मायने में ये “कांग्रेस युक्त भारत” ही है, जिसने 37 साल की भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड
बहुमत वाली सरकार के साथ 13 राज्यों में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। ये
कांग्रेस ही है जिसकी वजह से कोई भी दूसरी विपक्षी गठजोड़ की जमीन तैयार नहीं हो
पा रही है। अरविन्द केजरीवाल विपक्षी नेता के तौर पर तैयार हो जाते, अगर पंजाब में
आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई होती। लेकिन, वहां भी विपक्ष का नेता बनने का
अरविन्द केजरीवाल का सपना कांग्रेस ने ही ध्वस्त किया। इसलिए जब तक ये वाली
कांग्रेस और इसके नेता हैं, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी वाली भारतीय जनता
पार्टी के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा।
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