Saturday, February 27, 2016

खतरनाक मिसाल कायम कर रहे हैं पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम

खतरनाक है ये। कितना खतरनाक इसका अंदाजा तो अभी लगाना मुश्किल है। आगे चलकर पता चलेगा। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आतंकवादियों के साथ सहानुभूति रखने, देश की बर्बादी के नारे लगाने और देश की संसद पर हमला करने की साजिश रखने वाले आतंकवादी अफजल गुरू को शहीद बताने वाले छात्रों के समर्थन की राजनीति और आगे चली गई है। हालांकि, इसे राजनीति क्यों कहा जाना चाहिए। क्योंकि, राजनीति तो सत्ता पाने के लिए, सत्ता चलाने के लिए की जाने वाली नीति है। लेकिन, शायद कांग्रेस सत्ता पाने के लिए कहीं तक भी जाने को राजनीति का हिस्सा ही मानने लगी है। इसी तरह की राजनीति में यूपीए के शासनकाल में भ्रष्टाचार की सारी हदें पार हो गईं। और कांग्रेस, सत्ता बनी है, इसी से खुश रही। लेकिन, इसी राजनीति की ही वजह से मई 2014 में कांग्रेस के साथ वो हुआ, जो किसी ने कल्पना नहीं की थी। कांग्रेस के उस खराब दशा में पहुंचने के बाद कांग्रेस के महासचिव और कांग्रेस के पर्दे के पीछे के बड़े नेता जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि कांग्रेस से हिंदुस्तान को समझने में भूल हो गई है। जाहिर है कोई भूल हो, तो उसे सुधारने का काम होना चाहिए। लेकिन, हुआ उल्टा। इस स्वीकारोक्ति के बाद कांग्रेस में जनार्दन द्विवेदी की अहमियत और घट गई। अब पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम हिंदुस्तान को समझने में हुई गलती को और बड़ा कर रहे हैं। पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने एक साक्षात्कार में कह दिया कि अगर ईमानदारी से देखा जाए, तो शायद अफजल मामले पर सही फैसला नहीं हुआ। चिदंबरम ने और आगे जाते हुए साक्षात्कार में कहा है कि इस बात पर काफी संदेह है कि अफजल संसद पर हमले के मामले में कितना शामिल था।

किसी भी मसले पर अपनी राय निजी तौर पर रखने के लिए कोई भी स्वतंत्र है। लेकिन, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई सीमा तो तय करनी होगी। अभी के माहौल में, जब मैं राष्ट्रद्रोही हूं, कहकर ढेर सारे पत्रकार, बुद्धिजीवी जेएनयू में आतंकवादियों के समर्थन में छात्रों के उतरने को सिर्फ असहमति साबित करने की कोशिश कर रहे हों। ऐसे माहौल में जब देश का पूर्व गृहमंत्री अफजल गुरू को फांसी देने की न्यायिक प्रक्रिया पर ही संदेह जता दे, तो मामला सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नहीं रह जाता है। वो भी एक ऐसा कांग्रेसी गृहमंत्री जो कांग्रेस की सरकार में गृहमंत्री और वित्तमंत्री जैसे अहम ओहदों पर रह चुका हो। पी चिदंबरम का गृहमंत्री के तौर पर नक्सलियों से कड़ाई से निपटने के मामले में अपनी ही पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह से मतभेद खुले तौर पर सामने दिखा था। वो चिदंबरम अगर अब नक्सली से भी आगे आतंकवादी के समर्थन में आए छात्रों के खड़े होने को न्यायोचित ठहराने की कोशिश कर रहे हैं, तो खतरनाक मिसाल बनती दिख रही है। अफजल गुरू पर संसद पर हमले की साजिश में शामिल होने का आरोप है और सबसे बड़ी बात ये कि अफजल गुरू को न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद राष्ट्रपति के यहां से दया याचिका खारिज होने के बाद ही फांसी दी गई। अफजल गुरू के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया 2002 में शुरू हुई थी। लेकिन, 2004 से लेकर 2013 यानी अफजल गुरू को फांसी दिए जाने तक कांग्रेस की ही सरकार थी। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि कानूनी प्रक्रिया में अफजल गुरू के खिलाफ आरोप साबित करने, जुटाने का काम कांग्रेस की सरकार के दौरान ही हुआ। निश्चित तौर पर ये कतई नहीं माना जा सकता कि कांग्रेस ने बिना वजह अफजल गुरू को संसद पर हमले की साजिश में फंसाने का काम किया होगा। दिसंबर 2001 में हुए संसद हमले के लिए आतंकवादियों को छिपने की जगह देने के साथ ही दूसरी तरह की मदद का आरोप अफजल गुरू पर साबित हुआ है। संसद पर हुए हमले के ठीक पहले की कॉल डिटेल से ये साबित हुआ है कि अफजल गुरू इस मामले में पूरी तरह से शामिल रहा। 2002 में पोटा कोर्ट ने अफजल गुरू को हमले की साजिश का दोषी पाया। उसके बाद 2003 में दिल्ली उच्च न्यायालय और उसके बाद 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी अफजल को दोषी ही पाया। यहां यह तथ्य भी बेहद जरूरी है कि अफजल को फांसी से बचाने के लिए हिंदुस्तान से लेकर दुनिया भर के सारे मानवाधिकारवादी लगे रहे। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय से भी फांसी की सजा बरकरार रहने के बाद अफजल गुरू की फांसी के खिलाफ अफजल की पत्नी ने राष्ट्रपति के पास दया याचिका भी डाली। उस समय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी थे। प्रणब मुखर्जी ने अफजल गुरू की दया याचिका को खारिज कर दिया। यानी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भी संसद हमले में अफजल की भूमिका लगी होगी। इसके बाद 9 फरवरी 2013 को अफजल गुरू को कांग्रेस की सरकार ने तिहाड़ जेल के भीतर ही फांसी दे दी। और सबसे गलत काम किया कि अफजल के परिवार को सूचना देना तक जरूरी नहीं समझा। हालांकि, तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे कहते हैं कि सूचना भिजवाई गई थी। सुशील कुमार शिंदे ने पी चिदंबरम के वित्तमंत्री बनने के बाद गृहमंत्री की कुर्सी संभाली थी। इस लिहाज से 2008 से 2012 तक यानी चार साल तक हर तरह से अफजल गुरू को न्याया दिलाने के लिए हरसंभव कोशिश करने का मौका पी चिदंबरम के पास था। अगर कहीं कोई गलती हो रही थी, तो उसको सुधारने का अवसर था। लेकिन, गृहमंत्री रहते चिदंबरम को भी अफजल गुरू की फांसी न्यायोचित लगी होगी।


फिर आज ऐसा क्या हो गया है कि अचानक पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम को ये लगने लगा कि अफजल गुरू के साथ शायद न्याय नहीं हुआ। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस मत परिवर्तन के पीछे सबसे बड़ी वजह आज का माहौल है। देश में माहौल कुछ इस तरह का है कि देशभक्त होने को भी तथाकथित बुद्धिजीवी गाली बना देने पर तुले हुए हैं। वहीं खुद को देशद्रोही कहकर ढेर सारे बुद्धिजीवी, पत्रकार सरकार को चुनौती दे रहे हैं। क्या इसी माहौल का फायदा उठाकर पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम सरकार को असहज करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन, ये बेहद खतरनाक मिसाल होगी। जहां कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता और लंबे समय तक देश के गृहमंत्री रहे पी चिदंबरम देश विरोध की भावना का जानबूझकर समर्थन करते दिख रहे हैं। ये वही पी चिदंबरम हैं, जिन्होंने गृहमंत्री रहते 2010 में कहा था कि वामपंथी अतिवाद आतंकवाद से भी खतरनाक है। साक्षात्कार में नक्सली समस्या पर बात करते हुए पी चिदंबरम ने कहा – नक्सली राज्य और सेना को दुश्मन कह रहे हैं। सच तो ये है कि वो सेना को दुश्मन की सेना कह रहे हैं और इसे युद्ध बता रहे हैं। मैं ऐसे शब्दों को नापसंद करता हूं। गृहमंत्री रहते नक्सलियों के देश विरोधी, सेना विरोधी शब्दों को नापसंद करने वाले पी चिदंबरम आज विपक्ष के नेता के तौर पर उन्हीं को बढ़ावा दे रहे हैं। पिछले साल नवंबर महीने में पी चिदंबरम ने लिट्रेचर फेस्टिवल में, क्या भारत एक उदार गणराज्य है, विषय पर बोलते हुए कहा था कि राजीव गांधी सरकार का सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेस को प्रतिबंधित करना गलत था। यहां ये भी जान लेना जरूरी है कि 1988 में जब ये पुस्तक भारत में प्रतिबंधित हुई, तो पी चिदंबरम गृह राज्यमंत्री थे। गलत किए हुए की स्वीकारोक्ति गलत नहीं है। लेकिन, सरकार में रहते हुए खुद के किए हुए को विपक्ष में रहते सिर्फ इसलिए गलत बताना कि इससे अभी की सरकार को असहज किया जा सकता है। खतरनाक मिसाल बन रहा है। नुकसान देश का हो रहा है।

Saturday, February 20, 2016

दक्षिणपन्थ की सेर भर गलती पर वामपन्थ की सवा सेर गलती!

पत्रकारों पर हुए हमले के खिलाफ प्रेस क्लब से निकला जुलूस
सुप्रीमकोर्ट पहुंचते मोदी विरोध और जेएनयू की चिंता भर रह गया 
 
सुप्रीमकोर्ट ने पटियाला हाउस से सीधे सर्वोच्च अदालत पहुंचे कन्हैया कुमार को करारा झटका दिया। साफ कहाकि जमानत की अर्जी उच्च न्यायालय में दाखिल करिए। कन्हैया के वकीलों ने भरी दुपहरिया में देश के सामने, इतने कैमरे थे कि माना जा सकता है, कन्हैया को मारने-पीटने की घटना के आधार पर ये दलील दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय जमानत याचिका पर सुनवाई करे। ये घटना पटियाला हाउस यानी निचली अदालत में हुई थी। ये शर्मनाक घटना लगातार दो बार होने और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर इस शर्मनाक घटना की समझ लेने गए वकीलों के बयान ने स्थिति इतनी बिगाड़ी कि सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर से जवाब तलबी कर ली। इस जवाब तलबी ने कन्हैया कुमार के समर्थकों, वकीलों को ये भरोसा दे दिया होगा कि सर्वोच्च न्यायालय पहली फुर्सत में जमानत दे देगा। लेकिन, हुआ उल्टा। दरअसल ये गलती करने की वामपन्थी बारी के शुरुआती लक्षण हैं। जवाहर लाल नेहूर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके दक्षिणपन्थ ने पहले ही बड़ी गलती कर दी है। जिसको सुधारने का रास्ता अब तक सही तरीके से शायद दक्षिणपन्थ और उनकी सरकार को नहीं सूझ रहा होगा। इसीलिए फिलहाल राष्ट्रीय ध्वज को देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फहराने का निर्देश देकर उनमें भरोसा रखने वालों को ये भरोसा दिलाने की कोशिश की गई है कि सरकार दक्षिणपन्थ से जरा सा भी सरकने वाली नहीं है। ये भरोसा दिलाने की जरूरत शायद इसलिए पड़ गई। क्योंकि, कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने दबी जुबान चल रही अफवाह को आवाज दे दी। गुलाम नबी आजाद कह रहे हैं कि जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने के लिए ही उमर खालिद और दूसरे आतंकवाद समर्थक गतिविधियां चलाने वाले छात्रों को गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है।

सरकार की तरफ से अनौपचारिक तौर पर ये खबरें खूब आ रही हैं कि देश के अलग-अलग हिस्सों में आतंकवादियों के समर्थन में और भारत के खिलाफ नारे लगाने वालों को पकड़ने के लिए ढेर सारी टीमें बनाई गई हैं। लेकिन, ये भरोस कोई क्यों कर करेगा कि जिस मोदी सरकार की नजर हर जगह है। वो उमर खालिद और उसके साथियों पर नजर नहीं रख सकी। वो भी तब, जब तौर पर उमर खालिद के आतंकवाद समर्थक और भारत विरोधी नारे के आधार पर ही जेएनयू की पूरी बहस शुरू हुई है। इसी उमर खालिद की राष्ट्र विरोधी गतिविधि और उमर खालिद के साथ खड़े दिखने की वजह से तो कन्हैया को गिरफ्तार किया गया। फिर कन्हैया कुमार की राष्ट्रद्रोह में गिरफ्तारी तक हो जाना और उमर खालिद और उसके दूसरे साथियों की अब तक सरकार को भनक तक न लग पाना सिर्फ दिल्ली पुलिस की असफलता कौन मानेगा। मानना भी नहीं चाहिए। दक्षिणपन्थ की गलती ये रही कि कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके पूरे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर जाने-अनजाने सवाल खड़ा कर दिया। हालांकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने प्रेस रिलीज जारी करके साफ किया है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर प्रतिष्ठा पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं है। लेकिन, ये सफाई तब आई जब जेएनयू में काम करने वाले तीन विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने परिसर के माहौल में खुद को अलग-थलग देखकर परिषद से खुद को अलग कर लिया। परिषद सफाई में ये कह रहा है कि ये कार्यकर्ता बिल्कुल नए हैं। लेकिन, जब सीधे-सीधे पाले खिंच गए हों। उसमें तीन की ऐसी संख्या घटती है, तो नुकसान होता है। सरकार की कोशिश थी कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई इस आतंकवाद समर्थक और देश विरोधी घटना के बहाने पूरे वामपन्थ की देश निष्ठा पर सवाल खड़ा किया जा सके। सवाल खड़ा हो भी चुका है। बौद्धिक वर्ग में भले लड़ाई बराबरी की दिख रही हो, लेकिन जमीन पर देश विरोधी के तौर पर वामपन्थियों की पहचान साबित तौर पर होने का खतरा बढ़ गया है। ये बात और ठीक से साबित हो चुकी होती अगर, दिल्ली पुलिस ने बिना किसी पक्के सबूत के राष्ट्रद्रोह के आरोप में एआईएसएफ के कन्हैया कुमार को गिरफ्तार न कर लिया होता। इस गिरफ्तारी के बाद दोनों तरफ से जो वीडियो आए। उसमें पहले फर्जी वीडियो के जरिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए दिखाया गया। जो फर्जी साबित हुआ और राष्ट्रवाद समर्थकों ने वामपंथ के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोल दिया। लेकिन, इसके बाद जिस एक वीडियो में उमर खालिद के साथ कन्हैया के नारे लगाने को राष्ट्रद्रोही होने का सबसे बड़ा आधार माना जा रहा था। वही पूरी तरह से गलत साबित हो गया। कन्हैया कुमार जब नारे लगा रहा था, तो उसका साथ उमर खालिद दे रहा था। लेकिन, वो नारे देश विरोधी नहीं थे। वो नारे वो थे जो, वामपन्थी छात्र संगठन नियमित तौर पर लगाते ही हैं। इससे ये तो तय हुआ कि दिल्ली पुलिस ने गलत बुनियाद पर कन्हैया को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन, इसी वीडियो से ये भी तय हो रहा है कि उमर खालिद और कन्हैया कुमार का गठजोड़ तगड़ा है। यानी वामपन्थ और आतंकवाद समर्थक, देश विरोधियों का गठजोड़ तगड़ा है। अब वामपन्थ इस वीडियो को अपने नारे को ज्यादा से ज्यादा प्रचारित करके सरकार को गलत साबित करने की कोशिश में लगा है। लेकिन, ये वामपन्थ के लिए बहुत बड़ी गलती साबित होती जा रही है। क्योंकि, खुद वामपन्थी नेता भी कम से कम देशद्रोह के मुद्दे पर उमर खालिद के साथ सार्वजनिक तौर पर खड़े नहीं हो रहे हैं। हुए तो बचे-खुचे भी नहीं रह जाएंगे। ये खतरा शायद वामपन्थी समझ नहीं पा रहा है। सरोकार-सरोकार चिल्लाते वामपंथी हिंदुस्तान में कब सिर्फ दिखावे भर के सरकार विरोधी भर रह गए। ये उन्हें भी नहीं पता चला। वामपंथियों को ये भी नहीं समझ आया कि वो हर बात पर मोदी का विरोध करते रहे। नरेंद्र मोदी चुपचाप देश के लोगों में ज्यादा से ज्यादा अपनी बात पहुंचाने में लगे रहे। अभी भी कई बड़े पत्रकार, लेखक दक्षिणपन्थ-वामपन्थ की इस लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पुराना हिसाब चुकता कर लेना चाह रहे हैं। जिससे ये साबित रहे कि पत्रकार चाहें, तो किसी नेता की मिट्टी पलीद कर सकते हैं। कांग्रेसी सरकार चलाने के मौके पाते रहें तो, उन्हें इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि मीडिया भ्रम फैलाए रहे कि सरकार उन्हीं की वजह से चल रही है। भाजपाई नेता ऐसा नहीं कर पाते हैं। उसकी बड़ी वजह ये होती है कि बड़ी मुश्किलों से, मेहनत से उन्हें सत्ता मिलती है। भले ही मीडिया उनके साथ रहे, तो भी। इसी फर्क की वजह से भाजपा नेता, सरकार मीडिया को ज्यादा श्रेय देने को तैयार नहीं होता। इसीलिए वामपन्थ को ये गलती कतई नहीं करनी चाहिए कि वो सिर्फ बौद्धिक लड़ाई के जरिए दक्षिणपन्थी सरकार की कमियां निकाले। अगर ये हो पाता, तो नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री ही नहीं होते। किसे नहीं याद है कि देश के बहुतायत वामपंथी पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों ने चुनाव के पहले घोषित तौर पर मोदी के प्रधानमंत्री बनने का देश छोड़ने देने की चेतावनी तक विरोध किया था। भुखमरी से आजादी जैसे नारे पढ़ते वक्त तक जेएनयू और कुछ विश्वविद्यालयों में हो सकता है कि वामपन्थ की छात्र राजनीति चमकाए रहें। लेकिन, सच्चाई यही है कि विश्वविद्यालय से निकलने के बाद वही नौजवान समझ जाता है कि अपनी जेब भरी रहेगी। तभी भुखमरी से आजादी से मिल सकेगी। और वो सिर्फ नारों से नहीं होगा। इसलिए वामपन्थ को अब इस बड़ी गलती को सुधारने की जरूरत है। खोखले नारों की बुनियाद पर अब देश के नौजवान को बहकाना मुश्किल है। ये वामपन्थ को समझना होगा। वामपन्थ, कांग्रेस के साथ संसद ठप कर रहा है। नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों को निकालकर उसके होने-न होने पर जनमत तैयार करना चाहता है। लेकिन, एक ऐसा आंदोलन नहीं दिखा। जो वामपन्थ ने सरोकारों पर इस सरकार के खिलाफ चलाया हो। वामपन्थ की गलतियां बड़ी होती जा रही हैं। पहले की गलतियों ने वामपन्थ को भारत में लगभग खत्म कर दिया है। बौद्धिक जुगाली में वामपन्थ के जीवन को अगर देश में वामपन्थ के जीवित होने का अहसास मानकर वामपन्थ चाहे, तो खुश रह सकता है। वो तो दक्षिणपन्थी सरकार ने गलती कर दी कन्हैया कुमार की गिरफ्तार करके। मरी हुई सीपीआई को एक राष्ट्रीय नेता दे दिया। लेकिन, पूरी उम्मीद है कि वामपन्थ इससे बड़ी गलती करके इस मौके को खत्म कर देगा। और, दक्षिणपन्थ-वामपन्थ की ये लड़ाई सड़कों पर, विश्वविद्यालय परिसरों में अभी और बढ़ेगी। क्योंकि, दक्षिणपन्थ को ये लग रहा है कि यही मौका वामपन्थ को पूरी तरह से खत्म कर देने का। वामपन्थ को लग रहा है कि अब खोने को बचा क्या है। 
(ये लेख catchhindi पर छपा है)

Saturday, February 13, 2016

लोकप्रिय सरकार का बजट पेश करिये जेटली जी

आर्थिक मोर्चे पर सरकार कितना कुछ करती है। ये छोटे-बड़े आंकड़ों से समझ आता रहता है। लेकिन, इसकी असली समझ बनती है फरवरी महीने के आखिर में जब भारत सरकार देश का बजट पेश करती है। तब सही मायने में पता लगता है कि देश की असली स्थिति क्या है। सरकार कितना कमा रही है। कितना घाटे में है। बजट ही ये भी बताता है कि सरकार की अगले साल भर के लिए बड़ी योजनाओं को लेकर क्या सोच है। फिर से फरवरी महीना आ गया है। इस बार 29 फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली बजट पेश करेंगे। ये इस सरकार का दूसरा पूर्ण बजट होगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली पहले से ही बार-बार देश की आर्थिक स्थिति का हवाला देकर लोगों को इस बात के लिए काफी हद तक तैयार कर चुके हैं कि ज्यादा कुछ लोगों को अच्छा लगने वाला बजट में आएगा, इसकी उम्मीद न ही करें। वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा भी लगातार मीडिया से बात करने में ये बताते रहते हैं कि किस तरह से मोदी सरकार देश के खजाने को दुरुस्त करने में लगी है। ये बात बड़े-छोटे वित्त मंत्री अकसर इस सवाल के जवाब में बताते हैं कि आखिर कच्चे तेल की कीमतों में आई इतनी बड़ी कमी का फायदा क्यों लोगों को पूरी तरह से नहीं मिल पा रहा है। इसका मतलब ये हुआ कि आने वाला बजट पूरी तरह से सरकार के वित्तीय घाटे को दुरुस्त करने की सरकार की उपलब्धियों के आंकड़े के इर्द गिर्द घूमेगा। अर्थशास्त्रियों की तरफ से वित्त मंत्री को ऐसे बजट के लिए ढेर सारी वाहवाही मिल सकती है। लेकिन, यहीं वित्त मंत्री और देश के प्रधानमंत्री को ये समझना होगा कि सरकारें अर्थशास्त्री नहीं बनाते हैं और सरकारें बनाना जिनके हाथ में होता है, वो जनता 2019 तक रामराज्य आने का इंतजार नहीं कर सकती। इसीलिए जरूरी है कि वित्तमंत्री मई 2014 में मिले बहुमत के आधार पर बजट पेश करें।

अच्छी बात ये है कि बजट से ठीक पहले आए तरक्की के आंकड़े ये पक्का करते हैं कि सरकार सही रास्ते पर है। ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि वित्तीय वर्ष दो हजार सोलह में जीडीपी सात दशमलव छह प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ेगी। पिछले वित्तीय वर्ष में ये रफ्तार सात दशमलव दो रही है। इससे एक तो ये कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए खास नहीं कर रही है। इस तरह की आलोचना करने वालों को जवाब मिल गया है। दूसरा ये कि आने वाला समय भारत का ही है, ये भी तय हो गया है। क्योंकि, इस रफ्तार के साथ भारत दुनिया का सबसे तेजी से तरक्की करने वाला देश बन गया है। चीन हमसे पीछे छूट गया है। लेकिन, हमारा बाजार अभी भी चीन के सामानों से भरा पड़ा है। बजट चीन की उस हिस्सेदारी को ध्वस्त करके वो हिस्सेदारी भारत के पक्ष में करने के रास्ते साफ-साफ बताए। क्योंकि, भारत की आबादी की जितनी जरूरतें हैं उसमें साढ़े सात प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार से खुश नहीं हुआ जा सकता। इसके आठ से नौ प्रतिशत के बीच लंबे समय तक रहने की जरूरत है। दस प्रतिशत की बात इसलिए नहीं करूंगा कि वो मनमोहिनी सपने जैसा नजर आने लगता है। सरकार के खजाने में करों की वसूली भी अच्छी रही है। साल के पहले आठ महीने में अप्रत्यक्ष कर वसूली चौंतीस प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी है। सरकारी खजाने में चार लाख अड़तीस हजार दो सौ इक्यानबे करोड़ रुपये आए हैं। जो सीधे-सीधे पिछले वित्तीय वर्ष के पहले आठ महीने से एक लाख करोड़ रुपये ज्यादा है। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि फिलहाल उद्योगों की तरक्की की रफ्तार सुधरी है। ग्रॉस टैक्स रेवेन्यू की बात करें, तो ये करीब इक्कीस प्रतिशत बढ़ा है। प्रत्यक्ष कर यानी सीधे-सीधे इनकम टैक्स की बात करें, तो सरकार का करीब आठ लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य हासिल होने में थोड़ी मुश्किल दिख रही है। लेकिन, सरकार ने ये लक्ष्य आठ से साढ़े आठ प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार के आधार पर लगाया था। अब यहीं अर्थशास्त्रियों के बजट और जनता के बजट के बीच में साफ लकीरें खिंच जाती हैं। आर्थिक आंकड़ों को देखते हुए आयकर में ज्यादा छूट की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन, जनता के नजरिये से आयकर की छूट सीमा ढाई लाख से पांच लाख रुपये किया जाना जरूरी है। यहां एक बात और समझने की है कि अभी भी नई नौकरियों के मौके बनने के बजाय ज्यादा नौकरियां चली गई हैं। ये भी एक बड़ी वजह है कि सरकार आयकर वसूली के तय लक्ष्य से थोड़ा पिछड़ती दिख रही है। इसलिए सरकार को अगले वित्तीय वर्ष में इस वर्ष की भरपाई करने के लिए आयकर छूट सीमा बढ़ानी चाहिए जिससे लोगों को कर चोरी न करनी पड़े। दूसरा इतने नए रोजगार के मौके तैयार करने होंगे, जिससे आसानी से आयकर का बढ़ा लक्ष्य हासिल किया जा सके। जनता के नजरिये से एक और जरूरी छूट सीमा जो बढ़नी चाहिए, वो है घर कर्ज के ब्याज पर छूट की सीमा। हालांकि, सरकार ने ब्याज पर छूट डेढ़ लाख से बढ़ाककर दो लाख रुपये कर दी है। लेकिन, ज्यादातर निजी कंपनियों के रोजगार सृजन वाले शहरों में औसत घर की कीमत चालीस-पचास लाख रुपये के आसपास है। और इस लिहाज से कम से कम इस छूट सीमा का पचास हजार रुपये और बढ़ाना जरूरी है। बच्चों की स्कूल फीस पर मिलने वाली छूट भी इसी अनुपात में बढ़ना जरूरी है। वित्त मंत्री के आर्थिक नजरिये से ये सारे सुझाव खजाने में आने वाली रकम कम करेंगे। लेकिन, ये सोच सही नहीं है। क्योंकि, जनता को इस सरकार पर भरोसा है। उसी भरोसे की वजह से वित्तीय वर्ष दो हजार सोलह में अनुमानित सात दशमलव छह प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार में निजी खर्चों के बढ़ने की रफ्तार भी सात दशमलव छह प्रतिशत ही अनुमानित है। वो भी तब जब तरक्की की रफ्तार सात दशमलव दो प्रतिशत से बढ़कर सात दशमलव छे प्रतिशत होती दिख रही है। लेकिन, जजनता की जेब जितना आया उससे ज्यादा खर्च कर रही है। पिछले वित्तीय वर्ष में निजी खर्च छह दशमलव दो प्रतिशत बढ़ा था। यानी दशमलव चार प्रतिशत जीडीपी बढ़ी, तो निजी खर्च करीब डेढ़ प्रतिशत बढ़ गया। यूपीए दो के आखिरी दिनों में जनता इस कदर घबरा गई थी कि वो खर्च करने से बचने लगी थी। जाहिर है निजी खर्च उसी जनता की कमाई रकम में से हो रहा है। जिस पर सरकार तय कर वसूल चुकी है। और दूसरे रास्तों से भी वो सरकार का खजाना भरने में मदद कर रहा है।


दरअसल असली दिक्कत सरकारी खर्च बढ़ाने की है। वित्तीय वर्ष दो हजार पंद्रह में बारह दशमलव आठ प्रतिशत सरकारी खर्च बढ़ा था। जो इस वित्तीय वर्ष में घटकर तीन दशमलव तीन प्रतिशत ही बढ़ा है। अगर सरकारी खर्च भी इस रफ्तार से बढ़ा होता, तो बड़ी आसानी से साढ़े आठ प्रतिशत के आसपास का तरक्की का लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। सात दशमलव छह प्रतिशत की जीडीपी के बढ़ने में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा घटा है। पिछले वित्तीय वर्ष में चार दशमलव चार प्रतिशत की रफ्तार से तरक्की करने वाले कंस्ट्रक्शन उद्योग की इस साल तरक्की की रफ्तार तीन दशनलव सात प्रतिशत ही रहने का अनुमान है। हालांकि, इससे ज्यादा चिंतित होने की जरूरत इसलिए नहीं है कि ये कमी रियल एस्टेट क्षेत्र में कमजोरी दिख रहा है। और ये कमजोरी रियल एस्टेट में काला धन पर लगी रोक का साफ नतीजा है। इसलिए काला धन से कंस्ट्रक्शन सेक्टर की रफ्तार बढ़ाने के बजाए सरकार कोशिश ये करनी चाहिए कि रियल एस्टेट प्रोजेक्ट पर अंकुश लगे। प्रोजेक्ट डिलीवरी तय समय पर हो सके। अच्छी बात है कि मैन्युफैक्चरिंग की रफ्तार बेहतर हुई है। मैन्युफैक्चरिंग के बढ़ने की रफ्तार साढ़े पांच प्रतिशत से बढ़कर साढ़े नौ प्रतिशत होने की उम्मीद है। मतलब मेक इन इंडिया काम कर रहा है। मेक इन इंडिया के लिए रास्ता बनाने का काम भी अच्छे तरीके से चल रहा है। सड़क निर्माण मंत्री नितिन गडकरी ने छियानबे हजजार किलोमीटर के राष्ट्रीय राजमार्ग को बढ़ाकर डेढ़ लाख किलोमीटर करने का लक्ष्य लिया था। अब उसे बढ़ाकर एक लाख पचहत्तर हजार किलोमीटर कर दिया। बिजली के मोर्चे पर भी पीयूष गोयल बेहतर काम कर रहे हैं। बिजली-सड़क की स्थिति इस सरकार में बेहतर हो रही है। रोजगार में मामले में हालात अभी भी बहुत अच्छे नहीं हैं। इस बजट में उस मोर्चे को दुरुस्त करने के साफ संकेत भी दिखने चाहिए। स्किल इंडिया बेहद महत्वाकांक्षी और वक्त की जरूरत वाली योजना है। लेकिन, इस कौशल मिशन से कितने लोगों को रोजगार मिल पाया है। ये अभी शोध का विषय है। कुल मिलाकर देखें तो अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि बजट में अर्थशास्त्रियों की सकारात्मक टिप्पणी मिलनी ही चाहिए। लेकिन, उनकी सकारात्मक टिप्पणी के चक्कर में देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती में भरोसा जमा रही जनता का भरोसा नहीं टूटना चाहिए। बजट लोकप्रिय बनाने के चक्कर में लोकलुभावन योजनाओं का एलान करने की जरूरत नहीं है। हां, जनता के पूर्ण बहुमत से चुनी सरकार के पांच में से करीब ढाई साल पूरे होने को हैं। ये अहसास जनता को जरूर हो। क्योंकि, जनता को ये अहसास होना बंद हो गया तो अच्छी नीतियां लागू करने का मौका भी मिलने से रहा।

Friday, February 12, 2016

देश में आपातकाल लग गया है!

आपको भले न पता हो। लेकिन, देश में आपातकाल लग गया है। आप नहीं समझ पा रहे हैं कि आपातकाल लग गया है, तो ये आपकी गैरसमझदारी हैं। क्योंकि, आप वामपंथी नहीं हैं। देश में बेहद मुश्किल में पड़े-बचे समझदार वामपंथी नहीं है। अगर आप नहीं मानते हैं, तो आप देश के नागरिक भले हों। देश के चिंता करने वाले भले हों। भले ही आप भारत को दुनिया का सबसे अच्छे देशों में शामिल कराने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हों। लेकिन, ये सब करके भी आप पिछड़े, पुरातनपंथी, संघ समर्थक, ब्राह्मणवादी या थोड़ा और साफ करें, तो मनुवादी भी ठहराए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि अगर आप को नहीं लग रहा है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने देश में आपातकाल लागू कर दिया है। तो आप बुद्धिजीवी तो कभी हो ही नहीं सकते। फिर प्रगतिशील कैसे हो सकते हैं भला। अपना देश, अपना राष्ट्र इस तरह के विचार रखने वाले भला प्रगतिशील कैसे हो सकते हैं। प्रगतिशील होने की परिभाषा तो इस देश में देश के बाहर निकल जाने से ही शुरू होती है। गजब का वामपंथ है इस देश में, कि उसकी बुनियाद ही देश के खिलाफ से शुरू होती है। ये इस कदर कि वो कश्मीर में देश के खिलाफ खड़े लोगों को दिल्ली में बुलाकर बुद्धिजीवी जमात का हिस्सा बना देता है। और ये घोषित कर देता है कि वामपंथ ही है जो अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतिबिंब है। ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतिबिंब कि इसी वामपंथ के एक राजनीतिक दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने देश में इंदिरा गांधी की तानाशाही तक को सही ठहरा दिया था। ये वही वामपंथ है जिसने सत्ता मिलते ही अभिव्यक्ति की आजादी तो छोड़िए दक्षिणपंथ को सामान्य व्यवहार करने की इजाजत भी नहीं दी। बंगाल और केरल का उदाहरण देख, समझ लिया जाए तो ऐसी दर्दनाक कहानियां मिल जाएंगी कि रूह कांप जाए। बंगाल और केरल में हत्या को वामपंथ ने संस्थागत बना दिया। इतना संस्थागत कि वामपंथ से जुड़े पत्रकारों ने सरोकारों की आड़ में उसको बाहर तक नहीं आने दिया।


वामपंथी भयानक तरीके से फंसते दिख रहे हैं। तो वो ये कहते घूम रहे हैं कि कुछ छात्रों के कृत्य के आधार पर पूरे जेएनयू को आतंकवादी कहा जा रहा है। जबकि, किसी ने ऐसा नहीं कहा है। हां, निश्चित तौर पर वामपंथ के खूनी और देश विरोधी मिजाज में रचा-बसा छात्रों का बड़ा वर्ग खराब हो चुका है या खराब हो रहा है। सबकुछ सामने दिख जाने के बाद भी बहस यही हो रही है कि क्या इस तरह से विरोध करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जाएगा। बेवकूफ टाइप के वामपंथी पत्रकार ये तक दलील देने लगे हैं कि जेएनयू को सिर्फ इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि, ये अकेला वामपंथी गढ़ बचा है। अब जरा इसी से अंदाजा लगाइए कि भगवा को सांप्रदायिक रंग साबित करने का हरसंभव प्रयास करने वाले वामपंथी कह रहे हैं कि जेएनयू उनका आखिरी गढ़ है। यानी देश का वो विश्वविद्यालय, जिसे सबसे ज्यादा सरकारी सहायता मिलती है। वहां छात्र पढ़ाई करने के बजाय सिर्फ वामपंथ पढ़ें। वामपंथ पढ़ें मतलब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देशद्रोहियों के पक्ष में सभाएं करें। आतंकवादियों की स्मृति सभा करें। वामपंथियों की ख्वाहिश ये है कि उनका ये गढ़ जेएनयू इसलिए बचा रहे जिससे देश के अलग-अलग हिस्से में वो सरकारों के खिलाफ हथियारबंद आंदोलन खड़े कर सकें। वहां की स्थानीय आबादी को नक्सली बना सकें। हथियार देकर सरकार के खिलाफ खड़ा कर सकें। और यहां दिल्ली के कई एकड़ में फैले विश्वविद्यालय में पढ़ने आने वाले छात्रों के मन में इतना विष भर दें कि देश के अंदर अशांति हो जाए। अभिव्यक्ति की आजादी का इन वामपंथियों का पैमाना ये है कि भारत के खिलाफ उठने वाली हर आवाज अभिव्यक्ति की आजादी है। लेकिन, वामपंथी-तानाशाह शासन वाले चीन की तानाशाही में पिस रहे तिब्बत की अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है। ये भारतीय वामपंथ है, जो भारत छोड़ हर किसी के साथ सरोकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरोकार, प्रगतिशील होने के नाम पर खड़ा हो सकता है। भारत की बर्बादी के साथ भी ये वामपंथ खड़ा है। बस खबरदार जो, देश या राष्ट्र या भारत बोला। और इस वक्त हर बात में राष्ट्र-देश बोलने वाली सरकार है। इसलिए जब तक ये राष्ट्रवादी सरकार है। तब तक इस देश में आपातकाल ही रहेगा। इसकी शुरुआत वामपंथी छात्रनेता कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी से हो गई है। ये हम सरोकारी, प्रगतिशील, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक वामपंथी तय करते हैं। बाकी किसी का तय किया सिर्फ सांप्रदायिकता है और हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र बनाने की साजिश होगी। ये भी हम लगे हाथ बता रहे हैं। 

Thursday, February 11, 2016

आर्थिक मामले में सरकार सही रास्ते पर है

11 फरवरी 2016 को छपा लेख
इधर भारतीय जनता पार्टी के घोर समर्थक भी बहुत मजबूती से मोदी सरकार के कामों का बचाव नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि, एक तो पूर्ण बहुमत वाली लोकप्रिय सरकार से लोगों को उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं। जो जाहिर है, इतनी तेजी से कहां पूरी होने वाली हैं। दूसरी खुद प्रधानमंत्री जिस अंदाज में काम करते हैं, उससे लोगों को हर मुश्किल सुलझाने के लिए नरेंद्र मोदी अलादीन के चिराग जैसे नजर आने लगे थे। अलादीन का चिराग भी तो सिर्फ किस्से कहानियों में ही होता है। शायद यही वजह है कि सरकार सही रास्ते पर है या नहीं। इसे जताने में विपक्ष तो तमाम तर्क गिना देता है। लेकिन, सरकार के सही रास्ते पर होने के पक्ष वाले थोड़ा दबे-छिपे से दिख रहे हैं। खुद वित्त मंत्री अरुण जेटली बार-बार देश की खराब आर्थिक स्थिति का हवाला देकर लोगों को इस बात के लिए तैयार करने में लगे हैं कि सरकार से फिलहाल बहुत ज्यादा उम्मीद न की जाए। वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा भी लगातार मीडिया से बात करने में ये बताते रहते हैं कि किस तरह से मोदी सरकार देश के खजाने को दुरुस्त करने में लगी है। ये बात बड़े-छोटे वित्त मंत्री अकसर इस सवाल के जवाब में बताते हैं कि आखिर कच्चे तेल की कीमतों में आई इतनी बड़ी कमी का फायदा क्यों लोगों को पूरी तरह से नहीं मिल पा रहा है। इससे गड़बड़ ये हो रही है कि पूर्ण बहुमत की लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए जी-जान लगा देने वाले और मोदी को देश की हर मर्ज की दवा समझने वालों को ये डर लगने लगा है कि क्या सरकार सही रास्ते पर है। संयोग से इसी महीने बजट पेश होने वाला है। तो उम्मीद करें कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ऐसा बजट पेश करेंगे, कि कम से कम उन लोगों को जिन्होंने इस सरकार को बड़ी उम्मीदों से चुना है, जिससे लगने लगे कि सरकार सही रास्ते पर है। कम से कम आर्थिक मामले में।

बजट के महीने में अच्छी बात ये आई है कि सरकार के हाथ में एक ऐसा आंकड़ा आ गया है। जिससे कम से कम ये बताया जा सकता है कि सरकार सही रास्ते पर है। ये आंकड़ा इस वित्तीय वर्ष के लिए जीडीपी का है। ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि वित्तीय वर्ष दो हजार सोलह में जीडीपी सात दशमलव छह प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ेगी। पिछले वित्तीय वर्ष में ये रफ्तार सात दशमलव दो रही है। इससे एक तो ये कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए खास नहीं कर रही है। इस तरह की आलोचना करने वालों को जवाब मिल गया है। दूसरा ये कि आने वाला समय भारत का ही है, ये भी तय हो गया है। क्योंकि, इस रफ्तार के साथ भारत दुनिया का सबसे तेजी से तरक्की करने वाला देश बन गया है। चीन हमसे पीछे छूट गया है। लेकिन, हमारा बाजार अभी भी चीन के सामानों से भरा पड़ा है। बजट चीन की उस हिस्सेदारी को ध्वस्त करके वो हिस्सेदारी भारत के पक्ष में करने के रास्ते साफ-साफ बताए। क्योंकि, भारत की आबादी की जितनी जरूरतें हैं उसमें साढ़े सात प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार से खुश नहीं हुआ जा सकता। इसके आठ से नौ प्रतिशत के बीच लंबे समय तक रहने की जरूरत है। दस प्रतिशत की बात इसलिए नहीं करूंगा कि वो मनमोहिनी सपने जैसा नजर आने लगता है। उम्मीद की जा सकती है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली बजट में ढेर सारे ऐसे प्रावधान करेंगे कि चीन के बाजार में हमारी हिस्सेदारी बढ़े न बढ़े, कम से कम हमारा बाजार हमारी जीडीपी बढ़ाने में ही मददगार हो।

अब बजट में क्या आएगा ये तो महीने के अंत में ही पता चलेगी। लेकिन, सरकार सही रास्ते पर है और ये रास्ता पक्का बन रहा है। इसे बताने वाला भी आंकड़ा सरकार ने पेश किया है। ये आंकड़ा है सरकारी खजाने में करों की वसूली का। वैसे तो सीधे-सीधे बात ये है कि सरकार कर वसूली के मामले में तय किया लक्ष्य हासिल करने के रास्ते पर है। सरकार ने कुल चौदह करोड़ उन्चास लाख करोड़ रुपये की कर वसूली करने का लक्ष्य किया था। इकतीस जनवरी दो हजार सोलह तक यानी बजट वाले महीने के पहले तक सरकार ने कुल दस लाख छियासठ हजार करोड़ रुपये की कर वसूली कर ली है। लेकिन, इसको जरा विस्तार से समझने की जरूरत है। यही विस्तार बता रहा है कि आर्थिक मामले पर सरकार सही रास्ते पर है। सरकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर वसूली के आंकड़े गौर से देखें, तो काफी कुछ समझ आ जाता है। पहले प्रत्यक्ष कर वसूली की बात करें, तो इसमें करीब ग्यारह प्रतिशत की बढ़त देखने को मिल रही है। कुल मिलाकर जनवरी के आखिर तक पांच लाख बाइस हजार करोड़ रुपये प्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार को मिले हैं। यानी सरकार ने तय लक्ष्य का पैंसठ प्रतिशत पूरा कर लिया है। लेकिन, इसका दूसरा मतलब ये भी हुआ कि सरकार अगले दो महीने में इस लक्ष्य को शायद ही हासिल कर पाए। यानी प्रत्यक्ष कर, कॉर्पोरेट टैक्स और इनकम टैक्स, के मामले में लक्ष्य पूरा होने में थोड़ी मुश्किल हो रही है। क्या इससे ये मतलब निकाला जाए कि लोगों की कमाई घटी है। इस वजह से कॉर्पोरेट टैक्स और इनकम टैक्स सरकार के तय लक्ष्य के नजदीक नहीं पहुंच पा रहा है। दरअसल ऐसा है नहीं। सच्चाई ये है कि सरकार ने लक्ष्य ही ज्यादा बड़ा तय कर लिया था। ये लक्ष्य दरअसल आठ से साढ़े आठ प्रतिशत की जीडीपी को आधार बनाकर तय किया गया था। इसलिए साढ़े सात प्रतिशत से थोड़ा ही ज्यादा जीडीपी ग्रोथ के लिहाज से प्रत्यक्ष कर की वसूली भी बेहतर हुई है। ये आंकड़े भी बता रहे हैं। कॉर्पोरेट टैक्स कलेक्शन करीब ग्यारह प्रतिशत बढ़ा है। ऐसे ही इनकम टैक्स कलेक्शन करीब बारह प्रतिशत बढ़ा है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि लोगों की जेब में ज्यादा रकम आई और उसी पर उन्होंने टैक्स दिया है।

अब अगर अप्रत्यक्ष कर वसूली के आंकड़े देख लें, तो मामला ज्यादा साफ हो जाएगा। सरकारी खजाने में पांच करोड़ चौवालीस लाख रुपये का अप्रत्यक्ष कर आया है। जो पिछले वित्तीय वर्ष के मुकाबले तैंतीस प्रतिशत ज्यादा है। और अप्रत्यक्ष कर के मामले में तो सरकार ने अपने लक्ष्य का अठासी प्रतिशत पूरा कर लिया है। अप्रत्यक्ष कर से 40 हजार करोड़ रुपये ज्यादा मिलने की उम्मीद है। राजस्व सचिव हंसमुख अधिया इसी के भरोसे ये मान रहे हैं कि सरकार कुल तय लक्ष्य की कर वसूली कर लेगी। अप्रत्यक्ष कर को सीधी, सरल भाषा में समझें, तो ये अलग-अलग तरह के उद्योगों से होने वाली वसूली है। अप्रत्यक्ष कर में कस्टम ड्यूटी के आंकड़े देखें, तो ये पक्का समझ आता है कि देश में नया काम काफी तेजी से शुरू हुआ है। यही वजह है कि इलेक्ट्रिकल मशीनरी पर पिछले वित्तीय वर्ष से करीब पैंतीस प्रतिशत ज्यादा कस्टम ड्यूटी मिली है। अन्य मशीनें भी कस्टम ड्यूटी के तौर पर सरकार के खजाने में पिछले साल से करीब अट्ठाइस प्रतिशत ज्यादा रकम दे गईं हैं। इसका सीधा, सरल मतलब यही हुई कि देश में औद्योगिक गतिविधियों में तेजी आई है। उन्हीं गतिविधियों को पूरा करने के लिए ये मशीनें मंगाई गई हैं।


ये सिर्फ मशीनों के मामले में ही नहीं है। सर्विस सेक्टर में कर वसूली सत्ताइस प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी है। बैंकिंग, फाइनेंशियल क्षेत्र ने करीब पैंतालीस प्रतिशत ज्यादा रकम टैक्स के तौर पर सरकार के खजाने में डाल दी है। वर्क्स कॉन्ट्रैक्ट और गुड्स, ट्रांसपोर्टेशन के जरिये भी सरकारी खजाने में पिछले वित्तीय वर्ष से चालीस प्रतिशत से ज्यादा रकम आ गई है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि पिछले करीब इक्कीस महीने में मोदी सरकार ने जो कुछ किया है। इसका असर इस तरह से दिखने लगा है। सरकार आर्थिक मामले में सही रास्ते पर है। इसलिए बहुमत की सरकार बनाने वाले अभी सरकार पर भरोसा बनाए रख सकते हैं। लेकिन, अलादीन के चिराग की उम्मीद न पालें। ये चमत्कारिक कहानियां नहीं हैं। ये देश की अर्थव्यवस्था है। 

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...