पत्रकारों पर हुए हमले के खिलाफ प्रेस क्लब से निकला जुलूस सुप्रीमकोर्ट पहुंचते मोदी विरोध और जेएनयू की चिंता भर रह गया |
सरकार की तरफ से अनौपचारिक तौर पर ये खबरें खूब आ रही हैं
कि देश के अलग-अलग हिस्सों में आतंकवादियों के समर्थन में और भारत के खिलाफ नारे
लगाने वालों को पकड़ने के लिए ढेर सारी टीमें बनाई गई हैं। लेकिन, ये भरोस कोई
क्यों कर करेगा कि जिस मोदी सरकार की नजर हर जगह है। वो उमर खालिद और उसके साथियों
पर नजर नहीं रख सकी। वो भी तब, जब तौर पर उमर खालिद के आतंकवाद समर्थक और भारत
विरोधी नारे के आधार पर ही जेएनयू की पूरी बहस शुरू हुई है। इसी उमर खालिद की
राष्ट्र विरोधी गतिविधि और उमर खालिद के साथ खड़े दिखने की वजह से तो कन्हैया को
गिरफ्तार किया गया। फिर कन्हैया कुमार की राष्ट्रद्रोह में गिरफ्तारी तक हो जाना
और उमर खालिद और उसके दूसरे साथियों की अब तक सरकार को भनक तक न लग पाना सिर्फ
दिल्ली पुलिस की असफलता कौन मानेगा। मानना भी नहीं चाहिए। दक्षिणपन्थ की गलती ये
रही कि कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके पूरे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर
जाने-अनजाने सवाल खड़ा कर दिया। हालांकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने प्रेस
रिलीज जारी करके साफ किया है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर प्रतिष्ठा पर
किसी तरह का कोई सवाल नहीं है। लेकिन, ये सफाई तब आई जब जेएनयू में काम करने वाले
तीन विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने परिसर के माहौल में खुद को अलग-थलग देखकर
परिषद से खुद को अलग कर लिया। परिषद सफाई में ये कह रहा है कि ये कार्यकर्ता
बिल्कुल नए हैं। लेकिन, जब सीधे-सीधे पाले खिंच गए हों। उसमें तीन की ऐसी संख्या
घटती है, तो नुकसान होता है। सरकार की कोशिश थी कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय
में हुई इस आतंकवाद समर्थक और देश विरोधी घटना के बहाने पूरे वामपन्थ की देश निष्ठा
पर सवाल खड़ा किया जा सके। सवाल खड़ा हो भी चुका है। बौद्धिक वर्ग में भले लड़ाई
बराबरी की दिख रही हो, लेकिन जमीन पर देश विरोधी के तौर पर वामपन्थियों की पहचान
साबित तौर पर होने का खतरा बढ़ गया है। ये बात और ठीक से साबित हो चुकी होती अगर, दिल्ली
पुलिस ने बिना किसी पक्के सबूत के राष्ट्रद्रोह के आरोप में एआईएसएफ के कन्हैया
कुमार को गिरफ्तार न कर लिया होता। इस गिरफ्तारी के बाद दोनों तरफ से जो वीडियो
आए। उसमें पहले फर्जी वीडियो के जरिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के
कार्यकर्ताओं को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए दिखाया गया। जो फर्जी साबित
हुआ और राष्ट्रवाद समर्थकों ने वामपंथ के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोल दिया। लेकिन, इसके
बाद जिस एक वीडियो में उमर खालिद के साथ कन्हैया के नारे लगाने को राष्ट्रद्रोही
होने का सबसे बड़ा आधार माना जा रहा था। वही पूरी तरह से गलत साबित हो गया। कन्हैया
कुमार जब नारे लगा रहा था, तो उसका साथ उमर खालिद दे रहा था। लेकिन, वो नारे देश
विरोधी नहीं थे। वो नारे वो थे जो, वामपन्थी छात्र संगठन नियमित तौर पर लगाते ही
हैं। इससे ये तो तय हुआ कि दिल्ली पुलिस ने गलत बुनियाद पर कन्हैया को गिरफ्तार कर
लिया है। लेकिन, इसी वीडियो से ये भी तय हो रहा है कि उमर खालिद और कन्हैया कुमार
का गठजोड़ तगड़ा है। यानी वामपन्थ और आतंकवाद समर्थक, देश विरोधियों का गठजोड़
तगड़ा है। अब वामपन्थ इस वीडियो को अपने नारे को ज्यादा से ज्यादा प्रचारित करके सरकार
को गलत साबित करने की कोशिश में लगा है। लेकिन, ये वामपन्थ के लिए बहुत बड़ी गलती
साबित होती जा रही है। क्योंकि, खुद वामपन्थी नेता भी कम से कम देशद्रोह के मुद्दे
पर उमर खालिद के साथ सार्वजनिक तौर पर खड़े नहीं हो रहे हैं। हुए तो बचे-खुचे भी
नहीं रह जाएंगे। ये खतरा शायद वामपन्थी समझ नहीं पा रहा है। सरोकार-सरोकार चिल्लाते
वामपंथी हिंदुस्तान में कब सिर्फ दिखावे भर के सरकार विरोधी भर रह गए। ये उन्हें
भी नहीं पता चला। वामपंथियों को ये भी नहीं समझ आया कि वो हर बात पर मोदी का विरोध
करते रहे। नरेंद्र मोदी चुपचाप देश के लोगों में ज्यादा से ज्यादा अपनी बात पहुंचाने
में लगे रहे। अभी भी कई बड़े पत्रकार, लेखक दक्षिणपन्थ-वामपन्थ की इस लड़ाई में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी से पुराना हिसाब चुकता कर लेना चाह रहे हैं। जिससे ये साबित रहे कि पत्रकार
चाहें, तो किसी नेता की मिट्टी पलीद कर सकते हैं। कांग्रेसी सरकार चलाने के मौके
पाते रहें तो, उन्हें इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि मीडिया भ्रम फैलाए रहे
कि सरकार उन्हीं की वजह से चल रही है। भाजपाई नेता ऐसा नहीं कर पाते हैं। उसकी
बड़ी वजह ये होती है कि बड़ी मुश्किलों से, मेहनत से उन्हें सत्ता मिलती है। भले
ही मीडिया उनके साथ रहे, तो भी। इसी फर्क की वजह से भाजपा नेता, सरकार मीडिया को
ज्यादा श्रेय देने को तैयार नहीं होता। इसीलिए वामपन्थ को ये गलती कतई नहीं करनी
चाहिए कि वो सिर्फ बौद्धिक लड़ाई के जरिए दक्षिणपन्थी सरकार की कमियां निकाले। अगर
ये हो पाता, तो नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री ही नहीं होते। किसे नहीं याद है
कि देश के बहुतायत वामपंथी पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों ने चुनाव के पहले
घोषित तौर पर मोदी के प्रधानमंत्री बनने का देश छोड़ने देने की चेतावनी तक विरोध
किया था। भुखमरी से आजादी जैसे नारे पढ़ते वक्त तक जेएनयू और कुछ विश्वविद्यालयों
में हो सकता है कि वामपन्थ की छात्र राजनीति चमकाए रहें। लेकिन, सच्चाई यही है कि विश्वविद्यालय
से निकलने के बाद वही नौजवान समझ जाता है कि अपनी जेब भरी रहेगी। तभी भुखमरी से
आजादी से मिल सकेगी। और वो सिर्फ नारों से नहीं होगा। इसलिए वामपन्थ को अब इस बड़ी
गलती को सुधारने की जरूरत है। खोखले नारों की बुनियाद पर अब देश के नौजवान को
बहकाना मुश्किल है। ये वामपन्थ को समझना होगा। वामपन्थ, कांग्रेस के साथ संसद ठप कर
रहा है। नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों को निकालकर उसके होने-न होने पर जनमत तैयार
करना चाहता है। लेकिन, एक ऐसा आंदोलन नहीं दिखा। जो वामपन्थ ने सरोकारों पर इस
सरकार के खिलाफ चलाया हो। वामपन्थ की गलतियां बड़ी होती जा रही हैं। पहले की
गलतियों ने वामपन्थ को भारत में लगभग खत्म कर दिया है। बौद्धिक जुगाली में वामपन्थ
के जीवन को अगर देश में वामपन्थ के जीवित होने का अहसास मानकर वामपन्थ चाहे, तो खुश
रह सकता है। वो तो दक्षिणपन्थी सरकार ने गलती कर दी कन्हैया कुमार की गिरफ्तार
करके। मरी हुई सीपीआई को एक राष्ट्रीय नेता दे दिया। लेकिन, पूरी उम्मीद है कि
वामपन्थ इससे बड़ी गलती करके इस मौके को खत्म कर देगा। और, दक्षिणपन्थ-वामपन्थ की ये
लड़ाई सड़कों पर, विश्वविद्यालय परिसरों में अभी और बढ़ेगी। क्योंकि, दक्षिणपन्थ को
ये लग रहा है कि यही मौका वामपन्थ को पूरी तरह से खत्म कर देने का। वामपन्थ को लग
रहा है कि अब खोने को बचा क्या है।
(ये लेख catchhindi पर छपा है)
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