प्रियंका
गांधी चर्चा में हैं। हर बार चुनावों के समय होती ही होती हैं। कमाल ये है कि त्यागी
छवि के बावजूद रायबरेली गांधी परिवार का निर्बाध किला बना रहे इसके लिए प्रियंका
गांधी को ही रायबरेली में जाकर डेरा डालना पड़ता है। मीडिया इसे कभी सोनिया गांधी
की काबिलियत पर सवाल के तौर पर नहीं देखता है। वो इसे प्रियंका गांधी की लोगों से जुड़ने की
अद्भुत क्षमता के तौर पर देखता है। ऐसी क्षमता जो अगर आगे आ जाए तो देश के सारे
नेताओं को हिंद महासागर में डब मरने के हालात बना देगा। हालांकि, देश के दूसरे
नेताओं के लिए अच्छी बात ये है कि प्रियंका गांधी का ये करिश्माई व्यक्तित्व कभी
भी रायबरेली और अमेठी के आगे नहीं दिखा। अब बताइए रायबरेली और अमेठी तो वैसे ही राजीव, संजय और इंदिरा गांधी के समय से कांग्रेस का ही है। ये अलग बात है कि अपने बूते बीजेपी में रहकर भी खुद की नेता की छवि बनाने वाले वरुण गांधी को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाती। कांग्रेस कार्यकर्ता और मीडिया बिना किसी
बहस के ये भी मानता है कि ये खुद प्रियंका जी नहीं चाहती हैं कि वो राजनीति में
सीधे तौर पर उतरें इसीलिए वो सिर्फ गांधी परिवार की संसदीय सीटों के राजनीतिक
प्रबंधक के तौर पर काम करती रहेंगी। इस लिहाज से देखें तो प्रियंका गांधी की
भूमिका दरअसल कैप्टन सतीश शर्मा या किशोरी लाल शर्मा से ज्यादा की नहीं है। लेकिन,
इस तुलना से शायद ढेर सारे गांधी परिवार भक्त कांग्रेसी मेरी शक्ल बिगाड़ने की
कल्पना भी करने लगेंगे। ये तुलना करना मेरे लिए भी मुश्किल काम था कि बताइए देश की
सबसे करिश्माई नेता को मैं सतीश और किशोरी लाल शर्मा जैसे लोगों के साथ तौल रहा
हूं। लेकिन, मैं पत्रकार हूं। तर्कों पर बात करता हूं। मेरे तर्क उससे अच्छे तर्क
से काटे जा सकते हैं। मैं उससे खुश होता हूं। लेकिन, जरा सोचिए ना कि पिछले कई
सालों से प्रियंका के करिश्माई व्यक्तित्व ने सिवाय इसके क्या किया है कि रायबरेली
और अमेठी में पंजा का कब्जा है। क्या प्रियंका गांधी नहीं होतीं तो ये कब्जा नहीं
होता। मैं निजी तौर पर मानता हूं जरूर होता। बिना प्रियंका गांधी के भी ये कब्जा
होता। अब ये भी देखिए वही कांग्रेसी और मीडिया राहुल को योग्य साबित करने के हर
पैमाने पर कसता है लेकिन, चुनावी समय में अमेठी में राहुल गांधी के दस साल से बने
रहने को प्रियंका गांधी के सिर माथे मढ़ देता है। मुझे लगता है कि कांग्रेस के
रणनीतिकारों ने ये मायावी जाला जानबूझकर तैयार किया है। क्योंकि, जितने सालों
कांग्रेस पार्टी सरकार में रही है और गांधी परिवार के ही जरिए जितने साल रही है।
फिर भी देश अपेक्षित गति से तरक्की नहीं कर सका है। इसका लोगों में जो गुस्सा है
वो फूटेगा और तबके लिए कोई न करिश्मा बचाकर रखना जरूरी है। ये दरअसल इसलिए भी था
कि कांग्रेस की बुरी दशा होनी ही होनी है ये अंदेशा कांग्रेस की रणनीति गांधी
परिवार के इर्द गिर्द बनाए रखने वालों को बहुत पहले से था। लेकिन, कांग्रेस के उन
रणनीतिकारों को ये बेहद अच्छे से पता है कि वो चाहे जो कर लें कि गांधी के दिए इस
नाम को जोड़कर ही कोई कांग्रेस पार्टी के लिए फेवीक्विक का काम कर सकता है। यही
गांधी फेविकोल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी ताकत है। अब राहुल गांधी तो
सारी ताकत लगाने के बाद भी नेता ही नहीं बन पा रहा है तो क्या करें। खबरें ये है
कि प्रियंका गांधी को चुनावों के तंरत बाद नतीजे जो भी आएं सोनिया गांधी की जगह दे
दी जाएगी। मतलब साफ है कि सोनिया गांधी की सेहत अब वैसी नहीं है कि वो एक जड़ हो
चुकी पार्टी को गति दे सकें। इसीलिए ऊर्जावान और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और मीडिया
के एक बड़े वर्ग में पक्के तौर पर करिश्मे के तौर पर देखी जा रही प्रियंका की
ताजपोशी कर दी जाएगी।
राहुल गांधी तो राजनीतिक तौर पर किस कदर खत्म हो गए हैं इसका अंदाजा तो न्यूयॉर्क टाइम्स की कांग्रेस के भविष्य पर ताजा टिप्पणी करने वाली इस रिपोर्ट से ही लग जाता है। और इस रिपोर्ट के सिर्फ शुरुआती दो पैराग्राफ पढ़ने का समय निकालिए, सब समझ आ जाएगा। इसीलिए अब राहुल को चुका मानकर कांग्रेस के रणनीतिकार सलीके से प्रियंका को ही नेता बनाने पर तुल गए हैं। प्रियंका की छवि को पहले ही इंदिरा गांधी की छवि से बड़े सुनियोजित तरीके से जोड़ दिया गया है। अब
मुझे पता नहीं है कि इंदिरा गांधी सिर्फ राजनीतिक रैलियों दौरों पर ही साड़ी पहनती
थीं या प्रियंका तरह उदारमना थीं। सिर्फ चुनावी सभाओं, बैठकों के लिए साड़ी और
बाकी समय जरूरत के लिहाज से आधुनिक परिधान। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन,
सिवाय उसी अंदाज में साड़ी पहनने, इंदिरा की तरह ही शक्ल दिखने को छोड़ दें तो इस
प्रियंका में कौन सा करिश्मा है। ये मेरे जैसा पत्रकार तो नहीं समझ पा रहा है।
सोचिए कि कांग्रेस जब सबसे बुरे हाल में है। जब नरेंद्र मोदी जैसी ताकतवर चुनौती
कांग्रेस के सामने पहली बार खड़ी है तब भी प्रियंका सिर्फ रायबरेली और अमेठी में
दूरदर्शन के वाद-संवाद जैसे आयोजन कर रही हैं। हालांकि, कांग्रेस कार्यकर्ता और
मीडिया का बड़ा वर्ग चूंकि पहले से प्रियंका का करिश्मा मान रहा है तो उनके दो चार
सौ की भीड़ के साथ वाद संवाद को भी नरेंद्र मोदी की मेहनत करके लाई, जुटाई या खुद
आई भीड़ के बराबर की कवरेज दे रहा है। कांग्रेस के रणनीतिकार के तौर पर ही पहचाने
जाने वाले जनार्दन द्विवेदी जैसे लोग शायद इस करिश्मे का कुछ असर इसी चुनाव में
देखना चाहते थे। इसीलिए खबरें आ गईं कि राजीव गांधी प्रियंका को ही अपनी विरासत
संभालते देखना चाहते थे। ये शायद प्रयोग का तरीका था। लेकिन, इससे गांधी नाम लगाए
दोनों करिश्मे एक साथ एक ही चुनाव में ध्वस्त हो जाते। खैर मैं कह रहा है कि गांधी नाम लगाए दोनों करिश्मे यानी राहुल और प्रियंका गांधी। लेकिन, अब बात आगे निकल चुकी है। प्रियंका के नाम के आगे गांधी लगाने पर विवाद, बहस है तो ये तो तय हो ही गया है कि गांधी नाम का करिश्मा ध्वस्त हो चुका है। क्योंकि, प्रियंका अब राजनीति में आएंगी तो प्रियंका वाड्रा ही कहलाएंगी। रॉबर्ट वाड्रा के कर्मकांड की फाइल उनके खुलकर राजनीति में आने से पहले ही खुलने लगी है। प्रियंका गांधी की जादू वाली राजनीति अंदर से कितनी कमजोर है अंदाजा लगाइए कि जब वरुण गांधी सुल्तानपुर पहुंच गए तो प्रियंका वाड्रा का करिश्मा ऐसा हिला कि वो बिना मेकअप वाली हीरोइन हो गईं। प्रियंका वरुण गांधी को भटका हुआ और जाने क्या-क्या बताने लगीं। रायबरेली, अमेठी के बीच की सुल्तानपुर सीट पर गांधी तो आ रहा है कि स्थापित गांधी परिवार का कब्जा हट रहा है। इलाहाबाद की पहचान होने के बावजूद आनंद भवन, स्वराज भवन और कमला नेहरू अस्पताल भी प्रियंका गांधी को ये साहस नहीं दे पा रहा कि वो कहतीं कि रायबरेली से लेकर इलाहाबाद तक की हर सीट पर पंजे का ही कब्जा होगा। तो प्रियंका की जादूगरी हुई या कांग्रेसी हाथ की सफाई। इसीलिए मेरे दिमाग में ये
सवाल बड़ा होता जा रहा है कि प्रियंका का ये जादू असल है या राजनीति में कांग्रेसी
हाथ की सफाई भर है।
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