रुपया
कब मजबूत
होगा। इस सवाल के जवाब में अब हम भारतीय रुपये की मजबूती की कल्पना करते
हैं तो शायद दिमाग में 64-65
का भाव अच्छा दिखता होगा। वजह ये कि जिस तेजी से रुपया डॉलर, पाउंड और
दूसरी
मुद्राओं के मुकाबले सरक रहा है उसमें हमें ये लगता है कि जहां है वहीं रुक
जाए तो
बात बन जाए। और, शायद भारत की सरकार भी ऐसे ही सोच रही है। इसी वजह से
फिलहाल
रुपये की मजबूती के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं। क्योंकि, हमारी सरकार अभी
भी
रुपये की मजबूती की अपनी नीति पर खास काम करती नहीं दिख रही है। हम दुनिया
के
भरोसे हैं। लेकिन, भारत सरकार की मौजूदा अर्थनीति को देखकर एक लाइन जो मेरे
दिमाग
में सबसे पहले आती है वो ये कि हम अगर दुनिया के ही भरोसे हैं तो, दुनिया
फिर
हमारा भरोसा क्यों करे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि अमेरिका, यूरोप में
जब
जबरदस्त मंदी आई तो हमारी सरकार ने कहाकि हम इसी वजह से कमजोर हो रहे हैं
और अब जब
खबरें आ रही हैं कि अमेरिका के बाजार सुधर रहे हैं तो हमारी अर्थव्वस्था
में
कमजोरी की वजह फिर से यही बन रही है।
वैसे सच्चाई ये भी है कि 2008-09 में
जब
अमेरिका, यूरोप बर्बादी के कगार पर था तो चीन और भारत की ने ही अपनी 10
प्रतिशत के
आसपास वाली तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था से दुनिया को बचाया था। तो अब मुश्किल
कहां
है। अमेरिका, यूरोप जब टूटे तो हमारी सरकार ने तेजी से नए बाजार खोजे जिससे
एक्सपोर्ट बेहतर हो। लेकिन, ये समस्या का हल नहीं था। डॉलर ऐसे नहीं
आएगा। दरअसल जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था टूटी तो वहां के निवेशकों ने भारत और
चीन जैसे
बाजारों में डॉलर झोंक दिया। क्योंकि, दुनिया में सबसे बेहतर मुनाफा विदेशी
निवेशकों को भारत, चीन जैसे देशों में ही मिल रहा था। लेकिन, इस मौके का
इस्तेमाल
भारत सरकार घरेलू अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने में नहीं कर पाई। और, डॉलर
के आने को भारत की असल ताकत समझने लगी। जबकि, वो भारत की ताकत नहीं थी जैसे
ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधरनी शुरू हुई तो वहां
के निवेशकों ने फिर से डॉलर निकालना शुरू कर दिया। उसका
खामियाजा अब भुगतना पड़ रहा है। उसका असर ये है कि जनवरी 2008
में 21000 का जादुई आंकड़ा पार करने वाला सेंसेक्स 2010 की दीवाली वाली मुहूर्त
ट्रेडिंग में ही उस आंकड़े को दोबारा छू पाया। और अब तो 18000 के आसपास लहराते
सेंसेक्स के लिए 21000 का आंकड़ा दिवास्वप्न सा दिखने लगा है। वजह साफ है कि हमारी
पूरी अर्थव्यवस्था, पूरा बाजार डॉलर डीलरों के इशारों पर नाचता है। दुनिया की
अर्थव्यवस्था कमजोर होने पर वो हमारे यहां निवेश करके मुनाफा कमा जाते हैं और फिर
हमारे बाजार अर्थव्यवस्था को कमजोर करके हमारे रुपये पर ऐसा दबाव बना देते हैं कि
हमारी सरकार फिर डॉलर डीलरों के आगे भीख मांगने वाली मुद्रा में व्यवहार करने लगती
है। जबकि, सरकार अगर दुनिया के इस सबसे बड़े बाजार को दुनिया के रहम के बजाय अपने
नियमों के लिहाज से चलाने लगे तो बात बन जाए।
अभी जब रुपये की जोरदार गिरावट हुई उसके बाद वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने एलान किया कि निवेश पर बनी कैबिनेट समिति ने करीब दो लाख करोड़ के बुनियादी प्रोजेक्ट को मंजूरी दी। लंबे समय से रुके हुए 36 इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट सड़क, बिजली जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के हैं। ये एक अच्छा कदम है लेकिन, शायद इस अच्छे कदम को चलने में सरकार ने समय बहुत ज्यादा ले लिया है। इतना ज्यादा कि सरकार की लालफीताशाही (नियमकों की बाधाएं पढ़िए) की वजह से देश में करीब सात लाख करोड़ रुपए की योजनाएं अंटकी पड़ी हैं। इस वित्तीय वर्ष में सरकार ने जितनी रकम खर्च करने की योजना बनाई है ये उसकी लगभग आधी रकम है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि सरकार देश की जो ताकत है उसको बढ़ाने के बजाय डॉलर डीलरों के भरोसे बैठी हुई है। सरकार देश की बुनियादी परियाजनाओं को लेकर कितनी गंभीर है इसका अंदाजा कुछ तथ्यों से लगाया जा सकता है। बीओटी यानी बनाइए चलाइए और सौंप दीजिए- इस आधार पर दिए जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के सिर्फ 1933 किलोमीटर के प्रोजेक्ट सरकार दे पाई है। पिछले आठ सालों में ये राष्ट्रीय राजमार्गों के लिए दिया जाने वाला सबसे कम ठेका है। और ये ऐसा नहीं है कि सिर्फ ठेके देने में ही सरकार पिछड़ रही है। योजनाओं में अमल में देरी की वजह से कम से कम 3300 किलोमीटर के 25 राष्ट्रीय राजमार्ग प्रोजेक्ट हैं जो रुके हुए हैं। और देरी की वजह है भूमि अधिग्रहण। हालांकि, सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के बाद भूमि अधिग्रहण बिल को पास कराने में कोई कसर हीं छोड़ेगी लेकिन, फिर भी संदेह है कि इस वित्तीय वर्ष में 3500 किलोमीटर से ज्यादा के राष्ट्रीय राजमार्ग लोगों के सफर के लिए तैयार हो पाएंगे।
बुनियादी क्षेत्र की सभी परियोजनाओं का हाल ऐसा ही है। देश के 80 प्रतिशत थर्मल पावर प्रोजेक्ट रेगुलेटरी क्लियरेंस के अभाव में रुके पड़े हैं या बहुत देरी से चल रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने निजी क्षेत्र के कोयला आधारित बिजलीघरों से 44000 मेगावॉट बिजली उत्पादन का अनुमान लगा रखा था वो अब सिर्फ 7000 मेगावॉट ही पूरा होता दिख रहा है। मुंबई देश का आर्थिक राजधानी है। लेकिन, इस आर्थिक राजधानी में बुनियादी परियोजनाओं के हाल से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के आर्थिक हालात क्यों गड़बड़ हैं। मुंबई मेट्रो रेल का दूसरा चरण हो, मुंबई की पहचान बन चुके बांद्रा-वर्ली सी लिंक का विस्तार हो, मोनोरेल के नए रूट की बात हो या फिर नवी मुंबई का प्रस्तावित अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा। सब के सब अभी कागजों में ही हैं। कई सालों के बाद भी अभी ये जमीन पर नहीं दिख रहे हैं। दुखद ये कि हाल ही में मुंबई के महत्वाकांक्षी मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक के लिए 5 चुने गए कंसोर्शियम में से किसी ने बोली नहीं लगाई। और इसके पीछे वजह ये कि वो लागत और उसके लिहाज से मुनाफे को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। साथ ही उन्हें राजनीतिक दखलंदाजी भी परेशानी में डालती है।
दरअसल ये राजनीतिक दखलंदाजी ही है जो असल वजह है
इस देश की अर्थव्यवस्था के बुरे हाल का। अर्थव्यवस्था के लिहाज से एक अच्छा कदम था
धीरे-धीरे पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी हटाना। लेकिन, जरा देखिए- सरकार ने असल
में क्या किया। सब्सिडी हटाई 25 जून 2010 को तेल कंपनियों को पेट्रोल की कीमत तय
करने का पूरा अधिकार भी दे दिया। अभी धीरे-धीरे डीजल के दाम भी तय करने का अधिकार
दे रहे हैं। लेकिन, 25 जून 2010 के बाद राज्यों के विधानसभा चुनाव जब-जब आए
राजनीतिक नफे के लिए अपनी नीति को रोक दिया। अभी भी सरकार वही कर रही है पेट्रोल
के दाम कुछ एक रुपये के आसपास 15 अगस्त की रात बढ़ जाने चाहिए थे लेकिन, संसद सत्र
चल रहा है इसलिए पेट्रोल और डीजल की बढ़त पर रोक लगा दी गई। तेल कंपनियों का घाटा
बढ़ रहा है और घाटे को ब्याज सहित तेल कंपनियां संसद सत्र खत्म होने के तुरंत बाद
वसूल लेंगी। और, फिर डीजल के दामों की तेज बढ़त महंगाई को आसमान पर पहुंचा देगी। ब्याज
दरें पहले ही ऊंचे स्तर पर हैं। यानी इस सरकार की नीति ही पक्की नहीं है। हर काम
वोट के लिहाज से करती है। अब लोगों को लगता होगा कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था
सुधारने को लेकर चिंतित है लेकिन, सरकार को असल चिंता 2014 की है। इसलिए मनरेगा की
कामयाबी का प्रयोग खाद्य सुरक्षा बिल के जरिए किया जा रहा है। भले इससे देश की
आर्थिक सुरक्षा पर खतरा आ जाए। डॉलर डीलरों को ऐसे प्रयोग डराते हैं। वो सामाजिक
सुरक्षा को प्राथमिकता बताने वाली सरकार के साथ कारोबार क्यों बढ़ाए। सरकार के ये
प्रयोग ऐसे हैं कि लड़कर लागू कराया रिटेल में विदेशी निवेश का फैसला भी काम नहीं
आ रहा। मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई लागू हो गया लेकिन, अब तक एक भी ऐसी दुकान
देश में नहीं खुल सकी है जिसे दिखाकर सरकार विदेशी निवेशकों को भरोसा जीत सके। अब
तक रिटेल में विदेशी निवेश की खुलकर वकालत करने वाले फ्यूचर ग्रुप के कर्ताधर्ता किशोर
बियानी अब उस रास्ते को इतना कारगर नहीं मान रहे हैं। हालांकि, वो ये कह रहे हैं
आर्थिक कमजोरी के हालात कम से कम उनके बिग बाजार को अब तक प्रभावित नहीं कर पा रहे
हैं। लेकिन, वो डर रहे हैं कि नौकरियां जाने लगेंगी, लोगों की जेब की रकम घटने
लगेगी तो मुश्किल बढ़ेगी। उनका ये डर बेवजह नहीं है। जून में पिछले नौ महीने में
सबसे कम कारें बिकी हैं।