Saturday, August 31, 2013

खुद पर भरोसा नहीं दूसरों से भरोसा करने को कहते हो !

रुपया कब मजबूत होगा। इस सवाल के जवाब में अब हम भारतीय रुपये की मजबूती की कल्पना करते हैं तो शायद दिमाग में 64-65 का भाव अच्छा दिखता होगा। वजह ये कि जिस तेजी से रुपया डॉलर, पाउंड और दूसरी मुद्राओं के मुकाबले सरक रहा है उसमें हमें ये लगता है कि जहां है वहीं रुक जाए तो बात बन जाए। और, शायद भारत की सरकार भी ऐसे ही सोच रही है। इसी वजह से फिलहाल रुपये की मजबूती के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं। क्योंकि, हमारी सरकार अभी भी रुपये की मजबूती की अपनी नीति पर खास काम करती नहीं दिख रही है। हम दुनिया के भरोसे हैं। लेकिन, भारत सरकार की मौजूदा अर्थनीति को देखकर एक लाइन जो मेरे दिमाग में सबसे पहले आती है वो ये कि हम अगर दुनिया के ही भरोसे हैं तो, दुनिया फिर हमारा भरोसा क्यों करे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि अमेरिका, यूरोप में जब जबरदस्त मंदी आई तो हमारी सरकार ने कहाकि हम इसी वजह से कमजोर हो रहे हैं और अब जब खबरें आ रही हैं कि अमेरिका के बाजार सुधर रहे हैं तो हमारी अर्थव्वस्था में कमजोरी की वजह फिर से यही बन रही है। 

वैसे सच्चाई ये भी है कि 2008-09 में जब अमेरिका, यूरोप बर्बादी के कगार पर था तो चीन और भारत की ने ही अपनी 10 प्रतिशत के आसपास वाली तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था से दुनिया को बचाया था। तो अब मुश्किल कहां है। अमेरिका, यूरोप जब टूटे तो हमारी सरकार ने तेजी से नए बाजार खोजे जिससे एक्सपोर्ट बेहतर हो। लेकिन, ये समस्या का हल नहीं था। डॉलर ऐसे नहीं आएगा।  दरअसल जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था टूटी तो वहां के निवेशकों ने भारत और चीन जैसे बाजारों में डॉलर झोंक दिया। क्योंकि, दुनिया में सबसे बेहतर मुनाफा विदेशी निवेशकों को भारत, चीन जैसे देशों में ही मिल रहा था। लेकिन, इस मौके का इस्तेमाल भारत सरकार घरेलू अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने में नहीं कर पाई। और, डॉलर के आने को भारत की असल ताकत समझने लगी। जबकि, वो भारत की ताकत नहीं थी जैसे ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधरनी शुरू हुई तो वहां के निवेशकों ने फिर से डॉलर निकालना शुरू कर दिया। उसका खामियाजा अब भुगतना पड़ रहा है। उसका असर ये है कि जनवरी 2008 में 21000 का जादुई आंकड़ा पार करने वाला सेंसेक्स 2010 की दीवाली वाली मुहूर्त ट्रेडिंग में ही उस आंकड़े को दोबारा छू पाया। और अब तो 18000 के आसपास लहराते सेंसेक्स के लिए 21000 का आंकड़ा दिवास्वप्न सा दिखने लगा है। वजह साफ है कि हमारी पूरी अर्थव्यवस्था, पूरा बाजार डॉलर डीलरों के इशारों पर नाचता है। दुनिया की अर्थव्यवस्था कमजोर होने पर वो हमारे यहां निवेश करके मुनाफा कमा जाते हैं और फिर हमारे बाजार अर्थव्यवस्था को कमजोर करके हमारे रुपये पर ऐसा दबाव बना देते हैं कि हमारी सरकार फिर डॉलर डीलरों के आगे भीख मांगने वाली मुद्रा में व्यवहार करने लगती है। जबकि, सरकार अगर दुनिया के इस सबसे बड़े बाजार को दुनिया के रहम के बजाय अपने नियमों के लिहाज से चलाने लगे तो बात बन जाए।

अभी जब रुपये की जोरदार गिरावट हुई उसके बाद वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने एलान किया कि निवेश पर बनी कैबिनेट समिति ने करीब दो लाख करोड़ के बुनियादी प्रोजेक्ट को मंजूरी दी। लंबे समय से रुके हुए 36 इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट सड़क, बिजली जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के हैं। ये एक अच्छा कदम है लेकिन, शायद इस अच्छे कदम को चलने में सरकार ने समय बहुत ज्यादा ले लिया है। इतना ज्यादा कि सरकार की लालफीताशाही (नियमकों की बाधाएं पढ़िए) की वजह से देश में करीब सात लाख करोड़ रुपए की योजनाएं अंटकी पड़ी हैं। इस वित्तीय वर्ष में सरकार ने जितनी रकम खर्च करने की योजना बनाई है ये उसकी लगभग आधी रकम है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि सरकार देश की जो ताकत है उसको बढ़ाने के बजाय डॉलर डीलरों के भरोसे बैठी हुई है। सरकार देश की बुनियादी परियाजनाओं को लेकर कितनी गंभीर है इसका अंदाजा कुछ तथ्यों से लगाया जा सकता है। बीओटी यानी बनाइए चलाइए और सौंप दीजिए- इस आधार पर दिए जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के सिर्फ 1933 किलोमीटर के प्रोजेक्ट सरकार दे पाई है। पिछले आठ सालों में ये राष्ट्रीय राजमार्गों के लिए दिया जाने वाला सबसे कम ठेका है। और ये ऐसा नहीं है कि सिर्फ ठेके देने में ही सरकार पिछड़ रही है। योजनाओं में अमल में देरी की वजह से कम से कम 3300 किलोमीटर के 25 राष्ट्रीय राजमार्ग प्रोजेक्ट हैं जो रुके हुए हैं। और देरी की वजह है भूमि अधिग्रहण। हालांकि, सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के बाद भूमि अधिग्रहण बिल को पास कराने में कोई कसर हीं छोड़ेगी लेकिन, फिर भी संदेह है कि इस वित्तीय वर्ष में 3500 किलोमीटर से ज्यादा के राष्ट्रीय राजमार्ग लोगों के सफर के लिए तैयार हो पाएंगे। 

बुनियादी क्षेत्र की सभी परियोजनाओं का हाल ऐसा ही है। देश के 80 प्रतिशत थर्मल पावर प्रोजेक्ट रेगुलेटरी क्लियरेंस के अभाव में रुके पड़े हैं या बहुत देरी से चल रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने निजी क्षेत्र के कोयला आधारित बिजलीघरों से 44000 मेगावॉट बिजली उत्पादन का अनुमान लगा रखा था वो अब सिर्फ 7000 मेगावॉट ही पूरा होता दिख रहा है। मुंबई देश का आर्थिक राजधानी है। लेकिन, इस आर्थिक राजधानी में बुनियादी परियोजनाओं के हाल से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के आर्थिक हालात क्यों गड़बड़ हैं। मुंबई मेट्रो रेल का दूसरा चरण हो, मुंबई की पहचान बन चुके बांद्रा-वर्ली सी लिंक का विस्तार हो, मोनोरेल के नए रूट की बात हो या फिर नवी मुंबई का प्रस्तावित अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा। सब के सब अभी कागजों में ही हैं। कई सालों के बाद भी अभी ये जमीन पर नहीं दिख रहे हैं। दुखद ये कि हाल ही में मुंबई के महत्वाकांक्षी मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक के लिए 5 चुने गए कंसोर्शियम में से किसी ने बोली नहीं लगाई। और इसके पीछे वजह ये कि वो लागत और उसके लिहाज से मुनाफे को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। साथ ही उन्हें राजनीतिक दखलंदाजी भी परेशानी में डालती है। 

दरअसल ये राजनीतिक दखलंदाजी ही है जो असल वजह है इस देश की अर्थव्यवस्था के बुरे हाल का। अर्थव्यवस्था के लिहाज से एक अच्छा कदम था धीरे-धीरे पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी हटाना। लेकिन, जरा देखिए- सरकार ने असल में क्या किया। सब्सिडी हटाई 25 जून 2010 को तेल कंपनियों को पेट्रोल की कीमत तय करने का पूरा अधिकार भी दे दिया। अभी धीरे-धीरे डीजल के दाम भी तय करने का अधिकार दे रहे हैं। लेकिन, 25 जून 2010 के बाद राज्यों के विधानसभा चुनाव जब-जब आए राजनीतिक नफे के लिए अपनी नीति को रोक दिया। अभी भी सरकार वही कर रही है पेट्रोल के दाम कुछ एक रुपये के आसपास 15 अगस्त की रात बढ़ जाने चाहिए थे लेकिन, संसद सत्र चल रहा है इसलिए पेट्रोल और डीजल की बढ़त पर रोक लगा दी गई। तेल कंपनियों का घाटा बढ़ रहा है और घाटे को ब्याज सहित तेल कंपनियां संसद सत्र खत्म होने के तुरंत बाद वसूल लेंगी। और, फिर डीजल के दामों की तेज बढ़त महंगाई को आसमान पर पहुंचा देगी। ब्याज दरें पहले ही ऊंचे स्तर पर हैं। यानी इस सरकार की नीति ही पक्की नहीं है। हर काम वोट के लिहाज से करती है। अब लोगों को लगता होगा कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था सुधारने को लेकर चिंतित है लेकिन, सरकार को असल चिंता 2014 की है। इसलिए मनरेगा की कामयाबी का प्रयोग खाद्य सुरक्षा बिल के जरिए किया जा रहा है। भले इससे देश की आर्थिक सुरक्षा पर खतरा आ जाए। डॉलर डीलरों को ऐसे प्रयोग डराते हैं। वो सामाजिक सुरक्षा को प्राथमिकता बताने वाली सरकार के साथ कारोबार क्यों बढ़ाए। सरकार के ये प्रयोग ऐसे हैं कि लड़कर लागू कराया रिटेल में विदेशी निवेश का फैसला भी काम नहीं आ रहा। मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई लागू हो गया लेकिन, अब तक एक भी ऐसी दुकान देश में नहीं खुल सकी है जिसे दिखाकर सरकार विदेशी निवेशकों को भरोसा जीत सके। अब तक रिटेल में विदेशी निवेश की खुलकर वकालत करने वाले फ्यूचर ग्रुप के कर्ताधर्ता किशोर बियानी अब उस रास्ते को इतना कारगर नहीं मान रहे हैं। हालांकि, वो ये कह रहे हैं आर्थिक कमजोरी के हालात कम से कम उनके बिग बाजार को अब तक प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन, वो डर रहे हैं कि नौकरियां जाने लगेंगी, लोगों की जेब की रकम घटने लगेगी तो मुश्किल बढ़ेगी। उनका ये डर बेवजह नहीं है। जून में पिछले नौ महीने में सबसे कम कारें बिकी हैं। 

सरकार चुनावी चिंता में भारत निर्माण के विज्ञापन जमकर चला रही है। लेकिन, असल में भारत निर्माण की तरफ ध्यान नहीं दे रही है। वो इसके जरिए चुनाव जीतना चाहती है और डॉलर डीलरों को आकर्षित करना चाहती है। लेकिन, अगर अर्थव्यवस्था का यही हाल रहा तो चुनाव जीतना मुश्किल होगा साथ ही डॉलर डीलरों के लिए भी भारत आकर्षण की जगह नहीं रह जाएगा। समय अब बहुत कम बचा है लेकिन, फिर भी अगर सरकार तेजी से देश के घरेलू बाजार की ताकत को पहचानकर उसे मजबूत करे। बुनियादी परियाजनाओं को तेजी से चालूकर अगले 3-4 महीने में उसे अमल में लाकर दिखाए। उद्योगों के लिए और लोगों के लिए कर्ज सस्ता करे तो शायद कुछ बात बने। अच्छी बात ये है कि त्यौहारों के देश भारत में त्यौहारों का वक्त शुरू हो चुका है। लोग त्यौहारी रंग में डूबे हैं। बचत की रकम से कपड़ा खरीदेंगे ही, अच्छा खाएंगे ही, मौज मनाएंगे ही। सरकार हिंदुस्तानियों की मौज के इन तीन महीने का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने में कर ले तो अर्थव्यवस्था की चिंता भी दूर होगी और चुनावी चिंता भी। वरना दोनों पर खतरा बढ़ रहा है।

Tuesday, August 27, 2013

खाना पक्का करना है तो रुपया मजबूत करो सरकार!



मेरे एक मित्र अभी हाल ही में बैंकॉक से लौटे। लौटने के बाद उनसे बात हुई तो बड़े ही निराश स्वर में वो बोले अरे यार अपनी असल औकात जाननी हो तो एक बार विदेश होकर आओ। बैंकॉक वैसे तो पर्यटन की वजह से भारतीयों और दुनिया के लोगों को पसंद आता है। लेकिन, एक दूसरी वजह ये भी कि इलेक्ट्रॉनिक सामानों का अच्छा बाजार भी यहां है। जहां भारतीय आधुनिक तकनीक वाले इलेक्ट्रॉनिक भारत से कम कीमतों पर खरीदकर वापस आते थे। लेकिन, अब हालात बदल चुके हैं। भारतीय रुपये की गिरती कीमत ने भारतीयों की औकात दुनिया के हर कोने में घटा दी है। फिर क्या लंदन, अमेरिका जैसे दुनिया के बड़े चमकते शहर और क्या पर्यटन के ही बूते दुनिया के नक्शे पर जाना जाने वाला बैंकॉक। रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले गिरी ये तो रोज रोज अखबार टीवी की सुर्खियां बनने से सब जान गए हैं लेकिन, थाईलैंड की करेंसी थाई बात के मुकाबले भी हमारा रुपया रोने लगा है ये शायद हममें से कम ही भारतीयों को पता होगा। एक अमेरिकी डॉलर देकर हमारा रुपया 65 से ज्यादा मिल रहा है लेकिन, अगर हम वही रुपया देकर थाईलैंड के बैंकॉक में कुछ खरीदना चाहें या अपनी छुट्टियों को और यादगार बनाने की कोशिश करें तो आधी से कुछ ज्यादा ही कीमत मिल पाएगी। एक रुपया थाई बात में 67 पैसे के बराबर ही होता है। जबकि, वहीं अगर कोई ऑस्ट्रेलियाई आया होगा तो एक ऑस्ट्रेलियाई डॉलर देकर उसे 28 से ज्यादा थाई बात मिल जाएंगे। जबकि, लंदन से एक पाउंड लेकर आए पर्यटक को करीब 49 थाई बात मिल जाएंगे। ये तो थी बैंकॉक में भारतीयों की छुट्टी चौपट होने की कहानी। जिसकी वजह बनी है रुपये की कमजोरी। अगर सिर्फ थाईलैंड में मौज मस्ती या दुनिया के आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स की खरीदारी भर का मसला होता तो ये रुपया रोता रहे हमें क्या करना। लेकिन, इस रुपये की कमजोरी अब देश की कमजोरी बनती जा रही है।

रुपया रसातल में जा रहा है। रिजर्व बैंक और सरकार के ढेर सारे डॉलर को लाने-कमजोर करने और रुपये को मजबूत करने के उपाय के बावजूद रुपया रसातल में जा रहा है। मतलब सरकार के फैसले रुपये को मजबूत नहीं कर पा रहे हैं। मतलब 64 से नीचे गिरा रुपया और भी खतरनाक स्तर तक गिर सकता है। यही वजह है कि डॉएश बैंक की ताजा रिपोर्ट कह रही है कि रुपया डॉलर के मुकाबले 70 तक गिर सकता है। यानी उतना जितना न हमारे वित्त मंत्री की उम्र है और न हमारे लोकतंत्र की। हां, साल के अंत तक इसमें कुछ सुधार के संकेत हो सकते हैं। और, इसकी सबसे बड़ी वजह भयानक निराशा है। उस निराशा की कुछ सीधी वजहें जो मुझे दिखती हैं। सबसे पहली ये कि सरकार हो या फिर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया दोनों के फैसले एक समय के बाद खुद के ही मजबूत विरोध की वजह देते हैं। उदाहरण के लिए सरकार की बात करें तो 2 बजट पहले ही वित्त मंत्री के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने इस बात के संकेत दिए थे कि अब धीरे-धीरे सरकार सब्सिडी खत्म करेगी और बाजार के हवाले पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तय करने का अधिकार देगी। हालांकि, बाजार के हवाले दाम तय करने का जो अधिकार था वो मिलना था सरकारी तेल कंपनियों को ही और वो बड़ी तेजी से मिल भी रहा है। उसी के साथ ये संकेत आए कि 2009 में यूपीए दो बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाली मनरेगा योजना पर भी खर्च घटाया जाएगा। लगा कि सरकार खजाने को दुरुस्त करके दुनिया की रेटिंग एजेंसियों को ये दिखाना चाहती है कि भारत सुधारों की दिशा में आगे बढ़ रहा है। सुधारों का अपना चेहरा और चमकाने के लिए यूपीए 2 में दोबारा वित्त मंत्री बने पी चिदंबरम ने एक के बाद एक धड़ाधड़ ऐसे एलान किए कि बस अब देश में डॉलरों की बाढ़ सी आ जाएगी। फिर वो एफडीआई के जरिए रिटेल में हो, एविएशन और दूसरे क्षेत्रों में हो या फिर एफआईआई के जरिए भारत के शेयर बाजार में हो। लेकिन, हुआ इसका उल्टा। डॉलर को लपकने में लगी सरकार को विपक्ष ने ऐसी लंगड़ी मारी कि लगा पूरा देश ही रिटेल में एफडीआई का विरोधी हो गया। फैसला लिया गया, लौटाया गया, फिर और दम लगाकर लिया गया। पर नतीजा शून्य रहा। अब तक एक भी मल्टीब्रांड रिटेल स्टोर देश में खुल नहीं पाया है जिसे दिखाकर वो अपनी डॉलर के आने की बात मजबूती से समझा पाते।

दूसरे सुधार की बात कर लें। दूसरा सुधार ये कि सरकार का सब्सिडी का बोझ कम करना है। क्योंकि, सरकारी खजाने का घाटा बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंच रहा था। फिर चाहे वो वित्तीय घाटा हो या चालू खाते का घाटा। वित्तीय घाटा यानी देश की कुल संपत्ति और कर्ज का संतुलन और चालू खाते का घाटा यानी हर रोज के खर्च के लिए मलतब इंपोर्ट-एक्सपोर्ट के लिए डॉलर रुपये का संतुल। दोनों संतुलन बिगड़ गए थे। 70 प्रतिशत से ज्यादा पेट्रोलियम प्रोडक्ट आयात करने वाली सरकार के लिए सबसे आसान था पेट्रोलियम प्रोडक्ट की सब्सिडी को खत्म करना। ये कहकर-समझकर कि पेट्रोल से कुल महंगाई पर कम असर पड़ता है सरकार ने 25 जून 2010 को पेट्रोल की कीमतों को बाजार के हवाले कर दिया। हालांकि, उसके बाद भी सरकार इस नीति को राजनीतिक लाभ हानि के लिए तोड़ती मरोड़ती रही। बिहार, बंगाल सहित 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के समय तेल कंपनियों से बिना कहे पेट्रोल के दाम तय करने का अधिकार ले लिया गया। भले ही उस घाटे का असर तेल कंपनियों और उससे सरकार खजाने पर चाहे जैसे पड़ा हो। वही हाल अभी भी है। कच्चा तेल 108 डॉलर प्रति बैरल है। 64 रुपये से ज्यादा देने पर भी 1 डॉलर मिल रहा है। तेल कंपनियों का पेट्रोल पर घाटा बढ़ रहा है लेकिन, 15 अगस्त की समीक्षा बैठक में तेल के दाम तय करने का अधिकार पाई तेल कंपनियों को पेट्रोल का घाटा नहीं दिखा। वजह संसद का सत्र चल रहा है। अब इंतजार है संसद सत्र खत्म होने का। सत्र खत्म होते ही पेट्रोल 2 रुपये लीटर तक महंगा होना तय है। यानी सरकार को डर है भी थोड़ा बहुत तो संसद में हंगामे का। आम आदमी के हितों का दावा करने वाली सरकार को सड़क पर होने वाले हंगामे और आम आदमी की जिंदगी में मचे हंगामे की फिक्र कहां है।

अब तीसरे सुधार की बात कर लें। तीसरा सुधार यानी किसी भी तरह भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेश यानी एफआईआई डॉलर लगाएं। सेंसेक्स अभी 18000 के आसपास ही घूम रहा है। 2008 की मंदी में 21000 जाने के बाद सेंसेक्स लुढ़का तो नवंबर की दीवाली वाली मुहूर्त ट्रेडिंग को ही सेंसेक्स 21000 का आंकड़ा पार कर पाया था। उसके बाद से ये तीसरी दीवाली आने वाली है लेकिन, सेंसेक्स 18000 से ऊपर टिक नहीं पा रहा है। अब ऐसे बाजार में भला कौन सा विदेशी निवेशक डॉलर लगाएगा। हां, इतना जरूर है कि रुपये की गिरावट से वो अपना मुनाफा कमाकर उसे लेकर भागने में ही भलाई समझ रहे हैं।

अब बात रिजर्व बैंक के कदमों की। अब तक महंगाई से चिंतित रिजर्व बैंक ने बाजार में रकम की कमी करने की हरसंभव कोशिश की। उसकी वजह से बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाए रखीं। अब रुपये की गिरावट रोकने के लिए रिजर्व बैंक की नीति फिर से बदली और कुछ राहत बैंकों को दी गई। लेकिन, इससे ब्याज दरों में किसी तरह की कमी की उम्मीद करना ही व्यर्थ है। और, कैच 22 की स्थिति में फंसे रुपये की मजबूती भी नहीं हुई। रुपया जिस दिन 64 के नीचे पहली बार लुढ़का तो संसद सत्र था। लेकिन, सरकार को चिंता लुढ़कते रुपये, गिरती भारत की औकात और आम आदमी की जेब की घटती आमदनी की चिंता नहीं थी। उसे चिंता थी फूड सिक्योरिटी बिल की। फूड सिक्योरिटी बिल पास हो गया। दावा ये है कि इस कानून के बाद देश में कोई भूखा नहीं रहेगा। गरीबों को दो जून की रोटी मिल जाएगी। हो सकता है ये बात सच भी हो सवा लाख करोड़ की इस योजना से देश के गरीबों को 2 जून की पेट भरने लायक रोटी मिल जाए। लेकिन, अगर देश के हालात ऐसे ही बने रहे तो जो मनमोहन की उदारवादी नीति के चलते 1991 से 2010 तक चमकते चेहरे के साथ अच्छी गाड़ी में अच्छा कपड़ा पहनकर अच्छा खाना खा रहे थे वो सब भोजन गारंटी कानून के दायरे मे आते दिखेंगे। इसलिए सरकार खाना पक्का करना है तो रुपया मजबूत करो बाकी सब खुद हो जाएगा। और, रुपया मजबूत करने के लिए एफडीआई, एफआईआई से ज्यादा तुरंत सिर्फ चालू खाते के घाटे को घटाने की जरूरत है। क्योंकि, एक बार भारत की साख दुनिया के सामने सुधरी तो ये एफआईआई, एफडीआई के जरिए डॉलर तो खुद ब खुद आने लगेंगे और सारी समस्या खत्म हो जाएगी। 
(ये लेख मनी मंत्र पत्रिका में छपा है)

Monday, August 26, 2013

ऑफिस चलोगे !

जबरदस्त उमस वाली गर्मी में बच्ची क्लास से बाहर निकला। स्कूल के गेट पर ड्राइवर उसका इंतजार कर रहा था। बच्चा आया। ड्राइवर ने यंत्रवत उसका बैग उतारा। बैग उतारते समय ही बच्चे का सवाल- ऑफिस चलोगे? ड्राइवर का तल्ख जवाब- अभी ऑफिस क्यों चलेंगे ? शाम को चलेंगे। ड्राइवर की तल्खी की वजह शायद ये रही होगी कि बच्चा लगभग हर रोज यही सवाल पूछता होगा। बच्चे ने फिर पूछा- तो कहां चलोगे? ड्राइवर का जवाब आया- डे केयर।

Saturday, August 24, 2013

शीर्षक सूझ नहीं रहा!


#MumbaiGangRape की खबर आ गई थी। वो मुंबई जहां रात 2 बजे भी एक लड़की दस लड़कों के साथ घूमने जा सकती है। और, अकेले लड़के के साथ भी। और, बिना किसी लड़के के साथ भी। उस मुंबई में शाम 6 बजे एक वीरान पड़ी मिल में किसी पत्रकार बनने की शुरुआत करने वाली लड़की के साथ 5 लड़कों ने दुष्कर्म किया। उसके साथी भी था जिसे बांध दिया गया था। मुंबई से आई इस खबर के दूसरे दिन राज ठाकरे के प्रेस कांफ्रेंस करने की खबर आई। हमारे 4-5 बिहारी साथियों ने तुरंत अंदेशा जताया हो न हो इसमें बिहारी ही होंगे। और, कमाल की बात ये कि उन बिहारी साथियों ने ये मान भी लिया कि ऐसे करेंगे तो राज ठाकरे जैसों को मौका मिल ही जाएगा। डर की वजह भी थी। पिछली बार जब 2007 की आखिरी रात को मुंबई के एक होटल के बाहर एक लड़की को निर्वस्त्र करने की कोशिश हुई थी तो, राज ठाकरे ने सारा ठीकरा बिहारियों, यूपी से आए लोगों परडाल दिया था। हालांकि, वो आशंका इस बार सच साबित नहीं हुई। लेकिन, ये डर मीडिया में बना हुआ है कि बलात्कार किसने किया या गलत काम किसने किया उसके आधार पर खबर बढ़ाई जाएगी, पहचान बताई जाएगी। खैर धीरे-धीरे उस लड़की के साथ दुष्कर्म करने वाले 5 लड़कों की पहचान हो गई। मोहम्मद अब्दुल, कासिम बंगाली, सलीम और अशफाक, पांचवां था विजय जाधव। एक न्यूजचैनल के ट्विटर अकाउंट पर इनके नाम आए लेकिन, थोड़ी देर बाद गायब हो गए। किसी भी न्यूज चैनल ने उस दिन इन बलात्कारियों के नाम नहीं दिखाए। शायद 4 मुसलमानों के बलात्कार में शामिल होने से सांप्रदायिक होने के खतरा था। 

यही असल खतरा है। न्यूजरूम में बैठे स्वयंभू नैतिकता के ठेकेदारों ने ये तय कर लिया। अब सवाल यही है कि नैतिकता पीड़ित का चेहरा नाम न बताने-दिखाने की बात कहती है या बेशर्म बलात्कारियों की पहचान छिपाने की। क्योंकि, अगर मीडिया भी कोई कहां का है या किस धर्म का है इस आधार पर नीच कृत्य करने वालों की पहचान छिपाएगा या बताएगा तो फिर समाज सुधरने की बात हम कैसे सो. पाएंगे। हालांकि, इसके बाद अखबारों में सारे नाम छपने के बाद कई चैनलों ने भी बलात्कारियों की पहचान सबको बताई। मुझे तो लगता है कि पहचान छिपाने के पीछे भी सरकारी या सत्ता-सुविधा भोग रहे लोगों की जमात होती है जो नहीं चाहती कि ऐसी घटनाएं लोगों को हमेशा याद रहें और जगाए रहें। 16 दिसंबर को बलात्कार की शिकार लड़की की मृत्यु के बाद और उसके पिता की इजाजत के बाद भी हमारीसरकार ने उसकी जीवित रहने की कोशिश को ही मार दिया था। वो जिंदा रहती तो हर रोज हमें झकझोरती रहती। हर रोज हम इस खतरे से निपटने को सोचते रहते। वरना तो रोज की जिंदगी की जद्दोजहद में हम कहां ऐसी गंदी बातें याद रखते हैं जब तक हमारे साथ, बगल में या ऐसे ही मीडिया पर बड़ी खबर न बन जाए। 

दरअसल कहने को भारत आधुनिक हो चुका है। लेकिन, सच्चाई यही है कि अभी भी हम आदिम काल में ही हैं। बलात्कार को मानसिक विकृति कहने के बजाए हमारे नेताजी लोग पहनावे और टीवी पर दिखने वाली अश्लीलता की वजह से बता रहे हैं। मुंबई की घटना के बाद अभी नरेश अग्रवाल, लालू यादव जैसे लोग बोले। जबकि इन्हें शायद ही पता हो कि लड़की ने क्या पहना था। और, वो कुछ भी पहने होती ऐसे कमीने क्यों रुकते। खैर ये शायद भारतीय नेताओं की प्रवृत्ति है 16 दिसंबर को दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना के बाद देश के गृहमंत्रीसुशील कुमार शिंदे और दूसरे नेताओं की बयानबाजी भला किसे भूली होगी। जैसी मीडिया में खबरें हैं कि उस लड़की ने हालत ठीक होते ही यही कहा कि किसी भी हालत में दोषियों को छोड़ना नहीं है और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। वैसे बहस अभी भी इस बात पर जारी है कि फांसी होनी चाहिए या नहीं। कुछ खबरें बड़ी हो जाती हैं और इस वजह से उसके बहाने समाज के गिरते स्तर पर संवेदनहीनता पर बात चर्चा हो जाती है। गुवाहाटी की सड़कों पर नवंबर 2007 में भी ऐसी ही घटना हुई थी। बिंदास बंबई जैसे देश के सारे शहर बनाने की ओर हम बढ़ते कि रात-दिन का भेद भुलाकर हम मस्त रह पाते। हुआ उल्टा हम सरेशाम मुंबई की मस्ती का ही बलात्कार कर रहे हैं। देश तो पहले ही बलात्कारी बना हुआ है।
(लिखना शुरू किया था तो शीर्षक सूझा नहीं अब लग रहा है कि इसी आखिरी लाइन को शीर्षक बनाना चाहिए था)

Friday, August 02, 2013

गड्ढा !

अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में बेहतर हुई सड़कों ने देश में सड़क के रास्ते कितना यातायात बढ़ाया इसका कोई ठीक ठाक आंकड़ा मुझे नहीं मिल सका। लेकिन, नेशनल हाईवेज के सफर पर लोगों का बढ़ा भरोसा साफ दिखता है। पहले हाईवेज पर ट्रकों बसों के बीच में इक्का दुक्का ही कारें नजर आतीं थीं। दिखतीं भी थीं तो वो टैक्सी वाली कारें होती थीं। लेकिन, अब ये दृश्य उलट हो चुका हैं। सड़क के रास्ते अपनी कार से रफ्तार वाला सफर सहूलियत के लिहाज से करने का मोह मैं भी छोड़ नहीं पाता हूं। वैसे भी दिल्ली से इलाहाबाद का सफर यमुना एक्सप्रेस वे बनने के बाद और बेहतर हुआ है। इसीलिए इस बार भी मैं इलाहाबाद अपनी कार से ही गया। दिल्ली से इलाहाबाद जाने का सफर बेहद शानदार रहा और सुबह 8.30 पर नोएडा छोड़ा तो शाम 5 बजते-बजते इलाहाबाद पकड़ में आ गया। यही उम्मीद वापसी की भी थी। लेकिन, इस बार धोखा हो गया। और उस पर भी बुरा ये कि मैं सपरिवार था। अच्छा ये था कि छोटे भाई जैसा छोटे भाई का दोस्त साथ था वरना तो हाईवे का सफर बेहद मुश्किल हो जाता।

NH 2 राष्ट्रीय राजमार्ग 2 जो दिल्ली से कोलकाता जाता है। मथुरा, आगरा, इटावा, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस होते हुए। उस राजमार्ग का हाल ये है कि सारे रास्ते में आपको सफर में अहसास ये होता रहता है कि ये स्थानीय मार्ग है या राष्ट्रीय राजमार्ग। कमाल ये है कि करीब एक दशक से ज्यादा तो मुझे ही इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर चलते हुए और ये समस्याएं जस की तस हैं।
तो, क्या राष्ट्रीय राजमार्ग के रखरखाव की जिम्मेदारी वाले अधिकारी इन चुनौतियों से कभी नहीं गुजरे होंगे जिससे मुझे गुजरना पड़ता है। मैंने ये तस्वीरें राष्ट्रीय राजमार्ग पर कहां ली हैं ये ध्यान नहीं है लेकिन, लगभग पूरे राष्ट्रीय राजमार्ग का यही हाल है। कहीं से भी उल्टे आते वाहन के बावजूद आप दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुए तो सौभाग्यशाली। उल्टी आती गाड़ी बचा ली तो, जानवर बड़ी चुनौती देने के लिए आ जाएंगे। और, राष्ट्रीय राजमार्ग की हर बाजार में सड़क पार करके जाते ये बिजली के तार तो होंगे ही।

लेकिन, इन चुनौतियों से भी बड़ी एक चुनौती है जिसका अहसास इस बार मुझे इलाहाबाद से दिल्ली आते समय हुआ। इटावा बाजार के ठीक पहले करीब 3 किलोमीटर लंबा जाम लगा था। गाड़ी बंद करके अंदाजा लगाना चाहा कि माजरा क्या है तो पता चला कि कोई दुर्घटना हुई जिसके बाद स्थानीय लोगों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर चक्का जाम कर दिया है। करीब एक घंटे तक फंसे रहने के बाद पीएसी आई तो राष्ट्रीय राजमार्ग अपनी बची खुची प्रतिष्ठा वापस पा सका और हमारी स्थिर कार चालायमान हो सकी।  ऐसा नहीं है कि पुलिस नहीं थी। लेकिन, पुलिस स्थानीय लोगों से निपट नहीं पा रही थी। जैसे ही पुलिस की बजाए पीएसी बाजार में पहुंची जाम में फंसे हम लोगों की जान में जान आई। और राष्ट्रीय राजमार्ग को स्थानीय बना देने वाले स्थानीय लोगों का गुस्सा जाने क्यों गायब हो गया और वो भी गायब हो गए।


लेकिन, अभी भी ये देश के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 2 की सबसे बड़ी चुनौती नहीं है। बार-बार चिंता जताने वाले चिंतित होते रहते हैं कि देश गड्ढे में जा रहा है। राष्ट्रीय राजमार्ग पर सलीके से हुए इन गड्ढों को देखकर मैं उसे संशोधित करके कहता हूं कि देश बड़ी रफ्तार में गड्ढे में जा रहा है। और, गड्ढे में देश की गाड़ी जाकर PUNCTURE नहीं BURST हो रही है। यही मेरी कार के साथ भी हुआ। इटावा बाजार के जाम से निकलने के बाद इटावा डीपीएस के ठीक सामने करीब 90 की रफ्तार में चल रही कार से दोनों पहिये निकलकर कार के आगे जाते दिखे तो मेरी जान सूख गई। कार मैं रोक चुका था। बुद्धि स्थिर हुई तो समझ में आया कि दोनों पहिये नहीं पहिये के कवर थे। देखा तो आगे वाला टायर BURST हो चुका था। जिस रिम पर ट्यूबलेस टायर चढ़ा था चार में से 2 रिम उस गड्ढे के प्रकोप से सिकुड़ गए थे।

(9 अगस्त को हिंदुस्तान दिल्ली के संपादकीय पृष्ठ पर साइबर संसार कॉलम में जिक्र)




Thursday, August 01, 2013

इंडिया फर्स्ट नरेंद्र मोदी प्राइवेट लिमिटेड

नरेंद्र मोदी के विरोधी और समर्थक जितने मुखर हैं उतने शायद भारतीय राजनीति में कभी किसी नेता के नहीं रहे। नरेंद्र मोदी के विरोधी ऐसे कि गलती से कोई छोटी सी बात भी मोदी के खिलाफ हो तो उसको पहाड़ बनाने में नहीं चूकते और समर्थक भी ऐसे कि देश की हर समस्या की रामबाण औषधि मोदी को ही मानते हैं। फिर कोई नरेंद्र मोदी के रास्ते में बाधा बनता दिखता है तो, उसकी मिट्टी पलीद करने से भी नहीं चूकता। फिर वो चाहे नोबल पुरस्कार विजेता, भारत रत्न अमर्त्य सेना ही क्यों न हों। यहां तक कि पत्रकार से नेता बने चंदन मित्रा जैसे लोग भी बहककर दोबारा एनडीए की सरकार आने की आशा में अमर्त्य सेन से भारत रत्न छीनने तक की बात कर बैठते हैं। हालांकि, बाद में वो माफी मांग लेते हैं। लेकिन, अभी टीवी पर जो चेहरे नरेंद्र मोदी के समर्थक के तौर पर नजर आते हैं उनकी बात ही इस सहमति के बाद शुरू होती है कि नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री बनकर देश की सारी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। ऐसा ही नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया ब्रिगेड का है। दरअसल नरेंद्र मोदी का करिश्मा ही कुछ ऐसा है। नरेंद्र मोदी का बोलना करना उनके समर्थकों को अंधभरोसा देता है कि वो जो चाहेंगे कर देंगे। और, यही अंधडर उनके विरोधियों को देता है कि वो जो चाहेंगे कर देंगे। इसीलिए समर्थक मोदी के आने से कम कुछ नहीं बर्दाश्त कर पा रहे और विरोधी मोदी के अलावा किसी भी और पर मान जाने को तैयार बैठे हैं।

नरेंद्र मोदी ने एक काम तो कर दिया है कि गुजरात में जो स्थिति तैयार की थी। वैसी ही स्थिति देश में तैयार कर दी है। गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव यानी 2007 के दौरान मैं वहां कवरेज पर था। कारोबारी चैनल के लिए स्टोरी कर रहा था इसलिए कारोबारियों के संपर्क में ज्यादा था। राजकोट, जामनगर और अहमदाबाद में कारोबारी नरेंद्र मोदी को राजा जैसी सत्ता दे देने के पक्ष में थे। क्योंकि, उनका मानना था कि मोदी के अलावा कोई नहीं जो इतनी आसानी से कारोबार के मौके दे सके। कुछ ऐसी ही राय गैर कारोबारियों की भी थी कि जीवन को सुखमय करने का बेहतर रास्ता मोदी ही खोज सकते हैं। लेकिन, उसी चुनाव कवरेज के दौरान भावनगर के हीरा व्यापारी और अलंग पोर्ट के कारोबारी भी मिले जिनका ये मानना था कि नरेंद्र मोदी का शासन उनके कारोबार के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। और उनके जीवन की बदहाली के रास्ते और पुख्ता कर रहा है। वजह साफ थी कि अलंग पोर्ट के कारोबारियों से नरेंद्र मोदी का संतुलन नहीं बैठ पाया था। वैसे तो किसी भी ताकतवर नेता के साथ या खिलाफ वाला फॉर्मूला तगड़े से काम करते हैं लेकिन, नरेंद्र मोदी ने मेरे साथ या मेरे खिलाफ वाली अवधारणा को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया है।

इतना कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे ताकतवर नेता के घर के सामने मोदी के पक्ष में लोग नारे लगाने पहुंच गए। इतना ही नहीं लालकृष्ण आडवाणी दिल्ली में बीजेपी के अनुसूचित मोर्चे के कार्यक्रम में रिकॉर्डतोड़ नतीजे बीजेपी के पक्ष में आने का अनुमान लगा रहे थे तो, ट्विटर पर एक मोदी समर्थक महिला लिख रही थी बुड्ढा बोल रहा है शाम को टीवी पर डिबेट कराएगा। ये महिला कुछ देर पहले ही गोविंदाचार्य को भी गरिया चुकी थीं। गुजरात में नरेंद्र मोदी 5 करोड़ गुजरातियों की बात करते थे। अब इंडिया फर्स्ट की बात कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी के खिलाफ बेवजह 2002 दंगों का भूत उनके विरोधियों ने ऐसे मजबूत किया कि नरेंद्र के उत्साही समर्थकों की कतार बड़ी होती चली गई। हालांकि, अब उन्हीं समर्थकों का अतिउत्साह कई मोदी समर्थकों को विरोधी लाइन में भी खड़ा कर रहा है। 2007 विधानसभा चुनाव के दौरन मैंने वहां जो महसूस किया था कि नरेंद्र मोदी ने खुद को एक ऐसे ब्रांड के तौर पर स्थापित कर लिया था। जहां गुजरात को बेहतर तरीके से चलाने-बनाने की एकमात्र किरण मोदी दिखने लगे थे और ऐसे में फिर कोई केशुभाई पटेल, कांशीराम राणा, शंकर सिंह वाघेला, प्रवीण तोगड़िया वाली विहिप अगर नरेंद्र मोदी के रास्ते में बाधा बनते दिख रहे थे तो, गुजराती उसे दुश्मन मानने लगते थे। यही वजह थी कि जिस 2002 के लिए नरेंद्र मोदी को अभी अभी भी सबसे ज्यादा चुनौतियां झेलनी पड़ रही हैं। उसके असल आधार रहे विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया भी जब नरेंद्र मोदी की राह में बाधा दिखने लगे तो, बीजेपी और संघ का खांटी कैडर भी तोगड़िया का साथ छोड़ मोदी के साथ खड़ा हो गया। यहां तक कि संघ के एक राष्ट्रीय अधिकारी के पुत्र भी नरेंद्र मोदी का विरोध करके गुजरात में काम करने की स्थिति में नहीं रहे।

राष्ट्रीय परिदृष्य में भले ही सीधे तौर पर केशुभाई पटेल, कांशीराम राणा, शंकर सिंह वाघेला और प्रवीण तोगड़िया वाली विहिप सीधे तौर पर न दिख रही हो लेकिन, हालात कमोबेश वैसे ही बन गए हैं। फैसला लेने वाली बीजेपी की सर्वोच्च संस्था में जब तक नरेंद्र मोदी नहीं थे तब तक लालकृष्ण आडवाणी ही सबकुछ थे। यहां तक कि संघ के खांटी समर्थन से अध्यक्ष बने नितिन गडकरी ने भले ही बैठकों को आडवाणी के 30 पृथ्वीराज रोड के घर से उठाकर 13 तीनमूर्ति लेन ले आए लेकिन, सच्चाई यही थी कि बैठक से पहले और आडवाणी के इशारे से संसदीय बोर्ड की फैसला भी हिला रहता था या आशंकित रहता था। अब सबको गोवी की बीजेपी बैठक के समय 30 पृथ्वीराज रोड के सामने का वो दृष्य तो याद ही रहेगा जिसमें पता नहीं कौन कौन सी खांटी हिंदू सेना का दावा करने वाले लोग आडवाणी के विरोध और नरेंद्र मोदी के पक्ष में नारे लगा रहे थे। गुजरात के बापा केशुभाई की तरह बीजेपी के लौह पुरुष को नरेंद्र मोदी की तगड़ी चुनौती थी। इसके पहले भी हालांकि, मोदी ने सद्भावना उपवास और आडवाणी की भ्रष्टाचार के खिलाफ यात्रा के समय मोदी के साथ या विरोध में रहने वाली अवधारणा को मजबूती दे दी थी। लेकिन, सबसे तगड़ी चोट दिल्ली में 30 पृथ्वीराज रोड पर ही लगी। 5 करोड़ गुजराती की बात नरेंद्र मोदी करते हैं भले ही मोदी को जो वोट मिले हैं वो इससे काफी कम हैं। लेकिन, गिरी हालत में भी एक करोड़ मुखर गुजराती मोदी के समर्थन में ऐसे बोलते हैं कि गैर मुखर उससे कई गुना गुजरातियों के नेता भी नरेंद्र मोदी ही दिखते हैं।

गुजरात को मोदी ने वाइब्रैंट गुजरात नरेंद्र मोदी प्राइवेट लिमिटेड बना दिया। जिसे सीईओ नरेंद्र मोदी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिलाया है। इसीलिए गुजरात के एक बड़े वर्ग को मोदी के खिलाफ कही गई कोई भी बात यहां के विकास में अड़ंगा जैसा लगता है। अब जैसे वाइब्रैंट गुजरात को नरेंद्र मोदी प्राइवेट लिमिटेड बनाने के लिए गुजरात के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स (विधानसभा) में मोदी के इतने मेंबर्स शामिल करने की जरूरत थी जो, मोदी को गुजरात का मुनाफा बढ़ाने के लिए उन्हें सीईओ और चेयरमैन (मुख्यमंत्री) की कुर्सी सौंप देगा। मोदी के बाइब्रैंट गुजरात का साल दर साल प्रॉफिट 10 प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ रहा है। वाइब्रैंट गुजरात में काम करने वाले कर्मचारियों (आम जनता) को हर साल अच्छा इंक्रीमेंट मिल रहा है। पूरे गुजरात में सड़कें-बिजली-पानी सब कुछ लोगों को देश के दूसरे राज्यों से अच्छे से भी अच्छा मिल रहा है। गांवों में भी कमोबेश हालात देश की दूसरी कंपनियों (राज्यों) से अच्छे हैं।
वाइब्रैंट गुजरात में हर कोई अपना इंक्रीमेंट बढ़ाने के लिए जमकर काम करने में लगा हुआ है। सीईओ की पॉलिसी ऐसी हैं कि शेयरहोल्डर्स (आम जनता, किसान), उसमें पैसा लगाने वाले इंडस्ट्रियलिस्ट और FII (NRI) सब खुश हैं। हर किसी को यहां अच्छा मुनाफा दिख रहा है। ऐसा नहीं है वाइब्रैंट गुजरात लिमिटेड में इसके पहले के सीईओज ने बहुत कुछ न किया हो। लेकिन, नया सीईओ (मुख्यमंत्री) तुरंत फैसले लेता है। यूनियन (केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, कांशीराम रांणा, भाजपा संगठन, विहिप) पर रोक लगा दी गई है। हर कंपनी की तरह वाइब्रैंट गुजरात में भी ऊपर के अधिकारियों की सैलरी तेजी से बढ़ी है। लेकिन, खुद को साबित करके आगे बढ़ने का मौका सबके पास है। लेकिन, कंपनी के सीईओ नरेंद्र मोदी से पंगा लेकर यूनियन (केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, कांशीराम रांणा, भाजपा संगठन, विहिप) के लोगों से हाथ मिलाने की कोशिश की तो, फिर मुनाफा तो छोड़िए मूल पूंजी भी जा सकती है। नरेंद्र मोदी के कंपनी हित में लिए गए कड़े फैसलों (तानाशाही) से उसमें पैसा लगाने वाले खुश हैं। क्योंकि, इस कंपनी (गुजरात राज्य) से जुड़े किसी काम के लिए सबको खुश नहीं करना पड़ता। सीईओ या फिर उनके पसंदीदा बोर्ड मेंबर्स (विधायक) और सीईओ के प्रशासनिक अधिकारियों (IAS अफसरों) के जरिए बिना किसी रोक-टोक के हो सकता है। FII’s (NRI) तो नरेंद्र मोदी को ही दुबारा सीईओ और चेयरमैन देखना चाहते हैंकांग्रेस (पहले के सीईओ) के गुजरात को मोदी (नए सीईओ) ने वाइब्रैंट गुजरात बना दिया है। नए सीईओ के परिवार के कुछ बुजुर्ग भी (भाजपा, संघ, विहिप के नेता) कह रहे हैं कि जब से इस बच्चे को कमान सौंपी गई ये फैसलों में किसी की सुनता ही नही। लेकिन, अब शेयर होल्डर्स (जनता) इनकी सुनते नहीं दिख रहे। अब यही फॉर्मूला नरेंद्र मोदी देश पर लागू करने की कोशिश में लगे हैं। काफी हद तक सफल भी हैं। इस बात का अंदाजा परिवार के बुजुर्गों (भाजपा, संघ, विहिप के नेता) को लग गया इसीलिए वो परिवार के सबसे तेज बच्चे पर दांव लगाने के लिए पूरी तरह तैयार हो गए। उन्हें पता है कि परिवार का नाम तो बढ़ेगा इसी के जरिए भले हमारी इसके बाद कम सुनी जाए लेकिन, परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ने वाली है।

अब नरेंद्र मोदी इंडिया फर्स्ट की बात करने लगे हैं। नरेंद्र ने परिवार की जमी जमाई जमीन (शाखा) से आगे बढ़कर तकनीक को पकड़ा। सोशल मीडिया के जरिए हैलो हाय करने और अपनी ऊटपटांग तस्वीरे, वीडिया साझा करने वाले उन नौजवानों को पकड़ा जिनके लिए राजनीति मतलब चवन्नी छाप बात थी। उन नौजवानों के दिमाग में ये फिट कर दिया कि ये जौ मौज की जिंदगी है ये चलने वाली नहीं अगर नरेंद्र मोदी नहीं आया। क्योंकि, नरेंद्र मोदी आएगा तो इंडिया फर्स्ट कंपनी का मुनाफा तेजी से बढ़ेगा तुम नौजवानों के हाथ में ढेर सारी नौकरियां, जेब में जमकर पैसे और जिंदगी में हर सुविधा होगी। ये नौजवान भारतीय लोकतंत्र के सोते-जागते वाले पहरेदार थे। मोदी ने इन्हें जगा दिया है। ऐसा जगाया कि अब ये हैलो हाय, तस्वीरें, वीडियो अपलोड करने से पहले नमो-नमो जपने लगे हैं। नमो मंत्र को किसी ने अशुद्ध किया तो, उसका क्रियाकर्म करने को तैयार हो जाते हैं। पुराने बीजेपी के नेता गुजरात बीजेपी के नेताओं की तरह यूनियन यहां भी बना रहे हैं। बीजेपी के ‘शत्रु’ नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुखर हो गए हैं। स्थापित हो चुके दुश्मनों से हाथ मिला रहे हैं। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने आजमाया फॉर्मूला ऐसा पका लिया है कि नीचे से आवाज आई तो, ये क्या कर लेंगे।

बस मोदी की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि पुराने दमदार बीजेपी के सीईओ से ज्यादा बोर्ड डायरेक्टर्स वो कैसे चुनवा पाते हैं। खराश वाले गले से बीजेपी के पुराने सीईओ अभी भी बीजेपी के 2 से 184 वाली कहानी दोहराते रहते हैं। अब मोदी कैसे 543 वाली संसद में कम से कम 200 से ज्यादा सदस्य चुनवा पाते हैं ये सबसे बड़ी बात होगी। क्योंकि, पुराने सीईओ अब परिवार के समर्थन और परिवार के बाहर मोदी के डर से बने पक्के समर्थन के भरोसे बैठे हैं। एक मुश्किल और है वाइब्रेंट गुजरात में कब्जे के लिए जो 51 प्रतिशत हिस्सेदारी चाहिए थी उससे छिटपुट शेयरधारक नहीं थे। इंडिया फर्स्ट में कांग्रेस बीजेपी दो बड़े शेयरधारक हैं लेकिन, छोटे-छोटे शेयरधारक मिल जाएं तो इन दोनों के बड़े शेयरधारकों से भी बड़े होने का खतरा है। इसीलिए नरेंद्र मोदी वही स्मार्टफोनपर गेम खेलने वाले नौजवानों को जगा रहे हैं जो, वोट करने के अधिकारी हैं करते नहीं हैं। उन्हें समझा रहे हैं कि पूरी ताकत दोगे तभी हम सीईओ बन पाएंगे और वाइब्रेंट गुजरात की तरह इंडिया फर्स्ट नरेंद्र मोदी प्राइवेट लिमिटेड का मुनाफा जमकर बढ़ाएंगे। जो इंडिया फर्स्ट में अपने मुनाफे देख रहे हैं वो नरेंद्र मोदी के कट्टर समर्थक हैं। जो इंडिया फर्स्ट में अपने अधिकारों को एकदम समाप्त होता देख रहे हैं वो मोदी के घोर विरोधी हैं। दोनों के हित पूरी तरह बनने या बिगड़ने की बात है इसीलिए वो पूरी तरह से मोदी समर्थक या विरोधी हैं। और, यही नरेंद्र मोदी का चरित्र है, ताकत है।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...