मेरे एक मित्र अभी हाल ही में बैंकॉक से लौटे। लौटने के बाद उनसे बात हुई तो बड़े ही निराश स्वर में वो बोले अरे यार अपनी असल औकात जाननी हो तो एक बार विदेश होकर आओ। बैंकॉक वैसे तो पर्यटन की वजह से भारतीयों और दुनिया के लोगों को पसंद आता है। लेकिन, एक दूसरी वजह ये भी कि इलेक्ट्रॉनिक सामानों का अच्छा बाजार भी यहां है। जहां भारतीय आधुनिक तकनीक वाले इलेक्ट्रॉनिक भारत से कम कीमतों पर खरीदकर वापस आते थे। लेकिन, अब हालात बदल चुके हैं। भारतीय रुपये की गिरती कीमत ने भारतीयों की औकात दुनिया के हर कोने में घटा दी है। फिर क्या लंदन, अमेरिका जैसे दुनिया के बड़े चमकते शहर और क्या पर्यटन के ही बूते दुनिया के नक्शे पर जाना जाने वाला बैंकॉक। रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले गिरी ये तो रोज रोज अखबार टीवी की सुर्खियां बनने से सब जान गए हैं लेकिन, थाईलैंड की करेंसी थाई बात के मुकाबले भी हमारा रुपया रोने लगा है ये शायद हममें से कम ही भारतीयों को पता होगा। एक अमेरिकी डॉलर देकर हमारा रुपया 65 से ज्यादा मिल रहा है लेकिन, अगर हम वही रुपया देकर थाईलैंड के बैंकॉक में कुछ खरीदना चाहें या अपनी छुट्टियों को और यादगार बनाने की कोशिश करें तो आधी से कुछ ज्यादा ही कीमत मिल पाएगी। एक रुपया थाई बात में 67 पैसे के बराबर ही होता है। जबकि, वहीं अगर कोई ऑस्ट्रेलियाई आया होगा तो एक ऑस्ट्रेलियाई डॉलर देकर उसे 28 से ज्यादा थाई बात मिल जाएंगे। जबकि, लंदन से एक पाउंड लेकर आए पर्यटक को करीब 49 थाई बात मिल जाएंगे। ये तो थी बैंकॉक में भारतीयों की छुट्टी चौपट होने की कहानी। जिसकी वजह बनी है रुपये की कमजोरी। अगर सिर्फ थाईलैंड में मौज मस्ती या दुनिया के आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स की खरीदारी भर का मसला होता तो ये रुपया रोता रहे हमें क्या करना। लेकिन, इस रुपये की कमजोरी अब देश की कमजोरी बनती जा रही है।
रुपया रसातल में जा
रहा है। रिजर्व बैंक और सरकार के ढेर सारे डॉलर को लाने-कमजोर करने और रुपये को
मजबूत करने के उपाय के बावजूद रुपया रसातल में जा रहा है। मतलब सरकार के फैसले
रुपये को मजबूत नहीं कर पा रहे हैं। मतलब 64 से नीचे गिरा रुपया और भी खतरनाक स्तर
तक गिर सकता है। यही वजह है कि डॉएश बैंक की ताजा रिपोर्ट कह रही है कि रुपया डॉलर
के मुकाबले 70 तक गिर सकता है। यानी उतना जितना न हमारे वित्त मंत्री की उम्र है
और न हमारे लोकतंत्र की। हां, साल के अंत तक इसमें कुछ सुधार के संकेत हो सकते
हैं। और, इसकी सबसे बड़ी वजह भयानक निराशा है। उस निराशा की कुछ सीधी वजहें जो
मुझे दिखती हैं। सबसे पहली ये कि सरकार हो या फिर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया दोनों के
फैसले एक समय के बाद खुद के ही मजबूत विरोध की वजह देते हैं। उदाहरण के लिए सरकार
की बात करें तो 2 बजट पहले ही वित्त मंत्री के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने इस बात के
संकेत दिए थे कि अब धीरे-धीरे सरकार सब्सिडी खत्म करेगी और बाजार के हवाले
पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तय करने का अधिकार देगी। हालांकि, बाजार के हवाले दाम
तय करने का जो अधिकार था वो मिलना था सरकारी तेल कंपनियों को ही और वो बड़ी तेजी
से मिल भी रहा है। उसी के साथ ये संकेत आए कि 2009 में यूपीए दो बनवाने में अहम
भूमिका निभाने वाली मनरेगा योजना पर भी खर्च घटाया जाएगा। लगा कि सरकार खजाने को
दुरुस्त करके दुनिया की रेटिंग एजेंसियों को ये दिखाना चाहती है कि भारत सुधारों
की दिशा में आगे बढ़ रहा है। सुधारों का अपना चेहरा और चमकाने के लिए यूपीए 2 में
दोबारा वित्त मंत्री बने पी चिदंबरम ने एक के बाद एक धड़ाधड़ ऐसे एलान किए कि बस
अब देश में डॉलरों की बाढ़ सी आ जाएगी। फिर वो एफडीआई के जरिए रिटेल में हो,
एविएशन और दूसरे क्षेत्रों में हो या फिर एफआईआई के जरिए भारत के शेयर बाजार में
हो। लेकिन, हुआ इसका उल्टा। डॉलर को लपकने में लगी सरकार को विपक्ष ने ऐसी लंगड़ी
मारी कि लगा पूरा देश ही रिटेल में एफडीआई का विरोधी हो गया। फैसला लिया गया,
लौटाया गया, फिर और दम लगाकर लिया गया। पर नतीजा शून्य रहा। अब तक एक भी
मल्टीब्रांड रिटेल स्टोर देश में खुल नहीं पाया है जिसे दिखाकर वो अपनी डॉलर के
आने की बात मजबूती से समझा पाते।
दूसरे सुधार की बात
कर लें। दूसरा सुधार ये कि सरकार का सब्सिडी का बोझ कम करना है। क्योंकि, सरकारी
खजाने का घाटा बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंच रहा था। फिर चाहे वो वित्तीय घाटा हो या
चालू खाते का घाटा। वित्तीय घाटा यानी देश की कुल संपत्ति और कर्ज का संतुलन और
चालू खाते का घाटा यानी हर रोज के खर्च के लिए मलतब इंपोर्ट-एक्सपोर्ट के लिए डॉलर
रुपये का संतुल। दोनों संतुलन बिगड़ गए थे। 70 प्रतिशत से ज्यादा पेट्रोलियम
प्रोडक्ट आयात करने वाली सरकार के लिए सबसे आसान था पेट्रोलियम प्रोडक्ट की
सब्सिडी को खत्म करना। ये कहकर-समझकर कि पेट्रोल से कुल महंगाई पर कम असर पड़ता है
सरकार ने 25 जून 2010 को पेट्रोल की कीमतों को बाजार के हवाले कर दिया। हालांकि,
उसके बाद भी सरकार इस नीति को राजनीतिक लाभ हानि के लिए तोड़ती मरोड़ती रही।
बिहार, बंगाल सहित 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के समय तेल कंपनियों से बिना कहे
पेट्रोल के दाम तय करने का अधिकार ले लिया गया। भले ही उस घाटे का असर तेल
कंपनियों और उससे सरकार खजाने पर चाहे जैसे पड़ा हो। वही हाल अभी भी है। कच्चा तेल
108 डॉलर प्रति बैरल है। 64 रुपये से ज्यादा देने पर भी 1 डॉलर मिल रहा है। तेल
कंपनियों का पेट्रोल पर घाटा बढ़ रहा है लेकिन, 15 अगस्त की समीक्षा बैठक में तेल
के दाम तय करने का अधिकार पाई तेल कंपनियों को पेट्रोल का घाटा नहीं दिखा। वजह
संसद का सत्र चल रहा है। अब इंतजार है संसद सत्र खत्म होने का। सत्र खत्म होते ही
पेट्रोल 2 रुपये लीटर तक महंगा होना तय है। यानी सरकार को डर है भी थोड़ा बहुत तो
संसद में हंगामे का। आम आदमी के हितों का दावा करने वाली सरकार को सड़क पर होने
वाले हंगामे और आम आदमी की जिंदगी में मचे हंगामे की फिक्र कहां है।
अब तीसरे सुधार की
बात कर लें। तीसरा सुधार यानी किसी भी तरह भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेश
यानी एफआईआई डॉलर लगाएं। सेंसेक्स अभी 18000 के आसपास ही घूम रहा है। 2008 की मंदी
में 21000 जाने के बाद सेंसेक्स लुढ़का तो नवंबर की दीवाली वाली मुहूर्त ट्रेडिंग
को ही सेंसेक्स 21000 का आंकड़ा पार कर पाया था। उसके बाद से ये तीसरी दीवाली आने
वाली है लेकिन, सेंसेक्स 18000 से ऊपर टिक नहीं पा रहा है। अब ऐसे बाजार में भला
कौन सा विदेशी निवेशक डॉलर लगाएगा। हां, इतना जरूर है कि रुपये की गिरावट से वो
अपना मुनाफा कमाकर उसे लेकर भागने में ही भलाई समझ रहे हैं।
(ये लेख मनी मंत्र पत्रिका में छपा है)
आपका लेख मेरे लिए बहुत मार्गदर्शक हैं |आभार |
ReplyDeleteडूब गये हम, बीच भँवर में,
ReplyDeleteकरके सोलह श्रंगार,
सजनवा बैरी हो गये हमार।