वेबसाइट पर सबसे ऊपर विद डिफ्रेंस का नारा |
बार-बार ये कहा जाता रहा और अब भी जिस तरह से
गडकरी ने जाते-जाते मुंबई एयरपोर्ट पर क्लीनचिट के बाद वापस लौटकर आने वाला बयान
दिया उससे लग यही रहा है कि संघ का पूर्ण आशीर्वाद अभी भी उन्हीं के साथ है।
लेकिन, इस बार के अध्यक्ष बनने के बीजेपी के पार्टी विद द् डिफ्रेंस वाले नारे को
ताकत दी है। अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के दौर तक भारतीय जनता पार्टी के पार्टी विद
द् डिफ्रेंस पर सवाल खड़े करने वाले भी कम ही थे। लेकिन, धीरे-धीरे कमजोर
अध्यक्षों के दौर और फिर संघ-बीजेपी की रोज की खींचातानी की खबरों ने पार्टी विद
द् डिफ्रेंस के नारे को कमजोर कर दिया था। बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के बावजूद कांग्रेस,
बीजेपी को बेहयाई से पलटकर ये जवाब देने लगी कि बीजेपी की सरकारें भी भ्रष्टाचार
में लिप्त हैं। एक लाख रुपए की बंगारू की बचकानी घूस वाली तस्वीर के बाद तो, ये
आरोप धारदार हो गए थे। जिसका इस्तेमाल बीजेपी विरोधी पार्टियों के साथ कोई भी
राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी पर हमले के लिए करने लगा था।
फिर जब राजनाथ सिंह के ही पिछले कार्यकाल के
बाद लालकृष्ण आडवाणी और उनकी D फोर मंडली के कॉकस से निकालने के लिए राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ एक राज्य स्तर के नेता नितिन गडकरी को राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए
लेकर आया तो, पार्टी विद द् डिफ्रेंस का एक और भ्रम टूटा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया
गांधी पर रिमोट से सरकार चलाने का जो, आरोप लगा था उसका भी तोड़ मिल गया। मजबूती
से ये जवाब आने लगा था कि अगर सोनिया गांधी बिना सरकार में हुए यूपीए की सुपर
प्राइम मिनिस्टर हैं तो, संघ भी तो, बीजेपी का सुपर प्रेसिडेंट है।
वंशवाद का आरोप भी कांग्रेस पर उतना धारदार
नहीं बैठ रहा था क्योंकि, राज्यों में बीजेपी नेताओं के पुत्र-पुत्रियां भी उसी
आधार पर आगे बढ़ने लगे थे। और, पार्टी विद द् डिफ्रेंस की छवि बीजेपी को संभालना
इससे भी मुश्किल हो रहा था कि वहां गांधी नाम के बिना सर्वोच्च तक नहीं पहुंचा जा
सकता तो, यहां नागपुर का आशीर्वाद इसके लिए परम आवश्यक शर्त है। ये सच है कि नितिन
गडकरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक मोहनराव भागवत के आशीर्वाद ने ही
11 अशोक रोड पर कुर्सी संभालने का मौका दिया। लेकिन, सच ये भी है कि लालकृष्ण आडवाणी
की बढ़ती उम्र से आने वाली विसंगतियों के बावजूद उनके नजदीकी बीजेपी नेताओं से ही
बीजेपी की पहचान बनना भी बीजेपी के हित में नहीं था। इसीलिए मोहन भागवत को किसी
ऐसे व्यक्ति की तलाश हुई जो, संघ के व्यक्ति निर्माण के एजेंडे को बीजेपी में
सलीके से लागू कर सके और पुराने निर्मित व्यक्ति उसको अपने पैमाने पर कसकर तोड़ न
सकें।
काफी हद तक ये काम नितिन गडकरी ने किया भी।
लेकिन, गडकरी की मुश्किल ये थी कि गडकरी जमीनी नेता कभी रहे नहीं। महाराष्ट्र में
भी वो, विधान परिषद के जरिए ही सत्ता सुख ले पाते थे। और, सबसे बड़ी बात ये कि देश
में क्या नब्ज चल रही है इसको भांपने का कोई यंत्र वो तैयार ही नहीं कर सके। तैयार
कर सके तो, सिर्फ अपनी कारोबारी बुद्धि से सर्वे के जरिए देश को जानने का
फॉर्मूला। देश सर्वे/पोल से जाना जा सकता तो, देश के नेता कोई और ही होते तो, गडकरी कैसे सफल
होते। नहीं सफल हुए। दुखद ये कि शुद्ध संघ आशीर्वाद से राष्ट्रीय नेतृत्व का मौका
पाने वाले गडकरी ने स्वयंसेवक के पैमाने पर बीजेपी की राजनीति को कसने के बजाय
अवसरवादी पैमाने पर कसा। वो, अवसरवादी पैमाना ये कि कैसे भी करके यूपी में ढेर
सारी सीटें लाओ। अवसरवादी पैमाना था तो, पार्टी विद द् डिफ्रेंस बीजेपी कैसे उस पर
सफल हो पाती। असफल हो गई।
पार्टी विद द् डिफ्रेंस बीजेपी एक और वजह से
थी। वो, वजह ये थी कि बिना संसाधन के वो, पार्टी चलाते थे। संघ, बीजेपी व्यक्ति,
चरित्र निर्माण करते थे। संसाधन अपने आप जुट जाते थे। नितिन गडकरी नई परिभाषा लेकर
आए। वो, उसी तरह पार्टी चलाना चाहते थे। जैसे, कांग्रेस चलती है। यानी सत्ता मिली
रहे तो, संसाधन मिले रहते हैं और पार्टी भी मजबूत होती रहती है। कांग्रेस का
फॉर्मूला है ये काम भी करता है कि पार्टी जमीन पर भले कमजोर रहे। सत्ता, संसाधन से
मजबूत हो ही जाती है। गलती से पार्टी विद द् डिफ्रेंस बीजेपी भी कांग्रेसी
फॉर्मूले को आजमाने लगी। यहां भी गडकरी गड़बड़ा गए।
अब राजनाथ सिंह का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना
चाहे जिन परिस्थितियों में हुआ हो लेकिन, इससे पार्टी विद द् डिफ्रेंस वाला बीजेपी
का टैग फिर से उसे वापस मिलता दिख रहा है। या कहें कि पार्टी इसे फिर से पूरी ताकत
से इस्तेमाल कर सकती है। गडकरी से नाराजगी दिखाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा का बयान
आया कि अगर गडकरी पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर देते तो, पार्टी की छीछालेदर होने
से बच जाती। लेकिन, मुझे लगता है कि ये अच्छा हुआ। बेहद नाराज यशवंत सिन्हा का
बयान इस मामले में काफी अहम है। जब उनसे पूछा गया कि क्या वो, गडकरी से अभी भी
नाराज हैं तो, उन्होंने कहाकि जो, हुआ उससे वो, बेहद खुश हैं। और, इस अध्यक्षी के
चुनाव ने बीजेपी की ताकत और कांग्रेस की कमजोरी जाहिर कर दी है। यशवंत सिन्हा ने
आगे बढ़कर कहाकि कांग्रेस चमचों की पार्टी है। और, वो खुली चुनौती दे रहे हैं कि
अगर कोई कांग्रेस में सोनिया गांधी या राहुल गांधी के किसी फैसले के खिलाफ बोल
पाए। यही बीजेपी की असल ताकत है। संघ और बीजेपी एक दूसरे के पूरक हैं। कई गैर
स्वयंसेवक भी अब बीजेपी के बड़े नेता हैं और बनेंगे क्योंकि, वो संघ-बीजेपी जैसा
ही सोचते करते हैं। इसका संतुलन भी काफी बेहतर हो रहा है ये भी इस अध्यक्षी के
चुनाव में दिखा। अब इसी पार्टी विद द् डिफ्रेंस के वापस मिले टैग को बीजेपी अपने
पक्ष में इस्तेमाल कर सके तो, 2014 उसके अनुकूल हो सकता है। और, इस टैग को बरकरार
रखने का सबसे बड़ा जिम्मा सहमति के अध्यक्ष बने राजनाथ सिंह पर है।
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)
भारत का दुर्भाग्य यह है कि यहां विपक्ष भी उतना ही नाकारा है जितना प्रतिपक्ष. कुंए या खाई में से एक ही चुनना है.
ReplyDelete