Wednesday, October 31, 2012

निजी कंपनियों को रियायत के रास्ते में रोड़ा थे रेड्डी

कहते हैं बदलाव हमेशा अच्छे के लिए होता है। शायद यही सोचकर यूपीए सरकार के अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कैबिनेट में कई बड़े बदलाव कर डाले। लेकिन, इस बदलाव के बाद अच्छे की कौन कहे। सरकार के खिलाफ माहौल और खराब हो गया है और इस माहौल को खराब करने में सबसे बड़ी वजह बन रहा है पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी से बाहर जाना। पेट्रोलियम मंत्रालय छिनने से रेड्डी खुद खफा हैं ये उन्होंने साबित भी कर दिया। रेड्डी वीरप्पा मोइली को मंत्रालय सौंपने नहीं आए। अरविंद केजरीवाल के ट्वीट और मीडिया में रेड्डी की रिलायंस इंडस्ट्रीज को रियायत के रास्ते में रुकावट की खबर ने सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही सरकार के लिए ये एक और बड़ी मुश्किल हो गई है कि आरोप साफ लग रहे हैं कि रेड्डी की विदाई सिर्फ इस वजह से हुई है क्योंकि, रेड्डी रिलायंस को उसकी मनचाही शर्तें सरकार पर लादने की छूट नहीं दे रहे थे।

पेट्रोलियम मंत्रालय से जब मुरली देवड़ा की विदाई हुई और जयपाल रेड्डी ने पेट्रोलियम मंत्रालय का जिम्मा संभाला तो, एक संदेश साफ गया कि अब रिलायंस इंडस्ट्रीज को शर्तों के मुताबिक ही काम करना होगा। दरअसल तेल महकमे के गलियारों में ये चर्चा आम रही है कि जनवरी 2006 से जनवरी 2011 के दौरान जब मुरली देवड़ा ये महकमा संभाल रहे थे तो,रिलायंस इंडस्ट्रीज के लिए मनचाही नीतियां तैयार करवाने जैसा माहौल था। हालांकि,मुरली देवड़ा इस बात को सिरे से नकारने की कोशिश करते रहे। जब सीएजी की ड्राफ्ट रिपोर्ट मीडिया में लीक हो गई थी जिसमें रिलायंस को दिए गए तेल-गैस खोज के केजी डी 6 ठेके में अनियमितता की खबरें आईं थी। तो, देवड़ा ने ये कोशिश की थी कि मीडिया में ये खबरें रेड्डी के मुंह से आएं कि मुरली देवड़ा ने ही पेट्रोलियम मंत्री रहते 2007में सीएजी को रिलायंस केजी डी 6 बेसिन की ऑडिट रिपोर्ट तैयार करने को कहा था। रेड्डी ने ये बात नहीं मानी और रेड्डी ने कुछ ऐसे फैसले लिए जिसे रिलायंस के करोबारी हितों के सख्त खिलाफ देखा जा रहा है।

जयपाल रेड्डी ने रिलायंस के ऊपर शर्तों को पूरा नहीं करने और उत्पादन घटने के एवज में सात हजार करोड़ रुपए की जुर्माना लगा दिया। इतना ही नहीं जब रिलायंस ने दुनिया की बड़ी तेल कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम के साथ 7.2बिलियन डॉलर का सौदा किया तो, जयपाल रेड्डी ने पेट्रोलियम मंत्रालय से इसे मंजूरी देने के बजाए इसे सौदे को कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दिया। जबकि, रिलायंस बीपी को केजी डी 6 में हिस्सा बेचकर अपने विस्तार के लिए रकम की जरूरत को पूरा करना चाह रहा था। रेड्डी इतने पर ही नहीं माने उन्होंने रिलायंस केजी डी 6 बेसिन के दूसरे ऑडिट के लिए सीएजी को इजाजत दे दी। जबकि, रिलायंस नहीं चाहता था कि उसके बजट को पहले मंजूरी दे दी जाए। लेकिन, पेट्रोलियम मंत्रालय ने निवेश को मंजूरी नहीं दी। रेड्डी ने 2014 के पहले रिलायंस की गैस कीमत बढ़ाने की मांग को भी नामंजूर कर दिया।

जयपाल रेड्डी के ये फैसले सीधे तौर पर रिलायंस के खिलाफ गए लेकिन, आमतौर पर ये धारणा बनी कि काफी समय के बाद पेट्रोलियम मंत्रालय में कॉर्पोरेट लॉबी कमजोर हुई है और नियमों से काम हो रहा है। क्योंकि, रेड्डी ने देवड़ा के समय के कई अधिकारियों को,खासकर रिलायंस के नजदीकी माने जाने वाले अधिकारियों को कम महत्वपूर्ण जगहों या दूसरा जगहों पर भेज दिया था। माना ये भी जाता है कि जयपाल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री के तौर पर सरकारी आर्थिक सुधार- जिसका सीधा मतलब इस सरकार में सब तय करने की इजाजत निजी हाथों में देना है- की रफ्तार भी तेज होने में रुकावट थे। बहुत समय से तेल कंपनियों के दबाव के बावजूद जयपाल रेड्डी डीजल के दाम पांच रुपए बढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। जबकि, वित्त मंत्री पी चिदंबरम और खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आर्थिक सुधारों की रफ्तार में किसी तरह की रुकावट नहीं चाह रहे थे। अब जयपाल रेड्डी की विदाई सरकारी फैसले से इतर राजनीतिक मसला भी बन गई है।

भारतीय जनता पार्टी ने रिलायंस के दबाव की जांच की मांग कर दी है। अरविंद केजरीवाल साफ कह रहे है कि जयपाल रेड्डी को रिलायंस के हितों में बाधा बनने की सजा मिली है। और, ये सब ऐसे समय हो रहा है जब सरकार पहले से ही ढेर सारे भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था मे करीब दो प्रतिशत की हिस्सेदारी रिलायंस इंडस्ट्रीज की है। और, रिलायंस येन केन प्रकारेण अपने इस साम्राज्य को और बढ़ाना चाहेगा ये स्वाभाविक है। ये भी सच है कि कारोबार करने में मुनाफा बढ़ाने-बनाने की चाह में कंपनियां गलत तरीके भी अपना सकती हैं। अपने मनमुताबिक काम कराने के लिए लॉबी भी बनाती हैं। अपने मनचाहे अधिकारियों को उन जगहों पर तैनात कराती हैं। ये कारोबारियों के लिए कभी-कभी शायद बेहद जरूरी भी होता होगा। लेकिन, सत्ता-सरकार किसी भी कीमत पर आम जनता के हितों की रक्षा के लिए होती है। नीतियां ऐसी होनी चाहिए जिससे कारोबारी सरकारी खजाने को चोट न पहुंचा सके।

आम लोगों के, समाज के हक को न खा जाए। लेकिन, यूपीए-2 में आर्थिक सुधारों के नायक मनमोहन सिंह के इस बदलाव में जो, सबसे दुखद बात है वो, यही कि जिस तरह से ईमानदार छवि वाले जयपाल रेड्डी को हटाया गया वो, गले नहीं उतर रहा। भले ही वीरप्पा मोइली पूरी ईमानदारी से पेट्रोलियम मंत्रालय संभाले लेकिन, एक संदेश ये गलत चला गया कि सरकार रिलायंस के दबाव में है। और, ये सरकार कॉर्पोरेट दबाव के आगे टिक नहीं पाती। या यूं कहें कि सरकार समय आर्थिक सुधारों में रुकावट बनने वाले किसी को भी पसंद नहीं कर पाएगी। फिर चाहे वो कोई भी हो। और, सरकार की सुधारों की परिभाषा सब कुछ निजी हाथों में या कहें कि बाजार के हाथों में तय करने की ताकत देना है। इसलिए यूपीए-2 का ये बदलाव अच्छे के बजाय बुरे के संकेत ज्यादा देता दिख रहा है।

Tuesday, October 30, 2012

चरित्र निर्माण की शाखा नए सिरे से लगानी होगी


ये बात हमेशा सच साबित होती है कि और एक बार फिर तथ्यों के साथ साबित हो रही है कि किसी भी घटना का बीज कभी न कभी पड़ता है तभी आगे जाकर वो बड़ा पौधा बन जाता है। पार्टी विद् डिफ्रेंस का दावा करती रही भारतीय जनता पार्टी आजकल अजीब स्थिति में है। सबसे ज्यादा ईमानदारी, चरित्र, शुचिता के दावे वाली इस पार्टी की मुश्किल ये हो रही है कि जब देश में लंबे अर्से के बाद आंदोलन का माहौल है और सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम ताकतवर हो रही है तो, इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे हैं। बड़ी मुश्किल की बात ये है कि ये राष्ट्रीय अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी को शुचिता, चरित्र, त्याग और ईमानदारी की शिक्षा देने वाले मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रिय होने की वजह से पद पर आसीन हुआ माना जाता है।

जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बागडोर संघ के पहले सरसंघचालक डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार की तरह दिखने वाले मोहनराव भागवत ने संभाली थी तो, लगा था कि पार्टी नई उर्जा से पुराने आदर्शों को फिर से लौटा पाएगी। पार्टी बुजुर्ग हो चुकी भारत मां की तीन धरोहर अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर की तिकड़ी के सहारे आगे बढ़ती नहीं दिख रही थी। अटल बिहारी बाजपेयी बीमार थे, मुरली मनोहर संगठन में अलग-थलग थे क्योंकि, आडवाणी बुजुर्गियत के बावजूद अपनी तैयार की हुई पौध के जरिए पार्टी चला रहे थे। उस समय पहली बार किसी सरसंघचालक ने बीजेपी से जुड़े मुद्दों पर मीडिया में उतने खुले तौर पर अपनी बात रखी थी। बीजेपी को हम निर्देश नहीं देते हैं ये कहने के बावजूद बार-बार मोहन भागवत पार्टी को ये बताते रहे कि बीजेपी अब बुजुर्ग हो चुके आडवाणी के भरोसे नहीं चलने वाली। जिन्ना पर बयान देकर आडवाणी संघ की अच्छी सूची से ऐसे ही बाहर हो चुके थे। ऐसे में उम्र और ऊर्जा का हवाला देकर उन्हें अभिभावक की भूमिका में लाकर संघ के निर्देशों के आधार पर काम करने वाले अध्यक्ष की तलाश संघ की महाराष्ट्र के रोड, फ्लाईओवरमैन टाइप कहे जाने वाले नितिन गडकरी पर जाकर खत्म हुई। शुरू में लगा संघ का काम पूरा हो गया है। गडकरी की एक कमी उनकी काया की थी तो, वो गडकरी ने ऑपरेशन के जरिए ठीक कराने की कोशिश भी कर ली जो, काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, कारोबारी गडकरी पार्टी को भी कारोबार की तरह चलाने लगे जिसके दुष्परिणाम अब साफ-साफ दिखने लगे हैं।

गडकरी के पहले भी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को रिश्वत लेते कैमरे पर देश ने देखा लेकिन, पार्टी के खिलाफ कोई माहौल नहीं बना। बंगारू लक्ष्मण की एक लाख रुपए की रिश्वत की रकम और बंगारू को पार्टी ने अध्यक्ष पद से हटाकर उसे काफी हद तक मुक्ति पा ली। और, बंगारू सिर्फ नागपुर के आशीर्वाद से अध्यक्ष पद पर नहीं थे। लेकिन, इस बार मामला जरा अलग है। नितिन गडकरी सिर्फ नागपुर के ही आशीर्वाद से अध्यक्ष हैं इसमें अब जरा सा भी बहस की गुंजाइश नहीं दिखती। और, इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि बीजेपी में उसके मूल संगठन संघ के आशीर्वाद के बिना किसी का खड़े, लड़े रह पाना संभव भी नहीं है और शायद होना भी नहीं चाहिए। अटल-आडवाणी की ताकत भी संघ ही था। और, ये ताकतवर आशीर्वाद बना रहे इसके लिए नितिन गडकरी ने हरसंभव कोशिश भी की। दिल्ली में पार्टी कार्यालय नए सिरे से संवर रहा है। आडवाणी की दिल्ली दरबार की मंडली को काफी हद तक किनारे कर दिया। जो, शायद जरूरी भी हो गया था। लेकिन, इस मंडली के मुख्य प्रभावी भूमिका से हटने के बाद जो, नई ऊर्जा, कार्यकर्ताओं को मुख्य प्रभावी भूमिका में आना था वो, भी नहीं आ पाए। नितिन गडकरी ने संघ के प्रचारक और मोदी विरोध की वजह से हाशिए पर पड़े अच्छे संगठनकर्ता संजय जोशी को मुख्य भूमिका में लाकर संघ को और खुश कर दिया। उत्तर प्रदेश में उमा भारती की वापसी और बड़ी-बड़ी बातों से ये माहौल पैदा कर दिया कि अब यूपी में संघ/बीजेपी कैडर वापस आ रहा है। उमा की वापसी तो, कराई लेकिन, उमा को अधिकार नहीं दिए। गडकरी खुश थे कि उत्तर प्रदेश के सारे बड़े नेता अपनी सीटों के चुनाव में फंस गए। और, हुआ भी यही इन सारे नेताओं ने येनकेन बस अपनी सीट जीतने तक ही अपने कर्तव्य की इतश्री समझ ली। और, नितिन गडकरी ने इन बातों के बीच यूपी में चुनाव जीतने की रणनीति ठेकेदारों जैसी बना ली। यूपी को कई हिस्सों में बांटा और छोटे-छोटे ठेके सीट जिताने का भरोसा लेकर बांट दिए। फिर क्या अपराधी, क्या भ्रष्टाचारी सब ठेका हासिल कर चुके थे। यहीं आकर समझ में आ गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नितिन गडकरी पर लगाया दांव सही नहीं है। उत्तर प्रदेश के नतीजों ने इस पर मुहर लगा दी। भारतीय जनता पार्टी को मतदाताओं ने लड़ाई में कहीं देखा ही नहीं। अलग होने का दावा तो, पहले से ही भोथरा हो चुका था। सीटों का अर्धशतक तक नहीं लग पाया।

यही उत्तर प्रदेश था जहां से पार्टी केंद्र की राजनीति साधने का भरोसा पा चुकी थी। यही उत्तर प्रदेश था जहां से अटल बिहारी बाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी केंद्रीय राजनीति में कद्दावर थे। इसी उत्तर प्रदेश से बीजेपी के उत्थान के बीज पड़े थे। और, इसी उत्तर प्रदेश की एक घटना याद करने पर मुझे आज की बीजेपी की समस्या की जड़ समझ में आ जाती है। मुझे कुछ लोगों ने नब्बे के दशक की ये घटना बताई थी। ये कितनी सच है पता नहीं लेकिन, इसके बहाने इस मूल समस्या की समझ भले आ जाती है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर प्रमोद महाजन आए हुए थे। प्रमोद महाजन उस समय भारतीय जनता पार्टी के तेजस्वी नेताओं में थे। जाहिर है ऐसे तेजस्वी नेता से जल्द से जल्द हर कोई संबंध बना लेना चाहेगा। बीजेपी की एक महिला पदाधिकारी ने प्रमोद महाजन से अपना परिचय दिया। उन्होंने पूछा आप क्या करती हैं। महिला पदाधिकारी ने कहा- पार्टी में इस दायित्व पर हूं। प्रमोद महाजन ने फिर से पूछा- वही जवाब। तो, उन्होंने पूछा राजनीति के अलावा क्या कारोबार करती हैं। उन्होंने कहा फुलटाइम पार्टी की सेवा करती हूं। तो, प्रमोद महाजन ने कहा- अगर खाने-कमाने का अलग से इंतजाम नहीं है तो, आप पार्टी से ही खाएंगी। उस समय प्रमोद महाजन का ये उद्बोधन असर कर गया था। लगता था कि इसीलिए ये नेता इतना ऊपर है। लेकिन, ये सच है कि प्रमोद महाजन जैसे नेताओं ने एक ऐसी पौध तैयार की जिसमें संसाधन के जरिए जनता को साधने की रणनीति तैयार की गई। और, संसाधन के जरिए जनता को साधने की ये रणनीति तो, बीजेपी को शाइन नहीं दे पाई है ये सबने देखा है।

प्रमोद महाजन दुनिया में नहीं हैं इसलिए उनकी आलोचना करने की कोई वजह नहीं है। लेकिन, प्रमोद महाजन जैसे नेता तभी तेजस्वी थे जब मुख्य भूमिका में घोर राजनीतिक तपस्या वाले स्वयंसेवक थे। अगर कारोबारी स्वयंसेवक सत्ता के केंद्र में आए तो, समाज सुधारने का संकट खड़ा हो जाएगा। बीजेपी में दरअसल ज्यादातर लोगों को करीने से सजे प्रमोद महाजन और उनकी फंड के जरिए पार्टी चलाने की कला इतनी पसंद आई कि वो, प्रमोद महाजन के दूसरे राजनीतिक संघर्षों, कार्यों को भूल गए। हर कोई प्रमोद महाजन बनने चला और प्रमोद महाजन नीचे से नीचे वाला संस्करण तैयार होता रहा। राजनीतिक प्रमोद महाजन तो, कोई तैयार ही नहीं हो पाया। और, अटल-आडवाणी-जोशी तो, भला कहां से तैयार हो पाते। जाहिर है ऐसे में पार्टी तो, बहुत पीछे छूट जाएगी।

आडवाणी जी बुजुर्ग हो गए हैं लेकिन, सत्ता मोह नहीं छूट रहा। आडवाणी जी खुद प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी डी 4 मंडली के आगे अच्छे कार्यकर्ताओं की जायज मांग, इच्छा को भी पीछे कर देते हैं। आडवाणी जी बहुत कुछ किए लेकिन, अब पार्टी का नुकसान कर रहे हैं। यही सब तो, वजह थी न जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नितिन गडकरी को राज्य से उठाकर राष्ट्रीय नेता बना दिया था। तो, आखिर जब पार्टी ही गलत राजनीतिक रास्ते पर चल पड़ी है तो, किसी ऐसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक को संघ क्यों नहीं बढ़ा पा रहा। जो, पार्टी ठीक कर सके। जरूरी ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नए सिरे से चरित्र निर्माण की शाखा लगाना शुरू करे। 2012-14 जैसे सालों की समयसीमा रखकर लक्ष्य न बनाए।

Tuesday, October 23, 2012

एक विचार

अटल-आडवाणी-जोशी दरअसल संघ के स्वयंसेवक पहले थे। बीजेपी नेता बाद में। शुरुआती विरोध के बाद सर्वस्वीकार्य हो गए। क्या संघ अपने किसी ऐसे स्वयंसेवक को प्रचारक के तौर पर बीजेपी में नहीं निकाल सकता जिसने दरअसल त्याग का जीवन जिया हो। बेदाग हो और कम से कम 2 पीढ़ियों से जिसका ठीक संवाद हो और आगे की एक पीढ़ी से तरीके से संवाद करने लायक हो। रकम से राजनीति होती है इसे ध्वस्त करने वाला हो। ये स्थापित कर सके कि राजनीति ठीक रही तो, रकम तो, आती ही रहती है।

Sunday, October 14, 2012

ये है किराया या घर की कीमत न घटने का गणित

18000 रुपए महीने की नौकरी है और 18000 रुपए का 3 बेडरूम फ्लैट लेकर रहता हूं। सवाल- अरे, कैसे? जवाब- सर, नोएडा में 3 दोस्त मिलकर रहते हैं। बैचलर हैं ना। कोई लाइबिलिटी नहीं है। ये एक हैं जो, रहेंगे और दिल्ली-एनसीआर में फ्लैट-घर का किराया बढ़ाते रहेंगे।


यही नहीं हैं। एक और हैं सैनी जी। सेक्टर 55 में जनरल स्टोर, पानी की दुकान चलाते हैं। बताते हैं कि वो, क्लास 1 राजपत्रित अधिकारी रहे हैं। तब सस्ते में दुकान खरीद ली थी। अब 50 लाख से कम की क्या होगी एक बेटा विदेश में बसने के आखिरी पायदान पर है, दूसरा यहीं नोएडा में कारोबार कर रहा है। घर बैठे बोर हो जाते हैं इसलिए दुकान पर आकर बैठ जाते हैं। एक कोठी 56 में, एक कोठी, वही सस्ते दाम वाली, सेक्टर 40 या 41 में है। और, फिर निवेश करना था तो, एक फ्लैट क्रॉसिंग रिपब्लिक में भी ले लिया। अब बताइए सैनी जी और 18000 रुपए महीने कमाने वाले ये बैचलर रहेंगे तो, कोई भी आफत आकर भला घरों को सस्ता कैसे कर पाएगी। और, ये हुआ तो, 60-70% मुनाफा बनाने वाले बिल्डर 6 महीने पुराने मुनाफे पर रोते हुए घर की कीमत बढ़ाए रहेंगे। अब बताओ कोई है सस्ता घर के इंतजार में।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...