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गांव में हमारे दरवाजे पर पीटी जा रही सरसों |
गांव खत्म होते जा रहे हैं। हैं भी तो, वो शहर होते जा रहे हैं। पहले गर्मी की छुट्टियों में हर बच्चा अपने गांव जाता था। और, करीब 2 महीने की शानदार छुट्टियां मनाने में पूरा गांव समझ लेता था। गांव के साथ गांव की बातें भी समझ लेता था। खेत भी समझ लेता था। खेती भी समझ लेता था। गाय-भैंस गोबर भी समझ लेता था। लेकिन, अब के बच्चों की न तो उस तरह से गर्मी की छुट्टियां होती हैं। न वो, गांव जाना चाहते हैं। न गांव समझना चाहते हैं। कईयों के तो, गांव ही नहीं रह गए। फिर ऐसे में शहरों के कॉन्वेन्ट स्कूलों में जब कोई संस्था सर्वे करती है तो, बच्चे दूध मदर डेयरी और अमूल की पैदाइश बताते हैं।
इस बार गांव गया तो, हमारी सरसों पीटी जा रही थी। लकड़ी के पटरा चार लकड़ियों पर लगा था। और, पूरी जमीन गोबर से अच्छे से लीप दी गई थी। और, दोनों तरफ से दो लड़कियां लगातार सरसों पीट रही थीं। इस प्रक्रिया में सरसों के दाने गोबर से लीपी जमीन पर गिर रहे थे। बाद में सरसों के खाली पेड़ किनारे करके सरसों के दाने बटोर लिए जाते हैं और इसी सरसों के दाने से सरसों का तेल तैयार। वैसे तो, ये बड़ी सामान्य घटना/ प्रक्रिया है। लेकिन, मैं यही सोच रहा था कि जब बच्चे गर्मी की छुट्टियों में गांव ही नहीं जाएंगे तो, गांव क्या समझेंगे।
नहीं ही समझेंगे। बहुत से तो यह भी न जानेंगे कि सरसों का तेल भी होता है। और यदि होता भी है तो वह बोतल से निकलता है।
ReplyDeleteगाँव वाले ही कौन सा पलकें बिछाए हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं? चाचा ताऊ के हवाले घर जमीन कर दी जाती है कि कभी कभार हम आएँ तो हमें घर में रहने देना। किन्तु क्या वे हमारा भी कोई हिस्सा मान हमारा कोई अधिकार समझते हैं? किस अधिकार से हम बच्चे ले वहाँ जाएँगे?
घुघूती बासूती
बच्चों को गांव दिखाने ले जाना चाहें भी तो वे वहां नही जाना चाहेंगे । हम तो गर्मी की छुट्टियों मेंताऊ जी के यहां जाते ते खेत, गौएं बैल तिल तिलों का तेल निकालने की घानी सब देखते थे और य़ाद भी है पर जब हम ही पुराने होगये हैं तो ये ची जें तो .......................।
ReplyDeleteन बच्चे गाँव जाना चाहते है और न ही समझना चाहते हैं.
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