बवाली के मेहरारू क तेरही भोज |
आखिरकार नंबरदार के घर से केहू नाहीं आए। जबकि, लागत रहा कि एकाध घर छोड़के एह बार सब बवाली के दुआरे खाए अइहैं। मैनेजर साहब से बाबूजी मिलेन त कहेन कि ई जरूरी है कि पूरा गांव एक साथे रहै। कउनौ मतलब थोड़ो न बा। अरे बाबूजी मतलब, नंबरदार का बेटवा। बाबूजी भोपाल नौकरी केहेन। जंगल विभाग म बाबू रहेन। इहीसे उनके घरे वाले सब बाबूजी कहै लागेन। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी लउट के अपने गांव के दूसरे लोगन की तरह इलाहाबाद म घर बनवाएन औ हुअंई रहई लागेन। सारी जिंदगी गांव से बाहर रहइ के वजह से बाबूजी क लागत रहा कि का फायदा ई एक दूसरे से झगड़ा करे से। एक के घर मं कुछ सुख-दुख परै औ आधा गांव मुंह फुलाए बइठा रहै। तबै बाबूजी मैनेजर साहब से कहेन वइसेओ गांव में कइउ जने के घरे में रोज ढंग क खाए क जुगाड़ त रहत नाहीं औ उही मं कुछ परे-परोजने खाबदान का झंझट। लेकिन, नंबरदार के घरे से केहू नाहीं आए। जमीन-दुआर क लइके बवाली के घरे से मुकदमा जउन चलत बा। वइसे अब न बवाली अहैं, न नंबरदार। औ इ तो, बवाली के मेहरारू के मरै के तेरही क नेउता रहा।
खैर, ई गांव है। प्रतापगढ़ का ठेठ पारंपरिक पंडितों का गांव। ठसका ई कि हम सोहगौरा त्रिपाठी से श्रेष्ठ कउनौ बाभन होबै नाहीं करतेन। इही से बिटिया के बियाहे से लैके, हर काम मं मेल क श्रेष्ठ बाभन हेरै मं जिउ निकर जाथ। लेकिन, बभनई क ठसका तो, बराबर बना बा। बल्कि, सही मं तो, बढ़तौ जात बा। इही से पूरा गांव कभौ एक नाहीं भ। हमेशा गांव मं दुई पार्टी रही। ई अलग बात है कि राजनीतिक पार्टियों की तरह गांव की पार्टी के नेता भी अदला-बदली का खेल खेलते रहते थे। लेकिन, बहुत दिन से गांव में चल रहा दो पार्टी का झंझट इस बार टूटने की उम्मीद कुछ दिख रही थी। मास्टर साहब के दुआरे प हमेशा की तरह पार्टी मजबूत करने का कार्यक्रम जारी था। पता चला कि जेई क मेहरारू कहिन चाहे जउ होई जाए। मास्टर और मैनेजर के साथे कभौ न जाब। औ जेई क मेहरारू ई सब करत रहिन अपने कक्कू के कहे से। वइसे जेई क मेहरारू कक्कू का पानी गांव के झगड़ा म कइउ दाईं मजे से उतार चुकी रहिन। लेकिन, खाबदान के मामले में कक्कू की काम भर की सुन ली जाती थी। काहेसे के कक्कू इंटर कॉलेज मं लेक्चरर रहेन औ थाना भरे क पत्रकार। एसे तीन घरे क ठेका औनहीं क लगे रहा। केसे खाबदान करैक बा। केसे खाबदान तौरै क बा, ई सबकुछ। वइसे अब कक्कू रिटायर होइ ग अहैं औ कक्कू क थाने वाली पत्रकारिता भी कमजोर हुई। या इ कहें कि कक्कू की थाने वाली पत्रकारिता इसलिए भी कमजोर हो गई कि अब गांव में कई वकील हो गए। जेई के मेहरारू बीजेपी क गांव का नेता होई गईन। लेकिन, एह बार कक्कू रहबौ नाहीं केहेन औ कक्कू क असर घटि ग रहा। तो, बस जेई औ उनके मेहरारू कक्कू के कहे पे बवाली के मेहरारू के तेरही मं नाहीं गए औ नंबरदार के घरे से तो जाहिर है कि जब मुकदमा चलत बा तो काहे केहू आई।
हां, तबौ बवाली के मेहरारू क आत्मा गजब ऊपर कहूं अगर होई तो, हंसत होई कि सारी जिंदगी तो, पूरा गांव उनके दुआरे जाए से बचत रहा औ खाबदान जोड़ै खातिर उनकै तेरहिन गांव भरे क मिली। नंबरदार क पूरा घर औ कक्कू के साथे जेई औ उनकै मेहरारू बस एनहीं क छोड़के पूरा गांव बवाली के मेहरारू क तेरही क भोज खाएस। हियां तक कि जेई क भाए-बाप औ दादा के घरे से सब तेरही खाएन। दरअसल, गांव भरेक बवाली के मेहरारू के तेरही से नीक मौका मिलबौ न करत। बवाली के दुई बिटिया अहैं। उहौ दुइनौ बिटिया सोहगौरा त्रिपाठी के इज्जत क धोती पहराइ देहे रहिन। इही से दुइनौ बिटिया क गांव मं केहू पसंद नाहीं करत रहा। बड़की बिटिया नर्स रही औ एक बस कंडक्टर से बियाह कइ लेहेस। नाम से साधु। लेकिन, बवाली के बिटिया के पहिले 2-3 बियाह केहे रहा। औ छोटकी क खुदै बवाली दुआह केहे रहेन। छोटकी के मंसेधू का नाम विष्णु। वइसे विष्णु क पहली मेहरारू मरि ग रही। औ बवाली क छोटकी बिटियी ननियउरे मं इतना बवाल मचाए रही कि जल्दी से बियाह करब जरूरी रहा औ विष्णु मिली गएन।
लेकिन, बवाली औ उनके मेहरारू क दुर्दशा देखा कि दुइनौ बिटिया जीतौ हैरान किहिन औ मरौ प दुइनौ बिटियन क मंसेधू नहिंयै आएन। हां, बवाली औ उनके मेहरारू क आत्मा क इतनै खुशी भ होई कि पूरा गांव, पड़ानन सहित उनके दुआरे आइके खाएस। पड़ानन श्रेष्ठ सोहगौरा त्रिपाठियों के गांव में पांडे जी लोगों का कुछ परिवार था। बवाली सारी जिंदगी भांग क गोला खाए के मस्त रहेन औ गांव मं बवाली केहूक याद आवत रहेन तो, सिर्फ भांग क गोला उनकै लाठी औ पलरी भ कचौरी खाए तक। या तो, फिर होली प फगुआ। होरी खेलैं रघुबीरा ...। लेकिन, उही बवाली के मेहरारू के मरे प गांव लगभग एक होइ ग। अब पूरा गांव एक हौइ जाई तो, भला गांव कइसे रहि जाई। औ एक इहू से होइ लेहेन कि भाई कउनौ सोहगौरा के दुआरे थोड़ो न सब सोहगौरा इकट्ठियानेन। इकट्ठियानेन भले बवाली सोहगौरा के दुआरे लेकिन, नेउता त खियावत रहिन बवाली क दुइनौ बिटिया। उहै दुइनौ बिटियन जउन अपने समय मं सोहगौरन क धोती समाज में फहराइ देहे रहिए। होइ ग आधा-अधूरा खाबदान होइ ग। पूरा खाबदान एह गांव मं शायदै होए। इहै गांव है आजकल। अब बतावा काहे केहू गांव म रहे। जब अपने घर-परिवार के दुआरे खाए म एतना झंझट वा तो।
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