बीजेपी नेता विनय कटियार के साथ मुस्कुराते बाबूसिंह कुशवाहा |
उत्तर प्रदेश में 2007 में 51 सीटें थीं। बीजेपी तीसरे नंबर की पार्टी थी। लेकिन, उस चुनाव की अच्छी बात ये थी कि करीब 70-80 सीटों पर एकदम नए प्रत्याशी पार्टी ने उतारे थे। ये वो, प्रत्याशी थे जो, परिषद के रास्ते भारतीय जनता युवा मोर्चा में काम कर रहे थे। इन प्रत्याशियों में कुछ ने अच्छे वोट पाए, कुछ कम अच्छे वोट हासिल कर पाए। लेकिन, इन प्रत्याशियों ने इस भरोसे कि अगली विधानसभा में उन्हें ही टिकट मिलेगा पांच सालों तक विधानसभा नहीं छोड़ी। और, खराब विधानसभा में भी पार्टी को इस स्थिति में ला दिया कि बूथ स्तर तक बीजेपी का कार्यकर्ता 90 के दशक की तरह नहीं तो, उसके आसपास दिखने लगा। ये वो नेता थे जो, परिक्रमा की राजनीति नहीं कर रहे थे। पूरी प्रदेश बीजेपी के कार्यकर्ता, नेता बिहार की तर्ज पर राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के सर्वे फॉर्मूले के हिट होने की उम्मीद में खुश थे। लेकिन, जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते गए नितिन गडकरी के कॉर्पोरेट स्टाइल के फैसले पार्टी पर भारी पड़ते दिखने लगे। कम उम्र गडकरी से उम्मीद लगाए बैठे बीजेपी के युवा नेताओं को सबसे ज्यादा निराशा हुई है। पहले से बीजेपी की बुनियाद मजबूत करने में लगे प्रदेश के संगठन मंत्री को चुनाव के ठीक पहले बिहार भेज दिया गया। उसकी भरपाई संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जीवनदान देकर करने की कोशिश की गई। लेकिन, गलतियों की शुरुआत हो चुकी थी। उमा भारती और संजय जोशी की अच्छी नेता और संगठनकर्ता की जोड़ी का इस्तेमाल ठीक से होने के बजाए उल्टा होने लगा। यूपी में बीजेपी- ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली- जिस बीमारी से ग्रसित थी वो, और संक्रामक हो गई।
इसी उठापटक में सारे दलों के ज्यादातर प्रत्याशियों की लगभग सूची आने के बाद भी बीजेपी की पहली सूची ही नहीं दिखी। बड़ी मुश्किल से पहली सूची जारी हुई। तब तक उमा भारती की नाराजगी इतनी बढ़ चुकी थी कि उन्होंने चुनाव लड़ने से ही मना कर दिया। उस पर उमा भारती के भारी विरोध के बावजूद बाबू सिंह कुशवाहा जैसे घोटालों के आरोपी विशुद्ध बसपाई के साथ बादशाह सिंह को पार्टी में लाने के फैसले ने आग में घी का काम किया। सीबीआई के छापे के बाद एक ही दिन में पहले मुख्तार अब्बास नकवी और फिर विनय कटियार को इस मामले पर सफाई देते नहीं बन पड़ रहा था। अब ये कहकर बचने की कोशिश थी कि कुशवाहा मायावती के विभीषण हैं। लेकिन, सवाल यही था कि अब उत्तर प्रदेश की जनता इस विभीषण को बीजेपी के किस राम के लिए यूपी की लंका सौंपने में मदद करे। नुकसान समझ में सबको आ गया था। उमा भारती के अलावा भी बीजेपी के सारे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली इस फैसले से बेहद नाराज थे। लेकिन, पिछड़े-अतिपिछड़े मतों के प्रतिक्रिया में विरोधी खेमे में जाने के डर से बाबू सिंह कुशवाहा अभी भी बने हुए हैं।
खैर, पार्टी को पीछे ले जाने वाले फैसले बढ़ ही रहे थे। गोरखपुर मंडल में तो, ठीक है कि बीजेपी के सांसद योगी आदित्यनाथ के कहने पर ही सारी सीटें बांटी गईं। ठीक है योगी का प्रभाव है वो, सीटें जिता सकते हैं। लेकिन, आजमगढ़ आते-आते तो, गजब हो गया- बीजेपी को लगा कि रमाकांत यादव के अलावा बीजेपी है ही नहीं। परिवार में ही बीजेपी रह गई। फिर भी ठीक है कि रमाकांत यादव बीजेपी की ही सांसद हैं। लेकिन, जौनपुर में क्या हुआ। बीजेपी की विधानसभा सीटें तय करने का जिम्मा पार्टी ने बीएसपी के सांसद धनंजय सिंह को सौंप दिया। माना जा रहा है कि धनंजय से बातचीत करने के लिए बीजेपी के नेता और नितिन गडकरी की हिट सर्वे टीम धनंजय से मिलती रही। ऐसे में कल्याण सिंह का ये आरोप दमदार लगने लगता है कि बीजेपी-बीएसपी में कुछ सांठगांठ है। आर्थिक सौदे के कल्याण सिंह के आरोप को अगर राजनीतिक ही मानें तो, भी। क्योंकि, बीएसपी से ठीक चुनाव के पहले निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा, बादशाह सिंह, दद्दन मिश्रा, अवधेश वर्मा और पिछले दरवाजे से धनंजय सिंह बीजेपी में हैं। कुछ टिकट भी पा चुके हैं। कुछ टिकट दिलवाकर ताकत दिखा रहे हैं।
ये राजनीतिक पार्टी है लेकिन, राजनीतिक समझ का अभाव साफ दिख रहा है। उत्तर प्रदेश और दूसरे चार राज्यों का विधानसभा चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक है कि ये बहुत बड़े आंदोलन के बाद का चुनाव है। भले ही इस आंदोलन में कोई राजनीति न होने का दावा किया गया हो लेकिन, सच्चाई यही है कि भ्रष्टाचार और अपराध के खिलाफ हुआ अन्ना हजारे का आंदोलन देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक भावना तैयार करने में कामयाब रहा है। और, लालकृष्ण आडवाणी ने राजनीति के संन्यास आश्रम वाली उम्र में भी इस बात को समझकर यात्रा निकाली जो, काफी हद तक अन्ना आंदोलन के अच्छे असर को बीजेपी के लिए लाने में कामयाब दिख रही थी। लेकिन, चुनाव में जिस तरह बीजेपी ने टिकट बंटवारा किया। भ्रष्टाचारियों-अपराधियों को टिकट बांटे। कहीं न कहीं उसका बुरा असर होता साफ दिख रहा है। गडकरी अपने गृह राज्य, देश और देश के सबसे बड़े राज्य में चुनौतियों में उलझ गए दिख रहे हैं।
फिर से 2007 में लौटें तो, उत्तर प्रदेश की जनता समाजवादी पार्टी के जंगलराज से त्रस्त थी। उस समय बीजेपी यही दावेदारी नहीं पेश कर पाई थी कि वो, समाजवादी पार्टी का विकल्प बन सकती है। परिणाम सबके सामने है। मायावती के साथ बीजेपी का वोटर चुपचाप ऐसे जुड़ गया कि मायावती देश में सोशल इंजीनियरिंग की उस्ताद बन गईं। फिर चुनाव है और चुनाव से ठीक पहले अगर संदेश ये जा रहा है कि बीजेपी-बीएसपी में सांठगांठ है या फिर बीएसपी से निकाल बाहर किए भ्रष्टाचारी-अपराधी बीजेपी में जगह पा रहे हैं तो, समझा जा सकता है कि परिणाम क्या आने वाला है। नितिन गडकरी का लक्ष्य 115-120 सीटों का है कहीं ऐसा न हो कि ये लक्ष्य सचिन की सौंवी सेंचुरी जैसा साबित हो जाए। और, सचिन को तो, हर मैच के कुछ दिन-महीने बाद मौका मिलता रहता है। यहां तो, मौका पांच साल बाद ही मिलेगा।
फिर से 2007 में लौटें तो, उत्तर प्रदेश की जनता समाजवादी पार्टी के जंगलराज से त्रस्त थी। उस समय बीजेपी यही दावेदारी नहीं पेश कर पाई थी कि वो, समाजवादी पार्टी का विकल्प बन सकती है। परिणाम सबके सामने है। मायावती के साथ बीजेपी का वोटर चुपचाप ऐसे जुड़ गया कि मायावती देश में सोशल इंजीनियरिंग की उस्ताद बन गईं। फिर चुनाव है और चुनाव से ठीक पहले अगर संदेश ये जा रहा है कि बीजेपी-बीएसपी में सांठगांठ है या फिर बीएसपी से निकाल बाहर किए भ्रष्टाचारी-अपराधी बीजेपी में जगह पा रहे हैं तो, समझा जा सकता है कि परिणाम क्या आने वाला है। नितिन गडकरी का लक्ष्य 115-120 सीटों का है कहीं ऐसा न हो कि ये लक्ष्य सचिन की सौंवी सेंचुरी जैसा साबित हो जाए। और, सचिन को तो, हर मैच के कुछ दिन-महीने बाद मौका मिलता रहता है। यहां तो, मौका पांच साल बाद ही मिलेगा।
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